मार्कण्डेयजीने कहा- पाण्डुनन्दन! नर्मदा नदियोंमें श्रेष्ठ है, वह अतिशय पुण्यदायिनी, हितकारिणी तथा मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले महाभाग्यशाली मुनियोंद्वारा सेवित है। यह यज्ञोपवीतकी दूरीपर (तीर्थ) विभक्त हैं। नृपश्रेष्ठ! मनुष्य उनमें स्नानकर सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है। पाण्डुपुत्र ! जलेश्वर नामक श्रेष्ठ तीर्थ तीनों लोकोंमें विख्यात है, मैं उसकी उत्पत्तिका वर्णन कर रहा हूँ आप सुनिये पूर्वकालमें इन्द्रसहित सभी देवता और मरुद्रण देवाधिदेव महात्मा महेश्वरकी स्तुति कर रहे थे। स्तुति करते हुए वे इन्द्रसहित मरुद्रण महेश्वरदेवके पास पहुँचे और भयसे व्याकुल होकर विरूपाक्ष भगवान् शंकरसे कहने लगे—'प्रभो! हमलोगोंकी रक्षा कीजिये ॥ 1-5॥
श्रीभगवान्ने कहा- सुरश्रेष्ठगण आपलोगों का स्वागत है आपलोग यहाँ किसलिये आये हैं। आप लोगोंको कौन-सा दुःख है? कैसी पीड़ा है? और कहाँसे भय उपस्थित हो गया है? महाभाग देवगण! आपलोग कहिये, मैं उसे जानना चाहता हूँ। इस प्रकार रुद्रद्वारा कहे जानेपर भलीभाँति व्रतोंका सम्पादन करनेवाले देवताओंने कहा ।। 6-7 ।।
देवगण बोले- विरूपाक्ष ! अतिशय भीषण, महान् पराक्रमी और बलाभिमानी बाण नामसे विख्यात एक दानव है, जिसका त्रिपुर नामक नगर है। वह दिव्य नगर उसके प्रभावसे सदा आकाशमें घूमता रहता है। उससे भयभीत होकर हमलोग आपकी शरणमें आये हैं। आप इस महान् कष्टसे हमलोगोंकी रक्षा कीजिये; क्योंकि आप ही हमलोगोंकी परमगति हैं। देवेश! इस प्रकार आप हम सभी लोगोंपर कृपा कीजिये। सामर्थ्यशाली शंकर! जिस कार्यसे गन्धर्वोसहित देवगण सुखी हो सकें तथा परम संतोष प्राप्त कर लें, आप वही कीजिये ॥ 8-11 ॥श्रीभगवान् ने कहा- देवगण! आपलोग विषाद मत करें। मैं यह सब करूँगा। मैं थोड़े ही समयमें आप लोगोंके लिये सुखप्रद कार्यका सम्पादन करूंगा। मानद। इस प्रकार उन लोगोंको आश्वासन देकर देवेश नर्मदाके तटपर आये और उसके वधके विषयमें सोचने लगे कि मुझे त्रिपुरका विनाश किस प्रकार करना चाहिये। ऐसा सोच-विचारकर भगवान्ने उस समय नारदका स्मरण किया। स्मरण करते ही नारदजी वहाँ उपस्थित हो गये ॥12- 14 ॥
नारदजीने कहा- महादेव! मुझे आज्ञा दीजिये, किसलिये मेरा स्मरण किया गया है? देव! मुझे क्या करना है? मेरे लिये उस कर्तव्यका निर्देश कीजिये ॥ 15 ॥
श्रीभगवान्ने कहा— नारद! दानवराज बाणका यह महान् त्रिपुर जहाँ स्थित है, आप वहीं जाइये और वहाँ जाकर शीघ्र ही ऐसा कीजिये। विप्र! वहाँकी स्त्रियाँ अप्सराओंके समान सुन्दरी हैं और वे सभी पतिव्रता हैं। उन्होंके तेजसे त्रिपुर आकाशमें घूमता है। विप्रेन्द्र ! वहाँ जाकर आप उनकी बुद्धिको परिवर्तित कर दीजिये। महादेवजीकी बात सुनकर शीघ्र पराक्रमी नारदजी उन स्त्रियोंके हृदयको विकृत करनेके लिये उस त्रिपुरमें प्रविष्ट हुए। वह दिव्य पुर अनेक प्रकारके रत्नोंसे अलंकृत, सौ |योजन विस्तृत और दो सौ योजन चौड़ा था। वहाँ उन्होंने बलाभिमानी बाणको देखा। वह मणिमय कुण्डल, भुजबंद और मुकुटसे अलंकृत तथा सैकड़ों स्वर्णमय एवं रत्नोंके हारों और चन्द्रकान्तमणिसे विभूषित था। उसकी करधनी रत्नोंकी बनी थी तथा भुजाएँ स्वर्णमय आभूषणोंसे मण्डित थी। वह चन्द्रकान्त, हीरक, मणि और मँगोंसे जटित एवं बारह आदित्योंकी द्युतिके समान देदीप्यमान श्रेष्ठ सिंहासनपर बैठा था। नारदजीको देखकर वह महाबली दानवराज उठकर खड़ा हो गया ॥ 16-23 ॥
वाणासुर बोला- देवयें! आप स्वयं मेरे नगरमें पधारे हैं, मैं आपको अर्घ्य एवं पाद्य निवेदित कर रहा हूँ। फिर उसने विधिपूर्वक अभिवादन कर कहा 'द्विजश्रेष्ठ! मैं आपका कौन-सा कार्य करूँ ? ब्राह्मणदेव आप बहुत दिनोंके बाद पधारे हैं। इस आसनपर बैठिये।' इस प्रकार ऋषिश्रेष्ठ नारदजीसे वार्तालाप करनेके पश्चात् उसकी पत्नी महादेवी अनीपम्याने प्रश्न किया ॥ 24-25 llअनीपम्याने पूछा भगवन्। मनुष्यलोक केशव व्रत, नियम, दान अथवा तपस्या- इनमें किससे प्रसन्न होते हैं ? ।। 26 ।।
नारदजीने कहा- जो मनुष्य वेदमें पारङ्गत ब्राह्मणको तिलधेनुका दान करता है, उसके द्वारा समुद्र, वन और द्वीपोंसहित पृथ्वीका दान सम्पन्न हुआ समझना चाहिये। वह दाता करोड़ों सूर्योके समान देदीप्यमान एवं सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले विमानोंद्वारा सूर्य, चन्द्र और तारोंकी स्थितिपर्यन्त अक्षय कालतक आनन्द मनाता है। जो स्त्री उपवास करके आम, आँवला, कैथ, बेर, कदम्ब, चम्पक, अशोक, पुंनाग, जायफल, पीपल, केला, वट, अनार, नीम, महुआ आदि अनेक प्रकारके वृक्षोंका दान करती है, उसके दोनों स्तन कैथके समान और दोनों जंघाएँ केलेके सदृश सुन्दर होती हैं। वह अश्वत्थके दानसे वन्दनीय और नीमके दानसे सुगन्धयुक्त होती है। वह चम्पाके दानसे चम्पाकी-सी कान्तिवाली और अशोकके दानसे शोकरहित होती है। महुआके दानसे वह मधुरभाषिणी होती है और चटके दानसे उसका शरीर कोमल होता है। बेर स्त्रियोंके लिये सदा महान् सौभाग्यदायी होता है ककड़ी, जटाधारी और द्रव्यपष्ठीका दान कदम्बसे मिश्रित धतूरेकी मंजरीसे पूजन, बिना अग्निसे पकाया हुआ अन्न एवं पके हुए अन्नोंका अभक्षण, फलोंका परित्याग तथा संध्याकालमें मौनधारण ये स्त्रियोंके लिये प्रशस्त नहीं हैं। सर्वप्रथम प्रयत्नपूर्वक क्षेत्रपालकी पूजा करनी चाहिये। पापशून्ये! उस स्त्रीका पति सदा उसका मुख ही देखा करता है। जो षियों आमी, चतुर्थी, पञ्चमी और द्वादशी तिथि, संक्रान्ति, विषुवयोग और दिनच्छद्रमुख (दोपहरमें चन्द्रमाका नये मासकी तिथिमें प्रवेश करना) - इन दिव्य दिनोंमें उपवास करती हैं, उस धर्मयुक्त स्त्रियोंका स्वर्गमें निवास होता है | इसमें संदेह नहीं है। वे कलियुगके पापोंसे रहित और सभी पापोंसे शून्य हो जाती हैं। इस प्रकार जो स्त्री उपवासमें तत्पर रहती है, उसके समीप यम भी नहीं आते ॥27 - 38 ॥ अनौपम्या बोली- नारदजी! पता नहीं, इस जन्ममें
या पूर्व जन्ममें किये हुए पुण्यसे ही आपका यहाँ आगमन हुआ है। अब मैं आपसे कतिपय व्रतोंके विषयमें पूछतीहूँ। विप्रवर! जो बलिकी पत्नी यशस्विनी विन्ध्यावलि हैं, वे मेरी भी सास हैं। वे मुझसे कभी भी प्रसन्न नहीं रहतीं। मेरे श्वशुर भी मुझे सभी समय देखते हुए भी अनदेखी करते हैं। पापचरण में रत रहनेवाली कुम्भीनसी नामकी मेरी ननद है। वह सभी समय मुझे देखकर अली तोड़ती रहती है। वह दिव्य मार्गसे कैसे चले और मुझे सुखकी प्राप्ति कैसे हो यह बताने की कृपा करें। (यह सत्य है कि ) ऊपर भूमिमें डाले हुए बीजसे किसी प्रकार भी अङ्कुर नहीं उत्पन्न होते, फिर भी जिस व्रतका अनुष्ठान करनेसे ये मेरे वशमें आ जायें, वह व्रत मुझे बतलाइये। विप्रेन्द्र! मैं आपकी दासी हूँ। ll 39-43 ॥
नारदजीने कहा- सुन्दर मुखवाली! जो व्रत मैंने पूर्वमें तुमसे कहा है, उस व्रतका अनुष्ठान करनेसे पार्वतीदेवी शंकरके, लक्ष्मी विष्णुके, सावित्री ब्रह्माके, अरुन्धती वसिष्ठके शरीरमें विराजमान रहती हैं। इस उपवास-व्रतसे तुम्हारा पति भी तुम्हारे अधीन रहेगा तथा सास और श्वशुरका भी मुख बंद हो जायगा अर्थात् वे तुमसे प्रेम करने लगेंगे। सुश्रोणि! ऐसा सुनकर तुम जैसा चाहो वैसा कर सकती हो। नारदजीके वचनको सुनकर रानीने इस प्रकार कहा- 'विप्रवर ! मुझपर कृपा कीजिये और यथाभिलषित दान स्वीकार कीजिये। विप्र सुवर्ण, मणि, रत्न, वस्त्र, आभूषण एवं अन्य जो भी दुर्लभ पदार्थ हैं, वह सब मैं आपको दूँगी। द्विजश्रेष्ठ ! आप उसे ग्रहण करें, जिससे विष्णु और शंकर मुझपर प्रसन्न हो जायँ ।। 44-49 ॥
नारदजी बोले कल्याणि ! जो ब्राह्मण जीविकारहित हो, उसे ही यह दान दो मैं तो सर्वसम्पन्न हूँ। तुम मेरे प्रति भक्ति भाव रखो। भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार उन सभी स्त्रियोंके मनको पातिव्रतसे विचलित कर नारदजी पुनः अपने स्थानपर चले गये। तभीसे उन स्त्रियोंका हृदय उदास रहने लगा और उनका मन दूसरी ओर लग गया। इस प्रकार पातिव्रत्यके त्यागसे उनका तेज नष्ट हो गया तथा महान् आत्मबलसे सम्पन्न बाणके नगरमें छिद्र (दोष) उत्पन्न हो गया ॥ 50-52 ॥