शौनकजी कहते हैं- भरतर्षभ । जब कच मृतसंजीविनी विद्या सीखकर आ गये, तब देवताओंको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे कचसे उस विद्याको पढ़कर कृतार्थ हो गये। फिर सबने मिलकर इन्द्रसे कहा 'पुरंदर! अब आपके लिये पराक्रम करनेका समय आ गया है, अपने शत्रुओंका संहार कीजिये।' संगठित होकर आये हुए देवताओंद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर इन्द्र 'बहुत अच्छा' कहकर भूलोकमें आये। वहीं एक वनमें उन्होंने बहुत-सी स्त्रियोंको देखा। वह वन चैत्ररथ नामक देवोद्यानके समान मनोहर था। उसमें वे कन्याएँ जलक्रीड़ा कर रही थीं। इन्द्रने वायुका रूप धारण करके उनके सारे कपड़े परस्पर मिला दिये। तब वे सभी कन्याएँ एक साथ जलसे निकलकर अपने-अपने अनेक प्रकारके वस्त्र, जो निकट ही रखे हुए थे, लेने लगीं। उस सम्मिश्रण में शर्मिष्ठाने देवयानीका वस्त्र ले लिया। शर्मिष्ठा वृषपर्वाकी पुत्री थी। दोनोंके वस्त्र मिल गये हैं, इस बातका उसे पता न था । राजेन्द्र वस्त्रोंकी उस अदला-बदलीको लेकर देवयानी और शर्मिष्ठा— दोनोंमें | वहाँ परस्पर बड़ा भारी विरोध खड़ा हो गया ॥ 1-7 ॥
देवयानी बोली-अरी दानवकी बेटी मेरी शिष्या होकर तू मेरा वस्त्र कैसे ले रही है? तू सज्जनोंके उत्तम आचारसे शून्य है, अतः तेरा भला न होगा ॥ 8 ॥
शर्मिष्ठाने कहा -अरी! मेरे पिता बैठे हों या सो रहे हों, उस समय तेरा पिता विनयशील सेवकके समान नीचे खड़ा होकर बार- बार वन्दोजनोंकी भाँति उनकी स्तुति करता है। तू भिखमंगेकी बेटी है, तेरा बाप स्तुति करता और दान सेता है। मैं उनकी बेटी हूँ जिनको स्तुति की जाती है, जो | दूसरोंको दान देते हैं और स्वयं किसीसे कुछ भी नहीं लेते।अरी भिक्षुकि! तू खाली हाथ है, तेरे पास कोई अस्त्र-शस्त्र भी नहीं है और देख ले, मेरे पास हथियार है। इसलिये तू मेरे ऊपर व्यर्थ ही क्रोध कर रही है। यदि लड़ना ही चाहती है तो इधरसे भी डटकर सामना करनेवाली मुझ जैसी योद्ध्री तुझे मिल जायगी। मैं तुझे कुछ भी नहीं गिनती ॥9-11 ॥
शौनकजी कहते हैं— शतानीक! यह सुनकर देवयानी आश्चर्यचकित हो गयी और शर्मिष्ठाके शरीरसे अपने वस्त्रको | खींचने लगी। यह देख शर्मिष्ठाने उसे कुएँ में ढकेल दिया और अब वह ( डूबकर मर गयी होगी-ऐसा समझकर पापमय | विचारवाली शर्मिष्ठा नगरको लौट आयी। वह क्रोधके आवेशमें थी, अतः देवयानीकी ओर देखे बिना घर लौट गयी। तदनन्तर नहुषपुत्र ययाति उस स्थानपर आये। उनके रथके वाहन तथा अन्य घोड़े भी थक गये थे। वे भी थकावटसे चूर हो गये थे। वे एक हिंसक पशुको पकड़नेके लिये उसके पीछे-पीछे आये थे और प्याससे कष्ट पा रहे थे। ययाति उस जलशून्य कूपको देखने लगे। वहाँ उन्हें अग्निशिखाके समान तेजस्विनी एक कन्या दिखायी दी, जो देवानाके समान सुन्दरी थी। उसपर दृष्टि पड़ते ही नृपश्रेष्ठ ययातिने पहले परम मधुर वचनोंद्वारा शान्तभावसे उसे आश्वासन दिया और पूछा—'सुमध्यमे ! तुम कौन हो? तुम्हारा मुख परम मनोहर है। तुम्हारी अवस्था भी अभी बहुत अधिक नहीं दीखती । तुम्हारे कानोंके मणिमय कुण्डल अत्यन्त सुन्दर और चमकीले हैं। तुम किसी अत्यन्त घोर चिन्तामें पड़ी हो। आतुर होकर लम्बी साँस क्यों ले रही हो? तृण और लताओंसे ढके हुए इस कुऍमें कैसे गिर पड़ी? तुम किसकी पुत्री हो ? सब ठीक-ठीक बताओ' ॥ 12 – 18ll
देवयानी बोली- जो देवताओंद्वारा मारे गये दैत्योंको अपनी विद्याके बलसे जिलाया करते हैं, उन्हीं शुक्राचार्यकी में पुत्री हैं। निश्चय ही आप मुझे पहचानते नहीं है। महाराज लाल नख और अङ्गलियोंसे युक्त यह मेरा दाहिना हाथ है। इसे पकड़कर आप इस कुएैसे मेरा उद्धार कीजिये मैं जानती हैं, आप उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए नरेश हैं। मुझे यह भी ज्ञात है कि आप परम शान्त स्वभाववाले, पराक्रमी तथा यशस्वी वीर हैं। इसलिये इस कुएँमें गिरी हुई मुझ अबलाका आप यहाँसे उद्धार कीजिये ॥ 19-21 ।।
शौनकजी कहते हैं-शतानीक! तदनन्तर नहुषपुत्र राजा ययातिने देवयानीको ब्राह्मण-कन्या जानकर उसका दाहिना हाथ अपने हाथमें से उसे उस कुएँसे बाहर निकाला। इस प्रकार वेगपूर्वक उसे कुएँसे बाहर निकालकर | राजा ययाति सुन्दरी देवयानीकी अनुमति लेकर अपनेनगरको चले गये। नहुषनन्दन ययातिके चले जानेपर सती-साध्वी देवयानी शोकसे संतप्त हो अपने सामने आयी हुई धाय घूर्णिकासे बोली॥ 22-24 ॥
देवयानीने कहा- घूर्णिके! तुम तुरंत वेगपूर्वक यहाँसे जाओ और शीघ्र मेरे पिताजीसे सब वृत्तान्त कह दो। अब मैं (राजा) वृषपवके नगरमें प्रवेश नहीं करूंगी उस नगरमें पैर नहीं रखूंगी ॥ 25 ॥ शौनकजी कहते हैं-शतानीक देवयानीकी बात सुनकर पूर्णिका तुरंत असुरराजके महलमें गयी और वहाँ शुक्राचार्यको देखकर काँपती हुई उसने सम्भ्रमपूर्ण चित्तसे वह बात बतला दी। उसने कहा- 'महाप्राज्ञ ! वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाके द्वारा देवयानी वनमें मार डाली (मृततुल्य कर दी गयी है।' अपनी पुत्रीको शर्मिद्वारा मृततुल्य को गयी सुनकर शुक्राचार्य बड़ी उतावलीके साथ निकले और दुःखी होकर उसे वनमें ढूंढ़ने लगे। तदनन्तर वनमें अपनी बेटी देवयानीको देखकर शुक्राचार्यने दोनों भुजाओंसे उठाकर उसे हृदयसे लगा लिया और दुःखी होकर कहा- 'बेटी! सब लोग अपने ही दोष और गुणोंसे अशुभ या शुभ कर्मोंसे दुःख एवं सुखमें पड़ते हैं। मालूम होता है, तुमसे कोई बुरा कर्म बन गया था, जिसका तुमने इस रूपमें प्रायश्चित्त किया है'। ll 26-30 ॥
देवयानी बोली- पिताजी! मुझे अपने कर्मोंके फलसे निस्तार हो या न हो, आप मेरी बात ध्यान देकर सुनिये। वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाने आज मुझसे जो कुछ कहा है, क्या यह सच है? वह कहती है— मैं भाटोंकी तरह दैत्योंके गुण गाया करती हूँ की लाड़ली शर्मिला क्रोधसे लाल आँखें करके आज मुझसे इस प्रकार अत्यन्त तीखे और कठोर वचन कह रही थी। 'देवयानी! तू स्तुति करनेवाले, नित्य भीख माँगनेवाले और दान लेनेवालेकी बेटी है और मैं तो उन महाराजकी पुत्री हैं, जिनकी तुम्हारे पिता स्तुति करते हैं, जो स्वयं दान देते हैं और लेते (किसीसे) एक अधेला भी नहीं हैं।' वृषपर्वाकी बेटी शर्मिष्ठाने आज मुझसे ऐसी बात कही है। | कहते समय उसकी आँखें क्रोधसे लाल हो रही थीं। वह भारी घमंडसे भरी हुई थी। तात! यदि सचमुच मैं स्तुति करनेवाले और दान लेनेवालेकी बेटी हूँ तो मैं शर्मिष्ठाको अपनी सेवाओंद्वारा प्रसन्न करूँगी। यह बात मैंने अपनी सखीसे कह दी थी। (मेरे ऐसा कहनेपर भी अत्यन्त क्रोधमें भरी हुई शर्मिष्ठाने उस निर्जन वनमें मुझे पकड़कर कुएँमें ढकेल दिया। उसके बाद वह अपने घर चली गयी ।। 31--35 ॥शुक्राचार्यने कहा- देवयानी! तू स्तुति करनेवाले, भीख माँगनेवाले या दान लेनेवालेकी बेटी नहीं है। तू उस पवित्र ब्राह्मणकी पुत्री है, जो किसीकी स्तुति नहीं करता और जिसकी सब लोग स्तुति करते हैं। इस बातको वृषपर्वा, देवराज इन्द्र तथा राजा ययाति जानते हैं। निर्द्वन्द्व अचिन्त्य ब्रह्म ही मेरा ऐश्वर्ययुक्त बल है ॥ 36-37॥