मत्स्यभगवान्ने कहा- रविनन्दन ! तुम दैत्योंकी सेनाका विस्तार तो सुन ही चुके, अब देवताओंकी— विशेषकर विष्णुकी सेनाका विस्तार श्रवण करो उस समय आदित्यगण, वसुगण, रुद्रगण और दोनों महाबली अश्विनीकुमार इन सभीने क्रमशः अपनी-अपनी सेना और अनुयायियोंसहित कवच धारण कर लिया।सहस्र नेत्रधारी लोकपाल इन्द्र जो समस्त देवताओंक नायक हैं, सर्वप्रथम सुरगजेन्द्र ऐरावतपर आरूढ़ हुए। सेनाके मध्यभागमें इन्द्रका वह रथ भी खड़ा किया गया, जो समस्त पक्षियोंमें श्रेष्ठ गरुडके समान वेगशाली था। उसमें सुन्दर पहिये लगे हुए थे तथा वह स्वर्ण और वज्रसे विभूषित था। सहस्रोंकी संख्या में देवताओं, गन्धर्वों और यक्षोंके समूह उसके पीछे-पीछे चल रहे थे दीप्तिशाली सदस्य और महर्षि उसकी स्तुति कर रहे थे तथा वह वज्रकी गड़गड़ाहटके सदृश शब्द करनेवाले, बिजली और इन्द्रधनुषसे सुशोभित तथा स्वेच्छाचारी पर्वतकी तरह दीखनेवाले मेघसमूहोंसे घिरा हुआ था। उसपर सवार होकर ऐश्वर्यशाली इन्द्र समस्त जगत् में भ्रमण करते हैं, यज्ञोंमें स्थित ब्राह्मणलोग यज्ञके प्रारम्भमें उसकी प्रशंसा करते हैं, स्वर्गलोकमें उसपर बैठकर इन्द्रके प्रस्थित होनेपर उनके पीछे देवताओंको तुरहियाँ बजने लगती हैं और सैकड़ों सुन्दरी अप्सराएँ संगठित होकर नृत्य करती हैं। वह रथ शेषनागसे अङ्कित ध्वजसे युक्त होकर सूर्यकी भाँति शोभा पाता है तथा उसमें मन और वायुके समान वेगशाली एक हजार घोड़े जोते जाते हैं। उस समय मातलिद्वारा सुरक्षित वह श्रेष्ठ रथ उसी प्रकार सुशोभित हो रहा था, जैसे सूर्यके तेजसे पूर्णतया घिरा हुआ सुमेरुपर्वत हो ॥ 1-10 ॥
इसी प्रकार कालसहित यमराज भी दण्ड और मुद्ररको हाथमें लेकर अपने सिंहनादसे दैत्योंको भयभीत करते हुए | देवसेनामें खड़े हुए। पाशधारी वरुण जलमय शरीर धारणकर देवसेना के मध्यभागमें स्थित हुए। उनके साथ चारों सागर तथा जीभ लपलपाते हुए नाग भी थे, वे शङ्ख और मुक्ताजरित केयूर धारण किये हुए थे, हाथमें कालपाश लिये हुए थे, वायुके समान वेगशाली, चन्द्र-किरणोंके से उज्ज्वल तथा जलाकार घोड़ोंसे युक्त रथपर सवार थे। वे हजारों प्रकारकी लीलाएँ कर रहे थे पीले वस्त्र और प्रवालजति अङ्गारसे विभूषित थे उनकी शरीरकान्ति नीलमणिकी-सी सुन्दर थी, उन श्रेष्ठ देवपर इन्द्रने अपना भार सौंप रखा था। वे तटको छिन्न-भिन्न कर देनेवाले सागरकी तरह युद्ध-वेलाकी बाट जोह रहे थे। तत्पश्चात् निधियोंके अधिपति एवं विमानद्वारा युद्ध करनेवाले सामर्थ्यशाली राजराजेश्वर श्रीमान् कुबेर क्ष | राक्षसों और गुह्यकोंकी सेना तथा शङ्ख और पद्मके साथहाथमें गदा धारण किये हुए पुष्पक विमानपर आरूढ़ हुए दिखायी पड़े। उस समय युद्धको इच्छासे आये हुए राजराजेश्वर नरवाहन कुबेरकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो युद्धस्थलमें नन्दीश्वरपर बैठे हुए साक्षात् स्वयं शिवजी ही हों। सेनाके पूर्वभागमें इन्द्र, दक्षिणभाग में यमराज, पश्चिमभागमें वरुण और उत्तरभागमें कुबेर इस प्रकार ये चारों महाबली लोकपाल चारों दिशाओं में स्थित हुए। वे अपनी-अपनी दिशाओंमें बड़ी सतर्कताके साथ उस देवसेनाकी रक्षा कर रहे थे। ll 11 - 20 ॥
तदुपरान्त सहस्र किरणोंक सम्मिलित तेजसे उद्भासित द्वादशात्मा दिनेश्वर सूर्य अपने अमित वेगशाली रथपर, जिसमें सात घोड़े जुते हुए थे, जो शोभासे प्रकाशित, सूर्यको किरणोंसे देदीप्यमान, उदयाचल, अस्ताचल और मेरुपर्वतपर भ्रमण करनेवाला तथा स्वर्गद्वाररूप एक चक्रसे सुशोभित था, सवार हो अविनाशी लोकोंको संतप्त करते हुए लोगोंके बीच विचरण करने लगे। शीतरश्मि चन्द्रमा श्वेत घोड़े जुते हुए रथपर सवार हो | अपनी जलपूर्ण हिमकी-सी कान्ति जगत्को आह्लादित करते हुए सुशोभित हुए। उस समय शीतल किरणोंवाले द्विजेश्वर चन्द्रमाके पीछे नक्षत्रगण चल रहे थे। उनके शरीरमें खरगोशका चिह्न झलक रहा था, वे रात्रिके अन्धकारके विनाशक, सामर्थ्यशाली आकाशमण्डलमें स्थित ज्योतिर्गणोंके अधीश्वर, रसीले पदार्थोको रस प्रदान करनेवाले, सहस्रों प्रकारकी ओषधियों तथा अमृतके निधान, जगत्के प्रथम भागस्वरूप और सौम्यस्व भाववाले हैं, उनका रथ सत्यमय है। इस प्रकार हिमसे प्रहार करनेवाले चन्द्रमाको दानवोंने वहाँ उपस्थित देखा ॥ 21 - 27 ।।
जो समस्त प्राणियोंका प्राणस्वरूप है, मनुष्योंके शरीरोंमें पाँच प्रकारसे विभक्त होता है, जिसकी सातों धातुओंमें गति है, जो तीनों लोकोंको धारण करता तथा उनमें विचरण करता है, जिसे अग्निका कर्ता, सबका उत्पत्तिस्थान और ईश्वर कहते हैं, जो नित्य सातों स्वरोंमें विचरण करता हुआ वाणीद्वारा उच्चरित होता है। जिसे पाँचों भूतोंमें उत्तम भूत, शरीररहित, आकाशचारी, शीघ्रगामी और शब्दयोगी अर्थात् शब्दको उत्पन्न करनेवाला कहा जाता है.सम्पूर्ण प्राणियोंका आयुस्वरूप वह वायु वहाँ अपने तेजसे प्रकट हुआ। वह बादलोंको साथ लेकर दैत्योंको प्रव्यथित करता हुआ उनकी प्रतिकूल दिशामें बहने लगा। मरुद्रण दिव्य गन्धर्वो और विद्याधरोंके साथ केंचुलसे छूटे हुए सर्पकी भाँति निर्मल तलवारोंसे फ्रीडा करने लगे ॥ 28-32 ॥
इसी प्रकार नागाधीश्वरगण आकाशमें मुख फैलाये हुए तीव्र जलमय विषको उगलते हुए आकाशचारियोंके बाणरूप होकर विचरण करने लगे। अन्यान्य देवगण सैकड़ों पर्वतों, शिलाओं, शिखरों और वृक्षोंसे दानवसेनापर प्रहार करनेके लिये उपस्थित हुए। तत्पश्चात् जो इन्द्रियोंके अधीश्वर, पद्मनाभ, तीन पगसे त्रिलोकीको नाप लेनेवाले, प्रलयकालमें कृष्ण वर्णकी आभासे युक्त, सम्पूर्ण जगत्के स्वामी, सबके उत्पत्तिस्थान, मधु नामक दैत्यके वधकर्ता, यज्ञमें स्थित होकर हव्यके भोक्ता, पृथ्वीजलआकाशस्वरूप, श्याम वर्णवाले, शान्तिकर्ता और शत्रुओंका हनन करनेवाले है, उन भगवान् गदाधरने देवताओंके शत्रुओं का विनाश करनेवाले अपने सुदर्शन चक्रको, जो अपने उत्तम तेजसे उदयाचलसे उदय होते हुए सूर्यके समान चमक रहा था, | हाथमें ऊपर उठा लिया। फिर उन्होंने बायें हाथसे अपनी विशाल गदाका आलम्बन लिया, जो समस्त असुरोंकी विनाशिनी, काले रंगवाली और शत्रुओंको कालके गाल में डालनेवाली थी। महाबली गरुडध्वज भगवान् ने अपनी अन्य देदीप्यमान भुजाओंसे शार्ङ्गधनुष आदि अन्यान्य आयुधोंको धारण किया । ll 33-39 ll
तदनन्तर जो कश्यपके पुत्र, सर्वभक्षी, वायुसे भी अधिक वेगशाली आकाशको क्षुब्ध कर देनेवाले, आकाशचारी, मुखमें दबाये हुए सर्पसे सुशोभित, अमृत मन्थनसे मुक्त हुए मन्दराचलके समान ऊँचे, अनेकों बार घटित हुए देवासुर संग्राममें सुदृढ़ पराक्रम दिखानेवाले, अमृतके लिये इन्द्रके द्वारा वज्रके प्रहारसे किये गये चिह्नसे युक्त, शिखाधारी महाबली, तपाये हुए स्वर्णनिर्मित कुण्डलोंसे विभूषित, विचित्ररूपी वाले और धातुयुक्त पर्वतके समान शोभायमान थे, उनका वक्षःस्थल लम्बा और चौड़ा था, जो चन्द्रमाके समान उद्भासित हो रहा था, उसपर नागोंके फणोंमें लगी हुई मणियाँ चमक रही थीं,वे अपने दोनों सुन्दर पंखोंसे आकाशको उसी प्रकार लीलापूर्वक आच्छादित किये हुए थे, जैसे युगान्तके समय दो इन्द्रधनुषोंसे युक्त बादल आकाशको ढक लेते हैं। वे नीली, लाल और पीली पताकाओंसे सुशोभित थे, जो केतु (पताका)-के वेषमें छिपे हुए, विशालकाय और अरुणके छोटे भाई थे, उन सुन्दर वर्णवाले, सुनहले शरीरसे सुशोभित पक्षिश्रेष्ठ गरुडपर आरूढ़ होकर श्रीमान् भगवान् विष्णु समरभूमिमें उपस्थित हुए। फिर तो देवगणों तथा मुनियोंने सावधान-चित्तसे उनका अनुगमन किया और परमोत्कृष्ट मन्त्रोंसे युक्त वाणियोंद्वारा उन जनार्दनका स्तवन किया। इस प्रकार देवताओंकी वह विशाल सेना जब कुबेरसे युक्त, यमराजसे समन्वित, चन्द्रमासे सुरक्षित, इन्द्रसे सुशोभित और चन्द्रमाकी प्रभासे समलंकृत हो युद्धके लिये आगे बढ़ी, तब बृहस्पतिने कहा- 'देवताओंका मङ्गल हो।' इसी प्रकार दानव सेनामें भी शुक्राचार्यने 'दानवोंका कल्याण हो' ऐसा वचन उच्चारण किया । ll 40-50 ॥