सूतजी कहते हैं-ऋषियो! इस प्रकार उस लोकपूजित रथपर आरूढ़ होकर जब महादेवजी त्रिपुरपर आक्रमण करनेके लिये प्रस्थित हुए, उस समय प्रमथगण 'ठीक है, ठीक है' ऐसा कहते हुए उच्च स्वरसे सिंहनाद करने लगे। महान् वृषभ नन्दी भी शङ्करजीके सदृश स्वरमें गर्जना करने लगा। यूथ के यूथ विप्र जय-जयकार बोलने लगे तथा घोड़े होंसने लगे। इसी समय चन्द्रतुल्य कान्तिवाले सामर्थ्यशाली देवर्षि नारद युद्धस्थलसे उछलकर तुरंत त्रिपुर नामक नगरमें जा पहुँचे। दैत्योंके उस त्रिपुरमें निश्चितरूपसे उत्पात हो रहे थे। वहाँ तपस्वी भगवान् नारद सहसा प्रकट हो गये। श्वेत मेथकी-सी प्रभावाले नारदजीको आया हुआ देखकर सभी दानव एक साथ अभिवादन करते हुए उठ खड़े हुए। तत्पश्चात् उन ऐश्वर्यशाली दानवोंने पाद्य, अर्घ्य और मधुपर्कद्वारा नारदजीकी उसी प्रकार पूजा की, जैसे इन्द्र ब्रह्माकी अर्चना करते हैं। तब पूजनीय तपस्वी नारदजी उनकी पूजा स्वीकार कर स्वर्णनिर्मित श्रेष्ठ आसनपर सुखपूर्वक विराजमान हुए। इस प्रकार ब्रह्मपुत्र नारदके सुखपूर्वक बैठ जानेपर दानवराज मय भी सभी | दानवोंके साथ यथायोग्य आसनपर बैठ गया। इस तरह नारदजीको वहाँ सुखपूर्वक बैठे देखकर महासुर मयको बड़ी प्रसन्नता हुई। वह हर्षसे रोमाञ्चित हो उठा, उसके मुख एवं नेत्र प्रसन्नतासे खिल उठे, उसने नारदजीसे ये बातें कहीं ॥1-9 ॥मयने नारदजीसे कहा-'नारदजी आप तो (भूत भव्य और वर्तमानकी सारी बातोंके ज्ञाता हैं, अतः | आप यह बतलाइये कि हमारे पुरमें जैसा उत्पात हो रहा है, वैसा सम्भवतः अन्यत्र कहीं भी नहीं होता होगा। (ऐसा क्यों हो रहा है?) यहाँ भयदायक स्वप्न दीख पड़ते हैं। ध्वजाएँ अकस्मात् टूटकर गिर रही हैं। वायुका स्पर्श न होनेपर भी पताकाएँ पृथ्वीपर गिर रही हैं। | पताकाओं और फाटकों सहित अट्टालिकाएं नाचती सी (काँपती-सी) दीखती हैं। नगरमें मार डालो, मार डालो' ऐसे भयावने शब्द सुननेमें आ रहे हैं। (इतना होनेपर भी) नारदजी भक्तोंको अभय प्रदान करनेवाले स्थाणुस्वरूप वरदायक एकमात्र शङ्करजीको छोड़कर मुझे इन्द्रसहित समस्त देवताओंसे भी कुछ भय नहीं है। निष्पाप भगवन्! इन उपद्रवोंके विषयमें आपसे कुछ छिपा तो है नहीं; क्योंकि आप तो (पूर्वोक्त वर्तमानके अतिरिक्त) भूत और भविष्यके भी यथार्थ ज्ञाता हैं। मुनिश्रेष्ठ! ये उत्पात हमलोगोंके लिये भयके स्थान बन गये हैं, जिन्हें मैंने आपसे निवेदित कर दिया है। नारदजी! मैं आपके शरणागत हूँ, कृपया इसका कारण बतलाइये।' इस प्रकार मय दानवने अविनाशी नारदजीसे प्रार्थना की ।। 10- 16 ॥
(तब) नारदजी बोले -दानवराज! जिस कारण ये उत्पात हो रहे हैं, उन्हें यथार्थरूपसे बतला रहा हूँ सुनो! 'धृ' धातु धारण-पोषण और महत्त्वके अर्थमें प्रयुक्त होती है। इसी धातुसे धर्म शब्द निष्पन्न हुआ है, अतः महत्त्वपूर्वक धारण करनेसे यह शब्द धर्म कहलाता है। आचार्यगण इष्टकी प्राप्ति करानेवाले इसी धर्मका उपदेश करते हैं। इसके विपरीत अधर्म अनिष्ट फल देनेवाला है, अतः आचार्यगण उसे ग्रहण करनेका आदेश नहीं देते। वेदज्ञोंका कथन है कि मनुष्यको उन्मार्गसे सुमार्गपर आना चाहिये; क्योंकि जो सुमार्गसे उन्मार्गपर चलते हैं, उनका विनाश तो निश्चित ही है। तुम इन उन्मत्त दानवोंके साथ महान् अधर्मके रथपर आरूढ़ होकर देवताओंका अपकार करनेवालोंकी सहायता करते हो। इसलिये इन सभी उत्पातोंद्वारा सूचित | अपशकुन दानवोंके विनाशके सूचक हैं। मय! भगवान् रुद्र महालोकमय रथपर सवार होकर त्रिपुरका, तुम्हारा और | समस्त असुरोंका भी विनाश करनेके लिये आ रहे हैं।इसलिये मानद। (तुम्हारे लिये यही अच्छा होगा कि ) तुम महान् ओजस्वी एवं अविनाशी महेश्वरकी शरण ग्रहण कर लो, अन्यथा तुम पुत्रों और दानवोंके साथ यमलोकके पथिक बन जाओगे। इस प्रकार देवर्षि नारद दानवोंको उनके ऊपर आये हुए महान् भयकी सूचना देकर पुनः देवेश्वर शङ्करजीके पास लौट आये ॥17- 24 ॥
इधर नारद मुनिके चले जानेपर दानवराज मयदानवने (वहाँ उपस्थित) सभी दानवोंसे इस प्रकार शूरसम्मत वचन कहना आरम्भ किया— 'दानवो! तुमलोग शूर-वीर हो, पुत्रवान् हो और (जीवनमें सुखका उपभोग करके) कृतकृत्य हो चुके हो, अतः देवताओंके साथ डटकर युद्ध करो। इसमें तुमलोगोंको किसी प्रकारका भय नहीं मानना चाहिये। असुरो ! देवताओंको जीतकर हमलोग देवसभाके सभासद हो जायँगे, अर्थात् देवसभा अपने अधिकारमें आ जायगी। तब इन्द्रसहित देवताओंका वध करके हमलोग लोकोंका उपभोग करेंगे। तुमलोग युद्धकी साज-सज्जासे विभूषित हो कवच धारण कर लो और हथियार लेकर तैयार हो जाओ तथा हाथमें शस्त्र धारण कर अट्टालिकाओंपर चढ़ जाओ। दानवो! तुमलोग इन तीनों पुरोंपर यथास्थान (सजग होकर) बैठ जाओ; क्योंकि देवगण इन तीनों पुरोंपर आक्रमण करेंगे। शूरवीरो! यदि देवता आकाशमार्गसे धावा करें तो तुमलोग तो उन्हें पहचानते ही हो, तुरंत उन्हें प्रयत्नपूर्वक | रोक दो और बाणोंके प्रहारसे विदीर्ण कर दो।' इस प्रकार | दानवराज मय दनु-पुत्रोंसे सुरगणरूपी हाथियोंको रोकनेके लिये बातें बताकर सहसा उस त्रिपुर-पुरमें प्रविष्ट हुआ, जहाँकी स्त्रियोंका मन भयके कारण उद्विग्न हो उठा था। तदनन्तर वह चाँदीके समान निर्मल भावसे भावित होकर सुन्दर वाणीद्वारा दिगम्बर भगवान् शङ्करकी पूजा कर उन कामदेवके शत्रु तथा अन्धक और दक्ष यज्ञके विनाशक | देवदेवेश्वरकी शरण में गया। यद्यपि शङ्करजीके तृतीय नेत्रमें उद्दीप्त अग्निका वास है, तथापि उन चन्द्रशेखरके ध्यानमें यह बात न आयी कि यह मयदानव शरणागत होकर अभयपद प्राप्त करना चाहता है, अतः उन्होंने उसे अभीष्ट वरदान दे दिया, जिससे वह दानव निर्भय हो गया और | आगसे भी सुरक्षित रहकर जीवित बच गया ॥ 25 – 33 ॥