सूतजी कहते हैं-ऋषियो! इसके बाद अब मैं | द्वापरयुगको विधिका वर्णन कर रहा हूँ त्रेतायुगके क्षीण हो जानेपर द्वापरयुगकी प्रवृत्ति होती है। द्वापरयुगके प्रारम्भ कालमें प्रजाओंको त्रेतायुगकी भाँति ही सिद्धि प्राप्त होती है, किंतु जब द्वापरयुगका प्रभाव पूर्णरूपसे व्याप्त हो जाता है, तब वह सिद्धि नष्ट हो जाती है। उस समय प्रजाओंमें लोभ, धैर्यहीनता, वाणिज्य, युद्ध, सिद्धान्तोंकी अनिश्चितता, वर्णोंका विनाश, कर्मोंका उलट-फेर, याच्या (भिक्षावृत्ति), संहार, परायापन, दण्ड, अभिमान, दम्भ, असहिष्णुता, बल तथा रजोगुण एवं तमोगुण बढ़ जाते हैं। सर्वप्रथम कृतयुगमें तो अधर्मका लेशमात्र भी नहीं रहता, किंतु उसकी कुछ-कुछ प्रवृत्ति होती है। पुनः झपरयुगमें वह विशेषरूपसे व्यात होकर कलियुगों युग समाप्तिके समय विनष्ट हो जाता है। द्वापरयुगमें चारों वर्णों तथा आश्रमोंके धर्म परस्पर घुल-मिल जाते हैं। इस युगमें श्रुतियों और स्मृतियोंमें भेद उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार श्रुति और स्मृतिको मान्यतामें भेद पड़नेके कारण किसी विषयका ठीक निश्चय नहीं हो पाता। अनिश्चितताके कारण धर्मका तत्त्व लुप्त हो जाता है। धर्मतत्त्वका ज्ञान न होनेपर बुद्धिमें भेद उत्पन्न हो जाता है। बुद्धिमें भेद पड़नेके कारण उनके विचार भी भ्रान्त हो जाते हैं और फिर धर्म क्या है और अधर्म क्या है, यह निश्चय नहीं हो पाता ॥ 1-9 ॥
पहले त्रेताके प्रारम्भमें आयुके संक्षिप्त हो जानेके कारण एक ही वेद ऋक्, यजुः, अथर्वण, साम- चार नामोंसे विभक्त कर दिया जाता है। फिर द्वापरमें विभिन्नविचारवाले ऋषिपुत्रोंद्वारा उन वेदोंका पुनः (शाखा प्रशाखा आदिमें) विभाजन कर दिया जाता है। वे महर्षिगण मन्त्र ब्राह्मणों, स्वर और क्रमके विपर्ययसे ऋक्, यजुः और सामवेदकी संहिताओंका अलग-अलग संघटन करते हैं। भिन्न विचारवाले श्रुतर्षियोंने ब्राह्मणभाग, कल्पसूत्र तथा भाष्यविद्या आदिको भी कहीं-कहीं सामान्य रूपसे और कहीं-कहीं विपरीतक्रमसे परिवर्तित कर दिया है। कुछ लोगोंने तो उनका समर्थन और कुछ लोगोंने अवरोध किया है। इसके बाद प्रत्येक द्वापरयुगमें भिन्नार्थदर्शी ऋषिवृन्द अपने-अपने विचारानुसार वैदिक प्रथामै अर्थभेद उत्पन्न कर देते हैं। पूर्वकालमें यजुर्वेद एक ही था, परंतु ऋषियोंने उसे बादमें सामान्य और विशेष अर्थसे कृष्ण और यजुः- रूपमें दो भागों में विभक्त कर दिया, जिससे शास्त्रमें भेद हो गया। इस प्रकार इन लोगोंने यजुर्वेदको अनेकों उपाख्यानों तथा प्रस्थानों, खिलांशों द्वारा विस्तृत कर दिया है। इसी प्रकार अथर्ववेद और समवेद मन्त्रोंका भी ह्रास एवं विकल्पोंद्वारा अर्थ परिवर्तन कर दिया है। इस तरह प्रत्येक द्वापरयुगमै (पूर्वपरम्परासे चले आते हुए) वेदार्थको भित्रदर्शी ऋषिवृन्द परिवर्तित करते हैं। फिर इपरके बीत जानेपर कलियुगमें वे वेदार्थ शनैः-शनैः नष्ट हो जाते हैं। वेदार्थका विपर्यय हो जानेके कारण द्वापरके अन्तमें ही यथार्थ दृष्टिका लोप, असामयिक मृत्यु और व्याधियोंके उपद्रव प्रकट हो जाते हैं। तब मन-वचन-कर्मसे उत्पन्न हुए दुःखोंके कारण लोगोंके मनमें खेद उत्पन्न होता है। खेदाधिक्यके कारण दुःखसे मुक्ति पानेके लिये उनके मनमें विचार जाग्रत् होता है। फिर विचार उत्पन्न होनेपर वैराग्य, वैराग्यसे दोष-दर्शन और दोषोंके प्रत्यक्ष होनेपर ज्ञानकी उत्पत्ति होती है ॥ 10-20 ॥
इस प्रकार पूर्वकालमें स्वायम्भुव मन्वन्तरके द्वापरयुगमें उन मेधावी ऋषियोंके वंशमें इस भूतलपर शास्त्रोंके विरोधी लोग उत्पन्न होते हैं और उस युगमें आयुर्वेदमें विकल्प, ज्योतिषशास्त्र के अङ्ग विकल्प, अर्थशास्त्रमें विकल्प हेतुशास्त्रमें विकल्प, कल्पसूत्रोंकी प्रक्रियामें विकल्प भाष्यविद्यामें विकल्प, स्मृतिशास्त्रों में नाना प्रकारके भेद, पृथक् पृथक् मार्ग तथा मनुष्योंकी बुद्धियोंमें भेद प्रचलित हो जाते हैं। तब मन-वचन-कर्मसे लगे रहनेपर भी बड़ी कठिनाईसे लोगोंकी जीविका सिद्ध हो पाती है।इस प्रकार द्वापरयुगमें सभी प्राणियोंका जीवन भी कष्टसे ही चल पाता है। उस समय जनतामें लोभ, धैर्यहीनता, वाणिज्य-व्यवसाय, युद्ध, तत्त्वोंकी अनिश्चितता, वेदों एवं शास्त्रोंकी मनः कल्पित रचना, धर्मसंकरता, वर्णाश्रम धर्मका विनाश तथा काम और द्वेषकी भावना आदि दुर्गुणोंका प्राबल्य हो जाता है। उस समय लोगोंकी दो हजार वर्षोंकी पूर्णायु होती है। द्वापरकी समाप्तिके समय उसके चतुर्थांश में उसकी संध्याका काल आता है। उस समय लोग धर्मके गुणोंसे हीन हो जाते हैं। उसी प्रकार संध्याके चतुर्थ चरण में संध्यांशका समय उपस्थित होता है । ll 21-28 ॥
अब द्वापरयुगके बाद आनेवाले कलियुगका वृत्तान्त सुनिये। द्वापरको समाप्तिके समय जब अंशमात्र शेष रह जाता है, तब कलियुगकी प्रवृत्ति होती है। जीव-हिंसा, चोरी, असत्यभाषण, माया (छल-कपट-दम्भ) और तपस्वियोंकी हत्या—ये कलियुगके स्वभाव (स्वाभाविक गुण) हैं। वह प्रजाओंको भलीभाँति चरितार्थ कर देता है। यही उसका अविकल धर्म है। यथार्थ धर्मका तो विनाश हो जाता है। उस समय मन-वचन-कर्मसे प्रयत्न करनेपर भी यह संदेह बना रहता है कि जीविकाको सिद्धि होगी या नहीं। कलियुगमें विसूचिका, प्लेग आदि महामारक रोग होते हैं। इस घोर कलियुगमें भुखमरी और अकालका सदा भय बना रहता है। देशोंका उलट फेर तो होता ही रहता है। किसी प्रमाणमें स्थिरता नहीं रहती। कोई गर्भमें ही मर जाता है तो कोई नौजवान होकर, कोई मध्य जवानीमें तो कोई बुढ़ापामें। इस प्रकार लोग कलियुगमें अकालमें ही कालके शिकार बन जाते हैं। उस समय लोगोंका तेज और बल घट जाता है। उनमें पाप, क्रोध और धर्महीनता बढ़ जाती है। वे असत्यभाषी और लोभी हो जाते हैं। ब्राह्मणोंके अनिष्ट चिन्तन, अल्पाध्ययन, दुराचार और शास्त्र-ज्ञान हीनता-रूप कर्मदोषोंसे प्रजाओंको सदा भय बना रहता है कलियुग जीवोंमें हिंसा, अभिमान, ईर्ष्या, क्रोष असूण, असहिष्णुता, अधीरता, लोभ, मोह और संधोभ आदि दुर्गुण सर्वथा अधिक मात्रामें बढ़ जाते हैं। कलियुगके आनेपर ब्राह्मण न तो वेदोंका अध्ययन करते हैं और न यज्ञानुष्ठान ही करते हैं। क्षत्रिय भी वैश्योंके साथ (कर्मभ्रष्ट होकर) विनष्ट हो जाते हैं। कलियुगमें शूद्र मन्त्रोंके ज्ञाता हो जाते हैं और उनका शयन, आसन | एवं भोजनके समय ब्राह्मणोंके साथ सम्पर्क होता है।शूद्र ही अधिकतर राजा होते हैं। पाखण्डका प्रचार बढ़ जाता है। शूद्रलोग गेरुआ वस्त्र धारण कर हाथमें नारियलका कपाल लेकर काछ खोले हुए (संन्यासीके वेषमें) घूमते रहते हैं ।। 29-40 ॥ कुछ लोग देवताओंकी पूजा करते हैं तो कुछ लोग धर्मको दूषित करते हैं। कुछ लोगोंके आचार विचार दिव्य होते हैं तो कुछ लोग जीविकोपार्जनके लिये साधुका वेष बनाये रहते हैं। कलियुगमें अधिकतर इसी प्रकारके लोग होते हैं। उस समय शूद्रलोग धर्म और अर्थके ज्ञाता बनकर वेदोंका अध्ययन करते हैं। शूद्रयोनिमें उत्पन्न नृपतिगण अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान करते हैं। उस समय लोग स्त्री, बालक और गौओंकी हत्या कर, परस्पर एक-दूसरेको मारकर तथा अपहरण कर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। कलियुगमें कष्टका बाहुल्य हो जाता है। प्राणियोंकी आयु थोड़ी हो जाती है। देशोंमें उथल-पुथल होता रहता है। व्याधिका प्रकोप बढ़ जाता है। अधर्मकी ओर लोगोंकी विशेष रुचि हो जाती है। सभीके आचार-विचार तामसिक हो जाते हैं। प्रजाओंमें भ्रूणहत्याको प्रवृत्ति हो जाती है। इसी कारण कलियुगमें आयु, बल और रूपकी क्षीणता हो जाती है। दुःखोंसे संतप्त हुए लोगोंकी परमायु सौ वर्षकी होती है। कलियुगमें सम्पूर्ण वेद विद्यमान रहते हुए भी नहींके बराबर हो जाते हैं तथा धर्मके एकमात्र कारण यज्ञोंका विनाश हो जाता है। यह तो कलियुगकी दशा बतलायी गयी, अब उसकी संध्या और संध्यांशका वर्णन सुनिये। प्रत्येक युगमें तीन-तीन चरण व्यतीत हो जानेके बाद सिद्धियाँ घट जाती हैं, अर्थात् धर्मका ह्रास हो जाता है। उनकी संध्याओंमें युगका स्वभाव चतुर्थांश मात्र रह जाता है। उसी प्रकार संध्यांशोंमें संध्याका स्वभाव भी चतुर्थांश ही शेष रहता है ॥ 41-49 ॥
इस प्रकार स्वायम्भुव मन्वन्तरमें कलियुगके अन्तिम समयमें प्राप्त हुए संध्यांशकालमें उन अधर्मियोंका शासन करनेके लिये भृगुवंशमें चन्द्रगोत्रीय प्रमति * नामक राजा उत्पन्न होता है। वह अस्त्रधारी नरेश हाथी, घोड़े और रथोंसे भरी हुई सेनाको साथ लेकर तीस वर्षोंतक पृथ्वीपरभ्रमण करता है। उस समय उसके साथ आयुधधारी सैकड़ों हजारों ब्राह्मण भी रहते हैं। वह सामर्थ्यशाली वीर सभी म्लेच्छोंका विनाश कर देता है तथा शूद्रयोनिमें उत्पन्न हुए राजाओंका सर्वथा संहार करके सम्पूर्ण पाखण्डोंको भी निर्मूल कर देता है। वह सर्वत्र घूम-घूमकर सभी धर्महीनोंका वध कर देता है। शूद्रोंका विनाश करनेवाला वह महाबली राजा उत्तर दिशाके निवासी, मध्यदेशीय, पर्वतीय, पौरस्त्य, पाश्चात्य, विन्ध्याचलके ऊपर तथा तलहटियोंमें स्थित, दाक्षिणात्य, सिंहलोंसहित द्रविड, गान्धार, पारद, पहव, यवन, शक, तुषार, बर्बर क्षेत, हलीक, दरद, खस, लम्पक, आन्ध्रक तथा चोर जातियोंका संहारकर अपना शासनचक्र प्रवृत्त करता है। वह समस्त अधार्मिक प्राणियोंको खदेड़कर इस पृथ्वीपर विचरण करता हुआ सुशोभित होता है ॥ 50-58 3 ॥
पराक्रमी प्रमति पूर्व जन्ममें विष्णु था और इस जन्ममें महाराज मनुके वंशमें भूतलपर उत्पन्न हुआ था। पहले कलियुगमें वह वीर चन्द्रमाका पुत्र था। बत्तीस वर्षकी अवस्था होनेपर उसने बीस वर्षोंतक भूतलपर सर्वत्र घूम-घूमकर सभी धर्महीन मानवों एवं अन्य प्राणियोंका संहार कर डाला। उसने आकस्मिक कालके वशीभूत हो बिना किसी निमित्तके क्रूर कर्मद्वारा उस पृथ्वीको बीजमात्र अवशेष कर दिया। तत्पश्चात् प्रमतिके साथ जो विशाल सेना थी, वह सहसा गङ्गा और यमुनाके मध्यभागमें स्थित हो गयी और समाधिद्वारा सिद्धिको प्राप्त हो गयी। इस प्रकार युगके अन्तमें संध्यांशकालके प्राप्त होनेपर सभी अधार्मिक राजाओंका विनाश होता है उन क्रूरकर्मियोंके नष्ट हो जानेपर भूतलपर कहीं-कहीं थोड़ी-बहुत प्रजाएँ अवशिष्ट रह जाती हैं। वे लोग अपनी वस्तु दूसरेको देना नहीं चाहते। उनमें लोभको मात्रा अधिक होती है। वे लोग यूथ-के यूथ एकत्र होकर परस्पर एक-दूसरेकी वस्तु लूट खसोट लेते हैं तथा उन्हें मार भी डालते हैं। उस विनाशकारी संध्यांशके उपस्थित होनेपर अराजकता फैल जाती है। उस समय सारी प्रजामें परस्पर भय बना रहता है।लोग व्याकुल होकर देवताओं और गृहोंको छोड़कर उनसे मुख मोड़ लेते हैं। सभीको अपने-अपने प्राणोंकी रक्षाकी चिन्ता लगी रहती है। क्रूरताका बोलवाला होनेके कारण लोग अत्यन्त दुःखी रहते हैं। श्रौत एवं स्मार्त धर्म नष्ट हो जाता है। सभी लोग काम और क्रोधके वशीभूत हो जाते हैं। वे मर्यादा, आनन्द, स्नेह और लज्जासे रहित हो जाते हैं। धर्मके नष्ट हो जानेपर वे भी विनष्ट हो जाते हैं। उनका कद छोटा हो जाता है और उनकी आयु पचीस वर्षकी हो जाती है। विषादसे व्याकुल हुए लोग अपनी पत्नी और पुत्रोंको भी छोड़ देते हैं। वे अकालसे पीड़ित होनेके कारण जीविकाके साधनोंका परित्याग कर कष्ट झेलते हैं तथा अपने जनपदोंको छोड़कर निकटवर्ती देशोंकी शरण लेते हैं । ll 59-71 ॥
कुछ लोग भागकर नदियों, समुद्र तटवर्ती भागों तथा पर्वतोंका आश्रय ग्रहण करते हैं। वल्कल और काला मृगचर्म ही उनका परिधान होता है। वे क्रियाहीन और परिग्रहरहित हो जाते हैं तथा वर्णाश्रमधर्मसे भ्रष्ट होकर घोर संकर-धर्ममें आस्था करने लगते हैं। उस समय स्वल्प मात्रामें बची हुई प्रजा इस प्रकार कष्ट झेलती है। क्षुधासे पीड़ित जीव-जन्तु दुःखके कारण अपने जीवनसे ऊब जाते हैं, किंतु चक्रकी तरह घूमते हुए पुनः उन्हीं देशोंका आश्रय ग्रहण करते हैं। तदनन्तर वे सारी प्रजाएँ मांसाहारी हो जाती हैं। उनमें भक्ष्याभक्ष्यका विचार लुप्त हो जाता है। वे मृगों, सूकरों, वृषभों तथा अन्यान्य सभी वनचारी जीवोंको खाने लगती हैं। जो प्रजाएँ नदियों और समुद्रोंके तटपर निवास करती हैं, वे भी भोजनके लिये सर्वत्र मछलियोंको पकड़ती हैं। इस प्रकार अभक्ष्य भोजनके दोषके कारण सारी प्रजा एक वर्णकी हो जाती हैं, अर्थात् वर्णधर्म नष्ट हो जाता है जैसे पहले कृतयुगमें एक हो (हंसनामका) वर्ण था उसी तरह कलियुगके अन्तमें सारी प्रजाएँ वर्णकी हो जाती हैं। इस प्रकार उन प्रजाओंके पूरे एक सौ दिव्य वर्ष तथा मानुष गणनाके अनुसार छत्तीस हजार वर्ष व्यतीत होते हैं। इतने लम्बे समयमें क्षुधासे पीड़ित वे सभी | लोग सर्वत्र पशुओं, पक्षियों और मछलियोंको मारकरखा डालते हैं। इस प्रकार जब संध्यांशके प्रवृत्त होनेपर सारे मछली, पक्षी और पशु मारकर निःशेष कर दिये जाते हैं, तब पुनः लोग कन्दमूल खोदकर खाने लगते हैं। उस समय वे सभी गृहरहित होकर फल मूलपर ही जीवन निर्वाह करते हैं। वल्कल ही उनका वस्त्र होता है। वे सर्वत्र भूमिपर ही शयन करते हैं उनके परिग्रह | (स्त्री-परिवार आदि), अर्थशुद्धि और शौचाचार आदि सब नष्ट हो जाते हैं ।। 72-83 ॥
इस प्रकार उस समय थोड़ी बची हुई प्रजाएँ नष्ट हो जाती हैं। उनमें भी जो थोड़ी शेष रह जाती हैं, उनकी आहार-शुद्धिके कारण वृद्धि होती है। इस प्रकार कलियुगका संध्यांश एक सौ दिव्य वर्षोंका होता है। उन सौ वर्षों बीत जानेपर जो अल्पजीवी संतानोत्पत्ति होती है और इसके पूर्व जो प्रजाएँ उत्पन्न हुई थीं, वे सभी मर जाती हैं। उन संतानोंके उत्पन्न होनेपर कृतयुगका प्रारम्भ होता है। जैसे (मृत्युके पश्चात् प्राप्त हुए) प्राणियोंके शरीर स्वर्ग और नरकमें उपभोगके योग्य होते हैं, उसी तरह कृतयुग आदि युगोंमें भी होता है। उसी प्रकार वह नूतन संतान कृतयुगकी वृद्धि और कलियुगके विनाशका कारण होता है। आत्माकी साम्यावस्थाके विचारसे विरक्ति उत्पन्न होती है, उससे आत्मज्ञान होता है और ज्ञानसे धर्म-बुद्धि होती है। इसी कारण कलियुग के अन्तमें बये हुए लोगोंमें भावी प्रयोजनके प्रभावसे पुनः पूर्ववत् प्रजाएँ उत्पन्न होती हैं। तदनन्तर कृतयुगका आरम्भ होता है। उस समय मन्वन्तरोंमें जो भूत एवं भावी कर्म होते रहे हैं, वे सभी आवृत्त होने लगते हैं। इस प्रकार मैंने संक्षेपसे युगके स्वभावका वर्णन कर दिया ।। 84-91 ।।
अब मैं पुनः कृतयुगके प्रवृत होनेपर ब्राको नमस्कार करके उसका विस्तारपूर्वक आनुपूर्वी वर्णन कर रहा हूँ। कलियुगके अन्तमें बचे हुए लोगोंमें कृतयुगकी तरह ही संतानोत्पत्ति होती है। उस समय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जातियोंके बीजकी रक्षाके लिये जो सिद्धगण अदृष्टरूपसे विचरण करते हुए वर्तमान रहते हैं, वे सभी तथा सप्तर्षियोंके साथ जो अन्य लोग स्थित रहते हैं, वे सभी मिलकर कृतयुगमें क्रियाशील संततियोंके प्रति व्यवस्था विधान करते हैं और सर्षिगण उन्हें एवं | स्मार्त विधिके अनुसार वर्ण एवं आश्रमके आचारसे सम्पन्नधर्मका उपदेश देते हैं। इस प्रकार सप्तर्षियोंद्वारा प्रदर्शित धर्ममार्ग पर चलती हुई सारी प्रजा श्रत एवं स्मार्त विधिका पालन करती है। वे सप्तर्षि धर्मकी व्यवस्था करनेके लिये कृतयुगमें स्थित रहते हैं। वे ही ऋषिगण मन्वन्तरोंके कार्यकालतक स्थित रहते हैं। जैसे वनोंमें दावाग्निसे जली हुई पासोंकी जड़में प्रथम वृष्टि होनेपर पुनः अङ्कुर उत्पन्न हो जाते हैं, उसी प्रकार मन्वन्तरकी समाप्तिपर्यन्त एकसे दूसरे युगमें अविच्छिन्नरूपसे प्रजाओंगें परस्पर संतानकी परम्परा चलती रहती है सुख, आयु, बल, रूप, धर्म, अर्थ, काम- ये सब क्रमशः आनेवाले युगोंमें तीन चरणसे हीन हो जाते हैं। द्विजवरो! इस प्रकार मैंने आप लोगोंसे युगकी प्रतिसंधिका वर्णन किया । ll 92- 100 ॥
यही नियम सभी चारों युगोंके लिये हैं। ये चारों युग जब क्रमशः इकहत्तर बार बीत जाते हैं, तब उसे एक मन्वन्तरका समय कहा जाता है। एक मन्वन्तरके युगोंमें जैसा कार्यक्रम होता है, वैसा ही अन्य मन्वन्तरके युगोंमें भी क्रमशः होता रहता है। प्रत्येक सर्गमें जैसे भेद उत्पन्न होते हैं, वैसे ही चौदहों मन्वन्तरोंमें समझना चाहिये प्रत्येक युगमें समयानुसार असुर, यातुधान, पिशाच, यक्ष और राक्षस स्वभाववाली प्रजाएँ उत्पन्न होती हैं। अब उनके विषयमें सुनिये कल्पानुसार युगोंके साथ-साथ उन्हींके अनुरूप लक्षणोंवाली प्रजाएँ उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार क्रमशः युगका यह लक्षण बतलाया गया। मन्वन्तरोंका यह परिवर्तन युगोंके स्वभावानुसार चिरकालसे चला आ रहा है। इसलिये यह जीवलोक उत्पत्ति और विनाशके चक्करमें फँसा हुआ | क्षणमात्र भी स्थिर नहीं रहता। इस प्रकार आपलोगोंको ये युगस्वभाव क्रमशः बतलाये जा चुके अब इस कल्पमें जितने मन्वन्तर हैं, उनका वर्णन करूँगा ॥ 101-107॥