शौनकजी कहते हैं—भारत ! पवित्र मुसकानवाली
देवयानीने जब सुना कि शर्मिष्ठाके पुत्र हुआ है, तब वह
दुःखसे पीड़ित हो शर्मिष्ठाके व्यवहारको लेकर बड़ी
चिन्तामें पड़ गयी। वह शर्मिष्ठाके पास गयी और इस
प्रकार बोली- 'सुन्दर भौंहोंवाली शर्मिष्ठे! तुमने काम लोलुप होकर यह कैसा पाप कर डाला है?' ॥ 1-2 ॥ शर्मिष्ठा बोली -सखी! कोई धर्मात्मा ऋषि आये थे, जो वेदोंके पारंगत विद्वान् थे। मैंने उन वरदायक ऋषिसे धर्मानुसार कामकी याचना की। शुचिस्मिते! मैं न्यायविरुद्ध कामका आचरण नहीं करती उन ऋषिसे ही मुझे संतान पैदा हुई है. यह तुमसे सत्य कहती हूँ। ll 3-4 llदेवयानीने कहा- शर्मिष्ठे यदि ऐसी बात है तुमने यदि ज्येष्ठ और श्रेष्ठ द्विजसे संतान प्राप्त की है तो तुम्हारे ऊपर मेरा क्रोध नहीं रहा। भीरु यदि ऐसी बात है तो बहुत अच्छा हुआ। क्या उन द्विजके गोत्र, नाम और कुलका कुछ परिचय मिला है? मैं उनको जानना चाहती हूँ। ll 5-6 ॥
शर्मिष्ठा बोली - शुचिस्मिते। वे अपने तप और तेजसे सूर्यकी भाँति प्रकाशित हो रहे थे उन्हें देखकर मुझे कुछ पूछनेका साहस ही न हुआ ॥ 7 ॥ शौनकजी कहते हैं— शतानीक ये दोनों आपस में इस प्रकार बातें करके हँस पड़ीं। देवयानीको प्रतीत हुआ कि शर्मिष्ठा ठीक कहती है, अतः वह चुपचाप महलमें चली गयी। राजा ययातिने देवयानीके गर्भसे दो पुत्र उत्पन्न किये, जिनके नाम थे— यदु और तुर्वसु । वे दोनों दूसरे इन्द्र और विष्णुकी भाँति प्रतीत होते थे। उन्हीं राजर्षिसे वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाने तीन पुत्रोंको जन्म दिया, जिनके नाम थे दुध, अनु और पूरु राजन्! तदनन्तर किसी समय पवित्र मुसकानवाली देवयानी ययातिके साथ एकान्त वनमें गयी। वहाँ उसने देवताओंके समान सुन्दर रूपवाले कुछ बालकोंको निर्भय होकर क्रीडा करते देखा। उन्हें देखकर वह आश्चर्यचकित हो इस प्रकार बोली ॥8- 12 ॥
देवयानीने पूछा- राजन्! ये देवबालकोंके तुल्य शुभ लक्षणसम्पन्न कुमार किसके हैं? तेज और रूपमें तो ये मुझे आपके ही समान जान पड़ते हैं। राजासे इस प्रकार पूछकर उसने फिर उन कुमारोंसे प्रश्न किया— 'बच्चो! तुमलोग किस गोत्रमें उत्पन्न हुए हो? तुम्हारे ब्राह्मण पिताका क्या नाम है? यह मुझे ठीक-ठीक बताओ। मैं तुम्हारे पिताका नाम सुनना चाहती हूँ' (देवयानीके इस प्रकार पूछनेपर) उन बालकोंने पिताका परिचय देते हुए तर्जनी अँगुलीसे उन्हीं नृपश्रेष्ठ ययातिको दिखा दिया और शर्मिष्ठाको अपनी माता बताया ।। 13-15ई ॥
शौनकजी कहते हैं—ऐसा कहकर वे सब बालक एक साथ राजाके समीप आ गये, परंतु उस समय | देवयानीके निकट राजाने उनका अभिनन्दन नहीं किया— इन्हें गोदमें नहीं उठाया। तब बालक रोते पास चले गये। (उनकी बातें सुनकर राजा ययाति हुए शर्मिष्ठाके लज्जित से हो गये।) उन बालकोंका राजाके प्रति विशेष प्रेम देखकर देवयानी सारा रहस्य समझ गयी और शर्मिष्ठासे इस प्रकार बोली- ॥ 16-18 ॥देवयानी बोली- शर्मिले तुमने मेरे अधीन होकर भी मुझे अप्रिय लगनेवाला बर्ताव क्यों किया? तुम फिर उसी असुर धर्मपर उतर आयी। क्या मुझसे नहीं डरती ? ।। 19 ll
शर्मिष्ठा बोली - मनोहर मुसकानवाली सखी। मैंने जो ऋषि कहकर अपने स्वामीका परिचय दिया था, सो सत्य ही है। मैं न्याय और धर्मके अनुकूल आचरण करती हूँ, अतः तुमसे नहीं डरती। जब तुमने राजाका पतिरूपमें वरण किया था, उसी समय मैंने भी कर लिया। शोभने! तुम ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ हो, ब्राह्मणपुत्री हो, अतः मेरे लिये माननीय एवं पूजनीय हो; परंतु ये राजर्षि मेरे लिये तुमसे भी अधिक पूजनीय हैं। क्या यह बात तुम नहीं जानती ? (शुभे! तुम्हारे पिता और मेरे गुरु (शुक्राचार्यजी) ने हम दोनोंको एक ही साथ महाराजकी सेवामें समर्पित किया है। तुम्हारे पति और पूजनीय महाराज ययाति भी मुझे पालन करने योग्य मानकर मेरा पोषण करते हैं।) ll 20-22 ॥
शौनकजी कहते हैं-शर्मिष्ठाका यह वचन सुनकर देवयानीने कहा- 'राजन्! अब मैं यहाँ नहीं रहूँगी। आपने मेरा अत्यन्त अप्रिय किया है। ऐसा कहकर तरुणी देवयानी आँखों में आँसू भरकर सहसा उठी और तुरन्त ही शुक्राचार्यजीके पास जानेके लिये वहाँसे चल दी। यह देख उस समय राजा ययाति व्यथित हो गये। वे व्याकुल हो देवयानीको समझाते हुए उसके पीछे पीछे गये, किंतु वह नहीं लौटी। उसकी आँखें क्रोधसे लाल हो रही थीं। वह राजासे कुछ न बोलकर केवल नेत्रोंसे आँसू बहाये जाती थी कुछ ही देरमें वह कवि पुत्र शुक्राचार्यके पास पहुँची। पिताको देखते ही वह प्रणाम करके उनके सामने खड़ी हो गयी। तदनन्तर राजा ययातिने भी शुक्राचार्यकी वन्दना की ।। 23-27 ॥
देवयानीने कहा-पिताजी! अधर्मने धर्मको जीत लिया नीचकी उन्नति हुई और उच्चको अवनति वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठा मुझे लाँघकर आगे बढ़ गयी। इन महाराज यथातिसे ही उसके तीन पुत्र हुए हैं, किंतु तात! मुझ भाग्यहीनाके दो ही पुत्र हुए हैं। यह मैं आपसे ठीक बता रही हूँ। भृगुश्रेष्ठ! ये महाराज धर्मज्ञके रूपमें प्रसिद्ध है, किंतु इन्होंने मर्यादा किया है। कवि | नन्दन ! यह मैं आपसे यथार्थ कह रही हूँ ॥ 28-30 ॥शुक्राचार्यने (यवातिसे) कहा- महाराज! तुमने धर्मज्ञ होकर भी अधर्मको प्रिय मानकर उसका आचरण किया है। इसलिये जिसको जीतना कठिन है, वह वृद्धावस्था तुम्हें शीघ्र ही धर दबायेगी ॥ 31 ॥
ययाति बोले—भगवन्! दानवराजकी पुत्री मुझसे अनुदान मांग रही थी, अतः मैंने धर्मसम्मत मानकर यह कार्य किया, किसी दूसरे विचारसे नहीं ब्रह्मन् जो | पुरुष न्याययुक्त ऋतुकी याचना करनेवाली स्त्रीको अनुदान नहीं देता, वह ब्रह्मवादी विद्वानोंद्वारा भ्रूण (गर्भ) की हत्या करनेवाला कहा जाता है। जो न्यायसम्मत कामनासे युक्त गम्या स्त्रीके द्वारा एकान्तमें प्रार्थना करनेपर उसके साथ समागम नहीं करता, वह धर्मशास्त्रके विद्वानों द्वारा गर्भ या ब्राह्मणकी हत्या करनेवाला बताया जाता है। (ब्रह्मन् मेरा यह व्रत है कि मुझसे कोई जो भी वस्तु माँगे, उसे वह अवश्य दे दूंगा। आपके ही द्वारा मुझे सौंपी हुई शर्मिष्ठा इस जगत् में दूसरे किसी पुरुषको अपना पति बनाना नहीं चाहती थी अतः उसकी इच्छा पूर्ण करना धर्म समझकर मैंने वैसा किया है। आप इसके लिये मुझे क्षमा करें।) भृगुश्रेष्ठ! इन्हीं सब कारणोंका | विचार करके अधर्मके भयसे उद्विग्न हो मैं शर्मिष्ठा के पास गया था ॥ 32-34 ॥
शुक्राचार्यने कहा- राजन् ! तुम्हें इस विषयमें मेरे आदेशका भी ध्यान रखना चाहता था; क्योंकि तुम मेरे अधीन हो। नहुषनन्दन! धर्ममें मिथ्या आचरण करनेवाले पुरुषको चोरीका पाप लगता है ॥ 35 ॥
शौनकजी कहते हैं-क्रोधमें भरे हुए शुक्राचार्य शाप देनेपर नहुष-पुत्र राजा ययाति उसी समय पूर्वावस्था ( यौवन) का परित्याग करके तत्काल बूढ़े हो गये॥ 36 ll
ययाति बोले- भृगुश्रेष्ठ! मैं देवयानीके साथ युवावस्थामें रहकर तृप्त नहीं हो सका हूँ, अतः ब्रह्मन् ! मुझपर ऐसी कृपा कीजिये, जिससे यह बुढ़ापा मेरे शरीरमें प्रवेश न करे ।। 37 ॥
शुक्राचार्यने कहा - भूमिपाल ! मैं झूठ नहीं बोलता बूढ़े तो तुम हो हो गये, कितु तुम्हें इतनी सुविधा देता हूँ कि यदि चाहो तो किसी दूसरेसे जवानी लेकर इस बुढ़ापाको उसके शरीरमें डाल सकते हो ॥ 38 ॥
ययाति बोले- ब्रहान् । मेरा जो पुत्र अपनी युवावस्था मुझे दे, वही पुण्य और कीर्तिका भागी होनेके साथ ही मेरे राज्यका भी भागी हो। शुक्राचार्यजी! आप | इसका अनुमोदन करें ।। 39 ।।शुक्राचार्यने कहा - नहुषनन्दन ! तुम भक्तिभावसे | मेरा चिन्तन करके अपनी वृद्धावस्थाका इच्छानुसार दूसरेके शरीरमें संचार कर सकोगे। उस दशामें तुम्हें पाप भी नहीं लगेगा। जो पुत्र तुम्हें (प्रसन्नतापूर्वक) अपनी युवावस्था देगा, वही राजा होगा। साथ ही दीर्घायु, | यशस्वी तथा अनेक संतानोंसे युक्त होगा ॥ 40-41 ॥