मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन्! तदनन्तर वे सर्वव्यापी
नारायण जल-जन्तुओंके कुलमें उत्पन्न अपने शरीरको छिपाकर जलेमें निवास करते हुए तपस्या में संलग्न हो गये। कुछ समयके पश्चात् उन महाबली महात्माने जगत्की सृष्टि करनेका विचार किया। तब उन विश्वात्माने पञ्चमहाभूतोंको समष्टिरूप विश्वका चिन्तन किया। उनके चिन्तन करते समय महासागर वायुरहित होनेके कारण शान्त था। आकाशका विनाश हो गया था, सर्वत्र जल ही जल व्याप्त था, उसके गहरमें सूक्ष्म जगत् विद्यमान था, उस समय जलके मध्यमें स्थित नारायणने उस एकार्णवको थोड़ा संक्षुब्ध कर दिया। तदनन्तर उससे उठी हुई लहरोंसे सर्वप्रथम सूक्ष्म छिद्र प्रकट हुआ। छिद्रसे शब्द-गुणवाला आकाश उत्पन्न हुआ। उस छिद्राकाशसे वायुकी उत्पत्ति हुई। वह दुर्धर्ष पवन अवसर पाकर वृद्धिको प्राप्त हुआ। तब वेगपूर्वक बढ़ते हुए उस बलवान् पवनने महासागरको विक्षुब्ध कर दिया। उस क्षुब्ध हुए महासागरके जलके मथित होनेपर महान् प्रभावशाली कृष्णवर्त्मा वैश्वानर (अग्नि) प्रकट हुए। तब उस अग्निने अधिकांश जलको सोख लिया। समुद्र जलके संकुचित हो जानेसे वह छिद्र विस्तृत आकाशके रूपमें परिणत हो गया। इस प्रकार अपने तेजसे उत्पन्न हुए एवं अमृत रसके समान स्वादिष्ट पुण्यमय जल, छिद्रसे उत्पन्न हुए आकाश, आकाशसे प्रकट हुए पवन तथा आकाश और पवनके संघर्षसे उद्भूत हुए वायुजनित अग्निको देखकर महाभूतोंको उत्पन्न करनेवाले वे महान् देव प्रसन्न हो गये। तब विविध रूप धारण करनेवाले भगवान् उन महाभूतोंको उपस्थित देखकर लोककी सृष्टिके लिये ब्रह्माके जन्मसहित अन्यान्य उत्तम साधनोंके विषयमें विशेषरूपसे विचार करने लगे ॥ 1-10 ॥
इस प्रकार चारों युगोंकी संख्यासे युक्त एक हजार युग बीत जानेपर बारम्बार जन्म लेनेपर भी जिसका आत्मा विशुद्ध होता है, उसे ब्रह्मा कहा जाता है। योगवेत्ता भगवान् भूतलपर जिसे तपस्यासे पवित्र आत्मावाले | महर्षियोंके ज्ञान और योगियोंकी मुख्यतासे युक्त देखतेहै, उसे योगसम्पन्न सम्पूर्ण उत्तम ऐश्वयोंसे युक्त और विश्वके शासनको क्षमतासे पूर्ण जानकर ब्रह्माके पदपर नियुक्त कर देते हैं। तत्पश्चात् जो सम्पूर्ण लोकोंके रचयिता, पृथ्वीके स्वामी और अपनी महिमासे कभी भी च्युत होनेवाले नहीं हैं, वे श्रीहरि उस महार्णवके जलमें स्वयं विधिपूर्वक क्रीडा करते हुए आनन्दका अनुभव करते हैं। उस समय वे अपनी नाभिसे एक कमल उत्पन्न करते हैं। उस स्वर्णमय कमलमें एक हजार पत्ते होते हैं। वह परागरहित और सूर्यके समान कान्तिमान् होता है। उस समय अग्निकी जलती हुई शिखाओंकी उज्ज्वल कान्तिके समान देदीप्यमान, शरत्कालीन निर्मल सूर्यके सदृश तेजस्वी, भगवान्की रोमावलि सरीखे परम दर्शनीय | तथा उत्तम कान्तिमान् उस प्रकट हुए कमलकी विशेष शोभा होती है ॥11- 16 ॥