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मत्स्य पुराण (मत्स्यपुराण)

Matsya Purana (Matsyapurana )

अध्याय 191 - Adhyaya 191

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नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका माहात्म्य

मार्कण्डेयजीने कहा- राजन् ! तभीसे ब्रह्मा आदि देवता और तपस्वी ऋषिगण क्रोध-रागसे रहित होकर नर्मदाका सेवन करते हैं ॥ 1 ॥

युधिष्ठिरने पूछा- मुनिश्रेष्ठ ! इस पृथ्वीपर महादेवजीका त्रिशूल किस स्थानपर गिरा था ? उस स्थानका पुण्य यथार्थरूपसे बतलाइये ॥ 2 ॥

मार्कण्डेयजी बोले- वह महान् पुण्यमय तीर्थ शूलभेद नामसे प्रसिद्ध है। वहाँ स्नानकर महादेवजी की पूजा करे, उससे एक हजार गो-दानका फल प्राप्त होता है। नराधिप ! जो मनुष्य उस तीर्थस्थानमें तीन राततक महादेवजीकी पूजा करके निवास करता है, उसका पुनर्जन्मनहीं होता। इसके बाद श्रेष्ठ भीमेश्वर और नारदेश्वर तीर्थकी यात्रा करे आदित्येश तोर्थ महान् पुण्यशाली और पापका नाशक कहा गया है। नन्दिकेशका दर्शन करनेसे जन्म धारण करनेका पर्याप्त फल सुलभ हो जाता है। इसके बाद वरुणेश एवं स्वतन्त्रेश्वरका दर्शन करे। | इस पञ्चायतनका दर्शन करनेसे सभी तीर्थोंका फल प्राप्त हो जाता है। राजेन्द्र इसके बाद कोटितीर्थ नामसे प्रसिद्ध स्थानमें जाना चाहिये। जहाँ युद्ध हुआ था और जहाँ असुरगण मोहित हुए थे, राजन्! जहाँ बलके घमंड में चूर दानवगण मारे गये थे और आये हुए देवगणोंने उनके सिरोंको ग्रहण कर लिया था, जहाँ देवताओं द्वारा हाथमें त्रिशूल धारण किये हुए भगवान् वृषध्वज महादेवकी प्रतिष्ठा की गयी थी, वहाँ करोड़ों दानवोंका संहार हुआ था, अतः वह कोटीश्वर तीर्थके नामसे प्रसिद्ध हुआ। उस तीर्थका दर्शन करनेसे सशरीर स्वर्गारोहण प्राप्त होता है। जबसे इन्द्रने कृपणताके कारण वज्रको कोलसे कीलित कर दिया तबसे साधारण लोगोंके लिये स्वर्गका मार्ग बंद हो गया ॥ 3- 103 ॥

पाण्डुनन्दन। जो स्तुति करनेके पश्चात् अन्तमें इस तीर्थकी प्रदक्षिणा कर बिल्वफल प्रदान करता है तथा दीपकसहित पर्वतप्रतिमा सिरपर धारण करता है, वह सभी कामनाओंसे सम्पन्न होकर राजा होता है और मृत्यु होनेपर रुद्रत्वको प्राप्त करता है। पुनः जब वह स्वर्गस लौटकर जन्म लेता है, तब राजा होता है और राज्यका उपभोग करनेके बाद स्वर्गमें चला जाता है। इसके बाद त्रयोदशी तिथिको मानव बहुनेत्र तीर्थका दर्शन करें। वहाँ मनुष्य स्नानमात्र करनेसे सभी यज्ञोंके फलको प्राप्त कर लेता है। राजेन्द्र ! तदनन्तर मनुष्योंके पापोंका नाश करनेके लिये विख्यात अगस्त्येश्वर नामक श्रेष्ठ एवं परम रमणीय तीर्थकी यात्रा करे। राजन्! उस तीर्थमें स्नान करनेसे मानव ब्रह्मलोकमें पूजित होता है जो जितेन्द्रिय मानव समाहितचित्तसे कार्तिकमासके कृष्णपक्षको चतुर्दशी तिथिमें महादेवजीको घृतसे स्नान कराता है, उसका इक्कीस पीढ़ीतक महेश्वरके पदसे पतन नहीं होता। वहाँ यदि विप्रोंको धेनु, जूता, छाता, भी, कम्बल और भोजनका दान दिया जाय तो वह सभी करोड़गुना हो जाता है। राजेन्द्र तदुपरान्त उत्तम बलाकेश्वरतीर्थमें जाना चाहिये। राजन्! उस तीर्थमें स्नान करनेसे मानव सिंहासनकाअधिपति होता है। नर्मदाके दक्षिण तटपर इन्द्रका प्रसिद्ध तीर्थ है, वहाँ एक रातका उपवास कर विधिविधानसे स्नान करे, स्नान करनेके बाद विधिपूर्वक जनार्दनको अर्चना करे तो उसे एक हजार गौओंके दानका फल प्राप्त होता है और वह विष्णुलोकमें जाता है ॥11- 21 ॥

तत्पश्चात् मनुष्योंके सभी पापोंके नाशक ऋषितीर्थकी यात्रा करे, वहाँ स्नानमात्र करनेसे मानव शिवलोकको चला जाता है। वहीं नारदजीका परम रमणीय तीर्थ है. वहाँ स्नानमात्रसे मानव एक हजार गौओंके दानका फल प्राप्त करता है। राजन्! इसके बाद प्राचीनकालमें ब्रह्माद्वारा निर्मित देवतीर्थमें जाय, वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य ब्रह्मलोकमें पूजित होता है। तदनन्तर प्राचीनकालमें देवोंद्वारा स्थापित अमरकण्टककी यात्रा करे। वहाँ स्नान करनेमात्रसे मनुष्य रुद्रलोकमें पूजित होता है। राजेन्द्र तत्पश्चात् श्रेष्ठ रावणेश्वर तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। वहाँ मनुष्य प्रतिदिन देवमन्दिरका दर्शनकर ब्रह्महत्यासे मुक्त हो जाता है। तदुपरान्त ऋणतीर्थमें जाय, वहाँ जानेसे मानव निश्चय ही ऋणोंसे मुक्त हो जाता है। इसके बाद वटेश्वरका दर्शन करके मनुष्यजन्मका पूर्ण फल प्राप्त कर लेता है। राजन्! तदनन्तर सभी व्याधियोंको नाश करनेवाले भीमेश्वरतीर्थको यात्रा करे। उस तीर्थमें स्नान करनेमात्रसे मनुष्य सभी दुःखोंसे छुटकारा पा जाता है। राजेन्द्र तत्पश्चात् श्रेष्ठतम तुरासङ्ग तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। वहाँ स्नानकर महादेवजीको पूजा करनेसे सिद्धि प्राप्त होती है। इसके बाद सोमतीर्थमें जाय और वहाँ परम श्रेष्ठ चन्द्रमाका दर्शन करे। राजन्! उस तीर्थमें परम भक्तिसे युक्त हो स्नान करनेसे मानव उसी क्षण दिव्य शरीर धारणकर शिवके समान चिरकालपर्यन्त आनन्दका अनुभव करता है और साठ हजार वर्षोंतक रुद्रलोकमें पूजित होता है ॥ 22- 31 ॥

राजेन्द्र ! इसके बाद श्रेष्ठ पिङ्गलेश्वरतीर्थकी यात्रा करे। वहाँ एक दिन-रात उपवास करनेसे त्रिरात्रका फल प्राप्त होता है। राजेन्द्र उस तीर्थमें जो कपिला गौका दान देता है, उस दाताके वंशके कुलवाले उस गौके शरीर में जितने रोएँ होते हैं, उतने हजार वर्षोंतक रुद्रलोकमें पूजित होते हैं नराधिप उस तीर्थमें जो मानव प्राणकापरित्याग करता है, वह चन्द्र और सूर्यकी स्थितिपर्यन्त अक्षय कालतक आनन्दका अनुभव करता है। जो श्रेष्ठ मानव नर्मदाके तटपर निवास करते हैं, वे मरकर सन्त और पुण्यवान् व्यक्तियोंके समान स्वर्गमें जाते हैं। तदनन्तर कर्कोटकेश्वर नामसे प्रसिद्ध सुरेश्वरको यात्रा करनी चाहिये। वहाँ पुण्यतिथिको गङ्गाका अवतरण होता है, इसमें संदेह नहीं है। तत्पश्चात् नन्दितीर्थमें जाय और वहाँ विधिपूर्वक स्नान करे। इससे उसपर नन्दीश्वर शिव प्रसन्न होते हैं और वह चन्द्रलोकमें पूजित होता है। तत्पश्चात् व्यासके तपोवन दीपेश्वर तीर्थकी यात्रा करे। वहाँ प्राचीनकालमें व्याससे डरकर महानदी पीछेकी | ओर लौटने लगी थी, तब व्यासके हुंकारसे वह दक्षिणकी ओर प्रवाहित हुई, नराधिप। उस तीर्थकी जो प्रदक्षिणा करता है, वह चन्द्र और सूर्यकी स्थितिपर्यन्त अक्षय कालतक आनन्दका उपभोग करता है। उसपर व्यासदेव प्रसन्न होते हैं और उसे अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती है। वहाँ वेदीपर सूतसे परिवेष्टित दीपका दान करना चाहिये। ऐसा करनेसे मानव रुद्रकी तरह अक्षय कालतक आनन्दपूर्वक जीवनयापन करता है ॥ 32- 416 ॥

राजेन्द्र ! तदुपरान्त श्रेष्ठ ऐरण्डी तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये ऐरण्डी नदी पापनाशक के रूपमें तीनों लोकोंमें विख्यात है। उसके सङ्गममें स्नान करनेसे मनुष्य सभी पातकोंसे मुक्त हो जाता है। अथवा यदि मनुष्य आश्विन मासके शुक्लपक्षमें अष्टमी तिथिको स्नान करके पवित्र हो उपवासपूर्वक एक ब्राह्मणको भोजन करा दे तो उसे एक करोड़ ब्राह्मणोंको भोजन करानेका फल प्राप्त होता है। जो ऐरण्डी-संगममें भक्तिभावपूर्वक उसकी मिट्टीको सिरपर धारणकर नर्मदाके जलसे मिश्रित जलमें | अवगाहनकर स्नान करता है, वह सभी पापोंसे छूट जाता है। नराधिप। जो उस तीर्थमें जाकर प्रदक्षिणा करता है, उसने मानो सात द्वीपोंवाली वसुन्धराकी परिक्रमा कर ली। तदनन्तर सुवर्णसलिल नामक तीर्थमें स्नानकर सुवर्णका दान करनेसे मनुष्य सुवर्णमय विमानसे जाकर रुद्रलोकमें पूजित होता है। फिर वह समयानुसार स्वर्गसे च्युत होनेपर पराक्रमी राजा होता है। राजेन्द्र ! तत्पश्चात् इक्षु नदीके सङ्गमपर जाना चाहिये यह दिव्य तीर्थ तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। वहाँ शिवजी सदा उपस्थितरहते हैं। राजन्! वहाँ स्नान करनेसे मानव गणाधिपतिका स्थान प्राप्त कर लेता है। तदुपरान्त स्कन्द-तीर्थकी यात्रा करे। यह तीर्थ सभी पापोंका विनाशक है। यहाँ स्नान करनेमात्रसे मानव जन्मभरके किये हुए पापोंसे छूट जाता है। इसके बाद लिङ्गसार तीर्थमें जाय और वहाँ स्नान करे। इससे उसे एक हजार गौओंके दानका फल मिलता है और वह रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। तदनन्तर सभी पापोंके विनाशक भङ्गतीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। राजेन्द्र ! वहाँ जाकर स्नान करनेसे मानव सात जन्मोंमें किये गये पापोंसे मुक्त 'हो जाता है, इसमें संशय नहीं है ।। 42-53 ॥

तदनन्तर सभी तीर्थोंमें श्रेष्ठ वटेश्वरतीर्थकी यात्रा करे। राजन्! वहाँ स्नान करनेसे मानव एक हजार गौओंके दानका फल प्राप्त करता है। तत्पश्चात् सभी देवोंद्वारा नमस्कृत सङ्गमेश-तीर्थमें जाय। वहाँ स्नान मात्रसे मनुष्य निश्चित ही इन्द्र- पदको प्राप्त करता है। |इसके बाद सभी पापोंको नष्ट करनेवाले श्रेष्ठ कोटितीर्थकी यात्रा करे। वहाँ स्नानकर मनुष्य राज्यकी प्राप्ति करता है— इसमें संदेह नहीं है। उस तीर्थमें आकर जो मनुष्य दान देता है, उसका सब कुछ उस तीर्थके प्रभावसे करोड़गुना हो जाता है। यदि वहाँ कोई स्त्री स्नान करती है तो वह नि:संदेह गौरी अथवा इन्द्र- पत्नी शचीके समान हो जाती है। इसके बाद अङ्गारेश-तीर्थकी यात्रा करके वहाँ स्नान करे। वहाँ स्नानमात्र करनेसे मनुष्य रुद्रलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। जो मनुष्य पवित्र एवं संयत-मन होकर अङ्गारक-चतुर्थीके दिन वहाँ स्नान करता है, वह अक्षय कालतक आनन्दका उपभोग करता है। अयोनिसम्भव नामक तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्यको योनिसंकटका दर्शन नहीं होता। वहीं पाण्डवेश तीर्थ है, उसमें स्नान करना चाहिये। ऐसा करनेसे वह देवताओंसे भी अवध्य होकर अक्षय कालतक आनन्दका अनुभव करता है और मरणोपरान्त विष्णुलोकमें जाकर भोगसे परिपूर्ण हो क्रीड़ा करता है तथा वहाँ उत्तम भोगोंका भोग कर मृत्युलोकमें राजा होता है। इसके बाद उत्तरायण आनेपर कठेश्वर-तीर्थमें जाकर वहाँ स्नान करना चाहिये। ऐसा करनेसे मानव जो इच्छा करता है, वह उसे प्राप्त हो जाता है ॥ 54–633 ॥

राजन् ! इसके बाद चन्द्रभागा नदीपर जाकर वहाँस्नान करे। वहाँ स्नानमात्रसे मनुष्य चन्द्रलोक में प्रतिष्ठित होता है। राजेन्द्र इसके बाद इन्द्रके प्रसिद्ध तीर्थमें जाय । वह तीर्थ साक्षात् देवराजद्वारा पूजित तथा सम्पूर्ण देवताओं द्वारा वन्दित है। राजन्! वहाँ स्नानकर जो मनुष्य सुवर्णका दान देता है अथवा नीलवर्णवाले वृषभका उत्सर्ग करता है तो वह वृषभके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने हजार वर्षोंतक अपने कुलमें उत्पन्न संततिके साथ शिवपुरमें निवास करता है। इसके बाद स्वर्गसे गिरनेपर वह पराक्रमी राजा होता है। नराधिप। उस तीर्थके प्रभावसे मृत्युलोकमें आकर वह श्वेतवर्णवाले हजारों अश्वोंका स्वामी होता है। राजन्। तदनन्तर ब्रह्मावर्त नामक श्रेष्ठ तीर्थकी यात्रा करे राजन्! उस तीर्थमें स्नानकर देवताओं और पितरोंका विधिवत् तर्पण करना चाहिये। नरेश्वर सूर्यके कन्याराशिमें स्थित होनेपर जो वहाँ एक रात उपवास करके विधिपूर्वक पिण्डदान करता है, उसका वह कर्म अक्षय हो जाता है। राजेन्द्र ! तत्पश्चात् श्रेष्ठ कपिलातीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। राजन्! उस तीर्थमें स्नानकर जो मनुष्य कपिला गौका दान करता है, उसे सम्पूर्ण पृथ्वीका दान करनेसे जो फल प्राप्त होता है, वह मिल जाता है। नर्मदेश उत्तम तीर्थस्थान है। इसके समान तीर्थ न हुआ है, न होगा। राजन् ! उस तीर्थमें स्नानकर मानव अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। नर्मदाके दक्षिण तटपर श्रेष्ठ सङ्गमेश्वर तीर्थ है। राजन्! वहाँ स्नान करनेपर मनुष्य सभी यज्ञोंके फलको प्राप्त करता है और वह पृथ्वीपर सभी प्रकारके उद्यमोंसे सम्पन्न, सभी शुभ लक्षणोंसे युक्त तथा सभी प्रकारकी व्याधियोंसे रहित राजा होता है ।। 64-75 ।।

नर्मदाके उत्तर तटपर अत्यन्त मनोहर आदित्यायतन नामक दिव्य तीर्थ है, ऐसा महादेवजीने कहा है। राजेन्द्र ! उस तीर्थमें स्नान करके जो यथाशक्ति दान देता है, | उसका वह दान उस तीर्थके प्रभावसे अक्षय हो जाता है जो दरिद्र, रोगग्रस्त और दुष्कर्मी हैं, वे भी (यहाँ स्नान करनेसे) सभी पापोंसे मुक्त होकर सूर्यलोकको चले जाते हैं। जो मनुष्य माघमासके शुक्लपक्षकी सप्तमी तिथि आनेपर इन्द्रियोंका संयम कर और निराहार | रहकर इस आदित्यायतन तीर्थमें निवास करता है, वहन तो वृद्धावस्था और रोगसे ही ग्रस्त होता है, न गूँगा अंधा अथवा बहरा ही होता है, अपितु भाग्यशाली, रूपवान् और स्त्रियोंका प्रिय होता है। राजेन्द्र इस प्रकार मार्कण्डेयजीने इस महान् पुण्यदायक तीर्थका वर्णन किया था जो उस तीर्थको नहीं जानते, वे नि:संदेह वञ्चित ही हैं। इसके बाद गर्गेश्वर तीर्थमें जाकर वहाँ स्नान करे वहाँ स्नान करनेसे ही मानव स्वर्गलोकको प्राप्त कर लेता है और चौदह इन्द्रोंके कार्यकालतक वह स्वर्गमें आनन्दपूर्वक निवास करता है। राजेन्द्र उसीके समीपमें नागेश्वर नामक तपोवन है। वहाँ स्नानकर मनुष्य नागलोकको प्राप्त करता है और अनेकों नागकन्याओंके साथ अक्षय कालतक क्रीडा करता है। तदनन्तर कुबेरभवनमें जाय, जहाँ कुबेर विराजमान रहते हैं। जहाँ कुबेर सन्तुष्ट हुए थे। वह कालेश्वर नामक उत्तम तीर्थ है। राजेन्द्र ! इस तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्यको सभी सम्पत्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं ॥ 76 - 853 ॥

तत्पश्चात् उससे पश्चिममें स्थित श्रेष्ठ मारुतालय तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। राजेन्द्र ! जो बुद्धिमान् वहाँ स्नान करके पवित्र हो सावधानीपूर्वक यथाशक्ति सुवर्णका दान करता है, वह पुष्पकविमानद्वारा वायुलोकको चला जाता है। युधिष्ठिर। तदुपरान्त माघमासके कृष्णपक्षकी चतुर्दशी तिथिको यवतीर्थमें जाकर स्नान करे और रातमें ही भोजन करे। ऐसा करनेवाले पुरुषको पुनः योनिसंकटका दर्शन नहीं करना पड़ता। इसके बाद अहल्यातीर्थमें जाय और वहाँ स्नान करे। वहाँ स्नानमात्र करनेसे मानव अप्सराओंके साथ आनन्दका उपभोग करता है। उस तीर्थमें अहल्याने तपस्या कर मुक्ति पायी थी। चैत्रमासके शुक्लपक्षको चतुर्दशी तिथि एवं सोमवारको जो मनुष्य वहाँ अहल्याकी पूजा करता है, वह जहाँ-जहाँ जन्म लेता है, वहाँ-वहाँ सभीका प्रिय होता है। वह दूसरे कामदेवके समान स्त्रियोंका प्रियपात्र एवं श्रीसम्पन्न होता है। श्रीरामके प्रसिद्ध तीर्थ अयोध्यामें आकर स्नानमात्र करनेसे मानव सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है। इसके बाद सोमतीर्थ की यात्रा करे और वहाँ स्नान करे। वहाँ स्नानमात्र करनेसे मानव सभी पापोंसे छुटकारा पा जाता है राजेन्द्र चन्द्रग्रहणके अवसरपर स्नान करनेसे यही तीर्थ मनुष्यके सभी पापोंको नष्ट कर देता है। राजन्!महान फल देनेवाला यह सोमतीर्थ तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। नराधिप। उस तीर्थमें जो चान्द्रायण व्रत करता है, वह सभी पापोंसे विशुद्ध होकर सोमलोकको चला जाता है। जो अग्निमें प्रवेश कर, जलमें डूबकर या भोजनका परित्याग कर इस सोमतीर्थ में प्राणका त्याग करता है, वह पुनः मृत्युलोकमें जन्म नहीं ग्रहण करता ॥ 86-973 ॥

तदनन्तर शुभतीर्थमें जाय और वहाँ स्नान करे। यहाँ स्नान करनेमासे मनुष्य गोलोकमें पूजित होता है। | राजेन्द्र ! तत्पश्चात् सर्वोत्तम विष्णुतीर्थकी यात्रा करे। विष्णुका यह सर्वश्रेष्ठ स्थान योधनीपुरके नामसे प्रसिद्ध है। यहाँ भगवान् वासुदेवने करोड़ों असुरोंसे युद्ध किया था, इसी कारण यह तीर्थस्थान बन गया। यहाँ जानेसे विष्णु प्रसन्न होते हैं। यहाँ एक दिन-रात उपवास करनेसे यह ब्रह्महत्याके पापको नष्ट कर देता है। राजेन्द्र तदुपरान्त श्रेष्ठ तापसेश्वर तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये, जहाँ व्याधके भयसे डरी हुई मृगी गिर पड़ी थी और जलमें शरीरका परित्याग कर अन्तरिक्षमें चली गयी थी। यह देखकर आश्चर्यचकित हुए व्याधको महान् विस्मय हुआ । इसी कारण इसका नाम तापेश्वरतीर्थ हुआ। इसके समान दूसरा तीर्थ न हुआ है, न होगा। राजेन्द्र इसके बाद श्रेष्ठ ब्रह्मतीर्थ की यात्रा करनी चाहिये। यह तीर्थ अमोहक नामसे भी प्रसिद्ध है। यहाँ पितरोंका तर्पण तथा पूर्णिमा और अमावस्याको यथाविधि श्राद्ध करना चाहिये। राजन्! वहाँ स्नान कर मनुष्यको पितरोंको पिण्ड देना चाहिये। वहाँ जलमें गजके आकारकी एक शिला प्रतिष्ठित है। उसी शिलापर विशेषतया वैशाखकी पूर्णिमाको पिण्ड देना चाहिये। ऐसा करनेसे जबतक पृथ्वी स्थित रहती है, तबतक पितृगण तृप्त बने रहते हैं। राजेन्द्र तदनन्तर श्रेष्ठ सिद्धेश्वर तीर्थकी यात्रा करे राजन्! वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य गणपतिके समीप पहुँच जाता है ॥ 98- 108 ll

राजेन्द्र तत्पश्चात् जनार्दन-लिङ्गकी यात्रा करे। राजेन्द्र ! वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य विष्णुलोकमें पूजित होता है। नर्मदाके दक्षिण तटपर परम रमणीय कुसुमेश्वर तीर्थ है। वहाँ स्वयं कामदेवने कठोर तपस्या की थी। उसने एकहजार दिव्य वर्षोंतक शंकरकी सर्वभावसे उपासना की थी, किंतु महात्मा शंकरकी समाधिके भङ्ग होनेसे वह भस्म हो गया। इसी प्रकार कुसुमेश्वरमें स्थित श्वेतपर्वा, यम, हुताश और शुक्रपर्वा- ये सभी भी किसी समय जल गये थे। एक हजार दिव्य वर्षोंतक तपस्या करनेपर महेश्वर इनपर प्रसन्न हुए। इस प्रकार प्रसन्न हुए उमासहित रुद्रने इन्हें वर प्रदान किया। तब इन लोगोंको मोक्ष प्रदानकर वे नर्मदाके तटपर प्रतिष्ठित हो गये। तदनन्तर उस तीर्थके प्रभावसे उन लोगोंको पुनः देवत्व प्राप्त हो गया, तब उन्होंने अतिशय भक्तिके साथ देवाधिदेव वृषभध्वजसे कहा- 'महादेव! आपकी कृपासे दिशाओंमें चारों ओर आधा योजन विस्तृत यह क्षेत्र उत्तम तीर्थ हो जाय।' उस तीर्थमें उपवासपूर्वक स्नानकर मनुष्य कामदेवके रूपमें रुद्रलोकमें पूजित होता है ।। 109 - 116 ॥

राजेन्द्र यहाँ वैश्वानर, यम, कामदेव और मरुत्ने तपस्या कर परम सिद्धि प्राप्त की थी। उस तीर्थसे थोड़ी दूरपर अंकोलके समीप स्नान, दान, भोजन तथा पिण्डदान करना चाहिये। यहाँ अग्निमें जलकर, जलमें डूबकर या अनशन करके प्राण त्याग करनेवालेको परलोकमें अपुनर्भवकी गति प्राप्त होती है। जो व्यक्ति त्र्यम्बकतीर्थके जलसे चरु पकाकर अङ्कोलके मूलमें विधिपूर्वक पिण्डदान करता है, उसके पितृगण चन्द्र और सूर्यकी स्थितिपर्यन्त तृप्त रहते हैं। उत्तरायण आनेपर चाहे पुरुष हो या स्त्री जो कोई भी घृतसे स्नान करता है और पवित्र होकर उस आयतनमें निवास करता है तथा प्रातः काल सिद्धेश्वरदेवकी पूजा करता है, वह जिस गतिको प्राप्त करता है, वह सभी यज्ञोंके करनेसे भी नहीं प्राप्त हो सकती। कालगति से पुनः जब वह मृत्युलोकमें जन्म ग्रहण करता है, तब सौभाग्यशाली एवं रूपसे सम्पन्न होकर समुद्रपर्यन्त पृथ्वीका राजा होता है। जो यहाँ आकर महाबली दण्डपाणि क्षेत्रपालका दर्शन नहीं करता और कर्णकुण्डलको नहीं देखता, उसकी यात्रा व्यर्थ हो जाती है। इस प्रकार तीर्थके फलको जानकर सभी देवगण वहाँ उपस्थित होकर कुसुमको वृष्टि करने लगे, इसीसे | यह कुसुमेश्वर नामसे विख्यात हुआ ।। 117- 125 ॥

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मत्स्य पुराण
Index


  1. [अध्याय 1]मङ्गलाचरण, शौनक आदि मुनियोंका सूतजीसे पुराणविषयक प्रश्न, सूतद्वारा मत्स्यपुराणका वर्णनारम्भ, भगवान् विष्णुका मत्स्यरूपसे सूर्यनन्दन मनुको मोहित करना, तत्पश्चात् उन्हें आगामी प्रलयकालकी सूचना देना
  2. [अध्याय 2]मनुका मत्स्यभगवान्से युगान्तविषयक प्रश्न, मत्स्यका प्रलयके स्वरूपका वर्णन करके अन्तर्धान हो जाना, प्रलयकाल उपस्थित होनेपर मनुका जीवोंको नौकापर चढ़ाकर उसे महामत्स्यके सींगमें शेषनागकी रस्सीसे बाँधना एवं उनसे सृष्टि आदिके विषयमें विविध प्रश्न करना और मत्स्यभगवान्‌का उत्तर देना
  3. [अध्याय 3]मनुका मत्स्यभगवान् से ब्रह्माके चतुर्मुख होने तथा लोकोंकी सृष्टि करनेके विषयमें प्रश्न एवं मत्स्य भगवानद्वारा उत्तररूपमें ब्रह्मासे वेद, सरस्वती, पाँचवें मुख और मनु आदिकी उत्पत्तिका कथन
  4. [अध्याय 4]पुत्रीकी और बार-बार अवलोकन करनेसे ब्रह्मा दोषी क्यों नहीं हुए- एतद्विषयक मनुका प्रश्न, मत्स्यभगवान्का उत्तर तथा इसी प्रसङ्गमें आदिसृष्टिका वर्णन
  5. [अध्याय 5]दक्षकन्याओं की उत्पत्ति, कुमार कार्त्तिकेयका जन्म तथा दक्षकन्याओं द्वारा देवयोनियोंका प्रादुर्भाव
  6. [अध्याय 6]कश्यप-वंशका विस्तृत वर्णन
  7. [अध्याय 7]मरुतोंकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें दितिकी तपस्या, मदनद्वादशी व्रतका वर्णन, कश्यपद्वारा दितिको वरदान, गर्भिणी स्त्रियोंके लिये नियम तथा मरुतोंकी उत्पत्ति
  8. [अध्याय 8]प्रत्येक सर्गके अधिपतियोंका अभिषेचन तथा पृथुका राज्याभिषेक
  9. [अध्याय 9]मन्वन्तरोंके चौदह देवताओं और सप्तर्षियोंका विवरण
  10. [अध्याय 10]महाराज पृथुका चरित्र और पृथ्वी दोहनका वृत्तान्त
  11. [अध्याय 11]सूर्यवंश और चन्द्रवंशका वर्णन तथा इलाका वृत्तान्त
  12. [अध्याय 12]इलाका वृत्तान्त तथा इक्ष्वाकु वंशका वर्णन
  13. [अध्याय 13]पितृ-वंश-वर्णन तथा सतीके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें देवीके एक सौ आठ नामोंका विवरण
  14. [अध्याय 14]अच्छोदाका पितृलोकसे पतन तथा उसकी प्रार्थनापर पितरोंद्वारा उसका पुनरुद्धार
  15. [अध्याय 15]पितृवंशका वर्णन, पीवरीका वृत्तान्त तथा श्रद्ध-विधिका कथन
  16. [अध्याय 16]श्राद्धोंके विविध भेद, उनके करनेका समय तथा श्राद्धमें निमन्त्रित करनेयोग्य ब्राह्मणके लक्षण
  17. [अध्याय 17]साधारण एवं आभ्युदयिक श्राद्धकी विधिका विवरण
  18. [अध्याय 18]एकोदिए और सपिण्डीकरण श्राद्धकी विधि
  19. [अध्याय 19]श्राद्धों में पितरोंके लिये प्रदान किये गये हव्य-कव्यकी प्राप्तिका विवरण
  20. [अध्याय 20]महर्षि कौशिकके पुत्रोंका वृत्तान्त तथा पिपीलिकाकी कथा
  21. [अध्याय 21]ब्रह्मदत्तका वृत्तान्त तथा चार चक्रवाकोंकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22]श्राद्धके योग्य समय, स्थान (तीर्थ) तथा कुछ विशेष नियमोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23]चन्द्रमाकी उत्पत्ति, उनका दक्ष प्रजापतिकी कन्याओंके साथ विवाह, चन्द्रमाद्वारा राजसूय यज्ञका अनुष्ठान, उनकी तारापर आसक्ति, उनका भगवान् शङ्करके साथ युद्ध तथा ब्रह्माजीका बीच-बचाव करके युद्ध शान्त करना'
  24. [अध्याय 24]ताराके गर्भसे बुधकी उत्पत्ति, पुरूरवाका जन्म, पुरूरवा और उर्वशीकी कथा, नहुष-पुत्रोंके वर्णन-प्रसङ्गमें ययातिका वृत्तान्त
  25. [अध्याय 25]कचका शिष्यभावसे शुक्राचार्य और देवयानीकी सेवामें संलग्न होना और अनेक कष्ट सहनेके पश्चात्मृतसंजीविनी विद्या प्राप्त करना
  26. [अध्याय 26]देवयानीका कचसे पाणिग्रहणके लिये अनुरोध, कचकी अस्वीकृति तथा दोनोंका एक-दूसरेको शाप देना
  27. [अध्याय 27]देवयानी और शर्मिष्ठाका कलह, शर्मिष्ठाद्वारा कुऍमें गिरायी गयी देवयानीको ययातिका निकालना और देवयानीका शुक्राचार्यके साथ वार्तालाप
  28. [अध्याय 28]शुक्राचार्यद्वारा देवयानीको समझाना और देवयानीका असंतोष
  29. [अध्याय 29]शुक्राचार्यका नृपपको फटकारना तथा उसे छोड़कर जानेके लिये उद्यत होना और वृषपवकि आदेशसे शर्मिष्ठाका देवयानीकी दासी बनकर शुक्राचार्य तथा देवयानीको संतुष्ट करना
  30. [अध्याय 30]सखियोंसहित देवयानी और शर्मिष्ठाका वनविहार, राजा ययातिका आगमन, देवयानीके साथ बातचीत तथा विवाह
  31. [अध्याय 31]ययातिसे देवयानीको पुत्रप्राप्ति, ययाति और शर्मिष्ठाका एकान्त मिलन और उनसे एक पुत्रका जन्म
  32. [अध्याय 32]देवयानी और शर्मिष्ठाका संवाद, ययातिसे शर्मिष्ठाके पुत्र होनेकी बात जानकर देवयानीका रूठना और अपने पिताके पास जाना तथा शुक्राचार्यका ययातिको बूढ़े होनेका शाप देना
  33. [अध्याय 33]ययातिका अपने यदु आदि पुत्रोंसे अपनी युवावस्था देकर वृद्धावस्था लेनेके लिये आग्रह और उनके अस्वीकार करनेपर उन्हें शाप देना, फिर पूरुको जरावस्था देकर उसकी युवावस्था लेना तथा उसे वर प्रदान करना
  34. [अध्याय 34]राजा ययातिका विषय सेवन और वैराग्य तथा पूरुका राज्याभिषेक करके वनमें जाना
  35. [अध्याय 35]वनमें राजा ययातिकी तपस्या और उन्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति
  36. [अध्याय 36]इन्द्रके पूछनेपर ययातिका अपने पुत्र पुरुको दिये हुए उपदेशकी चर्चा करना
  37. [अध्याय 37]ययातिका स्वर्गसे पतन और अष्टकका उनसे प्रश्न करना
  38. [अध्याय 38]ययाति और अष्टकका संवाद
  39. [अध्याय 39]अष्टक और ययातिका संवाद
  40. [अध्याय 40]ययाति और अष्टकका आश्रमधर्मसम्बन्धी संवाद
  41. [अध्याय 41]अष्टक-ययाति-संवाद और ययातिद्वारा दूसरोंके दिये हुए पुण्यदानको अस्वीकार करना
  42. [अध्याय 42]राजा ययातिका वसुमान् और शिबिके प्रतिग्रहको अस्वीकार करना तथा अष्टक आदि चारों राजाओंके साथ स्वर्गमें जाना
  43. [अध्याय 43]ययाति-वंश-वर्णन, यदुवंशका वृत्तान्त तथा कार्तवीर्य अर्जुनकी कथा
  44. [अध्याय 44]कार्तवीर्यका आदित्यके तेजसे सम्पन्न होकर वृक्षोंको जलाना, महर्षि आपवद्वारा कार्तवीर्यको शाप और क्रोष्टुके वंशका वर्णन
  45. [अध्याय 45]वृष्णिवंशके वर्णन-प्रसङ्गमें स्यमन्तक मणिकी कथा
  46. [अध्याय 46]वृष्णिवंशका वर्णन
  47. [अध्याय 47]श्रीकृष्ण चरित्रका वर्णन, दैत्योंका इतिहास तथा देवासुर संग्रामके प्रसङ्गमें विभिन्न अवान्तर कथाएँ
  48. [अध्याय 48]तुर्वसु और झुके वंशका वर्णन, अनुके वंश-वर्णनमें बलिकी कथा और कर्णकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग
  49. [अध्याय 49]पूरु- वंशके वर्णन-प्रसङ्गमें भरत वंशकी कथा, भरद्वाजकी उत्पत्ति और उनके वंशका कथन, नीप - वंशका वर्णन तथा पौरवोंका इतिहास
  50. [अध्याय 50]पुरुवंशी नरेशोंका विस्तृत इतिहास
  51. [अध्याय 51]अग्नि- वंशका वर्णन तथा उनके भेदोपभेदका कथन
  52. [अध्याय 52]कर्मयोगकी महत्ता
  53. [अध्याय 53]पुराणोंकी नामावलि और उनका संक्षिप्त परिचय
  54. [अध्याय 54]नक्षत्र-पुरुष-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  55. [अध्याय 55]आदित्यशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  56. [अध्याय 56]श्रीकृष्णाष्टमी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  57. [अध्याय 57]रोहिणीचन्द्रशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  58. [अध्याय 58]तालाब, बगीचा, कुआं,बावली,पुष्करिणी तथा देव मन्दिर की प्रतिष्ठ आदिका विधान
  59. [अध्याय 59]वृक्ष लगानेकी विधि
  60. [अध्याय 60]सौभाग्यशयन-व्रत तथा जगद्धात्री सतीकी आराधना
  61. [अध्याय 61]अगस्त्य और वसिष्ठकी दिव्य उत्पत्ति, उर्वशी अप्सराका प्राकट्य और अगस्त्य के लिये अयं-प्रदान करनेकी विधि एवं माहात्म्य
  62. [अध्याय 62]अनन्ततृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  63. [अध्याय 63]रसकल्याणिनी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  64. [अध्याय 64]आर्द्रानन्दकरी तृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  65. [अध्याय 65]अक्षयतृतीया-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  66. [अध्याय 66]सारस्वत - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  67. [अध्याय 67]सूर्य-चन्द्र-ग्रहणके समय स्नानकी विधि और उसका माहात्म्य
  68. [अध्याय 68]सप्तमीस्त्रपन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  69. [अध्याय 69]भीमद्वादशी व्रतका विधान
  70. [अध्याय 70]पण्यस्त्री व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  71. [अध्याय 71]अशून्यशयन (द्वितीया ) - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  72. [अध्याय 72]अङ्गारक- व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  73. [अध्याय 73]शुक्र और गुरुकी पूजा-विधि
  74. [अध्याय 74]कल्याणसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  75. [अध्याय 75]विशोकसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  76. [अध्याय 76]फलसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  77. [अध्याय 77]शर्करासप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  78. [अध्याय 78]कमलसप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  79. [अध्याय 79]मन्दारसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  80. [अध्याय 80]शुभ सप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  81. [अध्याय 81]विशोकद्वादशी व्रतकी विधि
  82. [अध्याय 82]गुड-धेनु के दान की विधि और उसकी महिमा
  83. [अध्याय 83]पर्वतदानके दस भेद, धान्यशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  84. [अध्याय 84]लवणाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  85. [अध्याय 85]गुडपर्वतके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  86. [अध्याय 86]सुवर्णाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  87. [अध्याय 87]तिलशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  88. [अध्याय 88]कार्पासाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  89. [अध्याय 89]घृताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  90. [अध्याय 90]रत्नाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  91. [अध्याय 91]रजताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  92. [अध्याय 92]शर्कराशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य तथा राजा धर्ममूर्तिके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें लवणाचलदानका महत्त्व
  93. [अध्याय 93]शान्तिक एवं पौष्टिक कर्मों तथा नवग्रह शान्तिकी विधिका वर्णन *
  94. [अध्याय 94]नवग्रहोंके स्वरूपका वर्णन
  95. [अध्याय 95]माहेश्वर-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  96. [अध्याय 96]सर्वफलत्याग- व्रतका विधान और उसका माहात्म्य
  97. [अध्याय 97]आदित्यवार-कल्पका विधान और माहात्म्य
  98. [अध्याय 98]संक्रान्ति व्रतके उद्यापनकी विधि
  99. [अध्याय 99]विभूतिद्वादशी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  100. [अध्याय 100]विभूतिद्वादशी* के प्रसङ्गमें राजा पुष्पवाहनका वृत्तान्त
  101. [अध्याय 101]साठ व्रतोंका विधान और माहात्म्य
  102. [अध्याय 102]स्नान और तर्पणकी विधि
  103. [अध्याय 103]युधिष्ठिरकी चिन्ता, उनकी महर्षि मार्कण्डेयसे भेंट और महर्षिद्वारा प्रयाग-माहात्म्यका उपक्रम
  104. [अध्याय 104]प्रयाग-माहात्म्य-प्रसङ्गमें प्रयाग क्षेत्रके विविध तीर्थस्थानोंका वर्णन
  105. [अध्याय 105]प्रयागमें मरनेवालोंकी गति और गो-दानका महत्त्व
  106. [अध्याय 106]प्रयाग माहात्म्य वर्णन-प्रसङ्गमें वहांके विविध तीर्थोंका वर्णन
  107. [अध्याय 107]प्रयाग स्थित विविध तीर्थोका वर्णन
  108. [अध्याय 108]प्रयागमें अनशन-व्रत तथा एक मासतकके निवास ( कल्पवास) का महत्त्व
  109. [अध्याय 109]अन्य तीर्थोकी अपेक्षा प्रयागकी महत्ताका वर्णन
  110. [अध्याय 110]जगत्के समस्त पवित्र तीर्थोंका प्रयागमें निवास
  111. [अध्याय 111]प्रयाग में ब्रह्मा, विष्णु और शिवके निवासका वर्णन
  112. [अध्याय 112]भगवान् वासुदेवद्वारा प्रयागके माहात्म्यका वर्णन
  113. [अध्याय 113]भूगोलका विस्तृत वर्णन
  114. [अध्याय 114]भारतवर्ष, किम्पुरुषवर्ष तथा हरिवर्षका वर्णन
  115. [अध्याय 115]राजा पुरूरवाके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  116. [अध्याय 116]ऐरावती नदीका वर्णन
  117. [अध्याय 117]हिमालयकी अद्भुत छटाका वर्णन
  118. [अध्याय 118]हिमालयकी अनोखी शोभा तथा अत्रि - आश्रमका वर्णन
  119. [अध्याय 119]आश्रमस्थ विवरमें पुरूरवा * का प्रवेश, आश्रमकी शोभाका वर्णन तथा पुरूरवाकी तपस्या
  120. [अध्याय 120]राजा पुरूरवाकी तपस्या, गन्धवों और अप्सराओंकी क्रीडा, महर्षि अत्रिका आगमन तथा राजाको वरप्राप्त
  121. [अध्याय 121]कैलास पर्वतका वर्णन, गङ्गाकी सात धाराओंका वृत्तान्त तथा जम्बूद्वीपका विवरण
  122. [अध्याय 122]शाकद्वीप, कुशद्वीप, क्रौञ्चद्वीप और शाल्मलद्वीपका वर्णन
  123. [अध्याय 123]गोमेदकद्वीप और पुष्करद्वीपका वर्णन
  124. [अध्याय 124]सूर्य और चन्द्रमाको गतिका वर्णन
  125. [अध्याय 125]सूर्यकी गति और उनके रथका वर्णन
  126. [अध्याय 126]सूर्य रथ पर प्रत्येक मासमें भिन्न-भिन्न देवताओंका अधिरोहण तथा चन्द्रमाकी विचित्र गति
  127. [अध्याय 127]ग्रहोंके रथका वर्णन और ध्रुवकी प्रशंसा
  128. [अध्याय 128]देव-गृहों तथा सूर्य-चन्द्रमाकी गतिका वर्णन
  129. [अध्याय 129]त्रिपुर- निर्माणका वर्णन
  130. [अध्याय 130]दानवश्रेष्ठ मयद्वारा त्रिपुरकी रचना
  131. [अध्याय 131]त्रिपुरमें दैत्योंका सुखपूर्वक निवास, मयका स्वप्न-दर्शन और दैत्योंका अत्याचार
  132. [अध्याय 132]त्रिपुरवासी दैत्योंका अत्याचार, देवताओंका ब्रह्माकी शरणमें जाना और ब्रह्मासहित शिवजीके पास जाकर उनकी स्तुति करना
  133. [अध्याय 133]त्रिपुर- विध्वंसार्थ शिवजीके विचित्र रथका निर्माण और देवताओंके साथ उनका युद्धके लिये प्रस्थान
  134. [अध्याय 134]देवताओं सहित शङ्करजीका त्रिपुरपर आक्रमण, त्रिपुरमें देवर्षि नारदका आगमन तथा युद्धार्थ असुरोंकी तैयारी
  135. [अध्याय 135]शङ्करजीकी आज्ञा इन्द्रका त्रिपुरपर आक्रमण, दोनों सेनाओंमें भीषण संग्राम, विद्युन्मालीका वध, देवताओंकी विजय और दानवोंका युद्ध विमुख होकर त्रिपुरमें प्रवेश
  136. [अध्याय 136]मयका चिन्तित होकर अद्भुत बावलीका निर्माण करना, नन्दिकेश्वर और तारकासुरका भीषण युद्ध तथा प्रमथगणोंकी मारसे विमुख होकर दानवोंका त्रिपुर-प्रवेश
  137. [अध्याय 137]वापी शोषणसे मयको चिन्ता, मय आदि दानवोंका त्रिपुरसहित समुद्रमें प्रवेश तथा शंकरजीका इन्द्रको युद्ध करनेका आदेश
  138. [अध्याय 138]देवताओं और दानवोंमें घमासान युद्ध तथा तारकासुरका वध
  139. [अध्याय 139]दानवराज मयका दानवोंको समझा-बुझाकर त्रिपुरकी रक्षामें नियुक्त करना तथा त्रिपुरकौमुदीका वर्णन
  140. [अध्याय 140]देवताओं और दानवोंका भीषण संग्राम, नन्दीश्वरद्वारा विद्युन्मालीका वध, मयका पलायन तथा शङ्करजीकी त्रिपुरपर विजय
  141. [अध्याय 141]पुरूरवाका सूर्य-चन्द्रके साथ समागम और पितृतर्पण, पर्वसंधिका वर्णन तथा श्राद्धभोजी पितरोंका निरूपण
  142. [अध्याय 142]युगोंकी काल-गणना तथा त्रेतायुगका वर्णन
  143. [अध्याय 143]यज्ञकी प्रवृत्ति तथा विधिका वर्णन
  144. [अध्याय 144]द्वापर और कलियुगकी प्रवृत्ति तथा उनके स्वभावका वर्णन, राजा प्रमतिका वृत्तान्त तथा पुनः कृतयुगके प्रारम्भका वर्णन
  145. [अध्याय 145]युगानुसार प्राणियोंको शरीर स्थिति एवं वर्ण-व्यवस्थाका वर्णन, श्रौतस्मार्त, धर्म, तप, यज्ञ, क्षमा, शम, दया आदि गुणोंका लक्षण, चातुर्होत्र की विधि तथा पाँच प्रकारके ऋषियोंका वर्णन
  146. [अध्याय 146]वज्राङ्गकी उत्पत्ति, उसके द्वारा इन्द्रका बन्धन, ब्रह्मा और कश्यपद्वारा समझाये जानेपर इन्द्रको बन्धनमुक्त करना, वज्राङ्गका विवाह, तप तथा ब्रह्माद्वारा वरदान
  147. [अध्याय 147]ब्रह्माके वरदानसे तारकासुरकी उत्पत्ति और उसका राज्याभिषेक
  148. [अध्याय 148]तारकासुरकी तपस्या और ब्रह्माद्वारा उसे वरदानप्राप्ति, देवासुर संग्रामकी तैयारी तथा दोनों दलोंकी सेनाओंका वर्णन
  149. [अध्याय 149]देवासुर संग्रामका प्रारम्भ
  150. [अध्याय 150]देवताओं और असुरोंकी सेनाओंमें अपनी-अपनी जोड़ीके साथ घमासान युद्ध, देवताओंके विकल होनेपर भगवान् विष्णुका युद्धभूमिमें आगमन और कालनेमिको परास्त कर उसे जीवित छोड़ देना
  151. [अध्याय 151]भगवान् विष्णुपर दानवोंका सामूहिक आक्रमण, भगवान् विष्णुका अद्भुत युद्ध-कौशल और उनके द्वारा दानव सेनापति ग्रसनकी मृत्यु
  152. [अध्याय 152]भगवान् विष्णुका मधन आदि दैत्योंके साथ भीषण संग्राम और अन्तमें घायल होकर युद्धसे पलायन
  153. [अध्याय 153]भगवान् विष्णु और इन्द्रका परस्पर उत्साहवर्धक वार्तालाप, देवताओंद्वारा पुनः सैन्ध-संगठन, इन्द्रका असुरोंके साथ भीषण युद्ध, गजासुर और जम्भासुरकी मृत्यु तारकासुरका घोर संग्राम और उसके द्वारा भगवान् विष्णुसहित देवताओंका बंदी बनाया जाना
  154. [अध्याय 154]तारकके आदेश से देवताओंकी बन्धन-मुक्ति, देवताओंका ब्रह्माके पास जाना और अपनी विपत्तिगाथा सुनाना, ब्रह्माद्वारा तारक-वधके उपायका वर्णन, रात्रिदेवीका प्रसङ्ग, उनका पार्वतीरूपमें जन्म, काम दहन और रतिकी प्रार्थना, पार्वतीकी तपस्या, शिवपार्वती विवाह तथा पार्वतीका वीरकको पुत्ररूपमें स्वीकार करना *
  155. [अध्याय 155]भगवान् शिवद्वारा पार्वतीके वर्णपर आक्षेप, पार्वतीका वीरकको अन्तःपुरका रक्षक नियुक्त कर पुनः तपश्चर्याके लिये प्रस्थान
  156. [अध्याय 156]कुसुमामोदिनी और पार्वतीकी गुप्त मन्त्रणा, पार्वतीका तपस्यायें निरत होना आदि दैत्यका पार्वतीरूपमें शंकरके पास जाना और मृत्युको प्राप्त होना तथा पार्वतीद्वारा वीरकको शाप
  157. [अध्याय 157]पार्वतीद्वारा वीरकको शाप, ब्रह्माका पार्वती तथा एकानंशाको वरदान, एकानंशाका विन्ध्याचलके लिये प्रस्थान, पार्वतीका भवनद्वारपर पहुँचना और वीरकद्वारा रोका जाना
  158. [अध्याय 158]वीरकद्वारा पार्वतीकी स्तुति, पार्वती और शंकरका पुनः समागम, अग्निको शाप, कृत्तिकाओंकी प्रतिज्ञा और स्कन्दकी उत्पत्ति
  159. [अध्याय 159]स्कन्दकी उत्पत्ति, उनका नामकरण, उनसे देवताओंकी प्रार्थना और उनके द्वारा देवताओंको आश्वासन, तारकके पास देवदूतद्वारा संदेश भेजा जाना और सिद्धोंद्वारा कुमारकी स्तुति
  160. [अध्याय 160]तारकासुर और कुमारका भीषण युद्ध तथा कुमारद्वारा तारकका वध
  161. [अध्याय 161]हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरप्राप्ति, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, विष्णुद्वारा देवताओंको अभयदान, भगवान् विष्णुका नृसिंहरूप धारण करके हिरण्यकशिपुकी विचित्र सभायें प्रवेश
  162. [अध्याय 162]प्रह्लादद्वारा भगवान् नरसिंहका स्वरूप वर्णन तथा नरसिंह और दानवोंका भीषण युद्ध
  163. [अध्याय 163]नरसिंह और हिरण्यकशिपुका भीषण युद्ध, दैत्योंको उत्पातदर्शन, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, नरसिंहद्वारा हिरण्यकशिपुका वध तथा ब्रह्मद्वारा नरसिंहकी स्तुति
  164. [अध्याय 164]पद्मोद्भवके प्रसङ्गमें मनुद्वारा भगवान् विष्णुसे सृष्टिसम्बन्धी विविध प्रश्न और भगवान्‌का उत्तर
  165. [अध्याय 165]चारों युगोंकी व्यवस्थाका वर्णन
  166. [अध्याय 166]महाप्रलयका वर्णन
  167. [अध्याय 167]भगवान् विष्णुका एकार्णवके जलमें शयन, मार्कण्डेयको आश्चर्य तथा भगवान् विष्णु और मार्कण्डेयका संवाद
  168. [अध्याय 168]पञ्चमहाभूतों का प्राकट्य तथा नारायणकी नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  169. [अध्याय 169]नाभिकमलसे ब्रह्माका प्रादुर्भाव तथा उस कमलका साङ्गोपाङ्ग वर्णन
  170. [अध्याय 170]मधु-कैटभकी उत्पत्ति, उनका ब्रह्माके साथ वार्तालाप और भगवानद्वारा बध
  171. [अध्याय 171]ब्रह्माके मानस पुत्रोंकी उत्पत्ति, दक्षकी बारह कन्याओंका वृत्तान्त, ब्रह्माद्वारा सृष्टिका विकास तथा विविध
  172. [अध्याय 172]तारकामय-संग्रामकी भूमिका एवं भगवान् विष्णुका महासमुद्रके रूपमें वर्णन, तारकादि असुरोंके अत्याचारसे दुःखी होकर देवताओंकी भगवान् विष्णुसे प्रार्थना और भगवान्का उन्हें आश्वासन
  173. [अध्याय 173]दैत्यों और दानवोंकी युद्धार्थ तैयारी
  174. [अध्याय 174]देवताओंका युद्धार्थ अभियान
  175. [अध्याय 175]देवताओं और दानवोंका घमासान युद्ध, मयकी तामसी माया, और्वाग्निकी उत्पत्ति और महर्षि द्वारा हिरण्यकशिपुको उसकी प्राप्ति
  176. [अध्याय 176]चन्द्रमाकी सहायतासे वरुणद्वारा और्वाग्नि- मायाका प्रशमन, मयद्वारा शैली-मायाका प्राकट्य, भगवान् विष्णुके आदेश से अग्नि और वायुद्वारा उस मायाका निवारण तथा कालनेमिका रणभूमिमें आगमन
  177. [अध्याय 177]देवताओं और दैत्योंकी सेनाओंकी अद्भुत मुठभेड़, कालनेमिका भीषण पराक्रम और उसकी देवसेनापर विजय
  178. [अध्याय 178]कालनेमि और भगवान् विष्णुका रोषपूर्वक वार्तालाप और भीषण युद्ध, विष्णुके चक्रके द्वारा कालनेमिका वध और देवताओंको पुनः निज पदकी प्राप्ति
  179. [अध्याय 179]शिवजीके साथ अन्धकासुरका युद्ध, शिवजीद्वारा मातृकाओंकी सृष्टि, शिवजीके हाथों अन्धककी मृत्यु और उसे गणेशत्वकी प्राप्ति, मातृकाओंकी विध्वंसलीला तथा विष्णुनिर्मित देवियोंद्वारा उनका अवरोध
  180. [अध्याय 180]वाराणसी माहात्म्यके प्रसङ्गमें हरिकेश यक्षकी तपस्या, अविमुक्तकी शोभा और उसका माहात्म्य तथा हरिकेशको शिवजीद्वारा वरप्राप्ति
  181. [अध्याय 181]अविमुक्तक्षेत्र (वाराणसी) का माहात्म्य
  182. [अध्याय 182]अविमुक्त-माहात्म्य
  183. [अध्याय 183]अविमुक्तमाहात्म्यके प्रसङ्गमें शिव-पार्वतीका प्रश्नोत्तर
  184. [अध्याय 184]काशीकी महिमाका वर्णन
  185. [अध्याय 185]वाराणसी माहात्य
  186. [अध्याय 186]नर्मदा माहात्म्यका उपक्रम
  187. [अध्याय 187]नर्मदामाहात्यके प्रसङ्गमें पुनः त्रिपुराख्यान
  188. [अध्याय 188]त्रिपुर- दाहका वृत्तान्त
  189. [अध्याय 189]नर्मदा-कावेरी संगमका माहात्म्य
  190. [अध्याय 190]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थ
  191. [अध्याय 191]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका माहात्म्य
  192. [अध्याय 192]शुक्लतीर्थका माहाल्य
  193. [अध्याय 193]नर्मदामाहात्म्य-प्रसङ्गमें कपिलादि विविध तीर्थोंका माहात्म्य, भृगुतीर्थका माहात्स्य, भृगुमुनिको तपस्या, शिव-पार्वतीका उनके समक्ष प्रकट होना, भृगुद्वारा उनकी स्तुति और शिवजीद्वारा भृगुको वर प्रदान
  194. [अध्याय 194]नर्मदातटवर्ती तीर्थोका माहात्म्य
  195. [अध्याय 195]गोत्रप्रवर-निरूपण-प्रसङ्गमें भृगुवंशकी परम्पराका विवरण
  196. [अध्याय 196]प्रवरानुकीर्तनमें महर्षि अङ्गिराके वंशका वर्णन
  197. [अध्याय 197]महर्षि अत्रिके वंशका वर्णन
  198. [अध्याय 198]प्रवरानुकौर्तन में महर्षिं विश्चामित्र के वंशका वर्णन
  199. [अध्याय 199]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि कश्यपके वंशका वर्णन
  200. [अध्याय 200]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि वसिष्ठकी शाखाका कथन
  201. [अध्याय 201]प्रवरानुकीर्तन महर्षि पराशरके वंशका वर्णन
  202. [अध्याय 202]गोत्रप्रवरकीर्तनमें महर्षि अगस्त्य, पुलह, पुलस्त्य और क्रतुकी शाखाओंका वर्णन
  203. [अध्याय 203]प्रवरकीर्तनमें धर्मके वंशका वर्णन
  204. [अध्याय 204]श्राद्धकल्प – पितृगाथा-कीर्तन
  205. [अध्याय 205]धेनु-दान-विधि
  206. [अध्याय 206]कृष्णमृगचर्मके दानकी विधि और उसका माहाय्य
  207. [अध्याय 207]उत्सर्ग किये जानेवाले वृषके लक्षण, वृषोत्सर्गका विधान और उसका महत्त्व
  208. [अध्याय 208]सावित्री और सत्यवान्‌का चरित्र
  209. [अध्याय 209]सत्यवान्का सावित्रीको वनकी शोभा दिखाना
  210. [अध्याय 210]यमराजका सत्यवान के प्राणको बाँधना तथा सावित्री और यमराजका वार्तालाप
  211. [अध्याय 211]सावित्रीको यमराजसे द्वितीय वरदानकी प्राप्ति
  212. [अध्याय 212]यमराज - सावित्री-संवाद तथा यमराजद्वारा सावित्रीको तृतीय वरदानकी प्राप्ति
  213. [अध्याय 213]सावित्रीकी विजय और सत्यवान्की बन्धन मुक्ति
  214. [अध्याय 214]सत्यवान्‌को जीवनलाभ तथा पत्नीसहित राजाको नेत्रज्योति एवं राज्यकी प्राप्ति
  215. [अध्याय 215]राजाका कर्तव्य, राजकर्मचारियोंके लक्षण तथा राजधर्मका निरूपण
  216. [अध्याय 216]राजकर्मचारियोंके धर्मका वर्णन
  217. [अध्याय 217]दुर्ग-निर्माणकी विधि तथा राजाद्वारा दुर्गमें संग्रहणीय उपकरणोंका विवरण
  218. [अध्याय 218]दुर्गमें संग्राह्य ओषधियोंका वर्णन
  219. [अध्याय 219]विषयुक्त पदार्थोके लक्षण एवं उससे राजाके बचने के उपाय
  220. [अध्याय 220]राजधर्म एवं सामान्य नीतिका वर्णन
  221. [अध्याय 221]दैव और पुरुषार्थका वर्णन
  222. [अध्याय 222]साम-नीतिका वर्णन
  223. [अध्याय 223]नीति चतुष्टयीके अन्तर्गत भेद नीतिका वर्णन
  224. [अध्याय 224]दान-नीतिकी प्रशंसा
  225. [अध्याय 225]दण्डनीतिका वर्णन
  226. [अध्याय 226]सामान्य राजनीतिका निरूपण
  227. [अध्याय 227]दण्डनीतिका निरूपण
  228. [अध्याय 228]अद्भुत शान्तिका वर्णन
  229. [अध्याय 229]उत्पातोंके भेद तथा कतिपय ऋतुस्वभावजन्य शुभदायक अद्भुतोका वर्णन
  230. [अध्याय 230]अद्भुत उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  231. [अध्याय 231]अग्निसम्बन्धी उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  232. [अध्याय 232]वृक्षजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  233. [अध्याय 233]वृष्टिजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  234. [अध्याय 234]जलाशयजनित विकृतियाँ और उनकी शान्तिके उपाय
  235. [अध्याय 235]प्रसवजनित विकारका वर्णन और उसकी शान्ति
  236. [अध्याय 236]उपस्कर - विकृतिके लक्षण और उनकी शान्ति
  237. [अध्याय 237]पशु-पक्षी सम्बन्धी उत्पात और उनकी शान्ति
  238. [अध्याय 238]राजाकी मृत्यु तथा देशके विनाशसूचक लक्षण और उनकी शान्ति
  239. [अध्याय 239]ग्रहयागका विधान
  240. [अध्याय 240]राजाओंकी विजयार्थ यात्राका विधान
  241. [अध्याय 241]अङ्गस्फुरणके शुभाशुभ फल
  242. [अध्याय 242]शुभाशुभ स्वप्नोंके लक्षण
  243. [अध्याय 243]शुभाशुभ शकुनोंका निरूपण
  244. [अध्याय 244]वामन-प्रादुर्भाव-प्रसङ्गमें श्रीभगवान्द्वारा अदितिको वरदान
  245. [अध्याय 245]बलिद्वारा विष्णुकी निन्दापर प्रह्लादका उन्हें शाप, बलिका अनुनय, ब्रह्माजीद्वारा वामनभगवान्‌का स्तवन, भगवान् वामनका देवताओंको आश्वासन तथा उनका बलिके यज्ञके लिये प्रस्थान
  246. [अध्याय 246]बलि-शुक्र- संवाद, वामनका बलिके यज्ञमें पदार्पण, बलिद्वारा उन्हें तीन डग पृथ्वीका दान, वामनद्वारा बलिका बन्धन और वर प्रदान
  247. [अध्याय 247]अर्जुनके वाराहावतारविषयक प्रश्न करनेपर शौनकजी द्वारा भगवत्स्वरूपका वर्णन
  248. [अध्याय 248]वराहभगवान्का प्रादुर्भाव, हिरण्याक्षद्वारा रसातलमें ले जायी गयी पृथ्वीदेवीद्वारा यज्ञवराहका भगवानद्वारा उनका उद्धारस्तवन और
  249. [अध्याय 249]अमृत-प्राप्तिके लिये समुद्र मन्थनका उपक्रम और वारुणी (मदिरा) का प्रादुर्भाव
  250. [अध्याय 250]अमृतार्थ समुद्र मन्धन करते समय चन्द्रमासे लेकर विपतकका प्रादुर्भाव
  251. [अध्याय 251]अमृतका प्राकट्य, मोहिनीरूपधारी भगवान् विष्णुद्वारा देवताओंका अमृत पान तथा देवासुरसंग्राम
  252. [अध्याय 252]वास्तुके प्रादुर्भावकी कथा
  253. [अध्याय 253]वास्तु चक्रका वर्णन
  254. [अध्याय 254]वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत राजप्रासाद आदिकी निर्माण-विधि
  255. [अध्याय 255]वास्तुविषयक वेधका विवरण
  256. [अध्याय 256]वास्तुप्रकरणमें गृह निर्माणविधि
  257. [अध्याय 257]गृहनिर्माण (वास्तुकार्य ) में ग्राह्य काष्ठ
  258. [अध्याय 258]देव-प्रतिमाका प्रमाण-निरूपण
  259. [अध्याय 259]प्रतिमाओंके लक्षण, मान, आकार आदिका कथन
  260. [अध्याय 260]विविध देवताओंकी प्रतिमाओंका वर्णन
  261. [अध्याय 261]सूर्यादि विभिन्न देवताओंकी प्रतिमाके स्वरूप, प्रतिष्ठा और पूजा आदिकी विधि
  262. [अध्याय 262]पीठिकाओंके भेद, लक्षण और फल
  263. [अध्याय 263]शिवलिङ्गके निर्माणकी विधि
  264. [अध्याय 264]प्रतिमा-प्रतिष्ठा के प्रसङ्गमें यज्ञाङ्गरूप कुण्डादिके निर्माणकी विधि
  265. [अध्याय 265]प्रतिमाके अधिवासन आदिकी विधि
  266. [अध्याय 266]प्रतिमा प्रतिष्ठाकी विधि
  267. [अध्याय 267]देव (प्रतिमा) - प्रतिष्ठा के अङ्गभूत अभिषेक-स्नानका निरूपण
  268. [अध्याय 268]वास्तु शान्तिकी विधि
  269. [अध्याय 269]प्रासादोंके भेद और उनके निर्माणकी विधि
  270. [अध्याय 270]प्रासाद संलग्न मण्डपोंके नाम, स्वरूप, भेद और उनके निर्माणकी विधि
  271. [अध्याय 271]राजवंशानुकीर्तन *
  272. [अध्याय 272]कलियुगके प्रद्योतवंशी आदि राजाओं का वर्णन
  273. [अध्याय 273]आन्ध्रवंशीय शकवंशीय एवं यवनादि राजाओंका संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण
  274. [अध्याय 274]षोडश दानान्तर्गत तुलादानका वर्णन
  275. [अध्याय 275]हिरण्यगर्भदानकी विधि
  276. [अध्याय 276]ब्रह्माण्डदानकी विधि
  277. [अध्याय 277]कल्पपादप-दान-विधि
  278. [अध्याय 278]गोसहस्त्र दानकी विधि
  279. [अध्याय 279]कामधेनु दानकी विधि
  280. [अध्याय 280]हिरण्याश्व - दानकी विधि
  281. [अध्याय 281]हिरण्याश्वरथ दानकी विधि
  282. [अध्याय 282]हेमहस्तिरथ-दानकी विधि
  283. [अध्याय 283]पञ्चाङ्गल (हल) प्रदानकी विधि
  284. [अध्याय 284]हेमधरा (सुवर्णमयी पृथ्वी) दानकी विधि
  285. [अध्याय 285]विश्वचक्रदानकी विधि
  286. [अध्याय 286]कनककल्पलतादानकी विधि
  287. [अध्याय 287]सप्तसागर दानकी विधि
  288. [अध्याय 288]रत्नधेनुदानकी विधि
  289. [अध्याय 289]महाभूतघट-दानकी विधि
  290. [अध्याय 290]कल्पानुकीर्तन
  291. [अध्याय 291]मत्स्यपुराणकी अनुक्रमणिका