देवीने कहा- गणेश्वर वीरक! चूँकि तुमने मुझ माताका परित्याग कर स्नेहसे विकल हो शंकरजीके एकान्तमें अन्य स्त्रियोंको प्रवेश करनेका अवसर दिया है, इसलिये अत्यन्त कठोर, स्नेहहीन, मूर्ख, हृदयरहित एवं राख सदृशी रूखी शिला तुम्हारी माता होगी। वीरकका शिलासे उत्पन्न होनेमें यही कारण विख्यात है। आगे चलकर वही शाप क्रमशः विचित्र कथाओंका आश्रयस्थान बन गया। इस प्रकार पार्वतीके शाप दे देनेके पश्चात् क्रोध उनके मुखसे महाबली सिंहके रूपमें बाहर निकला। उस सिंहका मुख विकराल था, उसका कंधा जटाओंसे आच्छादित था, उसकी लम्बी पूँछ ऊपर उठी हुई थी, उसके मुखके दोनों किनारे भयंकर दाढ़ोंसे युक्त थे, वह मुख फैलाये हुए जीभ लपलपा रहा था, उसकी कुक्षि दुबली-पतली थी और वह किसीको खा जानेकी टोहमें था। यह देखकर पार्वतीदेवी शीघ्र ही उसपर आरूढ़ होनेकी चेष्टा करने लगीं। तब उनके मनोगत भावको जानकर भगवान् ब्रह्मा उस आश्रमस्थानपर आये जो सभी सम्पदाओंका आश्रयस्थान था। वहाँ आकर देवेश्वर ब्रह्मा गिरिजासे स्पष्ट वाणीमें बोले ॥ 1-7॥
ब्रह्माने कहा- पुत्रि! अब तुम मेरी आज्ञा मानकर इस अत्यन्त कष्टकर तपस्यासे विरत हो जाओ बताओ, तुम क्या प्राप्त करना चाहती हो? मैं तुम्हें कौन-सी दुर्लभ वस्तु प्रदान करूँ ? वह सुनकर गिरिजाने गौरवास्पद गुरुजन ब्रह्मासे अपने चिरकालसे निर्णीत मनोरथको स्पष्टाक्षरोंसे युक्त वाणीद्वारा व्यक्त करते हुए कहा ।। 8-9 ।।
देवी बोलीं- प्रभो! मैंने कठोर तपस्याके | फलस्वरूप शंकरजीको पतिरूपमें प्राप्त किया है, किंतु वे मुझे बहुधा 'श्यामवर्णा- काले रंगकी' कहकर अपमानित करते रहते हैं। अतः मैं चाहती हूँ कि मेरा वर्ण सुवर्ण-सा गौर हो जाय, मैं उनकी परम वल्लभा बन जाऊँ और अपने भूतनाथ पतिदेव के शरीरमें एक ओर उन्होंके अङ्गकी तरह प्रविष्ट हो जाऊँ ।पार्वतीके उस कथनको सुनकर कमलासन ब्रह्माने कहा 'ठीक है, तुम ऐसी ही होकर पुनः अपने पतिदेव के शरीरके अर्धभागको धारण करनेवाली हो जाओ।' ऐसा वरदान पाकर पार्वतीने अपने भ्रमर- सरीखे काले एवं खिले हुए नीले कमलके से नीले चमड़ेको त्याग दिया। तब उनकी त्वचा उद्दीत हो उठी और वे तीन नेत्रोंसे भी युक्त हो गयीं। तदुपरान्त उन्होंने अपने शरीरको नाना प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित कर पीले रंगकी रेशमी साड़ी धारण किया और हाथमें घण्टा ले लिया। तत्पश्चात् ब्रह्माने उस नीले कमलकी-सी कान्तिवाली देवीसे कहा 'निशे! तुम पहलेसे ही एकानंशा नामसे विख्यात हो और इस समय मेरी आज्ञासे पार्वतीके शरीरका सम्पर्क होनेके कारण तुम कृतकृत्य हो गयी हो। वरानने! पार्वतीदेवीके क्रोधसे जो यह सिंह प्रादुर्भूत हुआ है, वह तुम्हारा वाहन होगा और तुम्हारी ध्वजापर भी इस महाबलीका आकार विद्यमान रहेगा। अब तुम विन्ध्याचलको जाओ। वहाँ देवताओंका कार्य सिद्ध करो। देवि! जिसके पीछे एक | लाख यक्ष चलते हैं, उस इस पञ्चाल नामक यक्षको मैं तुम्हें किंकरके रूपमें प्रदान कर रहा हूँ, यह सैकड़ों प्रकारकी मायाओंका ज्ञाता है।' ब्रह्माद्वारा ऐसा आदेश पाकर कौशिको देवी विन्ध्यपर्वतकी ओर चली गयीं ।। 10-1893 ॥
इधर उमा भी अपना मनोवाञ्छित वरदान प्राप्त कर शंकरजीके पास चलीं। वहाँ द्वारपर हाथमें सोनेका डंडा धारण किये हुए वीरक सावधानीपूर्वक पहरा दे रहा था। उसने प्रवेश करती हुई पार्वतीको दरवाजेसे खींचकर रोक दिया और गौर रूपसे दूसरी स्त्री-सी प्रतीत होनेवाली उनसे क्रोधपूर्वक कहा 'तुम्हारा यहाँ कोई प्रयोजन नहीं है, अतः जबतक मैं तुम्हें पीट नहीं दे रहा हूँ, उससे पहले ही भाग जाओ। यहीं महादेवजीको छलनेके लिये एक दैत्य माता पार्वतीदेवीका रूप धारण कर प्रविष्ट हो गया था, जिसे मैं देख नहीं पाया था, किंतु महादेवजीने उसे यमलोकका पथिक बना दिया उसे मारनेके बाद नीलकण्ठ शिवजीने क्रुद्ध होकर मुझे आज्ञा दी है कि अबसे तुम द्वारपर असावधानी मत करना। तभीसे मैं अच्छी तरह सजग होकर पहरा दे रहा हूँ। द्वारपर मेरे स्थित रहते हुए तुम अनेकों वर्षसमूहोंतक प्रविष्ट न हो सकेगी, इसलिये मैं तुम्हें भवनमें प्रवेश नहीं करने दूंगा। तुम शीघ्र ही यहाँसे चली जाओ' ॥ 19-24 ॥