शौनकजी कहते हैं—जब कचका व्रत समाप्त हो गया और गुरु (शुक्राचार्य) ने उसे जानेकी आज्ञा दे दी, तब वह देवलोक जानेको उद्यत हुआ। उस समय | देवयानीने उससे इस प्रकार कहा- ॥ 1 ॥देवयानी बोली-महर्षि अङ्गिराके पौत्र! तुम सदाचार उत्तम कुल, विद्या, तपस्या तथा इन्द्रियसंयम आदिसे बड़ी शोभा पा रहे हो महायशस्वी महर्षि अङ्गिरा जिस प्रकार मेरे पिताजीके लिये माननीय हैं, उसी प्रकार तुम्हारे पिता बृहस्पतिजी मेरे लिये आदरणीय तथा पूज्य हैं। तपोधन! ऐसा जानकर मैं जो कहती हूँ, उसपर विचार करो। तुम जब व्रत और नियमोंके पालनमें लगे थे, उन दिनों मैंने तुम्हारे साथ जो बर्ताव किया है, (आशा है, उसे तुम भूले नहीं होगे। अब तुम व्रत समाप्त करके | अपनी अभीष्ट विद्या प्राप्त कर चुके हो मैं तुमसे प्रेम करती है; तुम मुझे स्वीकार करो; अतः वैदिक मन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक विधिवत् मेरा पाणिग्रहण करो ॥ 25 ॥
कचने कहा- निर्दोष अङ्गोंवाली देवयानी! जैसे तुम्हारे पिता शुक्राचार्य मेरे लिये पूजनीय और माननीय हैं, वैसे ही तुम हो; बल्कि उनसे भी बढ़कर मेरी पूजनीया हो। भद्रे! महात्मा भार्गवको तुम प्राणोंसे भी अधिक प्यारी हो गुरुपुत्री होनेके कारण धर्मको दृष्टिसे मेरी सदा पूजनीया हो। देवयानी! जैसे मेरे गुरुदेव तुम्हारे पिता शुक्राचार्य सदा मेरे माननीय हैं, उसी प्रकार तुम हो; अतः तुम्हें मुझसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये ॥ 6-8 ॥
देवयानी बोली- द्विजोत्तम। तुम मेरे गुरुके पुत्र हो, मेरे पिताके नहीं; (अतः मेरे भाई नहीं लगते, पर) मेरे पूजनीय और माननीय हो । कच! जब असुर तुम्हें बार-बार मार डालते थे, तबसे लेकर आजतक तुम्हारे प्रति मेरा जो प्रेम रहा है, उसे तुम्हीं स्मरण करो। तुम्हें मेरे सौहार्द और अनुराग तथा मेरी उत्तम भक्तिका परिचय मिल चुका है। तुम धर्मके ज्ञाता भी हो। मैं तुम्हारे प्रति भक्ति रखनेवाली निरपराध अबला हूँ। तुम्हें मेरा त्याग करना ( कदापि ) उचित नहीं है ॥ 9-11 ॥
कचने कहा- उत्तम व्रतका आचरण करनेवाली सुन्दरि ! तुम मुझे ऐसे कार्यमें प्रवृत्त कर रही हो, जो कदापि उचित नहीं है। शुभे तुम मुझपर प्रसन्न हो जाओ। तुम मेरे लिये गुरुसे भी बढ़कर श्रेष्ठ हो। विशाल नेत्र तथा चन्द्रमाके समान मुखवाली भामिनि शुक्राचार्यके जिस उदरमें तुम रह चुकी हो, उसीमें मैं भी रहा हूँ। इसलिये भद्रे धर्मकी दृष्टिसे तुम मेरी बहन हो; अतः शुभानने। मुझसे ऐसी बात न कहो। कल्याणि ! मैं तुम्हारे यहाँ बड़े सुखसे रहा तुम्हारे प्रति मेरे मनमें तनिक भी रोष नहीं है।अब मैं जाऊँगा, इसलिये तुम्हारी आज्ञा चाहता है; आशीर्वाद दो कि मार्गमें मेरा मङ्गल हो धर्मकी अनुकूलता रखते हुए बातचीतके प्रसङ्गमें कभी मेरा भी स्मरण कर लेना और सदा सावधान एवं सजग रहकर मेरे गुरुदेव (अपने पिता शुक्राचार्य) की सेवामें लगी रहना ॥ 12-15 3 ॥
देवयानी बोली- कच दैत्योंद्वारा बार-बार तुम्हारे मारे जानेपर मैंने पति बुद्धिसे ही तुम्हारी रक्षा की है (अर्थात् पिताद्वारा जीवनदान दिलाया है, इसीलिये) मैंने धर्मानुकूल कामके लिये तुमसे प्रार्थना की है। यदि तुम मुझे ठुकरा दोगे तो यह संजीविनी विद्या तुम्हारे कोई काम न आयेगी ll 16-17॥
कचने कहा- देवयानी! गुरुपुत्री समझकर ही मैंने तुम्हारे अनुरोधको टाल दिया है, तुममें कोई दोष देखकर नहीं गुरुजी भी इसे जानते मानते हैं। स्वेच्छासे मुझे शाप भी दे दो। बहन! मैं आर्ष-धर्मकी बात कर रहा था। इस दशामें तुम्हारे द्वारा शाप पानेके योग्य नहीं था तुमने मुझे धर्मके अनुसार नहीं, कामके वशीभूत | होकर आज शाप दिया है, इसलिये तुम्हारे मनमें जो कामना है, वह पूरी नहीं होगी। कोई भी ऋषिपुत्र (ब्राह्मणकुमार) कभी तुम्हारा पाणिग्रहण नहीं करेगा। तुमने जो मुझे यह कहा कि तुम्हारी विद्या सफल नहीं होगी, सो ठीक है; किंतु मैं जिसे यह पढ़ा दूँगा, उसकी विद्या तो सफल होगी ही ॥ 18-21 ॥
शौनकजी कहते हैं— नृपश्रेष्ठ शतानीक ! द्विज श्रेष्ठ कच देवयानीसे ऐसा कहकर तत्काल बड़ी उतावलीके साथ इन्द्रलोकको चला गया। उसे आया देख इन्द्रादि | देवता बृहस्पतिजीकी सेवामें उपस्थित हो उन्हें साथ ले आगे बढ़कर बड़ी प्रसन्नतासे कचसे इस प्रकार बोले ।। 22-23 ॥
'देवता बोले- कच! तुमने हमारे हितके लिये यह बड़ा अद्भुत कार्य किया है, अतः तुम्हारे यशका कभी लोप नहीं होगा और तुम यज्ञमें भाग पानेके अधिकारी होओगे ॥ 24 ॥