मनुने पूछा— देव! भाग्य और पुरुषार्थ — इन दोनोंमें
कौन श्रेष्ठ है? यह मुझे बतलाइये। इस विषयमें मुझे संदेह
है, अतः आप उसका सम्पूर्णरूपसे निवारण कीजिये ॥ 1 ॥
मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन्! अन्य जन्ममें अपने द्वारा किया गया पुरुषार्थ (कर्म) ही दैव कहा जाता है, इसी कारण इन दोनोंमें मनीषियोंने पौरुषको ही श्रेष्ठ माना है; क्योंकि माङ्गलिक आचरण करनेवाले एवं नित्य प्रति अभ्युदयशील पुरुषोंका प्रतिकूल दुर्दैव भी पुरुषार्थद्वारा नष्ट हो जाता है। मानव श्रेष्ठ! जिन्होंने पूर्वजन्ममें सात्त्विक कर्म किया है, उन्हींमें किन्हीं किन्हींको पुरुषार्थके बिना भी अच्छे फलकी प्राप्ति देखी जाती है। लोकमें रजोगुणी पुरुषको कर्म करनेसे फलकी प्राप्ति होती है और तमोगुणी पुरुषको कठिन कर्म करनेसे फलकी प्राप्ति जाननी चाहिये ॥ 2-5 ॥
राजन्! मनुष्योंको पुरुषार्थद्वारा अभिलषित पदार्थकी प्राप्ति होती है, किंतु जो लोग पुरुषार्थसे हीन हैं, वे दैवको ही सब कुछ मानते हैं। अतः तीनों कालोंमें पुरुषार्थयुक्त दैव ही सफल होता है। राजन् ! भाग्ययुक्त मनुष्यका पुरुषार्थ समयपर फल देता है। पुरुषोत्तम! दैव, पुरुषार्थ और काल- ये तीनों संयुक्त होकर मनुष्यको फल देनेवाले होते हैं। कृषि और वृष्टिका संयोग होनेसे फलकी सिद्धियाँ देखी जाती हैं, किंतु वे भी समय आनेपर ही दिखायी पड़ती हैं, बिना समयके किसी प्रकार भी नहीं। इसलिये मनुष्यको सर्वदा धर्मयुक्त पुरुषार्थ करना चाहिये। उसके इस लोकमें आपत्तियोंमें पड़ जानेपर भी परलोकमें उसे निश्चय ही फल प्राप्त होगा। आलसी और भाग्यपर निर्भर रहनेवाले पुरुषोंको अर्थोकी प्राप्ति नहीं होती । इसलिये सभी प्रयत्नोंसे पुरुषार्थ करनेमें तत्पर रहना चाहिये। राजेन्द्र ! लक्ष्मी भाग्यपर भरोसा रखनेवाले एवं आलसी पुरुषोंको छोड़कर पुरुषार्थ करनेवाले पुरुषोंको यत्नपूर्वक ढूँढकर वरण करती है, इसलिये सर्वदा पुरुषार्थशील होना चाहिये ।। 6-12 ॥