नारदजीने पूछा- भगवन्! अब मैं विविध दानोंके उत्तम माहात्म्यको श्रवण करना चाहता हूँ, जो देवगणों एवं ऋषिसमूह पूजित और परलोकमें अक्षय फल | देनेवाला है ॥ 1 ॥
उमापतिने कहा – मुनिपुङ्गव! मैं मेरु- (पर्वत) दानके दस भेदोंको बतला रहा हूँ। जिनका दान करने से मनुष्य देवपूजित लोकोंको प्राप्त करता है। उसे इस लोकमें जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह वेदों और पुराण अध्ययन, यज्ञानुष्ठान और देव मन्दिर आदिकेनिर्माणसे भी नहीं प्राप्त होता। इसलिये अब मैं पर्वतोंके क्रमसे उनके विधानका वर्णन कर रहा हूँ। (उनके नाम 1) पहला धान्यशैल, दूसरा लवणाचल, तीसरा गुडद्याचा चौथा हेमपर्वत, पाँचवीं तिलशैलछा कार्पासपर्वत सातवीं धृतशैल आठवाँ रखशैल, नवीं रजतशैल और दसवीं शर्कराचल इनका विधान यथार्थरूपसे क्रमश: बतला रहा हूँ। सूर्यके उत्तरायण और दक्षिणायनके समय, पुण्यमय विषुवयोगमें, व्यतीपातयोगमें, ग्रहणके समय सूर्य अथवा चन्द्रमाके अदृश्य हो जानेपर, शुक्लपक्षको तृतीया, द्वादशी अथवा पूर्णिमा तिथिके दिन, विवाह, उत्सव और यज्ञके अवसरोंपर तथा पुण्यप्रद शुभ नक्षत्रके योग में विद्वान् दाताको शास्त्रादेशानुसार विधिपूर्वक धान्यशैल आदि पर्वतदानोंको करना चाहिये। इसके लिये तीर्थोंमें, देवमन्दिरमें गोशालामें अथवा अपने घरके आँगनमें ही भक्तिपूर्वक विधि-विधानके | साथ एक चौकोर मण्डपका निर्माण करावे; उसमें उत्तर और पूर्व दिशामें दो दरवाजे हों और उसकी भूमि पूर्वोत्तर दिशामें ढालू हो उस मण्डपकी गोवरसे लिपी पुती भूमिपर कुश बिछाकर उसके बीचमें विष्कम्भपर्वतसहित देव पदार्थको पर्वताकार राशि लगा दे। इस विषयमें एक हजार द्रोण? अन्नका पर्वत उत्तम, पाँच सौ द्रोणका मध्यम और तीन सौ द्रोणका कनिष्ठ माना जाता है॥ 212 ॥
महान् धान्यराशिसे बने हुए मेरु पर्वतको मध्यमें तीन स्वर्णमय वृक्षोंसे युक्त कर, पूर्व दिशामें मोती और हीरेसे, दक्षिण दिशामें गोमेद और पुष्पराग (पुखराज) से, पश्चिम दिशामें गारुत्मत (पन्ना) और नीलम मणिसे, उत्तर दिशामें वैदूर्य और पद्मराग मणिसे तथा चारों ओर चन्दनके टुकड़ों और मूँगेसे सुशोभित कर दे। उसे लताओंसे परिवेष्टित तथा सीपीके शिलाखण्डोंसे सुसज्जित कर दिया जाय। पुनः यजमान गर्वरहित होकर अनेकों | द्विजसमूहोंके साथ उस पर्वतके मूर्धा-स्थानपर ब्रह्मा, भगवान् विष्णु शङ्कर और सूर्यको स्वर्णमयी मूर्ति स्थापित करे।उसमें चाँदीके चार शिखर बनाये जायें, जिनके नितम्बभाग भी चाँदीके ही बने हों। उसी प्रकार चारों दिशाओं में गन्ना और बाँससे ढकी हुई कन्दराएँ तथा घी और जलके झरने भी बनाये जायें। पुनः पूर्व दिशामें श्वेत वस्त्रोंसे, दक्षिण दिशामें पीले वस्त्रोंसे, पश्चिम दिशामें चितकबरे वस्त्रोंसे और उत्तर दिशामें लाल वस्त्रोंसे बादलोंकी पट्टियाँ बनायी जायें। फिर चाँदीके बने हुए महेन्द्र आदि आठों लोकपालोंको क्रमशः स्थापित करे और उस पर्वतके चारों ओर अनेकों प्रकारके फल, मनोरम पुष्पमालाएँ और चन्दन भी रख दे। उसके ऊपर पँचरंगा चंदोवा लगा दे और उसे खिले हुए श्वेत पुष्पोंसे विभूषित कर दे। इस प्रकार श्रेष्ठ अमरशैल (सुमेरुगिरि) की स्थापना कर उसके इसकी चारों दिशाओं में क्रमशः विष्कम्भ (मर्यादा) पर्वतोंकी स्थापना करनी चाहिये। ये सभी पुष्प और चन्दनसे सुशोभित | हों। पूर्व दिशामें यवसे मन्दराचलका आकार बनावे, उसके निकट अनेकों प्रकारके फलोंकी कतारें लगा दे, उसे कनकभद्र (देवदारु) और कदम्ब वृक्षोंके चिह्नोंसे सुशोभित - कर दे, उसपर कामदेवकी स्वर्णमयी प्रतिमा स्थापित कर दे। फिर उसे अपनी शक्तिके अनुसार चाँदीके बने हुए वन और दूधनिर्मित अरुणोद नामक सरोवरसे सुशोभित कर दे। तत्पश्चात् वस्त्र, पुष्प और चन्दन आदिसे उसे भरपूर सुसज्जित कर देना चाहिये ll 13–21 ll
दक्षिण दिशामें की राशिसे गन्धमादनकी रचना करनी चाहिये। उसे स्वर्णपत्रसे सुशोभित कर दे। उसपर यज्ञपतिकी स्वर्णमयी मूर्ति स्थापित कर दे और उसे वस्त्रोंसे परिवेष्टित कर दे। फिर उसे घीके सरोवर और चाँदीके बनसे सुशोभित कर देना चाहिये पश्चिम दिशामें अनेकों सुगन्धित पुष्पों, स्वर्णमय पीपल वृक्ष और सुवर्णनिर्मित हंससे युक्त तिलाचलकी स्थापना करनी चाहिये। उसी प्रकार इसे भी वस्त्रसे परिवेष्टित तथा चाँदीके पुष्पवनसे सुशोभित कर दे। इसके अग्रभागमें दहीसे सितोद सरोवरकी भी रचना कर दे। इस प्रकार उस विपुल शैलकी स्थापना करके उत्तर दिशामें उड़दसे सुपार्श्व नामक पर्वतकी स्थापना करे। इसे भी सुन्दर वस्त्र और पुष्पोंसे सुसचित कर दे. इसके शिखरपर स्वर्णमय | वटवृक्ष रख दे और सुवर्णनिर्मित गौसे सुशोभित कर दे।उसी प्रकार मधुसे बने हुए भद्रसर नामक सरोवर और चमकीली चाँदीसे निर्मित वनसे संयुक्त कर देना चाहिये। तत्पश्चात् पूर्व दिशामें एक हाथ लम्बा चौड़ा और गहरा कुण्ड बनाकर तिल यव, घी, समिधा और कुशद्वारा चार श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे हवन करावे। वे सभी ब्राह्मण वेदों और पुराणोंके ज्ञाता, जितेन्द्रिय, अनिन्द्य चरित्रवान् और सुरूप हो। रातमें मधुर शब्दमें गायन और तुरही आदि वाद्यका वादन कराते हुए जागरण करना चाहिये। अब मैं इन पर्वतोंके आवाहनका प्रकार बतला रहा हूँ। (उन्हें इस प्रकार आवाहित करे) अमरपर्यंत तुम समस्त देवगणोंक निवासस्थान और रत्नोंकी निधि हो। मैंने परम भक्तिके साथ तुम्हारी पूजा की है, इसलिये तुम हमारे घरोंमें स्थित विरुद्धभाव अर्थात् वैरभावको शीघ्र ही नष्ट कर दो, हमारे | कल्याणका विधान करो और हमें श्रेष्ठ शान्ति प्रदान करो। सनातन! तुम्हीं ब्रह्मा, भगवान् विष्णु, शङ्कर और सूर्य हो तथा मूर्त (साकार) और अमूर्त (निराकार) से परे संसारके बीज (कारणरूप) हो, अतः हमारी रक्षा करो। चूँकि तुम लोकपालों, विश्वमूर्ति भगवान् विष्णु, रुद्र, सूर्य और वसुओंके निवासस्थान हो, इसलिये मुझे शान्ति प्रदान करो। चूँकि तुम देवताओं, देवाङ्गनाओं और शिवजीसे अशून्य अर्थात् संयुक्त रहते हो, इसलिये इस निखिल दुःखोंसे भरे हुए संसार सागरसे मेरा उद्धार करो।। 22-30 ll
इस प्रकार उस मेरुगिरिकी अर्चना करनेके पश्चात् मन्दराचलकी पूजा करनी चाहिये- 'मन्दराचल! चूँकि तुम चैत्ररथ नामक वन और भद्राश्व नामक वर्षसे सुशोभित हो रहे हो, इसलिये शीघ्र ही मेरे लिये तुष्टिकारक बनो।' 'गन्धमादन! चूँकि तुम जम्बूद्वीपमें शिरोमणिके समान | सुशोभित और गन्धवोंके बनकी शोभासे सम्पन्न हो, इसलिये मेरी कीर्तिको सुदृढ़ कर दो।'विपलु! चूँकि तुम केतुमाल वर्ष और वैभ्राज नामक वनसे सुशोभित हो और तुम्हारे शिखरपर स्वर्णमय पीपलका वृक्ष विराजमान है, इसलिये (तुम्हारी कृपासे) मुझे निश्चला पुष्टि प्राप्त हो।' 'सुपार्श्व ! चूँकि तुम उत्तर कुरुवर्ष और सावित्र नामक वनसे नित्य शोभित हो रहे हो, अतः मुझे अक्षय लक्ष्मी प्रदान करो।' इस प्रकार उन सभी पर्वतोंको आमन्त्रित करके पुनः निर्मल प्रभात होनेपर स्नान आदिसे निवृत्त हो बीचवाला श्रेष्ठ पर्वत गुरु (यज्ञ करानेवाले) को दान कर दे। मुने! | इसी प्रकार क्रमशः विष्कम्भपर्वतोंको ऋत्विजोंको दान करदेना चाहिये। नारद! इसके बाद चौबीस, दस, नौ, आठ, सात अथवा पाँच गौ दान करनेका विधान है। यदि यजमान निर्धन हो तो वह एक ही दुधारू कपिला गौ गुरुको दान कर दे। सभी पर्वतदानोंके लिये यही विधि कही गयी है। उनके पूजनमें ग्रहों, लोकपालों और ब्रह्मा आदि देवताओंके वे ही मन्त्र हैं और वे ही सामग्रियाँ भी मानी गयी हैं। सभी पर्वत पूजनोंमें उन-उनके मन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक हवन करना चाहिये। यजमानको सदा व्रतमें उपवास करना चाहिये। यदि असमर्थ हो तो रातमें एक बार भोजन किया जा सकता है। नारद! अब तुम सभी पर्वतदानोंकी विधि, दानकालमें प्रयुक्त होनेवाले मन्त्र और उन दानोंसे प्राप्त होनेवाला जो फल है, वह सब क्रमशः सुनो। (दान देते समय धान्यशैलसे यों प्रार्थना करनी चाहिये) 'पर्वत श्रेष्ठ ! अन्नको ही ब्रह्म कहा जाता है; क्योंकि अन्नमें प्राणियोंके प्राण प्रतिष्ठित हैं। अन्नसे ही प्राणी उत्पन्न होते हैं, अन्नसे जगत् वर्तमान है, इसलिये अन्न ही लक्ष्मी है, अन्न ही भगवान् जनार्दन है, इसलिये धान्यशैलके रूपसे तुम मेरी रक्षा करो।' जो मनुष्य उपर्युक्त विधिसे धान्यमय पर्वतका दान करता है, वह सौ मन्वन्तरसे भी अधिक कालतक देवलोकमें प्रतिष्ठित होता है। अप्सराओं और गन्धर्वोद्वारा व्याप्त सुन्दर विमानसे वह स्वर्गलोकमें आता है और उनके द्वारा पूजित होता है। पुनः पुण्यक्षय होनेपर वह इस लोकमें निस्संदेह राजाधिराज होता है ॥ 31-45 ॥