मत्स्यभगवान् ने कहा- राजर्षे । तदनन्तर नारायणने अनेकों योजन विस्तारवाले उस स्वर्णमय कमलमें सम्पूर्ण लोकोंको रचना करनेवाले ब्रह्माको उत्पन्न किया। वे योगवेत्ताओंमें श्रेष्ठ, परम तेजस्वी, सब ओर मुखवाले, सभी तेजोमय गुणोंसे युक्त और राजलक्षणोंसे सुशोभित थे। पुराणोंके ज्ञाता महर्षिगण उस कमलको नारायणसे उत्पन्न हुआ उत्तम पृथ्वीरूप बतलाते हैं। जो पद्मा है, वही रसा नामसे विख्यात पृथ्वीदेवी कही जाती है और जो कमलके सार तत्त्वसे युक्त होनेके कारण भारी अंश हैं, उन्हें दिव्य पर्वत कहा जाता है। इस प्रकार जो हिमवान्, मेरु, नील, निषेध, कैलास, मुञ्जवान् तथा दूसरा गन्धमादन, पुण्यमय त्रिशिखर, रमणीय मन्दर, उदयाचल, पिञ्जर तथा विन्ध्यवान् पर्वत हैं- ये सभी देवगणों, सिद्धों और पुण्यशील महात्माओंके निवासस्थान तथा समस्त कामनाओंका फल प्रदान करनेवाले हैं।इन सभी पर्वतोंके मध्यवर्ती देशको जम्बूद्वीप कहा जाता है। जम्बूदीपकी पहचान यह है कि वहाँ सभी यहसम्बन्धिनी क्रियाएँ होती हैं। इन पर्वतोंसे जो दिव्य अमृत रसके समान सुस्वादु जल प्रवाहित होता है, वह सैकड़ों धाराओं में विभक्त होकर दिव्य तीर्थ बन जाता है और वे धाराएँ सुरम्य नदियाँ कहलाती हैं ॥ 1-9 ॥
राजन्। उस कमलके चारों ओर जो केसर कहे जाते हैं, वे विश्वमें पृथ्वीके असंख्य धातुपर्वत हैं। उस कमलमें जो बहुसंख्यक पत्ते हैं, वे म्लेच्छोंके देश कहे जाते हैं, जो पर्वतोंसे व्याप्त होनेके कारण दुर्गम हैं। भूपाल ! उस कमलमें जो निचले भागमें पत्ते हैं, वे विभागपूर्वक दैत्यों, नागों और कीटपतङ्गोंके निवासस्थान हैं। इन सबका जहाँ महासागर है, उसे 'रसा' नामसे पुकारा जाता है। वहीं महान् पाप करनेवाले मानव डूबते-उतराते रहते हैं। उस कमलके अन्तर्गत जो ठोस भाग दीखता है, वही एकार्णवमें डूबी हुई पृथ्वी कही गयी है। उसकी सभी दिशाओंमें जलसे भरे हुए चार महासागर हैं। इस प्रकार नारायणकी कार्य-सिद्धिके लिये पृथ्वी कमलसे उद्धृत हुई है। इसी कारण यह प्रादुर्भाव भी पुष्कर नामसे कहा जाता है। इसी कारण उस वृत्तान्तको जाननेवाले प्राचीन याज्ञिक महर्षियोंने वेदके दृष्टान्तोंद्वारा यज्ञमें कमलको रचनाका विधान बतलाया है। इस प्रकार उन भगवान्ने सम्पूर्ण पर्वतों, नदियों और जलाशयोंकी धारणाकी विधिका निर्माण किया है। तदुपरान्त जो अनुपम प्रभावशाली, सूर्य-सरीखे द्युतिमान् और वरुणकी-सी कृष्ण कान्तिवाले हैं, वे सर्वव्यापी स्वयम्भू भगवान् उस महार्णवमें जगन्मय कमलका विधान करके पुनः पूर्ववत् शयन करने लगे ॥ 10- 18 ॥