सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! स्वर्गमं विभ्राज नामक | अन्य तेजस्वी लोक भी हैं जहाँ परम श्रेष्ठ उत्तम व्रतपरायण बर्हिषद् नामक पितर निवास करते हैं जहाँ मयूरोंसे युक्त हजारों विमान विद्यमान रहते हैं। जहाँ संकल्पके लिये प्रयुक्त हुए वर्हि (कुश) फल देनेके लिये उन्मुख होकर उपस्थित रहते हैं एवं जहाँकी अभ्युदयशालाओं में पितरोंको श्राद्ध प्रदान करनेवाले लोग आनन्द मनाते रहते हैं। देवताओं और असुरोंके गए, गन्धवों और अप्सराओंके समूह तथा यक्षों और राक्षसोंके समुदाय स्वर्गमें उन | पितरोंके निमित्त यज्ञका विधान करते रहते हैं। महर्षि पुलस्त्यके सैकड़ों पुत्र जो तपस्या और योगसे परिपूर्ण, महान् आत्मबलसे सम्पन्न, महान् भाग्यशाली एवं अपने भक्तोंको अभय प्रदान करनेवाले हैं यहाँ निवास करते हैं। इन पितरोंकी एक मानसी कन्या थी, जो पीवरी नामसे विख्यात थी। उस योगिनी एवं योगमा पीवरीने अत्यन्त कठोर तप किया। उसकी तपस्यासे भगवान् विष्णु प्रसन्न हो गये (और उसके समक्ष प्रकट हुए) । तब पीवरीने श्रीहरिसे यह वरदान माँगा— 'देव ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे योगाभ्यासी, अत्यन्त सौन्दर्यशाली जितेन्द्रिय वक्ताओं श्रेष्ठ एवं पालन-पोषण करनेवाला पति प्रदान कीजिये।' यह मुरकर भगवान् विष्णुने कहा- 'सुव्रते जब महर्षि व्यासके पुत्र शुक जन्म धारण करेंगे, उस समय तुम उन योगाचार्यकी पत्नी होओगी। उनके संयोगसे तुम्हें एक योगाभ्यासपरायण कृत्वो नामकी कन्या उत्पन्न होगी। तब तुम उसे मानव-योनिमें उप-नरेश नीप मतान्तरसे अणुह) को समर्पित कर देना तुम्हारी वह योगसिद्धा कन्या (कुत्वी) ब्रह्मदत्तकी माता होकर 'गौ' नामसे भी प्रसिद्ध होगी। तदनन्तर | कृष्ण, गौर, प्रभु और शम्भु नामक तुम्हारे चार पुत्र होंगे,जो महान् आत्मबलसे सम्पन्न एवं महान् भाग्यशाली होंगे और अन्तमें परमपदको प्राप्त करेंगे। उन पुत्रोंको पैदा करनेके पश्चात् तुम पुनः अपने योगबलसे वर प्राप्त करोगी और अन्तमें मोक्ष प्राप्त कर लोगी।" महर्षि वसिष्ठके पुत्ररूप (सुकाली नामक) पितर, जो सब-के-सब मानस नामसे विख्यात हैं, अत्यन्त सुन्दर स्वरूपवाले तथा धर्मकी मूर्ति हैं। वे सभी स्वर्गलोकसे परे ज्योतिर्भासी लोकोंमें निवास करते हैं। जहाँ श्राद्धकर्ता शूद्र भी सम्पूर्ण कामनाओंकी पूर्ति करनेवाले विमानों में विराजमान होकर क्रीड़ा करते रहते हैं, वहाँ क्रियानिष्ठ एवं भक्तिमान् श्राद्धदाता ब्राह्मणोंकी तो बात ही क्या है। इन पितरोंकी 'गौ' नामकी मानसी कन्या स्वर्गलोकमें विराजमान है, जो शुक्रकी प्रिय पत्नी और साध्योंको कीर्तिका विस्तार करनेवाली है। ll 1- 15ll
इसी प्रकार सूर्यमण्डलमें मरीचिगर्भ नामसे प्रसिद्ध अन्य लोक भी हैं, जहाँ अङ्गिराके पुत्र हविष्मान् नामक पितरके रूपमें निवास करते हैं। ये राजाओं (क्षत्रियों) के पितर हैं, जो स्वर्ग एवं मोक्षरूप फलके प्रदाता हैं। जो श्रेष्ठ क्षत्रिय तीथोंमें श्राद्ध प्रदान करते हैं, वे इन लोकोंमें जाते हैं। इन पितरोंकी एक यशोदा नामकी लोक-प्रसिद्ध मानसी कन्या थी, जो पञ्चजनकी श्रेष्ठ पुत्रवधू, अंशुमान्की पत्नी, (महाराज) दिलीपकी माता और भगीरथकी पितामही थी। अभीष्ट कामनाओं एवं भोगोंका फल प्रदान करनेवाले कामदुघ नामक अन्य पितृलोक भी हैं, जहाँ उत्तम व्रतपरायण |सुस्वधा नामवाले पितर निवास करते हैं। वे ही पितर प्रजापति कर्दमके लोकोंमें आयप नामसे प्रख्यात है। महर्षि पुलहके अङ्गसे उत्पन्न हुए वैश्यगण उनकी भावना (पूजा) करते हैं। श्राद्धकर्ता सभी वैश्वगण इन लोकोंमें पहुँचकर दस हजार जन्मान्तरोंमें देखे और अनुभव किये हुए भी अपने हजारों माता, भाई, पिता, बहन, मित्र, सम्बन्धी और बान्धवको एक साथ देखते हैं। इन पितरोंकी मानसी कन्या विरजा नामसे विख्यात थी, जो राजा नहुषकी पत्नी और ययातिकी माता थी।बाद में वह पतिपरायणा विरजा ब्रह्मलोकको चली गयी और वहाँ एकाष्टका नामसे प्रसिद्ध हुई। इस प्रकार मैंने तीन पितृगणों का वर्णन कर दिया। अब इसके बाद चौथे गणका वर्णन कर रहा हूँ। ब्रह्माण्डके ऊपर मानस नामक लोक विद्यमान हैं, उनमें अविनाशी 'सोमप' नामक पितर निवास करते हैं (ये ब्राह्मणोंके पितर हैं)। उनकी मानसी कन्या नर्मदा नामसे प्रसिद्ध है। वे सभी पितर धर्मकी-सी मूर्ति धारण करनेवाले तथा ब्रह्मासे भी परे बतलाये गये हैं। स्वधासे उनकी उत्पत्ति हुई है। वे सभी योगाभ्यासी पितर ब्रह्मत्वको प्राप्त करके सृष्टि आदि समस्त कार्योंसे निवृत्त हो इस समय मानस लोकमें विद्यमान हैं। उनकी वह नर्मदा नाम्म्री कन्या (भारतके) दक्षिणापथमें आकर जल प्रवाहित करनेवाली नदी हुई है, जो समस्त प्राणियोंको पवित्र कर रही है। इन्हीं पितरोंकी परम्परासे मनुगण (अपने-अपने कार्यकालमें) सृष्टिके प्रारम्भमें प्रजाओंका निर्माण करते हैं। इस रहस्यको जानकर लोग धर्मका अभाव हो जानेपर भी सर्वदा श्राद्ध करते रहते हैं। इन्हीं पितरोंकी कृपासे पुनः इन्हींके द्वारा योग- परम्पराको प्राप्त करनेके लिये सृष्टिके प्रारम्भमें पितरोंके लिये श्राद्धका ही निर्माण किया गया था । ll 16- 30 ॥
इन सभी पितरोंके निमित्त चाँदीका अथवा चाँदीमिश्रित अन्य धातुका भी पात्र आदि स्वधाका उच्चारण करके (ब्राह्मणको) दान कर दिया जाय तो वह सर्वदा पितरोंको प्रसन्न करता है। विद्वान् (श्राद्धकर्ता) को चाहिये कि (श्राद्धकालमें प्रथमतः) अग्नि, सोम और यमका तर्पण करके उन्हें इस करे (और पितरोंके उद्देश्यसे दिया गया अन्न आदि अग्रिमें छोड़ दे। अग्रिके अभाव में ब्राह्मणके हाथपर, जलमें, अजाकर्णपर, अश्वकर्णपर, गोशालामें अथवा जलके निकट डाल दे। पितरोंका स्थान आकाश बतलाया जाता है। उनके लिये दक्षिण दिशा विशेषरूपसे प्रशस्त मानी गयी है। प्राचीनावीत (अपसव्य) होकर दिया गया जल, तिल, सव्याङ्ग (शरीरका दाहिना भाग), डाभ, फलका गूदा, गोदुग्ध मधुर रस, खडू, लोह, मधु, कुश, सा अगहनीका चावल, यव, तिन्नीका चावल, मूँग, गन्ना, श्वेत पुष्प और घृत—ये पदार्थ पितरोंके लिये सर्वदा प्रिय और प्रशस्त कहे गये हैं। अब जो श्राद्धकार्यमें वर्जित तथा | पितरोंके लिये अप्रिय हैं, उन पदार्थोंका वर्णन कर रहा हूँमसूर, शण (पेटुआका बीज), सेम, काला उड़द, कुसुमका पुष्प, कमल, बेल या बिल्वपत्र, मदार, धतूरा, पारिभद्र (नीम, देवदारुका पुष्प या पत्ता), अडूसेका फूल तथा भेंड़ और बकरीका दूध । इन्हें पितृ कार्योंमें नहीं देना चाहिये। पितरोंसे कल्याणप्राप्तिकी इच्छावाले पुरुषको श्राद्धकार्यमें कोदो, उदार (गुलूके वृक्षका पुष्प अथवा पत्ता), चना, कैथ, महुआ और अलसी (तीसी) - इन | पदार्थोंका भी उपयोग नहीं करना चाहिये। जो भक्तिपूर्वक (श्राद्धादिद्वारा) पितरोंको प्रसन्न करता है, उसे पितर भी बदलेमें हर्षित कर देते हैं। वे पितृगण प्रसन्न होकर समृद्धि, स्वर्ग, आरोग्य और संतानरूपी फल प्रदान करते हैं। | इसीलिये देवकार्यसे भी बढ़कर पितृकार्यकी विशेषता मानी जाती है तथा देवताओंसे पूर्व ही पितरोंके तर्पणकी विधि बतलायी गयी है। ये पितर शीघ्र ही कृपा करनेवाले, क्रोधरहित, शस्त्रविहीन, दृढ़ मैत्रीयुक्त, शान्तात्मा पवित्रतापरायण, सदा प्रियवादी, भक्तोंके प्रति अनुरक्त और सुखदायक (गृहस्थोंके) प्रथम देवता हैं। हविष्यान्नका भक्षण करनेवाले इन पितरोंके अधिनायक-पदपर श्राद्धके | देवतारूपमें सूर्य अधिष्ठित माने गये हैं। इस प्रकार यह पितृ-वंशका वर्णन मैंने तुम लोगोंको पूर्णरूपसे बतला दिया। यह पुण्य प्रदाता, परम पवित्र और आयुकी वृद्धि करनेवाला है, मनुष्योंको सदा इसका पठन-पाठन करना चाहिये ।। 31-43 ।।