View All Puran & Books

मत्स्य पुराण (मत्स्यपुराण)

Matsya Purana (Matsyapurana )

अध्याय 163 - Adhyaya 163

Previous Page 163 of 291 Next

नरसिंह और हिरण्यकशिपुका भीषण युद्ध, दैत्योंको उत्पातदर्शन, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, नरसिंहद्वारा हिरण्यकशिपुका वध तथा ब्रह्मद्वारा नरसिंहकी स्तुति

सूतजी कहते हैं— ऋषियो ! उन दानवोंमें किन्होंके मुख गधे और कुत्तेके समान थे तो कुछ मकर और सर्पके-से मुखवाले थे। किन्होंके मुख भेड़िया सदृश तो कुछके सूअर जैसे थे। कुछ उदयकालीन सूर्यके समान तो कुछ धूमकेतु से मुखवाले थे। किन्होंके मुख अर्धचन्द्र तथा किन्होंके अग्निको तरह उद्दीत थे। किन्होंका मुख आधा ही था किन्हींके मुख हंस और मुर्गेके समान थे। 1 किन्होंके मुख फैले हुए थे, जो बड़े भयावने लग रहे थे। कुछ सिंहके से मुखवाले दानव जीभ लपलपा रहे थे। किन्हींके मुख कौओं और गोधों जैसे थे। किन्हींके मुखमें दो जिह्वाएँ थीं, किन्होंके मस्तक टेढ़े थे और कुछ उल्का सरीखे मुखवाले थे। किन्हींके मुख महाग्राह सदृश थे। इस प्रकार वे बलाभिमानी दानव रणभूमि में पर्वतके समान सुदृढ़ शरीरवाले उन अवध्य मृगेन्द्रके शरीरपर बाणोंकी वृष्टि करके उन्हें पीड़ित न कर सके। तब क्रुद्ध हुए सर्पकी भाँति निःश्वास छोड़ते हुए वे दानवेश्वर नरसिंहके ऊपर पुनः दूसरे भयंकर बाणोंको वृष्टि करने लगे, परंतु दानवेश्वरोंद्वारा छोड़े गये वे भयंकर बाण उसी प्रकार आकाशमें विलीन हो जाते थे, जैसे पर्वतपर चमकते हुए जुगनू तत्पश्चात् क्रोधसे भरे हुए दैत्य शीघ्र ही नरसिंहके ऊपर चारों ओरसे चमकते हुए दिव्य चक्रोंकी वर्षा करने लगे। इधर-उधर गिरते हुए उन चक्रोंसे आकाशमण्डल ऐसा दीख रहा था, मानो युगान्तके समय प्रकाशित हुए चन्द्रमा, सूर्य आदि ग्रहोंसे युक्त हो गया हो। अग्निकी लपटोंके समान उठते हुए उन सभी चक्रोंको महात्मा नरसिंह निगल गये। उस समय उनके मुखमें प्रविष्ट होते हुए वे चक्र मेघोंकी घनघोर घटामें घुसते हुए चन्द्र, सूर्य एवं अन्यान्य ग्रहोंकी भाँति सुशोभित हो रहे थे ॥ 1-11 ॥

यिकशिपुने भगवान नरसिंहपर पुनः अपनी भयंकर शक्ति छोड़ी, जो चमकीली, अत्यन्त शक्तिशालिनी और धुली होनेके कारण बिजली-सी चमकरही थी तब उस उज्वल शक्तिको अपनी ओर आती | हुई देखकर भगवान् नरसिंहने अपने भयंकर हुंकारसे ही उसे तोड़कर टूक-टूक कर दिया। नरसिंहद्वारा तोड़ी गयी वह शक्ति ऐसी शोभा पा रही थी, जैसे आकाशमें भूतलपर गिरी हुई चिनगारियों सहित प्रज्वलित महान् उल्का हो। नरसिंहके निकट पहुँची हुई (दैत्योंद्वारा छोड़े गये) वाणोंकी उज्ज्वल वर्णवाली पंक्ति नीले कमल दलकी मालाकी तरह शोभा पा रही थी। यह देखकर भगवान् नरसिंहने न्यायतः पराक्रम प्रदर्शित कर सुखपूर्वक गर्जना की और उस दानवसेनाको वायुद्वारा उड़ाये गये क्षुद्र तिनकोंकी तरह खदेड़ दिया। तदुपरान्त दैत्येश्वरगण आकाशमें स्थित होकर पत्थरकी वर्षा करने लगे। पत्थरोंकी वह वर्षा नरसिंहके विशाल मस्तकपर गिरकर चूर-चूर हो जुगनुओंके समूहकी भाँति दसों दिशाओंमें बिखर गयी तब दैत्यगणोंने पुनः पर्वत- सरीखे शिलाखण्डों, पर्वत शिखरों और पत्थरोंसे उन शत्रुसूदन नरसिंहको इस प्रकार आच्छादित कर दिया, जैसे मेघ जलकी धाराद्वारा पर्वतको ढक देते हैं। फिर भी वह दैत्यसमुदाय उन देवश्रेष्ठ नरसिंहको उसी प्रकार विचलित नहीं कर सका, जैसे भयंकर वेगशाली समुद्र पर्वतश्रेष्ठ मन्दरको नहीं डिगा सका ll 12–20 ॥

तदनन्तर पत्थरोंकी वृष्टिके विफल हो जानेपर चारों ओर मूसलाधार जलकी वृष्टि होने लगी। चारों ओर आकाशसे गिरती हुई वे तीव्र वेगशाली धाराएँ सब ओरसे आकाश, दिशाओं तथा विदिशाओंको आच्छादित करके लगातार भूतलपर गिर रही थीं। यद्यपि वे धाराएँ आकाश तथा पृथ्वीपर सर्वत्र सब प्रकारसे व्याप्त थीं, तथापि वे भगवान् नरसिंहका स्पर्श नहीं कर पा रही थीं। युद्धभूमिमें मायाद्वारा मृगेन्द्रका रूप धारण करनेवाले भगवान् के ऊपर वे धाराएं नहीं गिर रही थीं, अपितु बाहर चारों ओर वर्षा कर रही थीं। इस प्रकार जब वह शिलावृष्टि नष्ट कर दी गयी और घनघोर जलदृष्टि सोख ली गयी, तब दानवराज हिरण्यकशिपुने अग्नि और वयुद्वारा प्रेरित माया विस्तार किया, किंतु परम कान्तिमान् सहस्र नेत्रधारी महेन्द्रने बादलोंके साथ वहाँ आकर | जलकी घनघोर वृष्टिसे उस अग्निको शान्त कर दिया।युद्धस्थलमें उस मायाके नष्ट हो जानेपर उस दानवने चारों ओर भयंकर दीखनेवाले घने अन्धकारको सृष्टि की। उस समय सारा जगत् अन्धकारसे ढक गया और दैत्यगण अपना-अपना हथियार लिये डटे रहे। उसके मध्य अपने तेजसे घिरे हुए भगवान् नरसिंह सूर्यकी तरह शोभा पा रहे थे। दानवोंने रणभूमि नरसिंहके ललाटमें स्थित त्रिशूलकी सी आकारवाली उनकी त्रिशिखा भृकुटिको देखा, जो त्रिपथगा गङ्गाकी तरह प्रतीत हो रही थी ॥ 21 - 29 ॥ इस प्रकार सभी मायाओंके नष्ट हो जानेपर तेजोहीन दैत्य अपने स्वामी हिरण्यकशिपुकी शरणमें गये। यह देख वह अपने तेजसे जगत्‌को जलाता-सा क्रोधसे प्रज्वलित हो उठा। उस दैत्येन्द्रके क्रुद्ध होनेपर सारा जगत् अन्धकारमय हो गया। पुनः आवह, प्रवह, विवह, उदावह, परावह, संवह तथा श्रीमान् परिवह—ये महान् बल एवं पराक्रमसे सम्पन्न आकाशचारी सातों वायुमार्ग उत्पातके भयकी सूचना देते हुए क्षुब्ध हो उठे। समस्त लोकोंके विनाशके अवसरपर जो ग्रह प्रकट होते हैं, वे सभी आकाशमें दृष्टिगोचर होकर सुखपूर्वक विचरण करने लगे। राहुने अमा एवं पूर्णिमाके बिना ही ग्रहणका | दृश्य उपस्थित कर दिया। रातमें नक्षत्रों और ग्रहोंसहित राकापति शत्रुसूदन चन्द्रमा और दिनमें भगवान् सूर्य कान्तिहीन हो गये तथा आकाशमें अत्यन्त विशाल काले रंगका कबन्ध (धूमकेतु) दिखायी देने लगा। भगवान् अग्नि एक ओर पृथ्वीपर रहकर चिनगारियाँ छोड़ने लगे और दूसरी ओर वे निरन्तर आकाशमें भी स्थित दिखायी दे रहे थे। आकाशमण्डलमें धुएँकी-सी कान्तिवाले सात भयंकर सूर्य प्रकट हो गये। ग्रहगण आकाशमें स्थित चन्द्रमाके शिखरपर स्थित हो गये। उनके वामभागमें शुक्र और दाहिने भागमें बृहस्पति स्थित हो गये। अग्निके समान कान्तिमान् शनैश्चर और मङ्गल भी दृष्टिगोचर हुए। युगान्तके समय प्रकट होनेवाले वे सभी भयंकर | ग्रह शनैः-शनैः एक साथ शिखरोंपर आरूढ़ हो आकाशमें विचरण करने लगे ॥ 30-40 ॥

इसी प्रकार अन्धकारका विनाश करनेवाले चन्द्रमा नक्षत्रों और ग्रहोंके साथ रहकर चराचर जगत्‌का विनाश करनेके लिये रोहिणीका अभिनन्दन नहीं कर रहे थे। राहु चन्द्रमाको ग्रस्त कर रहा था और उल्काएँ उन्हें मार | भी रही थीं। प्रज्वलित उल्काएँ चन्द्रलोकमें सुखपूर्वकविचरण कर रही थीं। जो देवताओंका भी देवता (इन्द्र) है, वह रक्तकी वर्षा करने लगा। आकाशसे बिजलीकी सी कान्तिवाली उल्काएँ भयंकर शब्द करती हुई पृथ्वीपर गिरने लगीं। सभी वृक्ष असमयमें ही फूलने और फलने लगे तथा सभी लताएँ फलसे युक्त हो गयीं, जो दैत्योंके विनाशकी सूचना दे रही थीं। फलोंसे फल तथा फूलोंसे फूल प्रकट होने लगे। सभी देवताओंकी मूर्तियाँ कभी आँख फाड़कर देखती, कभी आँखें बंद कर लेतीं, कभी हँसती थीं तो कभी रोने लगती थीं। वे कभी जोर-जोरसे चिल्लाने लगती थीं, कभी गम्भीररूपसे धुआँ फेंकती थीं तो कभी प्रज्वलित हो जाती थीं। इस प्रकार वे महान् भयकी सूचना दे रही थीं। उस समय ग्रामीण मृग-पक्षी वन्य मृगपक्षियोंसे संयुक्त होकर अत्यन्त भयंकर महान् युद्ध करने लगे। गंदे जलसे भरी हुई नदियाँ उलटी दिशामें बहने लगीं। रक्त और धूलसे व्याप्त दिशाएँ | दिखायी नहीं दे रही थीं। पूजनीय वृक्षोंकी किसी प्रकार पूजा (रक्षा) नहीं हो रही थी वे वायुके झोकेसे प्रताडित हो रहे थे, झुक जाते थे और टूट भी जाते थे । ll 41 - 49 ।। इस प्रकार लोकोंके युगान्तके समय सूर्यके अपराह्नसमयमें पहुँचनेपर जब सभी प्राणियोंकी छायामें कोई परिवर्तन नहीं दीखने लगा तब दैत्यराज हिरण्यकशिपुके महल, भाण्डारागार और आयुधागारके ऊपर मधु टपकने लगा। इस प्रकार असुरोंके विनाश और देवताओंकी विजयके लिये भयकी सूचना देनेवाले अनेकों प्रकारके भयंकर उत्पात दिखायी दे रहे थे। ये तथा इनके अतिरिक्त और भी बहुत-से भयंकर उत्पात, जो कालद्वारा निर्मित थे, दैत्येन्द्र हिरण्यकशिपुके विनाश के लिये प्रकट हुए दीख रहे थे। महान् आत्मबलसे सम्पन्न दैत्येन्द्र हिरण्यकशिपुद्वारा पृथ्वीके प्रकम्पित किये जानेपर पर्वत तथा अमित तेजस्वी नागगण गिरने लगे। वे चार, पाँच अथवा सात सिरवाले नाग विषकी ज्वालासे व्याप्त मुखोद्वारा अग्नि उगलने लगे। वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, धनजय, एलामुख, कालिय, पराक्रमी महापद्म, एक हजार फणोंवाला सामर्थ्यशाली नाग हेमतालध्वज तथा महान् भाग्यशाली अनन्त शेषनाग—इन सबका काँपना | यद्यपि अत्यन्त कठिन था, तथापि ये सभी काँप उठे।उसने चारों ओर जलके भीतर स्थित रहनेवाले उदीत पर्वतोंको भी अत्यन्त क्रोधवश कैंपा दिया। उस समय पाताललोकमें विचरण करनेवाले तेजस्वी नाग भी प्रकम्पित हो उठे। इस प्रकार दैत्यराज हिरण्यकशिपु क्रोधवश दाँतोंसे होंठों को दबाये हुए जब पृथ्वीपर खड़ा हुआ तो वह पूर्वकालमें प्रकट हुए वाराहकी तरह दीख रहा था ।। 50-593 ।।

इसी प्रकार भागीरथी नदी, सरयू कौशिकी, यमुना, कावेरी, कृष्णवेणा नदी, महाभागा सुवेगा, गोदावरी नदी, चर्मण्वती, सिन्धु नद और नदियोंका स्वामी, कमल उत्पन्न करनेवाला तथा मणिसदृश जलसे परिपूर्ण शोण, पुण्यसलिला नर्मदा, वेत्रवती नदी, गोकुलसे सेवित होनेवाली गोमती, प्राचीसरस्वती, मही, कालमही, तमसा, पुष्पवाहिनी, जम्बूद्वीप, सम्पूर्ण रत्नोंसे सुशोभित रत्नवट, सुवर्णकी खानोंसे युक्त सुवर्णप्रकट, पर्वतों और काननोंसे सुशोभित महानद लौहित्य ऋषियों और वीरजनोंका उत्पत्तिस्थानस्वरूप कोशकरण नामक नगर, बड़े-बड़े ग्रामोंसे युक्त मागध, मुण्ड, शुङ्ग, सुझ, मल, विदेह, मालव, काशी, कोसल-इन सबको तथा गरुडके भवनको, जो कैलासके शिखरकी-सी आकृतियाला था तथा जिसे विश्वकर्माने बनाया था, उस दैत्येन्द्रने प्रकम्पित कर दिया। रक्तरूपी जलसे भरा हुआ महान् भयंकर लौहित्य सागर तथा जो स्वर्णमयी वेदिकासे युक्त, शोभाशाली, मेघकी पतियोंद्वारा सुसेवित और सूर्य-सदृश एवं स्वर्णमय खिले हुए साल, ताल, तमाल और कनेरके वृक्षोंसे सुशोभित है, वह सौ योजन ऊँचा महान् पर्वत उदयाचल, धातुओंसे विभूषित अयोमुख नामक विख्यात पर्वत, तमाल-वनके गन्धसे सुवासित सुन्दर मलय पर्वत, सुराष्ट्र, बाह्रीक, शूर, आभीर, भोज, पाण्डवङ्गकलिङ्ग ताम्रलिक, उण्डू पौण्ड केरल इन सबको तथा देवों और अप्सराओंके समूहोंको उस दैत्यने क्षुब्ध कर दिया ।। 60-73 ।।

इसी प्रकार जो पहले अगम्य कर दिया गया तथा सिद्धों और चारणोंके समूहोंसे व्याप्त,मनोहर, नाना प्रकारके रंग-विरंगे पक्षियोंसे युक्त और पुष्पोंसे लदे हुए महान् वृक्षोंसे सुशोभित था, उस अगस्त्य भवनको भी कैंपा दिया। इसके बाद जो लक्ष्मीवान्, प्रियदर्शन और अपने अत्यन्त ऊंचे शिखरोंसे आकाशमें रेखा-सी खींच रहा था तथा चन्द्रमा और सूर्यको विश्राम देनेके लिये सागरका भेदन कर बाहर निकला था, वह पुष्पितक गिरि अपने स्वर्णमय शिखरोंसे शोभा पा रहा था। फिर चन्द्रमा और सूर्यकी किरणों के समान चमकीले एवं सागरके जलसे घिरे हुए शिखरोंसे युक्त शोभाशाली विद्युत्वान् पर्वत था, जो सब ओरसे सौ योजन विस्तृत था। उस पर्वत श्रेष्ठपर बिजलियोंके समूह गिराये जाते थे। वृषभ नामसे पुकारा जानेवाला शोभासम्पन्न ऋषभ पर्वत तथा शोभाशाली कुंजर पर्वत, जिसपर महर्षि अगस्त्यका सुन्दर आश्रम था। सर्पका दुर्धर्य निवासस्थान विशालाक्ष तथा भोगवती पुरी- ये सभी दैत्येन्द्रद्वारा प्रकम्पित कर दिये गये। द्विजवरो! वहाँ महासेन गिरि, पारियात्र पर्वत, गिरिश्रेष्ठ चक्रवान्, वाराह पर्वत, स्वर्णनिर्मित रमणीय प्राग्ज्योतिषपुर, जिसमें नरक नामक दुष्टात्मा दानव निवास करता है, बादलोंके | समान गम्भीर शब्द करनेवाला पर्वतश्रेष्ठ मेघ आदि साठ हजार पर्वत थे, वहीं मध्याह्नकालीन सूर्यके समान प्रकाशमान विशाल पर्वत मेरु था, जिसकी कन्दराओंमें यक्ष, राक्षस और गन्धर्व नित्य निवास करते थे। महान् पर्वत हेमगर्भ, हेमसख गिरि तथा पर्वतराज कैलास इन सबको भी दानवेन्द्र हिरण्यकशिपुने कैंपा दिया ॥ 74-84 ॥

हिरण्यकशिपुने स्वर्ण-सदृश कमल-पुष्पोंसे आच्छादित वैखानस सरोवर तथा हंसों और बतखोंसे भरे हुए मानसरोवरको भी कम्पित कर दिया। इसके बाद त्रिभृङ्ग पर्वत, नदियोंमें श्रेष्ठ कुमारी नदी, तुषारसमूहसे आच्छादित मन्दर पर्वत उशीरविन्दु गिरि, पर्वतराज चन्द्रप्रस्थ प्रजापति गिरि, पुष्कर पर्वत, देवाभ्र पर्वत, रेणुक गिरि, क्राँच पर्वत, सप्तर्पिशैल तथा धूम्रवर्ण पर्वत - इनको तथा इनके अतिरिक्त अन्यान्य पर्वतों देशों, जनपदों तथा सागरोंसहित सभी नदियोंको उस दानवने कम्पित कर दिया। साथ | ही महीपुत्र कपिल और व्यप्रवान् भी काँप उठे।आकाशचारी एवं पाताललोकमें निवास करनेवाले सतीके पुत्र, अङ्कुशको अस्त्ररूपमें धारण करनेवाला परम भयंकर मेघ नामक गण तथा उर्ध्वग और भीमवेग— ये सभी कँपा दिये गये। तदनन्तर जो गदा और त्रिशूल धारण किये हुए था, जिसकी आकृति बड़ी विकराल थी, जो देवताओंका शत्रु, घने बादलके समान कान्तिमान्, घने बादल जैसा बोलनेवाला, घने बादल-सदृश गरजनेवाला और बादल सा वेगशाली था, उस दितिनन्दन वीरवर हिरण्यकशिपुने भगवान् नरसिंहपर आक्रमण किया। तब युद्धस्थलमें ओंकारकी सहायतासे भगवान् नरसिंहने आकाशमें उछलकर अपने तीखे विशाल नखोंसे उनके वक्ष:स्थलको विदीर्ण कर उसे मार डाला ।। 85-94 ॥

इस प्रकार उस दितिपुत्र हिरण्यकशिपुके मौतके मुखमें चले जानेसे पृथ्वी, काल, चन्द्रमा, आकाश, ग्रहगण, सूर्य, सभी दिशाएँ, नदियाँ, पर्वत और महासागर प्रसन्न हो गये। तदनन्तर हर्षसे फूले हुए देवता और तपोधन ऋषिगण दिव्य नामोंद्वारा उन अविनाशी आदि देवकी स्तुति करते हुए कहने लगे- 'देव! आपने जो यह नरसिंहका शरीर धारण किया है, इसकी पूर्वापरके ज्ञाता लोग अर्चना करेंगे' ॥ 95 - 97 ॥

ब्रह्माजीने कहा- देव! आप ही ब्रह्मा, रुद्र और देवश्रेष्ठ महेन्द्र हैं। आप ही लोकोंके कर्ता, संहर्ता और उत्पत्तिस्थान हैं। आपका कभी विनाश नहीं होता। आपको ही परमोत्कृष्ट सिद्धि परात्पर देव, परम मन्त्र, परम हवि, परम धर्म, परम विश्व और आदि पुराणपुरुष कहा जाता है। आपको ही परम शरीर, परम ब्रह्म, परम योग, परमा वाणी, परम रहस्य, परम गति और अग्रजन्मा पुराण पुरुष कहा जाता है। इसी प्रकार जो परात्पर पद, परात्पर देव, परात्पर भूत और सर्वश्रेष्ठ पुराणपुरुष है, वह आप ही हैं।जो परात्पर रहस्य, परात्पर महत्त्व और परात्पर महत्तत्त्व है, वह सब आप अग्रजन्मा पुराणपुरुषको ही कहा जाता है। आप सर्वश्रेष्ठ पुराणपुरुषको परसे भी परम निधान, परसे भी परम पवित्र और परसे भी परम उदार कहा जाता है। ऐसा कहकर सम्पूर्ण लोकोंके पितामह सामर्थ्यशाली भगवान् ब्रह्मा नारायणदेवकी स्तुति कर ब्रह्मलोकको चले गये। उस समय तुरहियाँ बज रही थीं और अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं। इसी बीच जगदीश्वर श्रीहरि क्षीरसागरके उत्तर तटपर जानेके लिये उद्यत हुए। वहाँसे जाते समय | भगवान् गरुडध्वजने परम कान्तिमान् उस नरसिंह- शरीरको जगत्में स्थापित कर अपने पुराने रूपको धारण कर लिया था। फिर अव्यक्त प्रकृतिवाले भगवान् विष्णु पञ्चभूतोंसे युक्त एवं चमकीले आठ पहियेवाले रथपर सवार हो अपने निवास स्थानको चले गये ॥ 98- 107 ॥

Previous Page 163 of 291 Next

मत्स्य पुराण
Index


  1. [अध्याय 1]मङ्गलाचरण, शौनक आदि मुनियोंका सूतजीसे पुराणविषयक प्रश्न, सूतद्वारा मत्स्यपुराणका वर्णनारम्भ, भगवान् विष्णुका मत्स्यरूपसे सूर्यनन्दन मनुको मोहित करना, तत्पश्चात् उन्हें आगामी प्रलयकालकी सूचना देना
  2. [अध्याय 2]मनुका मत्स्यभगवान्से युगान्तविषयक प्रश्न, मत्स्यका प्रलयके स्वरूपका वर्णन करके अन्तर्धान हो जाना, प्रलयकाल उपस्थित होनेपर मनुका जीवोंको नौकापर चढ़ाकर उसे महामत्स्यके सींगमें शेषनागकी रस्सीसे बाँधना एवं उनसे सृष्टि आदिके विषयमें विविध प्रश्न करना और मत्स्यभगवान्‌का उत्तर देना
  3. [अध्याय 3]मनुका मत्स्यभगवान् से ब्रह्माके चतुर्मुख होने तथा लोकोंकी सृष्टि करनेके विषयमें प्रश्न एवं मत्स्य भगवानद्वारा उत्तररूपमें ब्रह्मासे वेद, सरस्वती, पाँचवें मुख और मनु आदिकी उत्पत्तिका कथन
  4. [अध्याय 4]पुत्रीकी और बार-बार अवलोकन करनेसे ब्रह्मा दोषी क्यों नहीं हुए- एतद्विषयक मनुका प्रश्न, मत्स्यभगवान्का उत्तर तथा इसी प्रसङ्गमें आदिसृष्टिका वर्णन
  5. [अध्याय 5]दक्षकन्याओं की उत्पत्ति, कुमार कार्त्तिकेयका जन्म तथा दक्षकन्याओं द्वारा देवयोनियोंका प्रादुर्भाव
  6. [अध्याय 6]कश्यप-वंशका विस्तृत वर्णन
  7. [अध्याय 7]मरुतोंकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें दितिकी तपस्या, मदनद्वादशी व्रतका वर्णन, कश्यपद्वारा दितिको वरदान, गर्भिणी स्त्रियोंके लिये नियम तथा मरुतोंकी उत्पत्ति
  8. [अध्याय 8]प्रत्येक सर्गके अधिपतियोंका अभिषेचन तथा पृथुका राज्याभिषेक
  9. [अध्याय 9]मन्वन्तरोंके चौदह देवताओं और सप्तर्षियोंका विवरण
  10. [अध्याय 10]महाराज पृथुका चरित्र और पृथ्वी दोहनका वृत्तान्त
  11. [अध्याय 11]सूर्यवंश और चन्द्रवंशका वर्णन तथा इलाका वृत्तान्त
  12. [अध्याय 12]इलाका वृत्तान्त तथा इक्ष्वाकु वंशका वर्णन
  13. [अध्याय 13]पितृ-वंश-वर्णन तथा सतीके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें देवीके एक सौ आठ नामोंका विवरण
  14. [अध्याय 14]अच्छोदाका पितृलोकसे पतन तथा उसकी प्रार्थनापर पितरोंद्वारा उसका पुनरुद्धार
  15. [अध्याय 15]पितृवंशका वर्णन, पीवरीका वृत्तान्त तथा श्रद्ध-विधिका कथन
  16. [अध्याय 16]श्राद्धोंके विविध भेद, उनके करनेका समय तथा श्राद्धमें निमन्त्रित करनेयोग्य ब्राह्मणके लक्षण
  17. [अध्याय 17]साधारण एवं आभ्युदयिक श्राद्धकी विधिका विवरण
  18. [अध्याय 18]एकोदिए और सपिण्डीकरण श्राद्धकी विधि
  19. [अध्याय 19]श्राद्धों में पितरोंके लिये प्रदान किये गये हव्य-कव्यकी प्राप्तिका विवरण
  20. [अध्याय 20]महर्षि कौशिकके पुत्रोंका वृत्तान्त तथा पिपीलिकाकी कथा
  21. [अध्याय 21]ब्रह्मदत्तका वृत्तान्त तथा चार चक्रवाकोंकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22]श्राद्धके योग्य समय, स्थान (तीर्थ) तथा कुछ विशेष नियमोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23]चन्द्रमाकी उत्पत्ति, उनका दक्ष प्रजापतिकी कन्याओंके साथ विवाह, चन्द्रमाद्वारा राजसूय यज्ञका अनुष्ठान, उनकी तारापर आसक्ति, उनका भगवान् शङ्करके साथ युद्ध तथा ब्रह्माजीका बीच-बचाव करके युद्ध शान्त करना'
  24. [अध्याय 24]ताराके गर्भसे बुधकी उत्पत्ति, पुरूरवाका जन्म, पुरूरवा और उर्वशीकी कथा, नहुष-पुत्रोंके वर्णन-प्रसङ्गमें ययातिका वृत्तान्त
  25. [अध्याय 25]कचका शिष्यभावसे शुक्राचार्य और देवयानीकी सेवामें संलग्न होना और अनेक कष्ट सहनेके पश्चात्मृतसंजीविनी विद्या प्राप्त करना
  26. [अध्याय 26]देवयानीका कचसे पाणिग्रहणके लिये अनुरोध, कचकी अस्वीकृति तथा दोनोंका एक-दूसरेको शाप देना
  27. [अध्याय 27]देवयानी और शर्मिष्ठाका कलह, शर्मिष्ठाद्वारा कुऍमें गिरायी गयी देवयानीको ययातिका निकालना और देवयानीका शुक्राचार्यके साथ वार्तालाप
  28. [अध्याय 28]शुक्राचार्यद्वारा देवयानीको समझाना और देवयानीका असंतोष
  29. [अध्याय 29]शुक्राचार्यका नृपपको फटकारना तथा उसे छोड़कर जानेके लिये उद्यत होना और वृषपवकि आदेशसे शर्मिष्ठाका देवयानीकी दासी बनकर शुक्राचार्य तथा देवयानीको संतुष्ट करना
  30. [अध्याय 30]सखियोंसहित देवयानी और शर्मिष्ठाका वनविहार, राजा ययातिका आगमन, देवयानीके साथ बातचीत तथा विवाह
  31. [अध्याय 31]ययातिसे देवयानीको पुत्रप्राप्ति, ययाति और शर्मिष्ठाका एकान्त मिलन और उनसे एक पुत्रका जन्म
  32. [अध्याय 32]देवयानी और शर्मिष्ठाका संवाद, ययातिसे शर्मिष्ठाके पुत्र होनेकी बात जानकर देवयानीका रूठना और अपने पिताके पास जाना तथा शुक्राचार्यका ययातिको बूढ़े होनेका शाप देना
  33. [अध्याय 33]ययातिका अपने यदु आदि पुत्रोंसे अपनी युवावस्था देकर वृद्धावस्था लेनेके लिये आग्रह और उनके अस्वीकार करनेपर उन्हें शाप देना, फिर पूरुको जरावस्था देकर उसकी युवावस्था लेना तथा उसे वर प्रदान करना
  34. [अध्याय 34]राजा ययातिका विषय सेवन और वैराग्य तथा पूरुका राज्याभिषेक करके वनमें जाना
  35. [अध्याय 35]वनमें राजा ययातिकी तपस्या और उन्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति
  36. [अध्याय 36]इन्द्रके पूछनेपर ययातिका अपने पुत्र पुरुको दिये हुए उपदेशकी चर्चा करना
  37. [अध्याय 37]ययातिका स्वर्गसे पतन और अष्टकका उनसे प्रश्न करना
  38. [अध्याय 38]ययाति और अष्टकका संवाद
  39. [अध्याय 39]अष्टक और ययातिका संवाद
  40. [अध्याय 40]ययाति और अष्टकका आश्रमधर्मसम्बन्धी संवाद
  41. [अध्याय 41]अष्टक-ययाति-संवाद और ययातिद्वारा दूसरोंके दिये हुए पुण्यदानको अस्वीकार करना
  42. [अध्याय 42]राजा ययातिका वसुमान् और शिबिके प्रतिग्रहको अस्वीकार करना तथा अष्टक आदि चारों राजाओंके साथ स्वर्गमें जाना
  43. [अध्याय 43]ययाति-वंश-वर्णन, यदुवंशका वृत्तान्त तथा कार्तवीर्य अर्जुनकी कथा
  44. [अध्याय 44]कार्तवीर्यका आदित्यके तेजसे सम्पन्न होकर वृक्षोंको जलाना, महर्षि आपवद्वारा कार्तवीर्यको शाप और क्रोष्टुके वंशका वर्णन
  45. [अध्याय 45]वृष्णिवंशके वर्णन-प्रसङ्गमें स्यमन्तक मणिकी कथा
  46. [अध्याय 46]वृष्णिवंशका वर्णन
  47. [अध्याय 47]श्रीकृष्ण चरित्रका वर्णन, दैत्योंका इतिहास तथा देवासुर संग्रामके प्रसङ्गमें विभिन्न अवान्तर कथाएँ
  48. [अध्याय 48]तुर्वसु और झुके वंशका वर्णन, अनुके वंश-वर्णनमें बलिकी कथा और कर्णकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग
  49. [अध्याय 49]पूरु- वंशके वर्णन-प्रसङ्गमें भरत वंशकी कथा, भरद्वाजकी उत्पत्ति और उनके वंशका कथन, नीप - वंशका वर्णन तथा पौरवोंका इतिहास
  50. [अध्याय 50]पुरुवंशी नरेशोंका विस्तृत इतिहास
  51. [अध्याय 51]अग्नि- वंशका वर्णन तथा उनके भेदोपभेदका कथन
  52. [अध्याय 52]कर्मयोगकी महत्ता
  53. [अध्याय 53]पुराणोंकी नामावलि और उनका संक्षिप्त परिचय
  54. [अध्याय 54]नक्षत्र-पुरुष-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  55. [अध्याय 55]आदित्यशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  56. [अध्याय 56]श्रीकृष्णाष्टमी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  57. [अध्याय 57]रोहिणीचन्द्रशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  58. [अध्याय 58]तालाब, बगीचा, कुआं,बावली,पुष्करिणी तथा देव मन्दिर की प्रतिष्ठ आदिका विधान
  59. [अध्याय 59]वृक्ष लगानेकी विधि
  60. [अध्याय 60]सौभाग्यशयन-व्रत तथा जगद्धात्री सतीकी आराधना
  61. [अध्याय 61]अगस्त्य और वसिष्ठकी दिव्य उत्पत्ति, उर्वशी अप्सराका प्राकट्य और अगस्त्य के लिये अयं-प्रदान करनेकी विधि एवं माहात्म्य
  62. [अध्याय 62]अनन्ततृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  63. [अध्याय 63]रसकल्याणिनी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  64. [अध्याय 64]आर्द्रानन्दकरी तृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  65. [अध्याय 65]अक्षयतृतीया-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  66. [अध्याय 66]सारस्वत - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  67. [अध्याय 67]सूर्य-चन्द्र-ग्रहणके समय स्नानकी विधि और उसका माहात्म्य
  68. [अध्याय 68]सप्तमीस्त्रपन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  69. [अध्याय 69]भीमद्वादशी व्रतका विधान
  70. [अध्याय 70]पण्यस्त्री व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  71. [अध्याय 71]अशून्यशयन (द्वितीया ) - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  72. [अध्याय 72]अङ्गारक- व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  73. [अध्याय 73]शुक्र और गुरुकी पूजा-विधि
  74. [अध्याय 74]कल्याणसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  75. [अध्याय 75]विशोकसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  76. [अध्याय 76]फलसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  77. [अध्याय 77]शर्करासप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  78. [अध्याय 78]कमलसप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  79. [अध्याय 79]मन्दारसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  80. [अध्याय 80]शुभ सप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  81. [अध्याय 81]विशोकद्वादशी व्रतकी विधि
  82. [अध्याय 82]गुड-धेनु के दान की विधि और उसकी महिमा
  83. [अध्याय 83]पर्वतदानके दस भेद, धान्यशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  84. [अध्याय 84]लवणाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  85. [अध्याय 85]गुडपर्वतके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  86. [अध्याय 86]सुवर्णाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  87. [अध्याय 87]तिलशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  88. [अध्याय 88]कार्पासाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  89. [अध्याय 89]घृताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  90. [अध्याय 90]रत्नाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  91. [अध्याय 91]रजताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  92. [अध्याय 92]शर्कराशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य तथा राजा धर्ममूर्तिके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें लवणाचलदानका महत्त्व
  93. [अध्याय 93]शान्तिक एवं पौष्टिक कर्मों तथा नवग्रह शान्तिकी विधिका वर्णन *
  94. [अध्याय 94]नवग्रहोंके स्वरूपका वर्णन
  95. [अध्याय 95]माहेश्वर-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  96. [अध्याय 96]सर्वफलत्याग- व्रतका विधान और उसका माहात्म्य
  97. [अध्याय 97]आदित्यवार-कल्पका विधान और माहात्म्य
  98. [अध्याय 98]संक्रान्ति व्रतके उद्यापनकी विधि
  99. [अध्याय 99]विभूतिद्वादशी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  100. [अध्याय 100]विभूतिद्वादशी* के प्रसङ्गमें राजा पुष्पवाहनका वृत्तान्त
  101. [अध्याय 101]साठ व्रतोंका विधान और माहात्म्य
  102. [अध्याय 102]स्नान और तर्पणकी विधि
  103. [अध्याय 103]युधिष्ठिरकी चिन्ता, उनकी महर्षि मार्कण्डेयसे भेंट और महर्षिद्वारा प्रयाग-माहात्म्यका उपक्रम
  104. [अध्याय 104]प्रयाग-माहात्म्य-प्रसङ्गमें प्रयाग क्षेत्रके विविध तीर्थस्थानोंका वर्णन
  105. [अध्याय 105]प्रयागमें मरनेवालोंकी गति और गो-दानका महत्त्व
  106. [अध्याय 106]प्रयाग माहात्म्य वर्णन-प्रसङ्गमें वहांके विविध तीर्थोंका वर्णन
  107. [अध्याय 107]प्रयाग स्थित विविध तीर्थोका वर्णन
  108. [अध्याय 108]प्रयागमें अनशन-व्रत तथा एक मासतकके निवास ( कल्पवास) का महत्त्व
  109. [अध्याय 109]अन्य तीर्थोकी अपेक्षा प्रयागकी महत्ताका वर्णन
  110. [अध्याय 110]जगत्के समस्त पवित्र तीर्थोंका प्रयागमें निवास
  111. [अध्याय 111]प्रयाग में ब्रह्मा, विष्णु और शिवके निवासका वर्णन
  112. [अध्याय 112]भगवान् वासुदेवद्वारा प्रयागके माहात्म्यका वर्णन
  113. [अध्याय 113]भूगोलका विस्तृत वर्णन
  114. [अध्याय 114]भारतवर्ष, किम्पुरुषवर्ष तथा हरिवर्षका वर्णन
  115. [अध्याय 115]राजा पुरूरवाके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  116. [अध्याय 116]ऐरावती नदीका वर्णन
  117. [अध्याय 117]हिमालयकी अद्भुत छटाका वर्णन
  118. [अध्याय 118]हिमालयकी अनोखी शोभा तथा अत्रि - आश्रमका वर्णन
  119. [अध्याय 119]आश्रमस्थ विवरमें पुरूरवा * का प्रवेश, आश्रमकी शोभाका वर्णन तथा पुरूरवाकी तपस्या
  120. [अध्याय 120]राजा पुरूरवाकी तपस्या, गन्धवों और अप्सराओंकी क्रीडा, महर्षि अत्रिका आगमन तथा राजाको वरप्राप्त
  121. [अध्याय 121]कैलास पर्वतका वर्णन, गङ्गाकी सात धाराओंका वृत्तान्त तथा जम्बूद्वीपका विवरण
  122. [अध्याय 122]शाकद्वीप, कुशद्वीप, क्रौञ्चद्वीप और शाल्मलद्वीपका वर्णन
  123. [अध्याय 123]गोमेदकद्वीप और पुष्करद्वीपका वर्णन
  124. [अध्याय 124]सूर्य और चन्द्रमाको गतिका वर्णन
  125. [अध्याय 125]सूर्यकी गति और उनके रथका वर्णन
  126. [अध्याय 126]सूर्य रथ पर प्रत्येक मासमें भिन्न-भिन्न देवताओंका अधिरोहण तथा चन्द्रमाकी विचित्र गति
  127. [अध्याय 127]ग्रहोंके रथका वर्णन और ध्रुवकी प्रशंसा
  128. [अध्याय 128]देव-गृहों तथा सूर्य-चन्द्रमाकी गतिका वर्णन
  129. [अध्याय 129]त्रिपुर- निर्माणका वर्णन
  130. [अध्याय 130]दानवश्रेष्ठ मयद्वारा त्रिपुरकी रचना
  131. [अध्याय 131]त्रिपुरमें दैत्योंका सुखपूर्वक निवास, मयका स्वप्न-दर्शन और दैत्योंका अत्याचार
  132. [अध्याय 132]त्रिपुरवासी दैत्योंका अत्याचार, देवताओंका ब्रह्माकी शरणमें जाना और ब्रह्मासहित शिवजीके पास जाकर उनकी स्तुति करना
  133. [अध्याय 133]त्रिपुर- विध्वंसार्थ शिवजीके विचित्र रथका निर्माण और देवताओंके साथ उनका युद्धके लिये प्रस्थान
  134. [अध्याय 134]देवताओं सहित शङ्करजीका त्रिपुरपर आक्रमण, त्रिपुरमें देवर्षि नारदका आगमन तथा युद्धार्थ असुरोंकी तैयारी
  135. [अध्याय 135]शङ्करजीकी आज्ञा इन्द्रका त्रिपुरपर आक्रमण, दोनों सेनाओंमें भीषण संग्राम, विद्युन्मालीका वध, देवताओंकी विजय और दानवोंका युद्ध विमुख होकर त्रिपुरमें प्रवेश
  136. [अध्याय 136]मयका चिन्तित होकर अद्भुत बावलीका निर्माण करना, नन्दिकेश्वर और तारकासुरका भीषण युद्ध तथा प्रमथगणोंकी मारसे विमुख होकर दानवोंका त्रिपुर-प्रवेश
  137. [अध्याय 137]वापी शोषणसे मयको चिन्ता, मय आदि दानवोंका त्रिपुरसहित समुद्रमें प्रवेश तथा शंकरजीका इन्द्रको युद्ध करनेका आदेश
  138. [अध्याय 138]देवताओं और दानवोंमें घमासान युद्ध तथा तारकासुरका वध
  139. [अध्याय 139]दानवराज मयका दानवोंको समझा-बुझाकर त्रिपुरकी रक्षामें नियुक्त करना तथा त्रिपुरकौमुदीका वर्णन
  140. [अध्याय 140]देवताओं और दानवोंका भीषण संग्राम, नन्दीश्वरद्वारा विद्युन्मालीका वध, मयका पलायन तथा शङ्करजीकी त्रिपुरपर विजय
  141. [अध्याय 141]पुरूरवाका सूर्य-चन्द्रके साथ समागम और पितृतर्पण, पर्वसंधिका वर्णन तथा श्राद्धभोजी पितरोंका निरूपण
  142. [अध्याय 142]युगोंकी काल-गणना तथा त्रेतायुगका वर्णन
  143. [अध्याय 143]यज्ञकी प्रवृत्ति तथा विधिका वर्णन
  144. [अध्याय 144]द्वापर और कलियुगकी प्रवृत्ति तथा उनके स्वभावका वर्णन, राजा प्रमतिका वृत्तान्त तथा पुनः कृतयुगके प्रारम्भका वर्णन
  145. [अध्याय 145]युगानुसार प्राणियोंको शरीर स्थिति एवं वर्ण-व्यवस्थाका वर्णन, श्रौतस्मार्त, धर्म, तप, यज्ञ, क्षमा, शम, दया आदि गुणोंका लक्षण, चातुर्होत्र की विधि तथा पाँच प्रकारके ऋषियोंका वर्णन
  146. [अध्याय 146]वज्राङ्गकी उत्पत्ति, उसके द्वारा इन्द्रका बन्धन, ब्रह्मा और कश्यपद्वारा समझाये जानेपर इन्द्रको बन्धनमुक्त करना, वज्राङ्गका विवाह, तप तथा ब्रह्माद्वारा वरदान
  147. [अध्याय 147]ब्रह्माके वरदानसे तारकासुरकी उत्पत्ति और उसका राज्याभिषेक
  148. [अध्याय 148]तारकासुरकी तपस्या और ब्रह्माद्वारा उसे वरदानप्राप्ति, देवासुर संग्रामकी तैयारी तथा दोनों दलोंकी सेनाओंका वर्णन
  149. [अध्याय 149]देवासुर संग्रामका प्रारम्भ
  150. [अध्याय 150]देवताओं और असुरोंकी सेनाओंमें अपनी-अपनी जोड़ीके साथ घमासान युद्ध, देवताओंके विकल होनेपर भगवान् विष्णुका युद्धभूमिमें आगमन और कालनेमिको परास्त कर उसे जीवित छोड़ देना
  151. [अध्याय 151]भगवान् विष्णुपर दानवोंका सामूहिक आक्रमण, भगवान् विष्णुका अद्भुत युद्ध-कौशल और उनके द्वारा दानव सेनापति ग्रसनकी मृत्यु
  152. [अध्याय 152]भगवान् विष्णुका मधन आदि दैत्योंके साथ भीषण संग्राम और अन्तमें घायल होकर युद्धसे पलायन
  153. [अध्याय 153]भगवान् विष्णु और इन्द्रका परस्पर उत्साहवर्धक वार्तालाप, देवताओंद्वारा पुनः सैन्ध-संगठन, इन्द्रका असुरोंके साथ भीषण युद्ध, गजासुर और जम्भासुरकी मृत्यु तारकासुरका घोर संग्राम और उसके द्वारा भगवान् विष्णुसहित देवताओंका बंदी बनाया जाना
  154. [अध्याय 154]तारकके आदेश से देवताओंकी बन्धन-मुक्ति, देवताओंका ब्रह्माके पास जाना और अपनी विपत्तिगाथा सुनाना, ब्रह्माद्वारा तारक-वधके उपायका वर्णन, रात्रिदेवीका प्रसङ्ग, उनका पार्वतीरूपमें जन्म, काम दहन और रतिकी प्रार्थना, पार्वतीकी तपस्या, शिवपार्वती विवाह तथा पार्वतीका वीरकको पुत्ररूपमें स्वीकार करना *
  155. [अध्याय 155]भगवान् शिवद्वारा पार्वतीके वर्णपर आक्षेप, पार्वतीका वीरकको अन्तःपुरका रक्षक नियुक्त कर पुनः तपश्चर्याके लिये प्रस्थान
  156. [अध्याय 156]कुसुमामोदिनी और पार्वतीकी गुप्त मन्त्रणा, पार्वतीका तपस्यायें निरत होना आदि दैत्यका पार्वतीरूपमें शंकरके पास जाना और मृत्युको प्राप्त होना तथा पार्वतीद्वारा वीरकको शाप
  157. [अध्याय 157]पार्वतीद्वारा वीरकको शाप, ब्रह्माका पार्वती तथा एकानंशाको वरदान, एकानंशाका विन्ध्याचलके लिये प्रस्थान, पार्वतीका भवनद्वारपर पहुँचना और वीरकद्वारा रोका जाना
  158. [अध्याय 158]वीरकद्वारा पार्वतीकी स्तुति, पार्वती और शंकरका पुनः समागम, अग्निको शाप, कृत्तिकाओंकी प्रतिज्ञा और स्कन्दकी उत्पत्ति
  159. [अध्याय 159]स्कन्दकी उत्पत्ति, उनका नामकरण, उनसे देवताओंकी प्रार्थना और उनके द्वारा देवताओंको आश्वासन, तारकके पास देवदूतद्वारा संदेश भेजा जाना और सिद्धोंद्वारा कुमारकी स्तुति
  160. [अध्याय 160]तारकासुर और कुमारका भीषण युद्ध तथा कुमारद्वारा तारकका वध
  161. [अध्याय 161]हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरप्राप्ति, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, विष्णुद्वारा देवताओंको अभयदान, भगवान् विष्णुका नृसिंहरूप धारण करके हिरण्यकशिपुकी विचित्र सभायें प्रवेश
  162. [अध्याय 162]प्रह्लादद्वारा भगवान् नरसिंहका स्वरूप वर्णन तथा नरसिंह और दानवोंका भीषण युद्ध
  163. [अध्याय 163]नरसिंह और हिरण्यकशिपुका भीषण युद्ध, दैत्योंको उत्पातदर्शन, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, नरसिंहद्वारा हिरण्यकशिपुका वध तथा ब्रह्मद्वारा नरसिंहकी स्तुति
  164. [अध्याय 164]पद्मोद्भवके प्रसङ्गमें मनुद्वारा भगवान् विष्णुसे सृष्टिसम्बन्धी विविध प्रश्न और भगवान्‌का उत्तर
  165. [अध्याय 165]चारों युगोंकी व्यवस्थाका वर्णन
  166. [अध्याय 166]महाप्रलयका वर्णन
  167. [अध्याय 167]भगवान् विष्णुका एकार्णवके जलमें शयन, मार्कण्डेयको आश्चर्य तथा भगवान् विष्णु और मार्कण्डेयका संवाद
  168. [अध्याय 168]पञ्चमहाभूतों का प्राकट्य तथा नारायणकी नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  169. [अध्याय 169]नाभिकमलसे ब्रह्माका प्रादुर्भाव तथा उस कमलका साङ्गोपाङ्ग वर्णन
  170. [अध्याय 170]मधु-कैटभकी उत्पत्ति, उनका ब्रह्माके साथ वार्तालाप और भगवानद्वारा बध
  171. [अध्याय 171]ब्रह्माके मानस पुत्रोंकी उत्पत्ति, दक्षकी बारह कन्याओंका वृत्तान्त, ब्रह्माद्वारा सृष्टिका विकास तथा विविध
  172. [अध्याय 172]तारकामय-संग्रामकी भूमिका एवं भगवान् विष्णुका महासमुद्रके रूपमें वर्णन, तारकादि असुरोंके अत्याचारसे दुःखी होकर देवताओंकी भगवान् विष्णुसे प्रार्थना और भगवान्का उन्हें आश्वासन
  173. [अध्याय 173]दैत्यों और दानवोंकी युद्धार्थ तैयारी
  174. [अध्याय 174]देवताओंका युद्धार्थ अभियान
  175. [अध्याय 175]देवताओं और दानवोंका घमासान युद्ध, मयकी तामसी माया, और्वाग्निकी उत्पत्ति और महर्षि द्वारा हिरण्यकशिपुको उसकी प्राप्ति
  176. [अध्याय 176]चन्द्रमाकी सहायतासे वरुणद्वारा और्वाग्नि- मायाका प्रशमन, मयद्वारा शैली-मायाका प्राकट्य, भगवान् विष्णुके आदेश से अग्नि और वायुद्वारा उस मायाका निवारण तथा कालनेमिका रणभूमिमें आगमन
  177. [अध्याय 177]देवताओं और दैत्योंकी सेनाओंकी अद्भुत मुठभेड़, कालनेमिका भीषण पराक्रम और उसकी देवसेनापर विजय
  178. [अध्याय 178]कालनेमि और भगवान् विष्णुका रोषपूर्वक वार्तालाप और भीषण युद्ध, विष्णुके चक्रके द्वारा कालनेमिका वध और देवताओंको पुनः निज पदकी प्राप्ति
  179. [अध्याय 179]शिवजीके साथ अन्धकासुरका युद्ध, शिवजीद्वारा मातृकाओंकी सृष्टि, शिवजीके हाथों अन्धककी मृत्यु और उसे गणेशत्वकी प्राप्ति, मातृकाओंकी विध्वंसलीला तथा विष्णुनिर्मित देवियोंद्वारा उनका अवरोध
  180. [अध्याय 180]वाराणसी माहात्म्यके प्रसङ्गमें हरिकेश यक्षकी तपस्या, अविमुक्तकी शोभा और उसका माहात्म्य तथा हरिकेशको शिवजीद्वारा वरप्राप्ति
  181. [अध्याय 181]अविमुक्तक्षेत्र (वाराणसी) का माहात्म्य
  182. [अध्याय 182]अविमुक्त-माहात्म्य
  183. [अध्याय 183]अविमुक्तमाहात्म्यके प्रसङ्गमें शिव-पार्वतीका प्रश्नोत्तर
  184. [अध्याय 184]काशीकी महिमाका वर्णन
  185. [अध्याय 185]वाराणसी माहात्य
  186. [अध्याय 186]नर्मदा माहात्म्यका उपक्रम
  187. [अध्याय 187]नर्मदामाहात्यके प्रसङ्गमें पुनः त्रिपुराख्यान
  188. [अध्याय 188]त्रिपुर- दाहका वृत्तान्त
  189. [अध्याय 189]नर्मदा-कावेरी संगमका माहात्म्य
  190. [अध्याय 190]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थ
  191. [अध्याय 191]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका माहात्म्य
  192. [अध्याय 192]शुक्लतीर्थका माहाल्य
  193. [अध्याय 193]नर्मदामाहात्म्य-प्रसङ्गमें कपिलादि विविध तीर्थोंका माहात्म्य, भृगुतीर्थका माहात्स्य, भृगुमुनिको तपस्या, शिव-पार्वतीका उनके समक्ष प्रकट होना, भृगुद्वारा उनकी स्तुति और शिवजीद्वारा भृगुको वर प्रदान
  194. [अध्याय 194]नर्मदातटवर्ती तीर्थोका माहात्म्य
  195. [अध्याय 195]गोत्रप्रवर-निरूपण-प्रसङ्गमें भृगुवंशकी परम्पराका विवरण
  196. [अध्याय 196]प्रवरानुकीर्तनमें महर्षि अङ्गिराके वंशका वर्णन
  197. [अध्याय 197]महर्षि अत्रिके वंशका वर्णन
  198. [अध्याय 198]प्रवरानुकौर्तन में महर्षिं विश्चामित्र के वंशका वर्णन
  199. [अध्याय 199]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि कश्यपके वंशका वर्णन
  200. [अध्याय 200]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि वसिष्ठकी शाखाका कथन
  201. [अध्याय 201]प्रवरानुकीर्तन महर्षि पराशरके वंशका वर्णन
  202. [अध्याय 202]गोत्रप्रवरकीर्तनमें महर्षि अगस्त्य, पुलह, पुलस्त्य और क्रतुकी शाखाओंका वर्णन
  203. [अध्याय 203]प्रवरकीर्तनमें धर्मके वंशका वर्णन
  204. [अध्याय 204]श्राद्धकल्प – पितृगाथा-कीर्तन
  205. [अध्याय 205]धेनु-दान-विधि
  206. [अध्याय 206]कृष्णमृगचर्मके दानकी विधि और उसका माहाय्य
  207. [अध्याय 207]उत्सर्ग किये जानेवाले वृषके लक्षण, वृषोत्सर्गका विधान और उसका महत्त्व
  208. [अध्याय 208]सावित्री और सत्यवान्‌का चरित्र
  209. [अध्याय 209]सत्यवान्का सावित्रीको वनकी शोभा दिखाना
  210. [अध्याय 210]यमराजका सत्यवान के प्राणको बाँधना तथा सावित्री और यमराजका वार्तालाप
  211. [अध्याय 211]सावित्रीको यमराजसे द्वितीय वरदानकी प्राप्ति
  212. [अध्याय 212]यमराज - सावित्री-संवाद तथा यमराजद्वारा सावित्रीको तृतीय वरदानकी प्राप्ति
  213. [अध्याय 213]सावित्रीकी विजय और सत्यवान्की बन्धन मुक्ति
  214. [अध्याय 214]सत्यवान्‌को जीवनलाभ तथा पत्नीसहित राजाको नेत्रज्योति एवं राज्यकी प्राप्ति
  215. [अध्याय 215]राजाका कर्तव्य, राजकर्मचारियोंके लक्षण तथा राजधर्मका निरूपण
  216. [अध्याय 216]राजकर्मचारियोंके धर्मका वर्णन
  217. [अध्याय 217]दुर्ग-निर्माणकी विधि तथा राजाद्वारा दुर्गमें संग्रहणीय उपकरणोंका विवरण
  218. [अध्याय 218]दुर्गमें संग्राह्य ओषधियोंका वर्णन
  219. [अध्याय 219]विषयुक्त पदार्थोके लक्षण एवं उससे राजाके बचने के उपाय
  220. [अध्याय 220]राजधर्म एवं सामान्य नीतिका वर्णन
  221. [अध्याय 221]दैव और पुरुषार्थका वर्णन
  222. [अध्याय 222]साम-नीतिका वर्णन
  223. [अध्याय 223]नीति चतुष्टयीके अन्तर्गत भेद नीतिका वर्णन
  224. [अध्याय 224]दान-नीतिकी प्रशंसा
  225. [अध्याय 225]दण्डनीतिका वर्णन
  226. [अध्याय 226]सामान्य राजनीतिका निरूपण
  227. [अध्याय 227]दण्डनीतिका निरूपण
  228. [अध्याय 228]अद्भुत शान्तिका वर्णन
  229. [अध्याय 229]उत्पातोंके भेद तथा कतिपय ऋतुस्वभावजन्य शुभदायक अद्भुतोका वर्णन
  230. [अध्याय 230]अद्भुत उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  231. [अध्याय 231]अग्निसम्बन्धी उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  232. [अध्याय 232]वृक्षजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  233. [अध्याय 233]वृष्टिजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  234. [अध्याय 234]जलाशयजनित विकृतियाँ और उनकी शान्तिके उपाय
  235. [अध्याय 235]प्रसवजनित विकारका वर्णन और उसकी शान्ति
  236. [अध्याय 236]उपस्कर - विकृतिके लक्षण और उनकी शान्ति
  237. [अध्याय 237]पशु-पक्षी सम्बन्धी उत्पात और उनकी शान्ति
  238. [अध्याय 238]राजाकी मृत्यु तथा देशके विनाशसूचक लक्षण और उनकी शान्ति
  239. [अध्याय 239]ग्रहयागका विधान
  240. [अध्याय 240]राजाओंकी विजयार्थ यात्राका विधान
  241. [अध्याय 241]अङ्गस्फुरणके शुभाशुभ फल
  242. [अध्याय 242]शुभाशुभ स्वप्नोंके लक्षण
  243. [अध्याय 243]शुभाशुभ शकुनोंका निरूपण
  244. [अध्याय 244]वामन-प्रादुर्भाव-प्रसङ्गमें श्रीभगवान्द्वारा अदितिको वरदान
  245. [अध्याय 245]बलिद्वारा विष्णुकी निन्दापर प्रह्लादका उन्हें शाप, बलिका अनुनय, ब्रह्माजीद्वारा वामनभगवान्‌का स्तवन, भगवान् वामनका देवताओंको आश्वासन तथा उनका बलिके यज्ञके लिये प्रस्थान
  246. [अध्याय 246]बलि-शुक्र- संवाद, वामनका बलिके यज्ञमें पदार्पण, बलिद्वारा उन्हें तीन डग पृथ्वीका दान, वामनद्वारा बलिका बन्धन और वर प्रदान
  247. [अध्याय 247]अर्जुनके वाराहावतारविषयक प्रश्न करनेपर शौनकजी द्वारा भगवत्स्वरूपका वर्णन
  248. [अध्याय 248]वराहभगवान्का प्रादुर्भाव, हिरण्याक्षद्वारा रसातलमें ले जायी गयी पृथ्वीदेवीद्वारा यज्ञवराहका भगवानद्वारा उनका उद्धारस्तवन और
  249. [अध्याय 249]अमृत-प्राप्तिके लिये समुद्र मन्थनका उपक्रम और वारुणी (मदिरा) का प्रादुर्भाव
  250. [अध्याय 250]अमृतार्थ समुद्र मन्धन करते समय चन्द्रमासे लेकर विपतकका प्रादुर्भाव
  251. [अध्याय 251]अमृतका प्राकट्य, मोहिनीरूपधारी भगवान् विष्णुद्वारा देवताओंका अमृत पान तथा देवासुरसंग्राम
  252. [अध्याय 252]वास्तुके प्रादुर्भावकी कथा
  253. [अध्याय 253]वास्तु चक्रका वर्णन
  254. [अध्याय 254]वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत राजप्रासाद आदिकी निर्माण-विधि
  255. [अध्याय 255]वास्तुविषयक वेधका विवरण
  256. [अध्याय 256]वास्तुप्रकरणमें गृह निर्माणविधि
  257. [अध्याय 257]गृहनिर्माण (वास्तुकार्य ) में ग्राह्य काष्ठ
  258. [अध्याय 258]देव-प्रतिमाका प्रमाण-निरूपण
  259. [अध्याय 259]प्रतिमाओंके लक्षण, मान, आकार आदिका कथन
  260. [अध्याय 260]विविध देवताओंकी प्रतिमाओंका वर्णन
  261. [अध्याय 261]सूर्यादि विभिन्न देवताओंकी प्रतिमाके स्वरूप, प्रतिष्ठा और पूजा आदिकी विधि
  262. [अध्याय 262]पीठिकाओंके भेद, लक्षण और फल
  263. [अध्याय 263]शिवलिङ्गके निर्माणकी विधि
  264. [अध्याय 264]प्रतिमा-प्रतिष्ठा के प्रसङ्गमें यज्ञाङ्गरूप कुण्डादिके निर्माणकी विधि
  265. [अध्याय 265]प्रतिमाके अधिवासन आदिकी विधि
  266. [अध्याय 266]प्रतिमा प्रतिष्ठाकी विधि
  267. [अध्याय 267]देव (प्रतिमा) - प्रतिष्ठा के अङ्गभूत अभिषेक-स्नानका निरूपण
  268. [अध्याय 268]वास्तु शान्तिकी विधि
  269. [अध्याय 269]प्रासादोंके भेद और उनके निर्माणकी विधि
  270. [अध्याय 270]प्रासाद संलग्न मण्डपोंके नाम, स्वरूप, भेद और उनके निर्माणकी विधि
  271. [अध्याय 271]राजवंशानुकीर्तन *
  272. [अध्याय 272]कलियुगके प्रद्योतवंशी आदि राजाओं का वर्णन
  273. [अध्याय 273]आन्ध्रवंशीय शकवंशीय एवं यवनादि राजाओंका संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण
  274. [अध्याय 274]षोडश दानान्तर्गत तुलादानका वर्णन
  275. [अध्याय 275]हिरण्यगर्भदानकी विधि
  276. [अध्याय 276]ब्रह्माण्डदानकी विधि
  277. [अध्याय 277]कल्पपादप-दान-विधि
  278. [अध्याय 278]गोसहस्त्र दानकी विधि
  279. [अध्याय 279]कामधेनु दानकी विधि
  280. [अध्याय 280]हिरण्याश्व - दानकी विधि
  281. [अध्याय 281]हिरण्याश्वरथ दानकी विधि
  282. [अध्याय 282]हेमहस्तिरथ-दानकी विधि
  283. [अध्याय 283]पञ्चाङ्गल (हल) प्रदानकी विधि
  284. [अध्याय 284]हेमधरा (सुवर्णमयी पृथ्वी) दानकी विधि
  285. [अध्याय 285]विश्वचक्रदानकी विधि
  286. [अध्याय 286]कनककल्पलतादानकी विधि
  287. [अध्याय 287]सप्तसागर दानकी विधि
  288. [अध्याय 288]रत्नधेनुदानकी विधि
  289. [अध्याय 289]महाभूतघट-दानकी विधि
  290. [अध्याय 290]कल्पानुकीर्तन
  291. [अध्याय 291]मत्स्यपुराणकी अनुक्रमणिका