मनुने पूछा- भगवन्! अब मैं पितरोंके उत्तम वंशका वर्णन सुनना चाहता हूँ। उसमें भी विशेषरूपसे यह जाननेकी अभिलाषा है कि सूर्य और चन्द्रमा श्राद्धके देवता कैसे हो गये ? ॥ 1 ॥
मत्स्यभगवान् कहने लगे-राजर्षे! बड़े आनन्दकी बात है, अब मैं तुमसे पितरोंके श्रेष्ठ वंशका वर्णन कर रहा हूँ; सुनो। स्वर्गमें पितरोंके सात गण हैं। उनमें तीन मूर्तिरहित और चार मूर्तिमान् हैं। वे सब-के-सब अमित तेजस्वी हैं। अमूर्त पितृगण वैराजनामक प्रजापतिकी संतान हैं, इसीलिये वैराज नामसे प्रसिद्ध हैं। देवगण उनकी पूजा करते हैं। ये सभी सनातन लोकोंको प्राप्त करनेके पश्चात् योगमार्गसे च्युत हो जाते हैं तथा ब्रह्माके दिनके अन्तमें पुनः ब्रह्मवादीरूपमें उत्पन्न होते हैं। उस समय ये पूर्वजन्मकी स्मृति हो जानेसे पुनः सर्वोत्तम सांख्ययोगका आश्रय लेकर योगाभ्यासद्वारा आवागमनके | चक्रसे मुक्त करनेवाली सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। इस कारण दातद्वारा योगियोंको ही श्रद्धीय वस्तुएँ प्रदान करनी चाहिये। इन उपर्युक्त पितरोंकी मानसी कन्या मेना हिमवान्की पत्नी मानी गयी है। मैनाक उसका पुत्र है। क्रौञ्च उससे भी पहले पैदा हुआ था। इसी क्रौञ्चके नामपर घृतसे परिवेष्टित चतुर्थ द्वीप क्रौञ्चद्वीप नामसे विख्यात है। तत्पश्चात् मेनाने उमा, एकपर्णा और अपर्णा नामकी तीन कन्याओंको जन्म दिया, जो सब की सब योगाभ्यासमें निरत, कठोर व्रतमें तत्पर तथा लोकमें सर्वश्रेष्ठ तपस्विनी थीं। हिमवान्ने इनमें से एक कन्या रुद्रको, एक सितको तथा एक जैगीषव्यको प्रदान कर दी। ll 2-9॥
ऋषियोंने पूछा- सूतजी पूर्वकालमें दक्ष-पुत्री सतीने अपने शरीरको अपने-आप ही क्यों जला डाला ? तथा पुनः उसी प्रकारका शरीर धारणकर वे भूतलपर हिमवान्की कन्याके रूपमें कैसे प्रकट हुई? उस समय ब्रह्माके पुत्र दने लोकजननी सतीको, जो उन्होंकी पुरी कर सी ऐसी बात कह दी थी, जिससे वे स्वयं ही जल मर्री ? ये सभी बातें हमें विस्तारपूर्वक बतलाइये ॥ 10-11 ॥सूतजी कहते हैं-ऋषियों! प्राचीनकालमें दक्षने एक विशाल यज्ञका अनुष्ठान किया था; उसमें प्रचुर धनराशि | दक्षिणाके रूपमें बाँटी गयी थी तथा सभी देवता (अपना अपना भाग ग्रहण करनेके लिये) आमन्त्रित किये गये थे। (परंतु द्वेषवश शिवजीको निमन्त्रण नहीं भेजा गया था। तब वहाँ अपने पतिका भाग न देखकर) सतीने पिता दक्षसे पूछा—'पिताजी! अपने इस विशाल यज्ञमें आपने मेरे पतिदेवको क्यों नहीं आमन्त्रित किया ?' तब दक्षने सतीसे कहा— 'बेटी! तुम्हारा पति त्रिशूल धारण कर रुद्ररूपसे जगत्का उपसंहार करता है, जिससे वह अमङ्गल - भागी है, | इस कारण वह यज्ञोंमें भाग पानेके लिये अयोग्य है।' यह सुनकर सती क्रोधसे तमतमा उठीं और बोलीं- 'तात! अब मैं तुम्हारे पापी शरीरसे उत्पन्न हुए अपनी देहका परित्याग कर दूँगी। तुम दस पितरोंके एकमात्र पुत्र होगे और क्षत्रिय योनिमें जन्म लेनेपर अश्वमेध यज्ञके अवसरपर रुद्रद्वारा तुम्हारा विनाश हो जायगा।' ऐसा कहकर सतीने योगबलका आश्रय लिया और स्वतः शरीरसे प्रकट हुए तेजसे अपने शरीरको जलाना प्रारम्भ कर दिया। तब देवता, असुर और किन्नरोंके साथ गन्धर्व एवं गुह्यकगण 'अरे! यह क्या हो रहा है ? यह क्या हो रहा है?' इस प्रकार हो-हल्ला मचाने लगे। | यह देखकर दक्ष भी दुःखी हो सतीके निकट गये और प्रणाम | करके बोले- 'देवि! तुम इस जगत्की जननी तथा जगत्को सौभाग्य प्रदान करनेवाली देवता हो। तुम मुझपर अनुग्रह करनेकी कामनासे ही मेरी पुत्री होकर अवतीर्ण हुई हो। धर्मज्ञे इस निखिल ब्रह्माण्डमें- समस्त चराचर वस्तुओंमें कुछ भी तुमसे रहित नहीं है अर्थात् सबमें तुम्हारी सत्ता व्यास है। मुझपर कृपा करो। इस अवसरपर तुम्हें मेरा परित्याग नहीं करना चाहिये।' (दक्षके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर) देवीने कहा- 'दक्ष! मैंने जिस कार्यका आरम्भ कर दिया है, उसे तो निःसंदेह अवश्य ही पूर्ण करूंगी, किंतु त्रिशूलधारी शिवजीद्वारा यज्ञविध्वंस हो जानेपर उनको प्रसन्न करनेके लिये तुम मृत्युलोकमें लोक-सृष्टिकी इन्च्छासे | मेरे निकट तपस्या करना। उसके प्रभावसे तुम प्रचेता नामके | दस पिताओंके एकमात्र पुत्र होनेपर भी प्रजापति हो जाओगे। उस समय मेरे अंशसे तुम्हें साठ कन्याएँ उत्पन्न होंगी तथा मेरे समीप तपस्या करते हुए तुम्हें उत्तम योगकी प्राप्ति हो जायगी। ' ऐसा कहे जानेपर दक्षने पूछा- 'पाप-रहित देवि इस कार्यके निमित्त मुझे किन-किन तीर्थस्थानोंमें जाकर तुम्हारा दर्शन करना चाहिये तथा किन-किन नामोंद्वारा | तुम्हारा स्तवन करना चाहिये' ll 12-23 ॥देवीने कहा- दक्ष ! यद्यपि भूतलपर समस्त प्राणियों में सब ओर सर्वदा मेरा ही दर्शन करना चाहिये; क्योंकि सम्पूर्ण लोकोंमें जो कुछ पदार्थ है, वह सब मुझसे रहित नहीं हैं, अर्थात् सभी पदार्थोंमें मेरी सत्ता विद्यमान है, तथापि सिद्धिकी कामनावाले अथवा ऐश्वर्याभिलाषी जनोंद्वारा जिन-जिन तीर्थस्थानोंमें मेरा दर्शन और स्मरण करना चाहिये, उनका मैं यथार्थरूपसे वर्णन कर रही हूँ। मैं वाराणसीमें विशालाक्षी, नैमिषारण्यमें लिङ्गधारिणी, प्रयागमें ललितादेवी, गन्धमादन पर्वतपर कामाक्षी, मानसरोवरतीर्थमें कुमुदा, अम्बरमें विश्वकाया, गोमन्त (गोआ) - में गोमती, मन्दराचलपर कामचारिणी, चैत्ररथवनमें मदोत्कटा, हस्तिनापुरमें जयन्ती, कान्यकुब्जमें गौरी, मलयपर्वतपर रम्भा, एकाम्रक (भुवनेश्वर) - तीर्थमें कीर्तिमती, विश्वेश्वरमें विश्वा, पुष्करमें पुरुहूता, केदारतीर्थमें मार्गदायिनी, हिमवान्के पृष्ठभागमें नन्दा, गोकर्णतीर्थमें भद्रकर्णिका, स्थानेश्वर (थानेश्वर) में भवानी, बिल्वतीर्थमें बिल्वपत्रिका, श्रीशैलपर माधवी, भद्रेश्वरतीर्थमें भद्रा, वराहशैलपर जया, कमलालयतीर्थमें कमला, रुद्रकोटिमें रुद्राणी, कालञ्जर गिरिपर काली, महालिङ्गतीर्थमें कपिला, मर्कोटमें मुकुटेश्वरी, शालग्रामतीर्थमें महादेवी, शिवलिङ्गमें जलप्रिया, मायापुरी (ऋषिकेश) में कुमारी, संतानतीर्थमें ललिता, सहस्राक्षतीर्थमें उत्पलाक्षी, कमलाक्षतीर्थ में महोत्पला, गङ्गामें मङ्गला, पुरुषोत्तमतीर्थ (जगन्नाथपुरी) - में विमला, विपाशामें अमोघाक्षी, पुण्ड्रवर्धनमें पाटला, सुपार्श्वतीर्थमें नारायणी, विकूटमें भद्रसुन्दरी, विपुलमें विपुला, मलयाचलपर कल्याणी, कोटितीर्थमें कोटवी, माधव-वनमें सुगन्धा, गोदाश्रममें त्रिसंध्या, गङ्गाद्वार (हरिद्वार) में रतिप्रिया, शिवकुण्डतीर्थमें शिवानन्दा, देविका (पंजाबकी देवनदी) के तटपर नन्दिनी, द्वारकापुरीमें रुक्मिणी और वृन्दावनमें राधा हूँ ll 24- 38 ॥
मैं मथुरापुरीमें देवकी, पातालमें परमेश्वरी, चित्रकूटमें सीता, विन्ध्यपर्वतपर विन्ध्याधिवासिनी, सह्याद्रिपर एकवीरा, हरिचन्द्रतीर्थमें चन्द्रिका, रामतीर्थ में रमणा, यमुनामें मृगावती, करवीर (कोल्हापुर) में महालक्ष्मी, विनायकतीर्थमें उमादेवी, वैद्यनाथमें अरोगा, महाकालमें महेश्वरी, उष्णतीर्थों में अभया, विन्ध्यकन्दर में अमृता, माण्डव्यतीर्थमें माण्डवी, माहेश्वरपुरमें स्वाहा,छागलाण्डमें प्रचण्डा, मकरन्दमें चण्डिका, सोमेश्वरतीर्थमें वरारोहा, प्रभासमें पुष्करावती, सरस्वतीमें देवमाता, समुद्रतटवर्ती महालयतीर्थमें महाभागा, पयोष्णी (पैनगङ्गा) में पिङ्गलेश्वरी, कृतशौचतीर्थमें सिंहिका, कार्तिकेयमें यशस्करी, उत्पलावर्तकमें लोला, शोणसंगममें सुभदा, सिद्धपुरमें लक्ष्मी माता, भरताश्रममे अङ्गना, जालन्धरपर्वतपर विश्वमुखी, किष्किन्धापर्वतपर तारा, देवदारुवनमें पुष्टि, काश्मीरमण्डलमें मेधा, हिमगिरिपर भीमादेवी, विश्वेश्वरमें पुष्टि, कपालमोचनमें शुद्धि, कायावरोहण (कारावन, गुजरात) में माता, शङ्खोद्धारमें ध्वनि, पिण्डारक क्षेत्रमें धृति, चन्द्रभागा (चनाब) में काला, अच्छोदमें शिवकारिणी, येणामें अमृता, बदरीतीर्थमें उर्वशी, उत्तरकुरुमें औषधी, कुशद्वीपमें कुशोदका, हेमकूटपर्वतपर मन्मथा, मुकुटमें सत्यवादिनी, अश्वत्थतीर्थमें वन्दनीया, वैश्रवणालय में निधि, वेदवदनमें गायत्री, शिव सन्निधिमें पार्वती, देवलोकमें इन्द्राणी, ब्रह्माके मुखोंमें सरस्वती, सूर्य बिम्बमें प्रभा, माताओंमें वैष्णवी, सतियोंमें अरुन्धती, सुन्दरी स्त्रियोंमें तिलोत्तमा, चित्तमें ब्रह्मकला और अखिल शरीरधारियोंमें शक्ति नामसे निवास करती हैं। * ॥ 39-53 ॥
इस प्रकार मैंने अपने एक सौ आठ श्रेष्ठ नामोंका वर्णन कर दिया। इसीके साथ एक सौ आठ तीर्थोंका भी नामोल्लेख हो गया। जो मनुष्य मेरे इन नामोंका स्मरण करेगा अथवा दूसरेके मुखसे श्रवणमात्र कर लेगा, वह अपने निखिल पापोंसे मुक्त हो जायगा। इसी प्रकार जो मनुष्य इन उपर्युक्त तीर्थोंमें स्नान करके मेरा दर्शन करेगा, वह समस्त पापोंसे मुक्त होकर कल्पपर्यन्त शिवपुरमें निवास करेगा तथा जो मानव इन तीर्थों में मेरे इस परम अन्तिम समयका स्मरण करेगा, वह ब्रह्माण्डका भेदन करके शङ्करजीके परम पद (शिवलोक) को प्राप्त हो जायगा। जो मनुष्य तृतीया अथवा अष्टमी तिथिके दिन शिवजीके निकट जाकर मेरे इन एक सौ आठ नामोंका पाठ करके उन्हें सुनायेगा, वह बहुत-से पुत्रोंवाला हो जायगा। जो विद्वान् गोदान, श्राद्धदान अथवा प्रतिदिन देवार्चनके समय इन नामोंका पाठ करेगा, वह परब्रहा पदको प्राप्त हो जायगा। इस प्रकारकी बातें कहती हुई सतीने दक्षके उस यज्ञमण्डपमें अपने आप ही अपने शरीरको जलाकर भस्मकर दिया। पुनः यथोक्त समय आनेपर ब्रह्माके पुत्र दक्ष | प्रचेताओंके पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए तथा सतीदेवी शिवजीके | अर्धाङ्गमें विराजमान होनेवाली पार्वतीरूपसे मेनाके गर्भसे प्रादुर्भूत हुई, जो भुक्ति (भोग) और मुक्तिरूप फल प्रदान करनेवाली हैं। इन्हीं पूर्वोक्त एक सौ आठ नामोंका जप करनेसे अरुन्धतीने सर्वोत्तम योगसिद्धि प्राप्त की, राजर्षि पुरूरवा लोकमें अजेय हो गये, ययातिने पुत्र-लाभ किया और भृगुनन्दनको धन-सम्पत्तिकी प्राप्ति हुई। इसी प्रकार अन्यान्य बहुत-से देवता, दैत्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंने भी ( इन नामोंके जपसे) मनोवाञ्छित सिद्धियाँ प्राप्त कीं। जहाँ यह नामावली लिखकर रखी रहती है अथवा किसी | देवताके संनिकट रखकर इसकी पूजा होती है, वहाँ कभी शोक और दुर्गतिका प्रवेश नहीं होता ॥ 54–64 ॥