मार्कण्डेयजीने कहा- राजन्! तदनन्तर अनरक नामक तीर्थमें जाय और वहाँ स्नान करे। वहाँ स्नान करनेमात्रसे मानवको नरकका दर्शन नहीं होता। पाण्डुनन्दन! अब आप उस तीर्थका माहात्म्य सुनिये। राजेन्द्र ! उस तीर्थमें जिसकी हड़ियों डाल दी जाती हैं, उसके पापसमूह नष्ट हो जाते हैं और वह पुनः रूपवान् होकर जन्म ग्रहण करता है। तत्पश्चात् गोतीर्थमें जाकर मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है। राजेन्द्र! तदुपरान्त श्रेष्ठ कपिलातीर्थकी यात्रा करे राजन्! जो मनुष्य ज्येष्ठ मासमें विशेषकर चतुर्दशी तिथिको वहाँ भक्तिपूर्वक स्नान और उपवासकर कपिला गौका दान करता है, उसे एक हजार गोदानका फल प्राप्त होता है। जो मनुष्य वहाँ घीसे दीपक जलाकर घीसे शिवको स्नान कराता है और घृतके साथ बेलको स्वयं खाता है एवं दान देता है तथा अन्तमें प्रदक्षिणा करके घण्टा और अलंकारसे | विभूषित कपिला गौका दान करता है, वह शिवके तुल्य बलवान् होता है और उसका पुनर्जन्म नहीं होता। | मंगलवारको विशेषकर चतुर्थी तिथिको शिवकी भक्तिपूर्वक | पूजा करके ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये। मंगलवारको नवमी एवं विशेषतया अमावास्या तिथिको यत्नपूर्वक शिवको स्नान करानेसे मनुष्य रूपवान् और भाग्यवान् | होता है जो घृतसे शिवलिङ्गको स्नान कराकर भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंकी पूजा करता है, वह हजारों विमानोंसे घिरे हुए पुष्पकविमानपर आरूढ़ हो शिवलोकको जाता है और यहाँ अभिलषित वस्तुओंको प्राप्त करता है तथा रुद्रके समान ही अक्षय कालतक वहाँ आनन्दका उपभोग करता है। जब कभी कर्मवश वह मृत्युलोकमें आता है तो कुलीन वंशमें जन्म ग्रहण करता है और रूपवान् धर्मात्मा राजा होता है। राजेन्द्र ! इसके बाद श्रेष्ठ अषितीर्थको यात्रा करनी चाहिये। यहाँ तृणबिन्दु नामक ऋषि शापसे दग्ध होकर स्थित थे, किंतु इस तीर्थक प्रभावसे वे दिन शापसे मुक्त हो गये ॥1- 1330 llराजेन्द्र तदनन्तर श्रेष्ठ गङ्गेश्वरतीर्थकी यात्रा करे। वहाँ श्रवणमासके कृष्णपक्षकी चतुर्दशी तिथिको स्नानमात्र कर लेनेसे मनुष्य रुद्रलोकमें पूजित होता है तथा पितरोंका तर्पण कर देव, पितर और ऋषि- इन तीनों ऋणोंसे मुक्त हो जाता है। गङ्गेश्वरतीर्थंके समीपमें गङ्गावदन नामक श्रेष्ठ तीर्थ है। वहाँ कामनापूर्वक या निष्काम होकर स्नान कर मनुष्य अपने जन्मभरके किये हुए पापोंसे छुटकारा पा जाता है, इसमें संदेह नहीं है। उस तीर्थमें स्नानकर मनुष्यको जहाँ शंकर हैं, वहीं जाना चाहिये और वहाँ सर्वदा पर्वदिनपर स्नान करना चाहिये। वहाँ पितरोंका तर्पण करनेसे अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है। प्रयागमें स्नान करनेसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह सम्पूर्ण फल गङ्गावदनसङ्गममें महात्मा शंकरके दर्शनसे प्राप्त हो जाता है। उसीके पश्चिम दिशामें संनिकट ही दशाश्वमेधजनन नामक तीर्थ है, जो तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। भाद्रपदमासकी अमावास्या तिथिको वहाँ एक रात उपवासकर स्नान करनेके पश्चात् शंकरके निकट जाना चाहिये और वहाँ सर्वदा पर्वके अवसरपर स्नान करना चाहिये। वहाँ पितरोंका तर्पण करनेसे अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है। दशाश्वमेधसे पश्चिम दिशामें ब्राह्मणश्रेष्ठ भृगुने एक हजार दिव्य वर्षोंतक शिवजीकी उपासना की थी। उनका शरीर बिमवटसे परिवेष्टित हो गया था, जिससे वे पक्षियोंके निवासस्थान बन गये थे। यह देखकर उमा और शंकरको महान् आश्चर्य उत्पन्न हुआ। तब पार्वतीने शंकरजीसे पूछा 'महेश्वर! यह कौन इस प्रकार समाधिस्थ है? यह देव है अथवा दानव ? यह मुझे बतलाइये ॥14- 25 । महेश्वर बोले- प्रिये! ये द्विजश्रेष्ठ भृगु हैं, जो ऋषियोंमें श्रेष्ठ मुनि हैं। ये समाधिस्थ होकर मेरा ध्यान कर रहे हैं और वर प्राप्त करना चाहते हैं। यह सुनकर पार्वतीदेवी हँस पड़ीं और महेश्वरसे बोलीं 'भगवन्! इस तपस्वीकी शिखा धुएँके समान हो गयी, फिर भी आप अभी भी संतुष्ट नहीं हो रहे हैं। इससे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आप महान् कष्टसे आराधित प्रसन्न होते हैं, इस विषयमें विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है । ll 26-27॥
महेश्वरने कहा- महादेवि तुम नहीं जानती हो, ये मुनि क्रोधसे परिपूर्ण हैं। मैं तुम्हें अभी सत्य स्थितिदिखाकर विश्वस्त कर रहा हूँ। तत्पश्चात् शिवजीने उस समय धर्मरूपी वृषभका स्मरण किया। उन देवके स्मरण करते ही वह वृष शीघ्र ही उपस्थित हो गया और मनुष्यको वाणीमें बोला- 'प्रभो! आदेश दीजिये ॥ 28-29 ॥
महेश्वरने कहा- तुम इस बिमवटको खोद डालो और विप्रको भूमिपर गिरा दो तब वृषने ध्यान करते हुए योगस्थ भृगुको भूमिपर गिरा दिया। उसी क्षण क्रोधसे जले-भुने भृगु हाथ उठाकर शाप देते हुए इस प्रकार बोले-'भी वृष । तुम कहाँ जा रहे हो? वृष ! अभी मैं क्रोधके बलसे तुम्हारा संहार कर डालता हूँ।' तब वह वृषभ उस विप्रको परास्तकर आकाशमें चला गया। उसे आकाशमें देखते हुए भृगु सोचने लगे- 'यह तो महान् आश्चर्य है।' इतनेमें ही वहाँ भगवान् रुद्र हँसते हुए ऋषिके सम्मुख उपस्थित हो गये। तब तृतीय नेत्रधारी रुद्रको देखकर भृगु व्याकुल होकर पृथ्वीपर गिर पड़े और दण्डके समान भूमिपर लेटकर प्रणाम कर भगवान् शंकरकी स्तुति करने लगे ll 30-33 ॥
त्रिभुवनके स्वामी प्रभो! आप प्राणिवर्गके स्वामी, संसारके उद्भवस्थान, दिव्य रूपधारी और जन्म-मरणसे परे हैं, मैं आपको प्रणाम करके कुछ निवेदन करना चाहता हूँ। यद्यपि कदाचित् किसी मानवको वासुकिके समान हजार मुख हो जाय तो भी ऐसा कोई भी मनुष्य आपके गुणसमूहों का वर्णन करनेमें समर्थ नहीं हो सकता तथापि भुवनपते शंकर मैं भक्तिपूर्वक आपकी स्तुति करनेके लिये उद्यत हूँ। भगवन्! अपने चरणोंमें पड़े हुए मुझपर प्रसन्न हो जाइये और बोलते समय घटित हुई त्रुटियोंके लिये मुझे क्षमा कीजिये। देव! विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और लयमें आप ही सत्त्व, रज और तमस्वरूप हैं। भुवनपते। आपको छोड़कर अन्य कोई देवता नहीं है। भुवनेश्वर! यम, नियम, यज्ञ, दान, वेदाभ्यास, धारणा और योग- ये सभी आपकी भक्तिकी एक कलाके हजारवें अंशकी समता नहीं कर सकते। उच्छिष्ट, रस रसायन, खड्ग, अञ्जन, पादुका और विवरसिद्धि - ये सभी महादेवकी आराधना करनेवालोंके चिह्न हैं, जो इस जन्ममें व्यक्त रूपसे देखे जाते हैं॥34-39 ॥ देव! यद्यपि भक्त शठतापूर्वक नमस्कार करता है, तथापि आप उसे इच्छानुसार ऐश्वर्य प्रदान करते हैं। नाथ! आपने मोक्ष प्रदान करनेके लिये संसारको नष्ट करनेवालीभक्तिका निर्माण किया है। परमेश्वर में परायी ली और पराये धनमें रत रहनेवाला, दूसरे द्वारा किये गये अनादरसे उत्पन्न हुए दुःख और शोक सन्तप्त और परमुखापेक्षी हूँ, आप मेरी रक्षा कीजिये। मैं मिथ्या अभिमानसे सन्तप्त, क्षणभर शरीरके विलासमें रत, निष्ठुर, कुमार्गगामी और पतित हूँ, आप इस पापसे मेरी रक्षा कीजिये। यद्यपि द्विजगणोंके साथ-साथ में दीन हूँ और बन्धुजनोंने हो मेरी आशाको दूषित कर दिया है, तथापि शंकर! तृष्णा मुझ मोहग्रस्तको विडम्बना क्यों कर रही है? महादेव आप इस तृष्णाको शीघ्र दूर कर दें, नित्य चिरस्थायिनी लक्ष्मी प्रदान करें, मद और मोहके पाशको काट दें और मेरा उद्धार करें। यह 'करुणाभ्युदय' नामक दिव्य स्तोत्र सभी सिद्धियोंको देनेवाला है, जो भक्तिपूर्वक इसका पाठ करता है, उसपर भृगु (पर प्रसन्न होने) के समान ही शिवजी प्रसन्न होते हैं ll 40–45 ll
भगवान् शंकरने कहा- वत्स! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, तुम अभीष्ट वर माँग लो। इस प्रकार उमासहित महादेवजी भृगुको वरदान देनेके लिये उद्यत हुए ।। 46 ।।
भृगु बोले- देवेश यदि आप प्रसन्न हैं और यदि मुझे वर देना चाहते हैं तो मुझे यह वरदान दीजिये कि यह स्थान रुद्रवेदीके नामसे प्रसिद्ध हो जाय ll 47 ll
शिवजीने कहा- विप्रश्रेष्ठ ऐसा ही होगा और अब तुम्हें क्रोध नहीं होगा। साथ ही तुम पिता और पुत्रमें सहमति नहीं होगी। तभीसे किन्नरोंसहित ब्रह्मा आदि सभी देवगण, जहाँ महेश्वर संतुष्ट हुए थे, उस भृगुतीर्थको उपासना करते हैं। उस तीर्थका दर्शन करनेसे मनुष्य तत्काल ही पापसे मुक्त हो जाता है। स्वाधीन या पराधीन होकर भी जो प्राणी यहाँ मरते हैं. उन्हें नि:संदेह गुह्यातिगुह्य उत्तम गति प्राप्त होती है। यह अत्यन्त विस्तृत | क्षेत्र सभी पापोंका विनाशक है। यहाँ स्नान करके मानव स्वर्गको प्राप्त होते हैं तथा जो वहाँ मरते हैं, उनका पुनः संसारमें आगमन नहीं होता वहाँ यथाशक्ति जूता, छाता, अन्न, सोना और खाद्य पदार्थका दान देना चाहिये; क्योंकि वह अक्षय हो जाता है। जो मनुष्य सूर्यग्रहणके समय वहाँ इच्छानुसार जो कुछ दान देता है,उसका वह दिया हुआ दान अक्षय हो जाता है। चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहणके समय अमरकण्टकमें जो फल प्राप्त होता है, वही सम्पूर्ण पुण्य निःसंदेह भृगुतीर्थमें सुलभ हो जाता है। युधिष्ठिर! सभी प्रकारके दान तथा यज्ञ, तप और कर्म- ये सभी नष्ट हो जाते हैं, किंतु भृगुतीर्थमें किया गया तप नष्ट नहीं होता। नराधिप ! उस भृगुकी उग्र तपस्या से संतुष्ट हुए शम्भुने उस भृगुतीर्थमें अपनी नित्य उपस्थिति बतलायी है, इसलिये वह भृगुतीर्थ तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है; क्योंकि वहाँ महेश्वर संतुष्ट हुए थे। नराधिप। इस प्रकार महे करने पार्वती से श्रेष्ठ भृगुतीर्थके विषयमें कहा है, किंतु विष्णुकी मायासे मोहित हुए मूढ़ मनुष्य नर्मदामें स्थित इस दिव्य भृगुतीर्थको नहीं जानते। जो मनुष्य कहाँ भी भृगुतीर्थका माहात्म्य सुनता है, वह सभी पापोंसे विमुक्त होकर रुद्रलोकको जाता है।। 48-596 ॥
राजेन्द्र ! इसके बाद श्रेष्ठ गौतमेश्वर तीर्थकी यात्रा करे। राजन्! वहाँ स्नानकर उपवास करनेवाला मनुष्य सुवर्णमय विमानसे ब्रह्मलोकमें जाकर पूजित होता है। राजन्! तदनन्तर धौतपाप नामक क्षेत्रकी यात्रा करनी चाहिये। स्वयं नन्दीने नर्मदामें इस क्षेत्रका निर्माण किया था, जो सभी पातकोंका नाशक है। उस तीर्थमें स्नानकर मनुष्य ब्रह्महत्यासे विमुक्त हो जाता है। राजेन्द्र ! उस तीर्थमें जो प्राण त्याग करता है, वह चार भुजा और तीन नेत्रोंसे युक्त हो शिवके समान बलशाली हो जाता है और शिवके समान पराक्रमी होकर दस सहस्र कल्पोंसे भी अधिक कालतक स्वर्गमें निवास करता है। बहुत कालके बाद पृथ्वीपर आनेपर वह एकच्छत्र राजा होता है। राजेन्द्र तत्पश्चात् श्रेष्ठ ऐरण्डोतीर्थ में जाना चाहिये। राजन्! मार्कण्डेयजीके द्वारा प्रयागमें जो पुण्य बतलाया गया है, वही पुण्य वहाँ स्नानमात्र करनेसे मनुष्यको सुलभ हो जाता है जो भाद्रपदमास शुक्ल चतुर्दशी तिथिको एक रात उपवास कर वहाँ स्नान करता है, उसे यमदूत पीड़ित नहीं करते और वह लोकको जाता है। गजेन्द्र पन्त सभी पायेंको न करनेवाले हिरण्यद्वीप नमसे विख्यात तीर्थ जाना चाहिये, जहाँ भगवान् जनार्दनसिद्धि प्राप्त की थी। राजन्! वहाँ स्नान कर मानव धनवान् और रूपवान् हो जाता है। राजेन्द्र इसके बाद महान् कनखलतीर्थकी यात्रा करे। नराधिप। उस तीर्थमें गरुडने तपस्या की थी। वह तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। वहाँ योगिनी रहती है, जो योगियोंके साथ क्रीडा और शिवके साथ नृत्य करती है। राजन्! वहाँ स्नान कर मनुष्य रुद्रलोकमें पूजित होता है ।ll 60-71ll
राजेन्द्र ! तदनन्तर उत्तम हंसतीर्थमें जाय वहाँ हंस समूह पापसे विनिर्मुक्त होकर निःसंदेह स्वर्गको चले गये थे। राजेन्द्र ! तत्पश्चात् वाराहतोर्थको यात्रा करनी चाहिये, जहाँ भगवान् जनार्दन सिद्ध हुए थे । वहाँ वाराहरूपधारी परमेश्वरकी पूजा हुई थी। उस वाराहतीर्थमें विशेषकर द्वादशी तिथिको स्नान कर मनुष्य विष्णुलोकको प्राप्त करता है और उसे नरकका दर्शन नहीं करना पड़ता। राजेन्द्र तदुपरान्त श्रेष्ठ चन्द्रतीर्थको यात्रा करे। वहाँ विशेषकर पूर्णिमा तिथिको स्नान करना चाहिये। वहाँ स्नानमात्र करनेसे मनुष्य चन्द्रलोकमें पूजित होता है। उसके दक्षिण द्वारपर विख्यात कन्यातीर्थ है। वहाँ शुक्लपक्षकी तृतीया तिथिको स्नान करना चाहिये। वहाँ शिवजीको प्रणाम करके उन्हें बलि प्रदान करनेसे वे प्रसन्न हो जाते हैं। वहाँ हरिशयनके समय इन्द्रध्वजके निकलनेपर अन्तरिक्षमें दिव्य हरिचन्द्रपुर दिखायी देता है जब नर्मदा जलसमूहसे वृक्षोंको आप्लावित कर देगी, उस समय इस स्थानमें विष्णुका निवास होगा ऐसा विष्णुने शंकरसे कहा है द्वीपेश्वरतीर्थमें स्नान कर मनुष्य सुवर्णराशिको प्राप्त करता है ll 72-793 ॥
राजेन्द्र इसके बाद कन्यातीर्थके सुन्दर संगमस्थानकी यात्रा करे। वहाँ स्नानमात्र करनेसे मनुष्य देवीके स्थानको प्राप्त करता है। तदनन्तर सभी तीर्थोंमें उत्तम देवतीर्थमें | जाना चाहिये। राजेन्द्र वहाँ स्नान कर मनुष्य देवताओंके साथ आनन्दका अनुभव करता है। राजेन्द्र ! तत्पश्चात् | श्रेष्ठ शिखितीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। वहाँ अमावस्या | तिथिके तीसरे पहरमें स्नान करनेका विधान है। वहाँ जो कुछ । भी दान दिया जाता है, वह सब, करोड़गुना हो जाता है।वहाँ एक ब्राह्मणको भोजन करानेपर करोड़ ब्राह्मणोंके | भोजन करानेका फल होता है। राजेन्द्र ! भृगुतीर्थमें करोड़ों तीर्थोंकी स्थिति है। वहाँ निष्काम या सकाम होकर भी स्नान करना चाहिये। ऐसा करनेसे मनुष्यको अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है और वह देवताओंके साथ आनन्दका | अनुभव करता है। वहाँ मुनिश्रेष्ठ भृगुने परम सिद्धि प्राप्त की | थी और महात्मा शंकर अवतीर्ण हुए थे । ll 80 – 86 ॥