सूतजी कहते हैं— ऋषियो ! उन दानवोंमें किन्होंके मुख गधे और कुत्तेके समान थे तो कुछ मकर और सर्पके-से मुखवाले थे। किन्होंके मुख भेड़िया सदृश तो कुछके सूअर जैसे थे। कुछ उदयकालीन सूर्यके समान तो कुछ धूमकेतु से मुखवाले थे। किन्होंके मुख अर्धचन्द्र तथा किन्होंके अग्निको तरह उद्दीत थे। किन्होंका मुख आधा ही था किन्हींके मुख हंस और मुर्गेके समान थे। 1 किन्होंके मुख फैले हुए थे, जो बड़े भयावने लग रहे थे। कुछ सिंहके से मुखवाले दानव जीभ लपलपा रहे थे। किन्हींके मुख कौओं और गोधों जैसे थे। किन्हींके मुखमें दो जिह्वाएँ थीं, किन्होंके मस्तक टेढ़े थे और कुछ उल्का सरीखे मुखवाले थे। किन्हींके मुख महाग्राह सदृश थे। इस प्रकार वे बलाभिमानी दानव रणभूमि में पर्वतके समान सुदृढ़ शरीरवाले उन अवध्य मृगेन्द्रके शरीरपर बाणोंकी वृष्टि करके उन्हें पीड़ित न कर सके। तब क्रुद्ध हुए सर्पकी भाँति निःश्वास छोड़ते हुए वे दानवेश्वर नरसिंहके ऊपर पुनः दूसरे भयंकर बाणोंको वृष्टि करने लगे, परंतु दानवेश्वरोंद्वारा छोड़े गये वे भयंकर बाण उसी प्रकार आकाशमें विलीन हो जाते थे, जैसे पर्वतपर चमकते हुए जुगनू तत्पश्चात् क्रोधसे भरे हुए दैत्य शीघ्र ही नरसिंहके ऊपर चारों ओरसे चमकते हुए दिव्य चक्रोंकी वर्षा करने लगे। इधर-उधर गिरते हुए उन चक्रोंसे आकाशमण्डल ऐसा दीख रहा था, मानो युगान्तके समय प्रकाशित हुए चन्द्रमा, सूर्य आदि ग्रहोंसे युक्त हो गया हो। अग्निकी लपटोंके समान उठते हुए उन सभी चक्रोंको महात्मा नरसिंह निगल गये। उस समय उनके मुखमें प्रविष्ट होते हुए वे चक्र मेघोंकी घनघोर घटामें घुसते हुए चन्द्र, सूर्य एवं अन्यान्य ग्रहोंकी भाँति सुशोभित हो रहे थे ॥ 1-11 ॥
यिकशिपुने भगवान नरसिंहपर पुनः अपनी भयंकर शक्ति छोड़ी, जो चमकीली, अत्यन्त शक्तिशालिनी और धुली होनेके कारण बिजली-सी चमकरही थी तब उस उज्वल शक्तिको अपनी ओर आती | हुई देखकर भगवान् नरसिंहने अपने भयंकर हुंकारसे ही उसे तोड़कर टूक-टूक कर दिया। नरसिंहद्वारा तोड़ी गयी वह शक्ति ऐसी शोभा पा रही थी, जैसे आकाशमें भूतलपर गिरी हुई चिनगारियों सहित प्रज्वलित महान् उल्का हो। नरसिंहके निकट पहुँची हुई (दैत्योंद्वारा छोड़े गये) वाणोंकी उज्ज्वल वर्णवाली पंक्ति नीले कमल दलकी मालाकी तरह शोभा पा रही थी। यह देखकर भगवान् नरसिंहने न्यायतः पराक्रम प्रदर्शित कर सुखपूर्वक गर्जना की और उस दानवसेनाको वायुद्वारा उड़ाये गये क्षुद्र तिनकोंकी तरह खदेड़ दिया। तदुपरान्त दैत्येश्वरगण आकाशमें स्थित होकर पत्थरकी वर्षा करने लगे। पत्थरोंकी वह वर्षा नरसिंहके विशाल मस्तकपर गिरकर चूर-चूर हो जुगनुओंके समूहकी भाँति दसों दिशाओंमें बिखर गयी तब दैत्यगणोंने पुनः पर्वत- सरीखे शिलाखण्डों, पर्वत शिखरों और पत्थरोंसे उन शत्रुसूदन नरसिंहको इस प्रकार आच्छादित कर दिया, जैसे मेघ जलकी धाराद्वारा पर्वतको ढक देते हैं। फिर भी वह दैत्यसमुदाय उन देवश्रेष्ठ नरसिंहको उसी प्रकार विचलित नहीं कर सका, जैसे भयंकर वेगशाली समुद्र पर्वतश्रेष्ठ मन्दरको नहीं डिगा सका ll 12–20 ॥
तदनन्तर पत्थरोंकी वृष्टिके विफल हो जानेपर चारों ओर मूसलाधार जलकी वृष्टि होने लगी। चारों ओर आकाशसे गिरती हुई वे तीव्र वेगशाली धाराएँ सब ओरसे आकाश, दिशाओं तथा विदिशाओंको आच्छादित करके लगातार भूतलपर गिर रही थीं। यद्यपि वे धाराएँ आकाश तथा पृथ्वीपर सर्वत्र सब प्रकारसे व्याप्त थीं, तथापि वे भगवान् नरसिंहका स्पर्श नहीं कर पा रही थीं। युद्धभूमिमें मायाद्वारा मृगेन्द्रका रूप धारण करनेवाले भगवान् के ऊपर वे धाराएं नहीं गिर रही थीं, अपितु बाहर चारों ओर वर्षा कर रही थीं। इस प्रकार जब वह शिलावृष्टि नष्ट कर दी गयी और घनघोर जलदृष्टि सोख ली गयी, तब दानवराज हिरण्यकशिपुने अग्नि और वयुद्वारा प्रेरित माया विस्तार किया, किंतु परम कान्तिमान् सहस्र नेत्रधारी महेन्द्रने बादलोंके साथ वहाँ आकर | जलकी घनघोर वृष्टिसे उस अग्निको शान्त कर दिया।युद्धस्थलमें उस मायाके नष्ट हो जानेपर उस दानवने चारों ओर भयंकर दीखनेवाले घने अन्धकारको सृष्टि की। उस समय सारा जगत् अन्धकारसे ढक गया और दैत्यगण अपना-अपना हथियार लिये डटे रहे। उसके मध्य अपने तेजसे घिरे हुए भगवान् नरसिंह सूर्यकी तरह शोभा पा रहे थे। दानवोंने रणभूमि नरसिंहके ललाटमें स्थित त्रिशूलकी सी आकारवाली उनकी त्रिशिखा भृकुटिको देखा, जो त्रिपथगा गङ्गाकी तरह प्रतीत हो रही थी ॥ 21 - 29 ॥ इस प्रकार सभी मायाओंके नष्ट हो जानेपर तेजोहीन दैत्य अपने स्वामी हिरण्यकशिपुकी शरणमें गये। यह देख वह अपने तेजसे जगत्को जलाता-सा क्रोधसे प्रज्वलित हो उठा। उस दैत्येन्द्रके क्रुद्ध होनेपर सारा जगत् अन्धकारमय हो गया। पुनः आवह, प्रवह, विवह, उदावह, परावह, संवह तथा श्रीमान् परिवह—ये महान् बल एवं पराक्रमसे सम्पन्न आकाशचारी सातों वायुमार्ग उत्पातके भयकी सूचना देते हुए क्षुब्ध हो उठे। समस्त लोकोंके विनाशके अवसरपर जो ग्रह प्रकट होते हैं, वे सभी आकाशमें दृष्टिगोचर होकर सुखपूर्वक विचरण करने लगे। राहुने अमा एवं पूर्णिमाके बिना ही ग्रहणका | दृश्य उपस्थित कर दिया। रातमें नक्षत्रों और ग्रहोंसहित राकापति शत्रुसूदन चन्द्रमा और दिनमें भगवान् सूर्य कान्तिहीन हो गये तथा आकाशमें अत्यन्त विशाल काले रंगका कबन्ध (धूमकेतु) दिखायी देने लगा। भगवान् अग्नि एक ओर पृथ्वीपर रहकर चिनगारियाँ छोड़ने लगे और दूसरी ओर वे निरन्तर आकाशमें भी स्थित दिखायी दे रहे थे। आकाशमण्डलमें धुएँकी-सी कान्तिवाले सात भयंकर सूर्य प्रकट हो गये। ग्रहगण आकाशमें स्थित चन्द्रमाके शिखरपर स्थित हो गये। उनके वामभागमें शुक्र और दाहिने भागमें बृहस्पति स्थित हो गये। अग्निके समान कान्तिमान् शनैश्चर और मङ्गल भी दृष्टिगोचर हुए। युगान्तके समय प्रकट होनेवाले वे सभी भयंकर | ग्रह शनैः-शनैः एक साथ शिखरोंपर आरूढ़ हो आकाशमें विचरण करने लगे ॥ 30-40 ॥
इसी प्रकार अन्धकारका विनाश करनेवाले चन्द्रमा नक्षत्रों और ग्रहोंके साथ रहकर चराचर जगत्का विनाश करनेके लिये रोहिणीका अभिनन्दन नहीं कर रहे थे। राहु चन्द्रमाको ग्रस्त कर रहा था और उल्काएँ उन्हें मार | भी रही थीं। प्रज्वलित उल्काएँ चन्द्रलोकमें सुखपूर्वकविचरण कर रही थीं। जो देवताओंका भी देवता (इन्द्र) है, वह रक्तकी वर्षा करने लगा। आकाशसे बिजलीकी सी कान्तिवाली उल्काएँ भयंकर शब्द करती हुई पृथ्वीपर गिरने लगीं। सभी वृक्ष असमयमें ही फूलने और फलने लगे तथा सभी लताएँ फलसे युक्त हो गयीं, जो दैत्योंके विनाशकी सूचना दे रही थीं। फलोंसे फल तथा फूलोंसे फूल प्रकट होने लगे। सभी देवताओंकी मूर्तियाँ कभी आँख फाड़कर देखती, कभी आँखें बंद कर लेतीं, कभी हँसती थीं तो कभी रोने लगती थीं। वे कभी जोर-जोरसे चिल्लाने लगती थीं, कभी गम्भीररूपसे धुआँ फेंकती थीं तो कभी प्रज्वलित हो जाती थीं। इस प्रकार वे महान् भयकी सूचना दे रही थीं। उस समय ग्रामीण मृग-पक्षी वन्य मृगपक्षियोंसे संयुक्त होकर अत्यन्त भयंकर महान् युद्ध करने लगे। गंदे जलसे भरी हुई नदियाँ उलटी दिशामें बहने लगीं। रक्त और धूलसे व्याप्त दिशाएँ | दिखायी नहीं दे रही थीं। पूजनीय वृक्षोंकी किसी प्रकार पूजा (रक्षा) नहीं हो रही थी वे वायुके झोकेसे प्रताडित हो रहे थे, झुक जाते थे और टूट भी जाते थे । ll 41 - 49 ।। इस प्रकार लोकोंके युगान्तके समय सूर्यके अपराह्नसमयमें पहुँचनेपर जब सभी प्राणियोंकी छायामें कोई परिवर्तन नहीं दीखने लगा तब दैत्यराज हिरण्यकशिपुके महल, भाण्डारागार और आयुधागारके ऊपर मधु टपकने लगा। इस प्रकार असुरोंके विनाश और देवताओंकी विजयके लिये भयकी सूचना देनेवाले अनेकों प्रकारके भयंकर उत्पात दिखायी दे रहे थे। ये तथा इनके अतिरिक्त और भी बहुत-से भयंकर उत्पात, जो कालद्वारा निर्मित थे, दैत्येन्द्र हिरण्यकशिपुके विनाश के लिये प्रकट हुए दीख रहे थे। महान् आत्मबलसे सम्पन्न दैत्येन्द्र हिरण्यकशिपुद्वारा पृथ्वीके प्रकम्पित किये जानेपर पर्वत तथा अमित तेजस्वी नागगण गिरने लगे। वे चार, पाँच अथवा सात सिरवाले नाग विषकी ज्वालासे व्याप्त मुखोद्वारा अग्नि उगलने लगे। वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, धनजय, एलामुख, कालिय, पराक्रमी महापद्म, एक हजार फणोंवाला सामर्थ्यशाली नाग हेमतालध्वज तथा महान् भाग्यशाली अनन्त शेषनाग—इन सबका काँपना | यद्यपि अत्यन्त कठिन था, तथापि ये सभी काँप उठे।उसने चारों ओर जलके भीतर स्थित रहनेवाले उदीत पर्वतोंको भी अत्यन्त क्रोधवश कैंपा दिया। उस समय पाताललोकमें विचरण करनेवाले तेजस्वी नाग भी प्रकम्पित हो उठे। इस प्रकार दैत्यराज हिरण्यकशिपु क्रोधवश दाँतोंसे होंठों को दबाये हुए जब पृथ्वीपर खड़ा हुआ तो वह पूर्वकालमें प्रकट हुए वाराहकी तरह दीख रहा था ।। 50-593 ।।
इसी प्रकार भागीरथी नदी, सरयू कौशिकी, यमुना, कावेरी, कृष्णवेणा नदी, महाभागा सुवेगा, गोदावरी नदी, चर्मण्वती, सिन्धु नद और नदियोंका स्वामी, कमल उत्पन्न करनेवाला तथा मणिसदृश जलसे परिपूर्ण शोण, पुण्यसलिला नर्मदा, वेत्रवती नदी, गोकुलसे सेवित होनेवाली गोमती, प्राचीसरस्वती, मही, कालमही, तमसा, पुष्पवाहिनी, जम्बूद्वीप, सम्पूर्ण रत्नोंसे सुशोभित रत्नवट, सुवर्णकी खानोंसे युक्त सुवर्णप्रकट, पर्वतों और काननोंसे सुशोभित महानद लौहित्य ऋषियों और वीरजनोंका उत्पत्तिस्थानस्वरूप कोशकरण नामक नगर, बड़े-बड़े ग्रामोंसे युक्त मागध, मुण्ड, शुङ्ग, सुझ, मल, विदेह, मालव, काशी, कोसल-इन सबको तथा गरुडके भवनको, जो कैलासके शिखरकी-सी आकृतियाला था तथा जिसे विश्वकर्माने बनाया था, उस दैत्येन्द्रने प्रकम्पित कर दिया। रक्तरूपी जलसे भरा हुआ महान् भयंकर लौहित्य सागर तथा जो स्वर्णमयी वेदिकासे युक्त, शोभाशाली, मेघकी पतियोंद्वारा सुसेवित और सूर्य-सदृश एवं स्वर्णमय खिले हुए साल, ताल, तमाल और कनेरके वृक्षोंसे सुशोभित है, वह सौ योजन ऊँचा महान् पर्वत उदयाचल, धातुओंसे विभूषित अयोमुख नामक विख्यात पर्वत, तमाल-वनके गन्धसे सुवासित सुन्दर मलय पर्वत, सुराष्ट्र, बाह्रीक, शूर, आभीर, भोज, पाण्डवङ्गकलिङ्ग ताम्रलिक, उण्डू पौण्ड केरल इन सबको तथा देवों और अप्सराओंके समूहोंको उस दैत्यने क्षुब्ध कर दिया ।। 60-73 ।।
इसी प्रकार जो पहले अगम्य कर दिया गया तथा सिद्धों और चारणोंके समूहोंसे व्याप्त,मनोहर, नाना प्रकारके रंग-विरंगे पक्षियोंसे युक्त और पुष्पोंसे लदे हुए महान् वृक्षोंसे सुशोभित था, उस अगस्त्य भवनको भी कैंपा दिया। इसके बाद जो लक्ष्मीवान्, प्रियदर्शन और अपने अत्यन्त ऊंचे शिखरोंसे आकाशमें रेखा-सी खींच रहा था तथा चन्द्रमा और सूर्यको विश्राम देनेके लिये सागरका भेदन कर बाहर निकला था, वह पुष्पितक गिरि अपने स्वर्णमय शिखरोंसे शोभा पा रहा था। फिर चन्द्रमा और सूर्यकी किरणों के समान चमकीले एवं सागरके जलसे घिरे हुए शिखरोंसे युक्त शोभाशाली विद्युत्वान् पर्वत था, जो सब ओरसे सौ योजन विस्तृत था। उस पर्वत श्रेष्ठपर बिजलियोंके समूह गिराये जाते थे। वृषभ नामसे पुकारा जानेवाला शोभासम्पन्न ऋषभ पर्वत तथा शोभाशाली कुंजर पर्वत, जिसपर महर्षि अगस्त्यका सुन्दर आश्रम था। सर्पका दुर्धर्य निवासस्थान विशालाक्ष तथा भोगवती पुरी- ये सभी दैत्येन्द्रद्वारा प्रकम्पित कर दिये गये। द्विजवरो! वहाँ महासेन गिरि, पारियात्र पर्वत, गिरिश्रेष्ठ चक्रवान्, वाराह पर्वत, स्वर्णनिर्मित रमणीय प्राग्ज्योतिषपुर, जिसमें नरक नामक दुष्टात्मा दानव निवास करता है, बादलोंके | समान गम्भीर शब्द करनेवाला पर्वतश्रेष्ठ मेघ आदि साठ हजार पर्वत थे, वहीं मध्याह्नकालीन सूर्यके समान प्रकाशमान विशाल पर्वत मेरु था, जिसकी कन्दराओंमें यक्ष, राक्षस और गन्धर्व नित्य निवास करते थे। महान् पर्वत हेमगर्भ, हेमसख गिरि तथा पर्वतराज कैलास इन सबको भी दानवेन्द्र हिरण्यकशिपुने कैंपा दिया ॥ 74-84 ॥
हिरण्यकशिपुने स्वर्ण-सदृश कमल-पुष्पोंसे आच्छादित वैखानस सरोवर तथा हंसों और बतखोंसे भरे हुए मानसरोवरको भी कम्पित कर दिया। इसके बाद त्रिभृङ्ग पर्वत, नदियोंमें श्रेष्ठ कुमारी नदी, तुषारसमूहसे आच्छादित मन्दर पर्वत उशीरविन्दु गिरि, पर्वतराज चन्द्रप्रस्थ प्रजापति गिरि, पुष्कर पर्वत, देवाभ्र पर्वत, रेणुक गिरि, क्राँच पर्वत, सप्तर्पिशैल तथा धूम्रवर्ण पर्वत - इनको तथा इनके अतिरिक्त अन्यान्य पर्वतों देशों, जनपदों तथा सागरोंसहित सभी नदियोंको उस दानवने कम्पित कर दिया। साथ | ही महीपुत्र कपिल और व्यप्रवान् भी काँप उठे।आकाशचारी एवं पाताललोकमें निवास करनेवाले सतीके पुत्र, अङ्कुशको अस्त्ररूपमें धारण करनेवाला परम भयंकर मेघ नामक गण तथा उर्ध्वग और भीमवेग— ये सभी कँपा दिये गये। तदनन्तर जो गदा और त्रिशूल धारण किये हुए था, जिसकी आकृति बड़ी विकराल थी, जो देवताओंका शत्रु, घने बादलके समान कान्तिमान्, घने बादल जैसा बोलनेवाला, घने बादल-सदृश गरजनेवाला और बादल सा वेगशाली था, उस दितिनन्दन वीरवर हिरण्यकशिपुने भगवान् नरसिंहपर आक्रमण किया। तब युद्धस्थलमें ओंकारकी सहायतासे भगवान् नरसिंहने आकाशमें उछलकर अपने तीखे विशाल नखोंसे उनके वक्ष:स्थलको विदीर्ण कर उसे मार डाला ।। 85-94 ॥
इस प्रकार उस दितिपुत्र हिरण्यकशिपुके मौतके मुखमें चले जानेसे पृथ्वी, काल, चन्द्रमा, आकाश, ग्रहगण, सूर्य, सभी दिशाएँ, नदियाँ, पर्वत और महासागर प्रसन्न हो गये। तदनन्तर हर्षसे फूले हुए देवता और तपोधन ऋषिगण दिव्य नामोंद्वारा उन अविनाशी आदि देवकी स्तुति करते हुए कहने लगे- 'देव! आपने जो यह नरसिंहका शरीर धारण किया है, इसकी पूर्वापरके ज्ञाता लोग अर्चना करेंगे' ॥ 95 - 97 ॥
ब्रह्माजीने कहा- देव! आप ही ब्रह्मा, रुद्र और देवश्रेष्ठ महेन्द्र हैं। आप ही लोकोंके कर्ता, संहर्ता और उत्पत्तिस्थान हैं। आपका कभी विनाश नहीं होता। आपको ही परमोत्कृष्ट सिद्धि परात्पर देव, परम मन्त्र, परम हवि, परम धर्म, परम विश्व और आदि पुराणपुरुष कहा जाता है। आपको ही परम शरीर, परम ब्रह्म, परम योग, परमा वाणी, परम रहस्य, परम गति और अग्रजन्मा पुराण पुरुष कहा जाता है। इसी प्रकार जो परात्पर पद, परात्पर देव, परात्पर भूत और सर्वश्रेष्ठ पुराणपुरुष है, वह आप ही हैं।जो परात्पर रहस्य, परात्पर महत्त्व और परात्पर महत्तत्त्व है, वह सब आप अग्रजन्मा पुराणपुरुषको ही कहा जाता है। आप सर्वश्रेष्ठ पुराणपुरुषको परसे भी परम निधान, परसे भी परम पवित्र और परसे भी परम उदार कहा जाता है। ऐसा कहकर सम्पूर्ण लोकोंके पितामह सामर्थ्यशाली भगवान् ब्रह्मा नारायणदेवकी स्तुति कर ब्रह्मलोकको चले गये। उस समय तुरहियाँ बज रही थीं और अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं। इसी बीच जगदीश्वर श्रीहरि क्षीरसागरके उत्तर तटपर जानेके लिये उद्यत हुए। वहाँसे जाते समय | भगवान् गरुडध्वजने परम कान्तिमान् उस नरसिंह- शरीरको जगत्में स्थापित कर अपने पुराने रूपको धारण कर लिया था। फिर अव्यक्त प्रकृतिवाले भगवान् विष्णु पञ्चभूतोंसे युक्त एवं चमकीले आठ पहियेवाले रथपर सवार हो अपने निवास स्थानको चले गये ॥ 98- 107 ॥