सूतजी कहते हैं-ऋषियो! अब मैं आपलोगोंको पीठिकाओंके लक्षणोंको आनुपूर्वी यथार्थरूपसे बतला रहा हैं। पीठिकाकी ऊँचाईको सोलह भागों में विभक्त करे। उनमें बीचका एक भाग पृथ्वीमें प्रविष्ट रहेगा। ऊपरके शेष चार भाग 'जगती' माने जाते हैं। उनसे ऊपरका एक भाग पटल भागसे घिरा हुआ 'वृत्त' कहलाता है।उसके ऊपर तीन भागोंसे कण्ठ, एक भागसे कण्ठपट्ट, | दो भागोंसे ऊर्ध्वपट्ट तथा शेष भागोंसे पट्टिका बनायी जाती है। एक-एक भाग जगतीपर्यन्त एक-दूसरे में प्रविष्ट रहते हैं। फिर शेषपट्टिका पर्यन्त सवका निर्गम होता है। पद्रिकामें जल निकलनेके लिये (सोमसूत्रसे मिली) नाली बनानी चाहिये। यह सभी पीठिकाओंका सामान्य लक्षण है। ऋषिगण! अब देवताओंके भेदसे पीठिकाओंके विशेष लक्षण सुनिये स्थण्डिला, वापी, यक्षी, वेदी, मण्डला, पूर्णचन्द्रा, वज्रा, पद्मा, अर्धशशी तथा दसवीं त्रिकोणा—ये पीठिकाओंके भेद हैं। अब इनकी स्थिति सुनिये स्थण्डिला पीठिका चौकोर होती है, इसमें | मेखला आदि कुछ नहीं होती। वापीको दो मेखलाओंसे तथा यक्षीको तीन मेखलाओंसे युक्त जानना चाहिये। चार पहलवाली आयताकार पीठिका वेदी कही जाती है, उसे लिङ्गको स्थापनामें प्रयुक्त नहीं करना चाहिये। मण्डला मेखलाओंसे युक्त गोलाकार होती है, वह प्रमथगणोंको प्रिय होती है। जो पीठिका लाल वर्णवाली तथा मध्यमें दो मेखलाओंसे युक्त होती है, उसे पूर्णचन्द्रा कहते हैं तीन मेखलाओंसे युक्त छ कोनेवाली पीठिकाको वडा कहते हैं ll 1-104 ll
मूल भागमें कुछ छोटी (पद्मपत्र सी) सोलह पहलोंवाली पीठिका पद्मा कही जाती है। उसी प्रकार धनुषके आकारवाली पीठिकाको अर्धचन्द्रा कहते हैं। ऊपरसे त्रिशूलके समान दिखायी पड़नेवाली पूर्व तथा उत्तरकी ओर कुछ ढालू एवं श्रेष्ठ लक्षणोंसे युक्त पीठिकाको त्रिकोणा कहते हैं। पीठिकाके तीन भाग परिधिके बाहर रहें और मूल, अग्रभाग तथा ऊपर इन तीनों भागोंके विस्तार अधिक हों। त्रिभागमें जल निकलनेकी सुन्दर नाली (सोमसूत्र) होनी चाहिये। पीठिका लिङ्गके आधे भागकी मोटाईके परिमाणसे बनानी चाहिये। लिङ्गके तीन भागके बराबर मेखलाका खात बनाना चाहिये। अथवा वह चौथाई भागसे कम रहे. किंतु सर्वदा सुन्दर बनाना चाहिये। उत्तरकी और स्थित नाली प्रमाणसे कुछ अधिक ही बनानी चाहिये स्थण्डिला पीठिकाके स्थापित करनेसे आरोग्य तथा विपुल धन धान्यादिकी प्राप्ति होती है। यक्षी गौ देनेवाली तथा वेदी सम्पत्तिदायिनी कही गयी है। मण्डलामें कीर्ति प्राप्त होतो. है और पूर्णचन्द्रिका वरदान देनेवाली कही गयी है।वज्रा दीर्घायु प्रदान करनेवाली तथा पद्मा सौभाग्यदायिनी कही गयी है। अर्धचन्द्रा पुत्र प्रदान करनेवाली तथा त्रिकोणा शत्रुनाशिनी होती है। इस प्रकार देवताकी पूजाके लिये ये दस पीठिकाएँ कही गयी हैं। पत्थरकी प्रतिमामें | पत्थरकी तथा मिट्टीकी मूर्तिमें मिट्टीकी पीठिका देनी चाहिये। इसी प्रकार काष्ठकी मूर्तिमें काष्ठकी तथा मिश्रित | धातुओंकी प्रतिमामें धातुमिश्रितकी पीठिका रखनी चाहिये। शुभ फलकी कामना करनेवालोंको दूसरे प्रकारकी पीठिका कभी नहीं देनी चाहिये। पीठिकाकी लम्बाई मूर्तिमें तथा लिङ्गमें बराबर नहीं रखी जाती। जिस देवताकी जो पत्नी हो, उसे उसी पीठपर स्थापित करना चाहिये। इस प्रकार यह मैंने आपलोगोंको संक्षेपमें पीठिकाका लक्षण बतलाया है ॥ 11-21 ॥