सूतजी कहते हैं-ऋषियो! इसके बाद अब मैं व्रत और उपवाससे समन्वित सभी दान-धर्मोका पूर्णरूपसे उसी प्रकार वर्णन कर रहा हूँ, जैसे इस मृत्युलोकमें मत्स्यभगवान्ने मनुके प्रति किया था। इसी प्रकार महादेवजी तथा बुद्धिमान् नारदजीके संवादमें धर्म, काम और अर्थको सिद्ध करनेवाला जैसा वृत्तान्त घटित हुआ था, उसे भी बतला रहा हूँ। पूर्वकालकी बात है, एक बार भगवान् शङ्कर, जो तीन नेत्रोंसे युक्त, कामदेवके शत्रु और कामदेवके शरीरको दग्ध कर देनेवाले हैं, कैलास पर्वतके शिखरपर सुखपूर्वक बैठे हुए थे, उसी समय देवर्षि नारदने उनके पास जाकर ऐसा प्रश्न किया ॥ 1-3 ॥ नारदजीने पूछा-भगवन्! आप तो देवेश्वरोंके भी देव तथा ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्रके अधीश्वर हैं, इसलिये यह बताइये कि आपका अथवा भगवान् विष्णुका भक्त पुरुष किस प्रकार धन-सम्पत्ति, नीरोगता, सौन्दर्य, आयु, भाग्य और सौभाग्यरूपी सम्पत्तिसे सम्पन्न हो सकता है? अथवा विधवा स्त्री (जन्मान्तरमें) किस प्रकार समस्त गुणों एवं सौभाग्यसे संयुक्त हो सकती है ? तथा देव! इस लोकमें कोई अन्य मुक्तिदायक व्रत हो तो क्रमशः उसे भी बतलाइये ॥ 4-5 ॥ईश्वरने कहा- ब्रह्मन् ! आपने तो बड़ा उत्तम प्रश्न किया, यह तो समस्त लोकोंके लिये हितकारी है। नारद! जो सुननेमात्रसे शान्ति प्रदान करनेवाला है, वह व्रत मेँ बतला रहा हूँ, सुनो। नक्षत्रपुरुष' नामक एक व्रत है, जो भगवान् नारायणका स्वरूप ही है। इस व्रतमें चैत्रमास आनेपर भगवान् विष्णु के नामोंका कीर्तन करते हुए विधिपूर्वक चरणसे लेकर मस्तकपर्यन्तकी एक विष्णुकी मूर्ति बनावे। | फिर ब्राह्मणद्वारा स्वस्तिवाचन कराकर मूल आदि नक्षत्रों में क्रमशः भगवान् विष्णुकी उस प्रतिमाका पूजन करे। मूल नक्षत्रमें 'विश्वधराय नमः ''विश्वके धारकको नमस्कार है'- यों कहकर दोनों चरणोंकी, रोहिणी नक्षत्रमें 'अनन्ताय नमः '' अनन्तको प्रणाम है- कहकर दोनों गुल्फोंकी तथा अश्विनी नक्षत्रमें 'वरदाय नमः ''वरदाताको अभिवादन है'- कहकर दोनों जानुओं और दोनों जङ्घाओंकी पूजा करे। पूर्वाषाढ़ और उत्तराषाढ़ नक्षत्रोंमें 'शिवाय नमः शिवजीको नमस्कार है'- कहकर दोनों ऊरुओंकी पूजा करे पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रोंमें 'पञ्चशराय नमः ''पाँच बाण धारण करनेवालेको प्रणाम है- कहकर जननेन्द्रियकी पूजा करे। नारद! कृत्तिकानक्षत्रमें 'शार्ङ्गधराय नमः शाङ्गधनुष धारण करनेवालेको अभिवादन है'- कहकर भगवान् विष्णुकी कटिका पूजन करे। इसी प्रकार पूर्वभाद्रपद और उत्तरभाद्रपद नक्षत्रोंमें केशिनिषूदनाय नमः - 'केशी नामक असुरके संहारकको नमस्कार है' कहकर दोनों पार्श्वभागों की पूजा करे। नारद! रेवती नक्षत्रमें 'दामोदराय नमः 'दामोदरको प्रणाम है'- कहकर दोनों कुक्षियोंकी पूजा करनी चाहिये। अनुराधा नक्षत्रमें 'माधवाय नमः' 'माधव (लक्ष्मीके प्राणपति) को अभिवादन है' कहकर वक्षःस्थलकी पूजा करे। धनिष्ठा नक्षत्रमें 'अघौघविध्वंसकराय नमः ' ' पापसमूहके विनाशकको नमस्कार है— कहकर पृष्ठभागकी पूजा करनी चाहिये। विधानश्रीचक्रासिगदाधराय नमः - लक्ष्मी, शङ्ख, चक्र, खड्ग और गदा धारण करनेवालेको प्रणाम है- कहकर भुजाओंका पूजन करना चाहिये ॥ 6-13 ॥हस्तनक्षत्रमें 'मधुसूदनाय नमः ' ' मधु नामक दैत्यके वधकर्ताको अभिवादन है' कहकर कैटभ नामक असुरके शत्रु भगवान् विष्णुके (चारों) हाथोंका पूजन करे। पुनर्वसुनक्षत्रमें 'सानामधीशाय नमः - 'सामवेदकी ऋचाओंके अधीश्वरको नमस्कार है' कहकर अङ्गलियोंके अग्रभागकी पूजा करे आश्लेषा नक्षत्रके दिन 'मत्स्यशरीरभाजः पादौ शरणं व्रजामि' 'मत्स्य शरीरधारीके चरणोंके शरणागत है'-कहकर नखोंकी पूजा करनी चाहिये। ज्येष्ठानक्षत्रमें 'कूर्मस्य | पादौ शरणं व्रजामि'' कर्मरूपधारी भगवान्के चरणोंकी | शरणमें जाता हूँ-कहकर कण्ठस्थानमें भगवान् श्रीहरिकी पूजा करनी चाहिये श्रवणनक्षत्रमें 'वराहाय नमः - 'वराहरूपधारी भगवान्को प्रणाम है' कहकर भगवान् जनार्दनके दोनों कानोंका भलीभाँति पूजन करे। पुष्य नक्षत्रमें 'दानवसूदनाय नृसिंहाय नमः ' 'दानवोंके विनाशक नृसिंहरूपधारी भगवान्को अभिवादन है' कहकर मुखकी अर्चना करनी चाहिये स्वातीनक्षत्रमें 'कारणवामनाय नमो नमः -'कारणवश वामनरूपधारी भगवान्को बारम्बार नमस्कार है- कहकर दाँतोंके अग्रभागकी पूजा करनी चाहिये। द्विजवर नारद। शतभिष् नक्षत्र में 'भार्गवनन्दनाय नमः भार्गवनन्दन परशुरामजीको प्रणाम है' कहकर मुखके मध्यभागका पूजन करे। मधानक्षत्रमें 'रामाय नमोऽस्तु' – श्रीरामको अभिवादन है' कहकर श्रीरघुनन्दनकी नासिकाकी भलीभाँति पूजा करनी चाहिये। मृगशिरानक्षत्र में 'विपूर्णिताक्ष राम! ते नमोऽस्तु'-'तिरछी चितवनसे युक्त राम! आपको नमस्कार है- कहकर उत्तमाङ्गरूप नेत्रोंकी पूजा चित्रानक्षत्रमें 'शान्ताय बुद्धाय नमः ''परम शान्त बुद्धभगवान्को प्रणाम है' कहकर भगवान् मुरारिके ललाटका पूजन करना चाहिये। भरणीनक्षत्रमें 'विश्वेश्वर कल्किरूपिणे नमोऽस्तु' –'विश्वेश्वर कल्किरूपधारी आपको अभिवादन है' कहकर भगवान् विष्णुके सिरका पूजन करे। आर्द्रानक्षत्रमें 'हरये नमस्ते' 'श्रीहरिको नमस्कार है' कहकर पुरुषोत्तमभगवान्के बालोंकी पूजा करनी चाहिये। व्रती मनुष्यद्वारा उपर्युक्त नक्षत्र दिनोंमें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंका भी भक्तिपूर्वक सम्यक् प्रकारसे पूजन करते रहना चाहिये ॥ 14 - 20 ॥इस प्रकार व्रतके समाप्त होनेपर जो सम्पूर्ण सद्गुणोंसे सम्पन्न, वक्ता, सौन्दर्यशाली, सुशील और सामवेदका ज्ञाता हो, ऐसे श्रेष्ठ ब्राह्मणको उस स्वर्णनिर्मित एवं मुक्ताफल, चन्द्रकान्त-मणि और हीरेसे खचित जलपूर्ण कलशमें रखी हुई विशाल एवं लम्बी भुजाओंवाली श्रीहरिकी अर्चा- मूर्तिका वस्त्र और गौके साथ दान कर देना चाहिये। साथ ही पात्र आदि सभी सामग्रियोंसे युक्त शय्याका भी दान करना चाहिये। इस प्रकार उस समय अपने पास जो कुछ भी दान देनेयोग्य वस्तु हो, वह सब अपने कल्याणके लिये उस ब्राह्मणको दान कर दे और उससे यों प्रार्थना करे- 'ब्रह्मा, विष्णु और शिवस्वरूप | द्विजवर आप हमारे मनोरथको सफल कीजिये।' स्वर्णनिर्मित लक्ष्मीसहित पुरुषोत्तमभगवान्की मूर्तिका तथा ग्रन्थिभेदरहित शय्याका मन्त्रोच्चारणपूर्वक सपत्नीक ब्राह्मणको दान करनेका विधान है। उस समय ऐसी प्रार्थना करे- 'भगवन्! जैसे विष्णु भक्तोंको कहीं भी कष्ट नहीं प्राप्त होता, वैसे ही मुझे भी (आपकी कृपासे) सुन्दर रूप, नीरोगता और | आप भगवान् केशवके प्रति उत्तम भक्ति प्राप्त हो जनार्दन! जैसे आपकी शय्या कभी लक्ष्मीसे शून्य नहीं रहती, श्रीकृष्ण! वैसे ही मेरी भी शय्या प्रत्येक जन्ममें अशून्य बनी रहे।' इस प्रकार निवेदन कर वस्त्र, माला, चन्दन आदि सभी वस्तुएँ नक्षत्रपुरुष व्रतके ज्ञाता ब्राह्मणको देकर व्रतका विसर्जन करना चाहिये। इस प्रकार सभी नक्षत्रोंमें उपवास करके एक बार तेल और नमकरहित भोजन करनेका विधान है। वह भोजन शक्तिके अनुसार उपयुक्त होना चाहिये। उसमें कृपणता नहीं करनी चाहिये। इस प्रकार स्वयं विधिपूर्वक नक्षत्रपुरुषकी उपासना करके मनुष्य इस लोकमें सभी कामनाओंको प्राप्त कर लेता है और मृत्युके पश्चात् विष्णुलोकमें पूजित होता है। साथ ही इहलोक अथवा परलोकमें अपने अथवा पितरोंद्वारा जो कुछ भी ब्रह्महत्या आदि पाप घटित हुए रहते हैं, वे सभी नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार श्रेष्ठ पुरुष अथवा स्त्री-जो कोई भी हो, उसे इस व्रतका पठन, श्रवण और अनुष्ठान करना चाहिये। भगवान् मुरारिका यह व्रत कलिके प्रभावसे घटित हुए पापोंको विदीर्ण करनेवाला और समस्त विभूतियोंके फलका [प्रदाता] है ।। 21-31 ॥