मत्स्यभगवान्ने कहा- अब इसके बाद मैं महापातकनाशी अतिश्रेष्ठ पञ्चलाङ्गल नामक महादानका वर्णन कर रहा हूँ। युगादि तिथियों तथा सूर्यग्रहण आदिके अवसरपर मनुष्यको अपनी शक्तिके अनुसार पाँच हलोंसे युक्त, फसलसे सुशोभित ग्राम, खेट, खर्वट, | एक सौ निवर्तन या उससे आधा पचास निवर्तन भूमिका दान करना चाहिये। विचक्षण पुरुष साकी लकड़ी के पाँच तथा सुवर्णके बने हुए अन्य पाँच हलोंको सभी सामग्रियोंसे युक्त करे। वे हल पाँच पल खोनेसे ऊपर एक हजार पलतकके बनवाने चाहिये। साथ ही दस वृषभोंको, जो उत्तम लक्षणोंसे युक्त तथा भार ढोने में समर्थ हों, जिनकी सोंगें सुवर्णसे, पूँछ मोतीसे और खुर चाँदीसे विभूषित हों, जिनके सिरपर तिलक लगा हो, जो लाल रेशमी वस्त्रसे सुशोभित तथा पुष्पमाला और चन्दनसे युक्त हों, शालामें अधिवासित कराये। | फिर पर्जन्य, आदित्य और रुद्रके लिये खोरको चरु तैयार करे और गुरु उसे एक ही कुण्डमें उनके लिये निवेदित करे। उसी प्रकार पलाशकी समिधा, घृत तथा काले तिलका हवन करे। बुद्धिमान् यजमान तुलापुरुष दानकी भाँति लोकपालोंका आवाहन करे। तदनन्तर शुक्ल वस्त्र एवं पुष्पमाला धारण कर बुद्धिमान् पुरुष | माङ्गलिक शब्दोंके साथ द्विजदम्पतिको बुलाकर सोनेकीजंजीर, अंगूठी, रेशमी वस्त्र, सुवर्णके कङ्कण एवं मणियोंद्वारा उनकी पूजा करे तथा सामग्रियोंसहित शय्या और एक दूध देनेवाली गायका भी दान करे ॥ 1-10 ॥
हलोंके चारों ओर अठारह प्रकारके अन्नोंको रखना चाहिये। फिर अञ्जलिमें फूल लेकर प्रदक्षिणा करनेके पश्चात् सबका दान कर देना चाहिये। उस समय इस मन्त्रका उच्चारण करे— 'चूँकि सभी देवगण तथा चराचर जीव भारवाही वृषभोंके अङ्गोंमें निवास करते हैं, अतः मेरी शिवमें भक्ति हो। चूँकि अन्य सभी दान भूमिदानकी सोलहवीं कलाकी भी समता नहीं कर सकते, अतः धर्ममें मेरी सुदृढ़ भक्ति हो।' सात (मतान्तरसे दस) हाथोंके दण्डके मापसे तीस दण्ड मापका एक निवर्तन होता है और उसके तिहाई अंशसे न्यूनको गोचर्म* कहते हैं- ऐसा मान प्रजापतिने बतलाया है। जो बुद्धिमान् पुरुष इस मानके अनुसार एक सौ निवर्तन भूमिको इस विधिसे दान करता है, उसका पापपुञ्ज शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। जो उसका आधा भाग या गोचर्ममात्र अथवा एक भवन बनने योग्य भूमिका दान करता है, वह भी पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य इस मर्त्यलोकमें भूमि - दान करता है, वह उस भूमिमें हलके मुखके जितने मार्ग बनते हैं तथा सूर्यपुत्रीके अङ्गमें जितने रोएँ हैं, उतने वर्षोंतक शंकरपुरीमें निवास करता है तथा गन्धर्व, किन्नर, सुर, असुर और सिद्धों के समूहोंद्वारा चँवर डुलाये जाते हुए महान् विमानपर सवार हो पिता, पितामह और बन्धुगणोंके साथ देवनायक होकर शम्भुलोकमें जाता है और वहाँ पूजित होता है। मनुष्य इस गौ, भूमि, हल और वृषभोंका दान करनेसे नष्ट हुए इन्द्रत्वको भी प्राप्त कर लेता है, अतः ऐश्वर्य एवं समृद्धिके लिये पापपुञ्जके परदेको नष्ट करनेवाले भूमिदानको अवश्य करना चाहिये ॥ 11 - 19 ॥