ब्रह्माजीने पूछा भगवन् में पुराणोंमें सभी वर्णों और आश्रमोंके सदाचारको उत्पत्ति तथा धर्मशास्त्रके सिद्धान्तोंको तो सुन चुका, अब मैं पण्यस्त्रियों (मूल्यद्वारा खरीदी जानेवाली स्त्रियों) के समुचित आचारको यथार्थरूपसे सुनना चाहता हूँ* ॥ 1 ॥
भगवान् शंकरने कहा-कमलोद्भवान्। उसी द्वापरयुगमें वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णकी सोलह सहस्र पनियाँ होंगी। एक बार वसन्त ऋतुमें वे सभी नारियाँ खिले हुए पुष्पोंसे सुशोभित वनमें उत्पल कमल-पुष्पोंसे परिपूर्ण एक सरोवर के तटपर जायेंगी। उस समय कोकिल कूज रहे होंगे, भ्रमर-समूह अपनी गुंजार चतुर्दिक बिखेर रहे होंगे तथा शीतल-मन्द-सुगन्ध पवन वह रहा होगा। इसी समय वे निश्चिन्त रूपसे एकत्र होकर जलपान आदि कार्योंमें लीन होंगी। उस समय यदुकुलके उद्वाहक विश्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण भी उनके साथ यहाँ भ्रमण करेंगे उसी समय शत्रु-नगरीको जीतनेवाले, अलंकारोंसे सुशोभित श्रीमान् साम्ब, जिनके नेत्र मृगनेत्रसरीखे होंगे, जिनका मस्तक मालतीकी मालासे सुशोभित होगा, जो सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित तथा रूपसे साक्षात् कामदेवके समान होंगे, उस सरोवरके समीपवर्ती मार्गजा निकलेंगे। उन्हें देखकर वे सभी (स्त्रियाँ) रामभरी दृष्टिसे उनकी ओर देखने लगेंगी। तब जगदीश्वर श्रीकृष्ण ध्यान दृष्टिसे सारा वृत्तान्त जानकर उन्हें शाप दे देंगे— 'चूँकि तुमलोगोंने मुझसे विश्वासघात किया; कामलोलुपतावश ऐसा जघन्य कार्य किया है, इसलिये चोर तुमलोगोंका अपहरण कर लेंगे।' तत्पश्चात् शापसे संतप्त हुई उन स्त्रियोंद्वारा प्रसन्न किये जानेपर भगवान् श्रीकृष्ण जो अनन्तात्मा, ब्राह्मणोंके प्रेमी तथा प्राणियोंको | भवसागर से पार करनेवाले कर्णधार हैं, उन्हें भविष्य मेंइस प्रकार कल्याणकारी मार्गका उपदेश करेंगे— 'महर्षि | दाल्भ्य तुमलोगोंको जो व्रत बतलायेंगे, वही दासीत्वावस्था में भी तुमलोगोंका उद्धार करनेमें समर्थ होगा।' यो कहकर द्वारकाधीश यहाँ से चले जायेंगे। इसके बहुत दिन बाद जब श्रीभगवान्द्वारा पृथ्वीका भार दूर करने, मौसलयुद्ध समाप्त होने—मूसलद्वारा यदुवंशियोंके विनाश होने, भगवान् श्रीकेशवके वैकुण्ठ पधार जाने तथा यदुकुलके वीरोंसे शून्य हो जानेपर दस्युगण अर्जुनको पराजितकर श्रीकृष्णको पत्रियोंका अपहरण कर लेंगे और उन्हें अपनी पत्नी बना लेंगे, तब अपनी दुर्गतिसे दु:खी हुई वे सभी समुद्रमें निवास करेंगी। उसी | समय महान् तपस्वी योगात्मा महर्षि दाल्भ्य वहाँ आयेंगे। तब वे ऋषिकी अर्घ्यद्वारा पूजा करके वारंवार उनके चरणोंमें प्रणिपात करेंगी और आँखोंमें आँसू भरकर अनेकों प्रकारसे विलाप करेंगी। उस समय उनको प्रचुर भोगोंका, दिव्य पुष्पमाला और अनुलेपका, अनन्त एवं अपराजित जगदीश्वर पतिका, दिव्य भावोंसे संयुक्त द्वारकापुरीका, नाना प्रकारके रखोंसे निर्मित गृहाँका द्वारकावासियोंका और देवरूपी सभी कुमारोंका स्मरण हो रहा होगा। तब वे मुनिके समक्ष खड़ी होकर इस प्रकार प्रश्न करेंगी ॥ 2 - 16 ॥ स्त्रियाँ कहेंगी भगवन्। डाकुओंने बलपूर्वक (हमलोगों का अपहरण करके) अपने वशीभूत कर लिया है। इस प्रकार हम सभी अपने धर्मसे च्युत हो गयी हैं। अब इस विषयमें आप हमलोगोंके आश्रयदाता बनें। ब्रह्मन् ! इसके लिये बुद्धिमान् श्रीकेशवने पहले ही आपको आदेश दे दिया है। पता नहीं, किस घोर पाप कर्मके कारण जगदीश्वर श्रीकृष्णका संयोग पाकर भी हमलोग कुधर्ममें आ पड़ी हैं। इसलिये तपोधन। पण्यस्त्रियोंके लिये भी जो धर्म कहे गये हैं, उन्हें हमें बतलाइये। उनके द्वारा यों पूछे जानेपर चेकितायन महर्षिके पुत्र दाल्भ्य उन्हें सारा वृत्तान्त बतलायेंगे ॥17- 19 ॥
दालभ्य कहते हैं-नारियो ! पूर्वकालमें तुमलोग अप्सराएँ थी और सब की सब अग्निकी कन्याएँ थीं। एक बार जब तुमलोग मानस सरोवरमें जलक्रीडाद्वारा मनोरञ्जन कर रही थी, उसी समय तुमलोगेकि निकट नारदजी आ पहुँचे।उस समय तुमलोग गर्ववश उन्हें प्रणाम न कर उन योगवेत्तासे इस प्रकार प्रन कर बैठीं- 'देवर्षे! भगवान् नारायण किस प्रकार हमलोगों के पति हो सकते हैं, इसका उपाय बतलाइये।' उस समय तुमलोगों को नारदजीसे वरदान और शाप दोनों प्राप्त हुए थे। (उन्होंने कहा था-) 'यदि तुमलोग चैत्र और वैशाखमासमें शुक्लपक्षको द्वादशी तिथिके दिन स्वर्णनिर्मित उपकरणोंसहित दो शय्याएँ प्रदान करोगी तो निश्चय ही दूसरे जन्ममें भगवान् नारायण तुमलोगोंके पति होंगे। साथ ही सुन्दरता और सौभाग्यके अभिमानवश जो तुमलोगोंने मुझे बिना प्रणाम किये ही मुझसे प्रश्न किया है, इस कारण तुमलोगोंका उनसे शीघ्र ही वियोग भी हो जायगा तथा डाकू तुमलोगोंका अपहरण कर लेंगे और तुम सभी कुधर्मको प्राप्त हो जाओगी।' इस प्रकार नारदजी एवं बुद्धिमान् भगवान् केशवके शापसे तुम सभी कामसे मोहित होकर कुधर्मको प्राप्त हो गयी हो । सुन्दरियो इस समय मैं जो कुछ कह रहा हूँ, उसे भी तुमलोग ध्यान देकर सुनो। पूर्वकालमें घटित हुए सैकड़ों | देवासुर संग्रामोंमें देवताओंने समय-समयपर बहुत-से दानवो, असुरों, दैत्यों और राक्षसोंको मार डाला था, उनकी जो सैकड़ों-हजारों यूथ की यूथ पत्त्रियाँ थीं, जिन्हें अन्य राक्षसोंने बलपूर्वक (इसी प्रकार) व्याह लिया था, उन सबसे वक्ताओंमें श्रेष्ठ देवराज इन्द्रने कहा। ll20- 27 2 ll
इन्द्र बोले- भक्तिमती सुन्दरियो ! तुमलोगों को दम्भकोंसे सदा दूर रहना चाहिये। तुमलोगोंको देवताओं एवं पिटके पुण्य पर्व आनेपर अपनी शक्तिके अनुसार गौ, पृथ्वी, स्वर्ण और अन्न आदिका दान करना तथा ब्राह्मणोंकी आज्ञाका पालन करना चाहिये। इसके अतिरिक्त में तुमलोगोंको जिस दूसरे व्रतका उपदेश दे रहा हूँ, उसका भी बिना आगा-पीछा सोचे तुम सभीको अनुष्ठान करना चाहिये। यह व्रत तुमलोगों का संसार उद्धार करनेमें समर्थ है। इसे वेदवेतालोग ही जानते हैं। ll 28-32 llजब रविवारको हस्त, पुष्य अथवा पुनर्वसु नक्षत्र आवे तो स्वीको सर्वोपधिमिश्रित जलसे भलीभाँति खान करना उचित है। ऐसा करनेसे उसे देवताकी संनिकटता प्राप्त होगी। फिर नामोंका कीर्तन करते हुए भगवान् पुण्डरीकाक्षको यो अर्चना करनी चाहिये 'कामाय नमः 'से दोनों चरणोंका, 'मोहकारिणे नमः' से जङ्घाओंका 'कंदपंनिधये नमः से जननेन्द्रियका, 'प्रीतिमते नमः' से कटिका, 'सौख्यसमुद्राय नमः 'से नाभिका, 'रामाय नमः 'से उदरका, 'हृदयेशाय नमः' से हृदयका, 'आह्लादकारिणे नमः' से दोनों स्तनोंका, 'उत्कण्ठाय नमः' से कण्ठका, 'आनन्दकारिणे नमः - से मुखका, 'पुष्पचापाय नमः' से वामाङ्गका, 'पुष्पबाणाय नमः' से दक्षिणाङ्गका, 'मानसाय नमः' से ललाटका 'विलोलाय नमः' से केशोंका और 'सर्वात्मने नमः से देवाधिदेव पुण्डरीकाक्षके सर्वाङ्गका पूजन करना चाहिये। पुनः 'शिवाय नमः', 'शान्ताय नमः', 'पाशाङ्कुशधराय नमः', 'गदिने नमः', 'पीतवस्त्राय नमः', 'शङ्खचक्रधराय नमः', 'नारायणाय नमः', 'कामदेवात्मने नमः से भगवान् विष्णुकी पूजा करके 'सर्वशान्त्यै नमः', 'प्रीत्यै नमः', 'रत्यै नमः', 'श्रियै नमः', 'पुष्ट्यै नमः', 'तुष्ट्यै नमः', 'सर्वार्थसम्पदे नमः 'से लक्ष्मीका भी पूजन करनेका विधान है। इस प्रकार व्रतिनी नारी चन्दन, पुष्पमाला, धूप और नैवेद्य आदिसे कामदेवस्वरूप देवेश्वर भगवान् विष्णुको पूजा करे। तत्पश्चात् वह सुडौल अङ्गोंवाले, धर्मज्ञ एवं वेदज्ञ ब्राह्मणको बुलाकर चन्दन, पुष्प आदि पूजन सामग्रीद्वारा उनकी पूजा करे और घीसे भरे हुए पात्रके साथ एक सैर अगहनी चावल उस ब्राह्मणको दान करे और कहे- 'माधव मुझपर प्रसन्न हो।' फिर वह विलासिनी नारी उस द्विजवरको यथेष्ट भोजन करावे ll 33-45 ll
इस प्रकार रविवारसे प्रारम्भ करके यह सब कार्य करते रहना चाहिये। एक सेर चावलका दान तो तेरह | मासतक करनेका विधान है। तेरहवीं महीना आनेपर उस स्त्रीको चाहिये कि उपर्युक्त ब्राह्मणको समस्त उपकरणोंसे युक्त एक ऐसी विलक्षण शय्या प्रदान करे, जो गद्दा, चादर और विश्रामहेतु बने हुए तकियेसे युक्त एवं सुन्दर हो तथा उसके साथ दीपक, जूता, छाता, खड़ाऊँ औरआसनी भी हो उस समय उस सपत्नीक ब्राह्मणको महीन वस्त्र, सोनेकी जंजीर, अंगूठी, कड़ा, अधिकाधिक पुष्पमाला और चन्दनसे अलंकृत करके गुड़से भरे हुए कलशके ऊपर स्थापित ताम्रपात्रके आसनपर सपत्नीक कामदेवको मूर्तिको रख दे उसे स्वर्णनिर्मित नेत्राच्छादनसे ढक दे। उसके निकट कांसेका पात्र और गन्ना भी रख दे। फिर आगे कहे जानेवाले मन्त्रका उच्चारण करके समग्र उपकरणोंसहित उस मूर्तिका तथा एक दुधारू गौका उस ब्राह्मणको दान करे। (दानका मन्त्र इस प्रकार है―) 'केशव ! जिस प्रकार लक्ष्मी आपके शरीरसे बिलग होकर कहीं अन्यत्र नहीं जातीं देवेश्वर प्रभी उसी प्रकार आप मेरे शरीरको भी स्वीकार कर लें।' स्वर्णमय कामदेवकी मूर्तिको ग्रहण करते समय वे द्विजवर 'कोऽदात् कस्मा अदात् कामोऽदात् कामायादात्' इत्यादि - (वाजस0 सं0 7। 48) इस वैदिक मन्त्रका उच्चारण करें। तदनन्तर वह स्त्री उन द्विजवरकी प्रदक्षिणा करके उन्हें विदा करे और शय्या, आसन आदि दानकी सभी वस्तुएँ उनके घर भिजवा दे। इस प्रकार इस दैवकर्मको अनुरागपूर्वक अपनी शक्तिके अनुसार विधिपूर्वक अट्ठावन बार करना चाहिये। विशेषतः तुम्हीं लोगों के लिये ही मैंने इस व्रतका सम्यक् प्रकारसे वर्णन किया है। ऐसा करनेसे पण्यस्त्रियोंको इस लोकमें कभी अधर्मका भागी नहीं होना पड़ेगा ।। 46-60 ॥ पूर्वकालमें इन्द्रने दानवपतियोंके प्रति जिस व्रतका वर्णन किया था, वही सब इस समय तुमलोगों को भी करना उचित है। सुन्दरियो ! कल्याणी स्त्रियोंके समस्त पापको शान्त करनेवाले एवं अनन्त फलदायक जिस व्रतका मैंने वर्णन किया है, उसका तुमलोग अवश्य पालन करो। जो कल्याणमयी नारी इस व्रतका पूरा-पूरा अखण्डरूपसे - पालन करती है, वह भगवान् विष्णुके लोकमें स्थित होती है और अखिल देवगणेंद्वारा पूजित होकर भगवान् विष्णुके आनन्ददायक स्थानको प्राप्त होती है ।। 61-63 ।।श्रीभगवान्ने कहा— ब्रह्मन् ! इस प्रकार तपस्वी | दाल्भ्य उन स्त्रियोंसे वाराङ्गनाओंके व्रतका वर्णन करके अपने स्थानको चले जायँगे। उसके पश्चात् वे सभी उस व्रतका अनुष्ठान करेंगी ॥ 64 ॥