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मत्स्य पुराण (मत्स्यपुराण)

Matsya Purana (Matsyapurana )

अध्याय 50 - Adhyaya 50

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पुरुवंशी नरेशोंका विस्तृत इतिहास

सूतजी कहते हैं-ऋषियो । अजमीढकी नीलिनी नामकी पत्नीके गर्भसे राजा नीलका जन्म हुआ। नीलकी उग्र तपस्याके परिणामस्वरूप सुशान्तिकी उत्पत्ति हुई। सुशान्तिसे पुरुजानुका और पुरुजानुसे पृथुका जन्म हुआ। पृथुका पुत्र भद्राश्च हुआ। अब भद्राश्वके पुत्रोंके विषयमें सुनिये- मुगल, जय, राजा बृहदिषु पराक्रमी जवीनर और पाँचवाँ कपिल-ये पाँचों भुद्राश्वके पुत्र थे। इन पाँचोंके द्वारा शासित जनपद पञ्चाल नामसे प्रसिद्ध हुए। ये सभी पञ्चाल देशोंके रक्षक थे— ऐसा हमलोगोंने सुना है। मुद्रलके पुत्रगण, जो क्षत्रियांशसे युक्त द्विजाति थे, मौद्गल्य नामसे प्रसिद्ध हुए। ये कण्व और मुद्रलके गोत्र में उत्पन्न होनेवाले द्विजाति अङ्गिराके पक्षमें सम्मिलित हो गये। महायशस्वी ब्रह्मिष्ठने मुद्रलके पुत्ररूपमें जन्म लिया। उसका पुत्र इन्द्रसेन और उसका पुत्र विन्ध्याश्व हुआ। विन्ध्याश्वके संयोगसे मेनकाके गर्भसे जुड़वीं संतान उत्पन्न हुई थी—ऐसा सुना जाता है। उनमें एक तो राजर्षि दिवोदास थे और दूसरी यशस्विनी अहल्या थी। अहल्याने शरद्वान् गौतमके पुत्र ऋषिश्रेष्ठ शतानन्दको उत्पन्न किया था। शतानन्दका पुत्र महातपस्वी एवं धनुर्वेदका पारंगत विद्वान् सत्यधृति हुआ। धर्मात्मा सत्यधृतिका वीर्य अमोघ था। एक बार एक अप्सराको देखकर सत्यधृतिका वीर्य (सरोवरमें स्नान करते समय) जलमें स्खलित हो गया। उस वीर्यसे उस सरोवरमें जुड़वीं संतान उत्पन्न हो गयी। वे उसी सरोवरमें पल रहे थे। एक बार महाराज शंतनु शिकारके लिये निकले हुए थे। वे उस सरोवरमें घूमते हुए उन बच्चोंको देखकर कृपा-परवश हो उन्हें उठा लाये इस प्रकार मैंने शरद्वान्के उन पुत्रोंका जो गौतम (गोत्र) नामसे विख्यात हैं, वर्णन कर दिया। अब इसके आगे दिवोदासकी संततिका वर्णन कर रहा हूँ, उसे सुनिये ॥ 1-12 ॥दिवोदासका ज्येष्ठ पुत्र धर्मिष्ठ राजा मित्रयु हुआ। तत्पश्चात् उससे छोटे मैत्रायण और उसके बाद मैत्रेयकी उत्पत्ति हुई। ये सभी पुत्र ( ययातिके भाई) यतिकै पक्षके थे और क्षत्रियांशसे युक्त भार्गव (भृगुवंशी) कहलाते थे। राजा चैद्यवर मैत्रेयके पुत्र कहे जाते हैं। चैद्यवरसे विद्वान् सुदासका जन्म हुआ। वंशके नष्ट हो जानेपर पुनः अजमीढ सुदासके पुत्र रूपमें उत्पन्न हुए। इन्होंका दूसरा नाम सोमक भी है। सोमकका पुत्र जन्तु हुआ। उसके मारे जानेपर महात्मा अजमीढ सोमकके सौ पुत्र हुए। अजमीढकी धूमिनी नामक पक्षी थी, जो पुत्रको वृद्धि करनेवाली थी। जन्तुके मारे जानेसे पुत्रका अभाव हो जानेपर वह सौ वर्षोंतक दुष्कर तपस्यामें संलग्न हो गयी। एक समय भलीभाँति पवित्र किये हुए पदार्थोंको ही भोजन करनेवाली महान् व्रतपरायणा धूमिनी अग्निहोत्रके क्रमसे विधिपूर्वक अग्निमें हवन करके नींदके वशीभूत हो गयी। निरन्तर अग्निहोत्र करनेके कारण उसके शरीरका रंग धूमिल पड़ गया था। उसी समय अजमीढने उसमें गर्भाधान किया। उस गर्भसे धूमिनीने ऋक्ष नामक पुत्रको जन्म दिया, जो अपने सौ भाइयोंमें ज्येष्ठ था तथा जिसके शरीरका रंग धूम वर्णका था। ऋक्षसे संवरणकी और संवरणसे कुरुको उत्पत्ति हुई, जिन्होंने प्रयागका अतिक्रमण कर कुरुक्षेत्रकी तीर्थरूपमें कल्पना की थी। महाराज कुरु अनेकों वर्षोंतक इस कुरुक्षेत्रको अपने हाथों जोतते रहे। उन्हें इस प्रकार जोतते देखकर इन्द्रने भयभीत हो उन्हें वर प्रदान किया। इसी कारण कुरुक्षेत्र पुण्यप्रद और रमणीय क्षेत्र कहा जाता है। उन महाराज कुरुका वंश अत्यन्त विशाल था, जो उन्होंके नामसे (आगे चलकर) कौरव कहलाया 13–22 ॥ कुरुके सुधन्वा, जडु, महातेजस्वी परीक्षित् और शत्रुविनाशक प्रजन—ये चार परम प्रिय पुत्र हुए। सुधन्वाका पुत्र राजा च्यवन हुआ, जो बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ एवं धर्म और अर्थके | तत्त्वका ज्ञाता था। च्यवनका पुत्र कृमि हुआ, जो ऋक्षसे उत्पन्न हुआ था (इन्हीं ) कृमिके पुत्र महापराक्रमी चैद्योपरिचर वसु हुए। वे प्रभावशाली, शूरवीर, इन्द्रके समान विख्यात और (सदा विमानद्वारा) आकाशमें गमन करनेवाले थे। | चैद्योपरिचरके संयोगसे गिरिकाने सात संतानोंको जन्म दिया।| इनमें पहला महारथी मगधराज था, जो बृहद्रथ नामसे विख्यात हुआ। उसके बाद दूसरा प्रत्यश्रवा, तीसरा कुश, चौथा हरिवाहन पांचवीं यजुष और छठा मत्स्य नामसे प्रसिद्ध हुआ। सातवीं संतान काली नामकी कन्या थी। बृहद्रथका पुत्र कुशाग्र नामसे विख्यात हुआ। कुशाग्रका पुत्र पराक्रमी वृषभ हुआ। वृषभका पुत्र राजा पुण्यवान् था। पुण्यवान्से पुण्य और उससे राजा सत्यभूतिका जन्म हुआ। उसका पुत्र धनुष हुआ और उससे सर्वकी उत्पत्ति हुई। सर्वका पुत्र सम्भव हुआ और उससे राजा बृहद्रथका जन्म हुआ। बृहद्रथका पुत्र दो टुकड़ेके रूपमें उत्पन्न हुआ, जिन्हें जरानामकी राक्षसीने जोड़ दिया था। जराद्वारा जोड़ दिये जानेके कारण वह जरासंघ नामसे विख्यात हुआ। महाबली जरासंध अपने समयके समस्त क्षत्रियोंका विजेता था जरासंधका पुत्र प्रतापी सहदेव हुआ। सहदेवका पुत्र लक्ष्मीवान् एवं महातपस्वी सोमवित् हुआ सोमवित् श्रुतश्रवाकी उत्पत्ति हुई। (मगधपर शासन करनेके कारण) ये सभी नरेश मागध नामसे विख्यात |हुए ॥ 23- 33 ll

जहुने सुर नामक भूपालको पुत्ररूपमें जन्म दिया। सुरथका पुत्र वीरवर राजा विदूरथ हुआ। विदूरथका पुत्र सार्वभौम कहा गया है। सार्वभौमसे जयत्सेन उत्पन्न हुआ और उसका पुत्र रुचिर हुआ रुचिरसे भीमका और उससे त्वरितायुका जन्म हुआ त्वरितायुका पुत्र अक्रोधन और उससे देवातिथिकी उत्पत्ति बतलायी जाती है। देवातिथिका एकमात्र पुत्र दक्ष ही था । दक्षसे भीमसेनका जन्म हुआ और उसका पुत्र (पुरुवंशी) दिलीप तथा दिलीपका पुत्र प्रतीप हुआ। प्रतीपके तीन पुत्र कहे जाते हैं, ये तीनों देवापि, शंतनु और बाहीक हैं। बाह्रीकके सात पुत्र थे, जो सभी राजा थे और बाहीक बल्ख) देशके अधीश्वर थे। देवापिको प्रजाओंने दोषी ठहरा दिया था; इसलिये वह राजपाट छोड़कर मुनि | हो गया ।। 34-39 ॥

ऋषियोंने पूछा- सूतजी ! प्रजाओंने राजा देवापिको किस कारण दोषी ठहराया था ? तथा प्रजाओंने उस राजकुमारका कौन-सा दोष प्रकट किया था ? ॥ 40 ॥ सूतजी कहते हैं - ऋषियो ! राजकुमार देवापि कुष्ठ रोगी था इसीलिये प्रजाओंने उसका आदर-सत्कार नहीं किया। अब मैं शंतनुके भविष्यका वर्णन कर रहा हूँ, उसे सुनिये।(देवापिके वन चले जानेपर) शंतनु राजा हुए। ये विद्वान् तो थे ही, साथ ही महान् वैद्य भी थे। इनकी महावैद्यताके प्रति लोग एक श्लोक कहा करते हैं. जिसका आशय यह है कि 'महाराज शंतनु जिस-जिस रोगी अथवा वृद्धको अपने हाथोंसे स्पर्श कर लेते थे, वह पुनः नौजवान हो जाता था। इसी कारण लोग उन्हें शंतनु कहते थे। उस समय प्रजागण उनके इस शंतनुत्व (रोगी और वृद्धको युवा बना देनेवाले) गुणका ही वर्णन करते थे। तदनन्तर प्रभावशाली राजा शंतनुने जहु-नन्दिनी गङ्गाको अपनी पत्नीके रूपमें वरण किया और उनके गर्भसे देवव्रत (भीष्म) नामक कुमारको पैदा किया। दाश कन्या काली सत्यवतीने शंतनुके संयोगसे विचित्रवीर्य नामक पुत्रको जन्म दिया, जो पिताके लिये परम प्रिय, शान्तात्मा और निष्पाप था। महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यासने विचित्रवीर्यके क्षेत्रमें धृतराष्ट्र और पाण्डुको तथा (दासीसे) विदुरको उत्पन्न किया था। धृतराष्ट्रने गान्धारीके गर्भसे सौ पुत्रोंको उत्पन्न किया, उनमें दुर्योधन सबसे श्रेष्ठ था और वह सम्पूर्ण क्षत्रिय वंशका स्वामी था। इसी प्रकार पाण्डुको कुन्ती और माद्री नामकी दो पत्रियाँ हुईं। इन्हीं दोनोंके गर्भसे महाराज पाण्डुकी वंश-वृद्धिके लिये देवताओंद्वारा प्रदान किये गये पाँच पुत्र उत्पन्न हुए। कुन्तीने धर्मके संयोगसे युधिष्ठिरको, वायुके संयोगसे वृकोदर (भीमसेन) को और इन्द्रके संयोगसे इन्द्रसरीखे पराक्रमी धनञ्जय (अर्जुन) को जन्म दिया। इसी प्रकार माद्रीने अश्विनीकुमारोंके संयोगसे नकुल और सहदेवको पैदा किया ll 41-50 ll

इन पाँचों पाण्डवोंके संयोगसे द्रौपदीके गर्भसे पाँच पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें द्रौपदीने युधिष्ठिरके संयोगसे ज्येष्ठ पुत्र प्रतिविन्ध्यको, भीमसेनके संयोगसे श्रुतसेनको और अर्जुनके संयोगसे श्रुतकीर्तिको जन्म दिया था। चौथा पुत्र श्रुतकर्मा सहदेवसे और शतानीक नकुलसे उत्पन्न किया था ये पाँचों द्रौपदेय अर्थात् द्रौपदीके पुत्र कहलाये । इनके अतिरिक्त पाण्डवोंके छः अन्य महारथी पुत्र भी थे। (उनका विवरण इस प्रकार है) भीमसेनके संयोगसे हिडिम्बा नामकी राक्षसीके गर्भसे घटोत्कच नामक पुत्रका जन्म हुआ था। उनकी दूसरी पत्नी काशीने बलवान् भीमसेनके संयोगसे सर्वंग नामक पुत्रको जन्म दिया था। | मद्रराज-कुमारी सहदेव पत्नीने सहदेवके संयोगसे सुहोत्र नामक पुत्रको पैदा किया था। नकुल-पुत्र निरमित्र | चेदिराज कुमारी करेणुमतीके गर्भ से उत्पन्न हुआ था।पृथा पुत्र अर्जुनके संयोगसे सुभद्रा के गर्भ से महारथी अभिमन्यु पैदा हुआ था। दुधिष्ठिर पत्नी देवकीने युधिष्ठिरके संयोगसे यौधेय नामक पुत्रको जन्म दिया था। अभिमन्युके पुत्र शत्रुओंकी नगरीको जीतनेवाले परीक्षित हुए। परीक्षित्के पुत्र परम धर्मात्मा जनमेजय (तृतीय) हुए ॥ 51-57॥ जनमेजयने अपने यज्ञमें वाजसनेय (शुक्लयजुर्वेदके आचार्य) ऋषिको ब्रह्माके पदपर नियुक्त किया। यह देखकर वैशम्पायन (कृष्णयजुर्वेदके आचार्य) ने उन्हें शाप देते हुए कहा- 'दुर्बुद्धे ! तुम्हारा यह (नवीन) वचन अर्थात् (संहिता ग्रन्थ) भूतलपर स्थायी नहीं हो सकेगा। जबतक तुम लोकमें जीवित रहोगे, तभीतक यह भी ठहर सकेगा।' तभीसे क्षत्रियजातिकी विजय जानकर बहुत से लोग चारों ओरसे (शुक्लयजुर्वेदके प्रवर्धक ) राजा जनमेजयके पास आकर रहने लगे। परंतु महात्मा वैशम्पायनके शापके कारण उस यज्ञमें बहुत-से यज्ञानुष्ठान करनेवाले क्षत्रिय तथा कुछ याजक भी नष्ट हो गये। तब उस यज्ञमें जब जनमेजय पौर्णमास हविद्वारा ब्रह्माका यजन कर यज्ञशालामें प्रवेश करनेके लिये प्रयत्नशील हुए, उसी समय महर्षि वैशम्पायनने उन्हें भीतर जानेसे रोक दिया। तदनन्तर परीक्षितपुत्र पूरुवंशी जनमेजयने दो अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान किया। उनमें उन्होंने अपने द्वारा प्रवर्तित महावाजसनेय (क्याप) विधिका ही प्रयोग किया। वह सारा कार्य वाजसनेय ऋषिकी अध्यक्षतामें ही सम्पन्न हो रहा था। उसी समय ब्राह्मणोंके साथ विवाद हो जानेपर ब्राह्मणोंने उन्हें शाप दे दिया, जिससे वे वनमें चले गये। उन जनमेजयसे पराक्रमी शतानीकका जन्म हुआ। जनमेजयने (वन-गमन करते समय) अपने पुत्र शतानीकको राज्यपर अभिषिक्त कर दिया था। शतानीकद्वारा अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान किये जानेपर उसके फलस्वरूप शतानीकके एक महायशस्वी एवं पराक्रमी अधिसीमकृष्ण नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो इस (पुराणप्रवचनके) समय सिंहासनासीन है। द्विजवरो उसीके राज्यशासन करते समय आपलोगोंने अभी अभी पुष्करक्षेत्रमें तीन वर्षोंतक तथा कुरुक्षेत्र में दृष्टुतीके तटपर दो वर्षोंतक इस दुर्लभ दीर्घ सत्रका अनुष्ठान सम्पन्न किया है ll 58- 67 ॥ ऋषियोंने पूछा- लोमहर्षणके पुत्र सूतजी पूर्वकालमें जो बातें बीत चुकी हैं, उनका वर्णन तो आपने कर दिया। अब हमलोग
प्रजाओंके भविष्य के विषयमें सुनना चाहते हैं।यह क्षत्रिय जाति जिन-जिन वंशोंमें स्थित रहेगी और उनमें जो-जो नरेश उत्पन्न होंगे, उनके क्या नाम होंगे तथा उनकी आयुका प्रमाण कितना होगा? कृतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग—इन चारों युगों की कितनी कितनी अवधि | होगी ? प्रत्येक युगमें क्या-क्या दोष होंगे ? तथा उन युगों का विनाश कैसे होगा? सुख और दुःखका प्रमाण क्या होगा? तथा प्रत्येक युगकी प्रजाओंमें क्या-क्या दोष उत्पन्न होंगे? प्रभो! यह सब क्रमशः हमें बतलाइये; क्योंकि हमलोग इसे जानना चाहते हैं ॥ 68-71 ।।

सूतजी कहते हैं-ऋषियो पूर्वकालमें अक्लिष्टकर्म व्यासजीने मुझसे भावी कलियुग तथा आनेवाले सभी मन्वन्तरोंके विषयमें जैसा वर्णन किया था, वही मैं आपलोगोंको बतला रहा हूँ: सुनिये। इसके बाद अब मैं उन्हीं राजाओंका वर्णन करने जा रहा हूँ, जो भविष्य में ऐड (ऐल) और इक्ष्वाकु वंश तथा पौरववंश उत्पन्न होनेवाले हैं। जिन राजाओंमें ये मङ्गलमय ऐड और इक्ष्वाकुवंश स्थित रहेंगे, भविष्यमें होनेवाले उन सभी तथाकथित नरेशोंका मैं वर्णन करूंगा। इनके अतिरिक्त भी जो अन्य नृपतिगण क्षत्रिय, पारशव, शूद्र, बहिश्वर, अंध, शक, पुलिन्द, चूलिक, यवन, कैवर्त, आभीर और शबर जातियोंमें उत्पन्न होंगे तथा दूसरे जो म्लेच्छ-जातियोंमें पैदा होंगे, उन सभी नरेशोंका पर्याय क्रमसे नामनिर्देशानुसार वर्णन कर रहा हूँ। इन सबमें सर्वप्रथम राजा अधिसोमकृष्ण हैं, जो सम्प्रति वर्तमान है। इनके वंशमें भविष्य में उत्पन्न होनेवाले राजाओंका वर्णन कर रहा हूँ । अधिसीमकृष्णका पुत्र राजा विवक्षु होगा। गङ्गद्वारा हस्तिनापुर नगरके दुबो (वहा) दिये जानेपर विवक्षु उस नगरका परित्याग कर कौशाम्बी नगरीमें निवास | करेगा। उसके महान् बलपराक्रमसे सम्पन्न आठ पुत्र होंगे। उसका ज्येष्ठ पुत्र भूरि होगा और उसका पुत्र चित्ररथ नामसे विख्यात होगा। चित्ररथसे शुचिद्रव, शुचिद्रवसे वृष्णिमान् और वृष्णिमान्छे परम पवित्र राजा सुषेण उत्पन्न होगा। उस सुषेणसे सुनीथ नामका राजा होगा। राजा सुनीथसे महायशस्वी नृचक्षुकी उत्पत्ति होगी। पुत्र सुखी होगा। सुखीला पुत्र भावी राजा परिष्णव और परिष्णवका पुत्र राजा सुतपा होगा। उसका | पुत्र निस्संदेह मेधावी होगा। मेधावीका पुत्र पुरञ्जय होगा।उसका भावी पुत्र उर्व और उसका पुत्र तिग्मात्मा होगा। तिग्मात्मासे बृहद्रथ और बृहद्रथसे वसुदामाका जन्म होगा। वसुदामासे शतानीक और उससे उदयनकी उत्पत्ति होगी। उदयनसे वीरवर राजा वहीनर उत्पन्न होगा। वहीनरका पुत्र दण्डपाणि होगा। दण्डपाणिसे निरमित्र और निरमित्रसे क्षेमकका जन्म होगा। इस वंशपरम्पराके विषयमें प्राचीनकालिक विप्रोंद्वारा एक श्लोक गाया गया है, जिसका आशय यह है कि 'ब्राह्मण और क्षत्रियोंकी योनिस्वरूप यह वंश, जो देवर्षियोंद्वारा सत्कृत है, कलियुगमें राजा क्षेमकको प्राप्त कर समाप्त हो जायगा।' इस प्रकार पुरु- वंशका तथा |पाण्डुपुत्र परम बुद्धिमान् महात्मा अर्जुनके वंशका वर्णन मैंने यथार्थरूपसे कर दिया । ll72 - 89 ॥

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मत्स्य पुराण
Index


  1. [अध्याय 1]मङ्गलाचरण, शौनक आदि मुनियोंका सूतजीसे पुराणविषयक प्रश्न, सूतद्वारा मत्स्यपुराणका वर्णनारम्भ, भगवान् विष्णुका मत्स्यरूपसे सूर्यनन्दन मनुको मोहित करना, तत्पश्चात् उन्हें आगामी प्रलयकालकी सूचना देना
  2. [अध्याय 2]मनुका मत्स्यभगवान्से युगान्तविषयक प्रश्न, मत्स्यका प्रलयके स्वरूपका वर्णन करके अन्तर्धान हो जाना, प्रलयकाल उपस्थित होनेपर मनुका जीवोंको नौकापर चढ़ाकर उसे महामत्स्यके सींगमें शेषनागकी रस्सीसे बाँधना एवं उनसे सृष्टि आदिके विषयमें विविध प्रश्न करना और मत्स्यभगवान्‌का उत्तर देना
  3. [अध्याय 3]मनुका मत्स्यभगवान् से ब्रह्माके चतुर्मुख होने तथा लोकोंकी सृष्टि करनेके विषयमें प्रश्न एवं मत्स्य भगवानद्वारा उत्तररूपमें ब्रह्मासे वेद, सरस्वती, पाँचवें मुख और मनु आदिकी उत्पत्तिका कथन
  4. [अध्याय 4]पुत्रीकी और बार-बार अवलोकन करनेसे ब्रह्मा दोषी क्यों नहीं हुए- एतद्विषयक मनुका प्रश्न, मत्स्यभगवान्का उत्तर तथा इसी प्रसङ्गमें आदिसृष्टिका वर्णन
  5. [अध्याय 5]दक्षकन्याओं की उत्पत्ति, कुमार कार्त्तिकेयका जन्म तथा दक्षकन्याओं द्वारा देवयोनियोंका प्रादुर्भाव
  6. [अध्याय 6]कश्यप-वंशका विस्तृत वर्णन
  7. [अध्याय 7]मरुतोंकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें दितिकी तपस्या, मदनद्वादशी व्रतका वर्णन, कश्यपद्वारा दितिको वरदान, गर्भिणी स्त्रियोंके लिये नियम तथा मरुतोंकी उत्पत्ति
  8. [अध्याय 8]प्रत्येक सर्गके अधिपतियोंका अभिषेचन तथा पृथुका राज्याभिषेक
  9. [अध्याय 9]मन्वन्तरोंके चौदह देवताओं और सप्तर्षियोंका विवरण
  10. [अध्याय 10]महाराज पृथुका चरित्र और पृथ्वी दोहनका वृत्तान्त
  11. [अध्याय 11]सूर्यवंश और चन्द्रवंशका वर्णन तथा इलाका वृत्तान्त
  12. [अध्याय 12]इलाका वृत्तान्त तथा इक्ष्वाकु वंशका वर्णन
  13. [अध्याय 13]पितृ-वंश-वर्णन तथा सतीके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें देवीके एक सौ आठ नामोंका विवरण
  14. [अध्याय 14]अच्छोदाका पितृलोकसे पतन तथा उसकी प्रार्थनापर पितरोंद्वारा उसका पुनरुद्धार
  15. [अध्याय 15]पितृवंशका वर्णन, पीवरीका वृत्तान्त तथा श्रद्ध-विधिका कथन
  16. [अध्याय 16]श्राद्धोंके विविध भेद, उनके करनेका समय तथा श्राद्धमें निमन्त्रित करनेयोग्य ब्राह्मणके लक्षण
  17. [अध्याय 17]साधारण एवं आभ्युदयिक श्राद्धकी विधिका विवरण
  18. [अध्याय 18]एकोदिए और सपिण्डीकरण श्राद्धकी विधि
  19. [अध्याय 19]श्राद्धों में पितरोंके लिये प्रदान किये गये हव्य-कव्यकी प्राप्तिका विवरण
  20. [अध्याय 20]महर्षि कौशिकके पुत्रोंका वृत्तान्त तथा पिपीलिकाकी कथा
  21. [अध्याय 21]ब्रह्मदत्तका वृत्तान्त तथा चार चक्रवाकोंकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22]श्राद्धके योग्य समय, स्थान (तीर्थ) तथा कुछ विशेष नियमोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23]चन्द्रमाकी उत्पत्ति, उनका दक्ष प्रजापतिकी कन्याओंके साथ विवाह, चन्द्रमाद्वारा राजसूय यज्ञका अनुष्ठान, उनकी तारापर आसक्ति, उनका भगवान् शङ्करके साथ युद्ध तथा ब्रह्माजीका बीच-बचाव करके युद्ध शान्त करना'
  24. [अध्याय 24]ताराके गर्भसे बुधकी उत्पत्ति, पुरूरवाका जन्म, पुरूरवा और उर्वशीकी कथा, नहुष-पुत्रोंके वर्णन-प्रसङ्गमें ययातिका वृत्तान्त
  25. [अध्याय 25]कचका शिष्यभावसे शुक्राचार्य और देवयानीकी सेवामें संलग्न होना और अनेक कष्ट सहनेके पश्चात्मृतसंजीविनी विद्या प्राप्त करना
  26. [अध्याय 26]देवयानीका कचसे पाणिग्रहणके लिये अनुरोध, कचकी अस्वीकृति तथा दोनोंका एक-दूसरेको शाप देना
  27. [अध्याय 27]देवयानी और शर्मिष्ठाका कलह, शर्मिष्ठाद्वारा कुऍमें गिरायी गयी देवयानीको ययातिका निकालना और देवयानीका शुक्राचार्यके साथ वार्तालाप
  28. [अध्याय 28]शुक्राचार्यद्वारा देवयानीको समझाना और देवयानीका असंतोष
  29. [अध्याय 29]शुक्राचार्यका नृपपको फटकारना तथा उसे छोड़कर जानेके लिये उद्यत होना और वृषपवकि आदेशसे शर्मिष्ठाका देवयानीकी दासी बनकर शुक्राचार्य तथा देवयानीको संतुष्ट करना
  30. [अध्याय 30]सखियोंसहित देवयानी और शर्मिष्ठाका वनविहार, राजा ययातिका आगमन, देवयानीके साथ बातचीत तथा विवाह
  31. [अध्याय 31]ययातिसे देवयानीको पुत्रप्राप्ति, ययाति और शर्मिष्ठाका एकान्त मिलन और उनसे एक पुत्रका जन्म
  32. [अध्याय 32]देवयानी और शर्मिष्ठाका संवाद, ययातिसे शर्मिष्ठाके पुत्र होनेकी बात जानकर देवयानीका रूठना और अपने पिताके पास जाना तथा शुक्राचार्यका ययातिको बूढ़े होनेका शाप देना
  33. [अध्याय 33]ययातिका अपने यदु आदि पुत्रोंसे अपनी युवावस्था देकर वृद्धावस्था लेनेके लिये आग्रह और उनके अस्वीकार करनेपर उन्हें शाप देना, फिर पूरुको जरावस्था देकर उसकी युवावस्था लेना तथा उसे वर प्रदान करना
  34. [अध्याय 34]राजा ययातिका विषय सेवन और वैराग्य तथा पूरुका राज्याभिषेक करके वनमें जाना
  35. [अध्याय 35]वनमें राजा ययातिकी तपस्या और उन्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति
  36. [अध्याय 36]इन्द्रके पूछनेपर ययातिका अपने पुत्र पुरुको दिये हुए उपदेशकी चर्चा करना
  37. [अध्याय 37]ययातिका स्वर्गसे पतन और अष्टकका उनसे प्रश्न करना
  38. [अध्याय 38]ययाति और अष्टकका संवाद
  39. [अध्याय 39]अष्टक और ययातिका संवाद
  40. [अध्याय 40]ययाति और अष्टकका आश्रमधर्मसम्बन्धी संवाद
  41. [अध्याय 41]अष्टक-ययाति-संवाद और ययातिद्वारा दूसरोंके दिये हुए पुण्यदानको अस्वीकार करना
  42. [अध्याय 42]राजा ययातिका वसुमान् और शिबिके प्रतिग्रहको अस्वीकार करना तथा अष्टक आदि चारों राजाओंके साथ स्वर्गमें जाना
  43. [अध्याय 43]ययाति-वंश-वर्णन, यदुवंशका वृत्तान्त तथा कार्तवीर्य अर्जुनकी कथा
  44. [अध्याय 44]कार्तवीर्यका आदित्यके तेजसे सम्पन्न होकर वृक्षोंको जलाना, महर्षि आपवद्वारा कार्तवीर्यको शाप और क्रोष्टुके वंशका वर्णन
  45. [अध्याय 45]वृष्णिवंशके वर्णन-प्रसङ्गमें स्यमन्तक मणिकी कथा
  46. [अध्याय 46]वृष्णिवंशका वर्णन
  47. [अध्याय 47]श्रीकृष्ण चरित्रका वर्णन, दैत्योंका इतिहास तथा देवासुर संग्रामके प्रसङ्गमें विभिन्न अवान्तर कथाएँ
  48. [अध्याय 48]तुर्वसु और झुके वंशका वर्णन, अनुके वंश-वर्णनमें बलिकी कथा और कर्णकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग
  49. [अध्याय 49]पूरु- वंशके वर्णन-प्रसङ्गमें भरत वंशकी कथा, भरद्वाजकी उत्पत्ति और उनके वंशका कथन, नीप - वंशका वर्णन तथा पौरवोंका इतिहास
  50. [अध्याय 50]पुरुवंशी नरेशोंका विस्तृत इतिहास
  51. [अध्याय 51]अग्नि- वंशका वर्णन तथा उनके भेदोपभेदका कथन
  52. [अध्याय 52]कर्मयोगकी महत्ता
  53. [अध्याय 53]पुराणोंकी नामावलि और उनका संक्षिप्त परिचय
  54. [अध्याय 54]नक्षत्र-पुरुष-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  55. [अध्याय 55]आदित्यशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  56. [अध्याय 56]श्रीकृष्णाष्टमी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  57. [अध्याय 57]रोहिणीचन्द्रशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  58. [अध्याय 58]तालाब, बगीचा, कुआं,बावली,पुष्करिणी तथा देव मन्दिर की प्रतिष्ठ आदिका विधान
  59. [अध्याय 59]वृक्ष लगानेकी विधि
  60. [अध्याय 60]सौभाग्यशयन-व्रत तथा जगद्धात्री सतीकी आराधना
  61. [अध्याय 61]अगस्त्य और वसिष्ठकी दिव्य उत्पत्ति, उर्वशी अप्सराका प्राकट्य और अगस्त्य के लिये अयं-प्रदान करनेकी विधि एवं माहात्म्य
  62. [अध्याय 62]अनन्ततृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  63. [अध्याय 63]रसकल्याणिनी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  64. [अध्याय 64]आर्द्रानन्दकरी तृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  65. [अध्याय 65]अक्षयतृतीया-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  66. [अध्याय 66]सारस्वत - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  67. [अध्याय 67]सूर्य-चन्द्र-ग्रहणके समय स्नानकी विधि और उसका माहात्म्य
  68. [अध्याय 68]सप्तमीस्त्रपन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  69. [अध्याय 69]भीमद्वादशी व्रतका विधान
  70. [अध्याय 70]पण्यस्त्री व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  71. [अध्याय 71]अशून्यशयन (द्वितीया ) - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  72. [अध्याय 72]अङ्गारक- व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  73. [अध्याय 73]शुक्र और गुरुकी पूजा-विधि
  74. [अध्याय 74]कल्याणसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  75. [अध्याय 75]विशोकसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  76. [अध्याय 76]फलसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  77. [अध्याय 77]शर्करासप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  78. [अध्याय 78]कमलसप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  79. [अध्याय 79]मन्दारसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  80. [अध्याय 80]शुभ सप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  81. [अध्याय 81]विशोकद्वादशी व्रतकी विधि
  82. [अध्याय 82]गुड-धेनु के दान की विधि और उसकी महिमा
  83. [अध्याय 83]पर्वतदानके दस भेद, धान्यशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  84. [अध्याय 84]लवणाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  85. [अध्याय 85]गुडपर्वतके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  86. [अध्याय 86]सुवर्णाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  87. [अध्याय 87]तिलशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  88. [अध्याय 88]कार्पासाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  89. [अध्याय 89]घृताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  90. [अध्याय 90]रत्नाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  91. [अध्याय 91]रजताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  92. [अध्याय 92]शर्कराशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य तथा राजा धर्ममूर्तिके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें लवणाचलदानका महत्त्व
  93. [अध्याय 93]शान्तिक एवं पौष्टिक कर्मों तथा नवग्रह शान्तिकी विधिका वर्णन *
  94. [अध्याय 94]नवग्रहोंके स्वरूपका वर्णन
  95. [अध्याय 95]माहेश्वर-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  96. [अध्याय 96]सर्वफलत्याग- व्रतका विधान और उसका माहात्म्य
  97. [अध्याय 97]आदित्यवार-कल्पका विधान और माहात्म्य
  98. [अध्याय 98]संक्रान्ति व्रतके उद्यापनकी विधि
  99. [अध्याय 99]विभूतिद्वादशी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  100. [अध्याय 100]विभूतिद्वादशी* के प्रसङ्गमें राजा पुष्पवाहनका वृत्तान्त
  101. [अध्याय 101]साठ व्रतोंका विधान और माहात्म्य
  102. [अध्याय 102]स्नान और तर्पणकी विधि
  103. [अध्याय 103]युधिष्ठिरकी चिन्ता, उनकी महर्षि मार्कण्डेयसे भेंट और महर्षिद्वारा प्रयाग-माहात्म्यका उपक्रम
  104. [अध्याय 104]प्रयाग-माहात्म्य-प्रसङ्गमें प्रयाग क्षेत्रके विविध तीर्थस्थानोंका वर्णन
  105. [अध्याय 105]प्रयागमें मरनेवालोंकी गति और गो-दानका महत्त्व
  106. [अध्याय 106]प्रयाग माहात्म्य वर्णन-प्रसङ्गमें वहांके विविध तीर्थोंका वर्णन
  107. [अध्याय 107]प्रयाग स्थित विविध तीर्थोका वर्णन
  108. [अध्याय 108]प्रयागमें अनशन-व्रत तथा एक मासतकके निवास ( कल्पवास) का महत्त्व
  109. [अध्याय 109]अन्य तीर्थोकी अपेक्षा प्रयागकी महत्ताका वर्णन
  110. [अध्याय 110]जगत्के समस्त पवित्र तीर्थोंका प्रयागमें निवास
  111. [अध्याय 111]प्रयाग में ब्रह्मा, विष्णु और शिवके निवासका वर्णन
  112. [अध्याय 112]भगवान् वासुदेवद्वारा प्रयागके माहात्म्यका वर्णन
  113. [अध्याय 113]भूगोलका विस्तृत वर्णन
  114. [अध्याय 114]भारतवर्ष, किम्पुरुषवर्ष तथा हरिवर्षका वर्णन
  115. [अध्याय 115]राजा पुरूरवाके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  116. [अध्याय 116]ऐरावती नदीका वर्णन
  117. [अध्याय 117]हिमालयकी अद्भुत छटाका वर्णन
  118. [अध्याय 118]हिमालयकी अनोखी शोभा तथा अत्रि - आश्रमका वर्णन
  119. [अध्याय 119]आश्रमस्थ विवरमें पुरूरवा * का प्रवेश, आश्रमकी शोभाका वर्णन तथा पुरूरवाकी तपस्या
  120. [अध्याय 120]राजा पुरूरवाकी तपस्या, गन्धवों और अप्सराओंकी क्रीडा, महर्षि अत्रिका आगमन तथा राजाको वरप्राप्त
  121. [अध्याय 121]कैलास पर्वतका वर्णन, गङ्गाकी सात धाराओंका वृत्तान्त तथा जम्बूद्वीपका विवरण
  122. [अध्याय 122]शाकद्वीप, कुशद्वीप, क्रौञ्चद्वीप और शाल्मलद्वीपका वर्णन
  123. [अध्याय 123]गोमेदकद्वीप और पुष्करद्वीपका वर्णन
  124. [अध्याय 124]सूर्य और चन्द्रमाको गतिका वर्णन
  125. [अध्याय 125]सूर्यकी गति और उनके रथका वर्णन
  126. [अध्याय 126]सूर्य रथ पर प्रत्येक मासमें भिन्न-भिन्न देवताओंका अधिरोहण तथा चन्द्रमाकी विचित्र गति
  127. [अध्याय 127]ग्रहोंके रथका वर्णन और ध्रुवकी प्रशंसा
  128. [अध्याय 128]देव-गृहों तथा सूर्य-चन्द्रमाकी गतिका वर्णन
  129. [अध्याय 129]त्रिपुर- निर्माणका वर्णन
  130. [अध्याय 130]दानवश्रेष्ठ मयद्वारा त्रिपुरकी रचना
  131. [अध्याय 131]त्रिपुरमें दैत्योंका सुखपूर्वक निवास, मयका स्वप्न-दर्शन और दैत्योंका अत्याचार
  132. [अध्याय 132]त्रिपुरवासी दैत्योंका अत्याचार, देवताओंका ब्रह्माकी शरणमें जाना और ब्रह्मासहित शिवजीके पास जाकर उनकी स्तुति करना
  133. [अध्याय 133]त्रिपुर- विध्वंसार्थ शिवजीके विचित्र रथका निर्माण और देवताओंके साथ उनका युद्धके लिये प्रस्थान
  134. [अध्याय 134]देवताओं सहित शङ्करजीका त्रिपुरपर आक्रमण, त्रिपुरमें देवर्षि नारदका आगमन तथा युद्धार्थ असुरोंकी तैयारी
  135. [अध्याय 135]शङ्करजीकी आज्ञा इन्द्रका त्रिपुरपर आक्रमण, दोनों सेनाओंमें भीषण संग्राम, विद्युन्मालीका वध, देवताओंकी विजय और दानवोंका युद्ध विमुख होकर त्रिपुरमें प्रवेश
  136. [अध्याय 136]मयका चिन्तित होकर अद्भुत बावलीका निर्माण करना, नन्दिकेश्वर और तारकासुरका भीषण युद्ध तथा प्रमथगणोंकी मारसे विमुख होकर दानवोंका त्रिपुर-प्रवेश
  137. [अध्याय 137]वापी शोषणसे मयको चिन्ता, मय आदि दानवोंका त्रिपुरसहित समुद्रमें प्रवेश तथा शंकरजीका इन्द्रको युद्ध करनेका आदेश
  138. [अध्याय 138]देवताओं और दानवोंमें घमासान युद्ध तथा तारकासुरका वध
  139. [अध्याय 139]दानवराज मयका दानवोंको समझा-बुझाकर त्रिपुरकी रक्षामें नियुक्त करना तथा त्रिपुरकौमुदीका वर्णन
  140. [अध्याय 140]देवताओं और दानवोंका भीषण संग्राम, नन्दीश्वरद्वारा विद्युन्मालीका वध, मयका पलायन तथा शङ्करजीकी त्रिपुरपर विजय
  141. [अध्याय 141]पुरूरवाका सूर्य-चन्द्रके साथ समागम और पितृतर्पण, पर्वसंधिका वर्णन तथा श्राद्धभोजी पितरोंका निरूपण
  142. [अध्याय 142]युगोंकी काल-गणना तथा त्रेतायुगका वर्णन
  143. [अध्याय 143]यज्ञकी प्रवृत्ति तथा विधिका वर्णन
  144. [अध्याय 144]द्वापर और कलियुगकी प्रवृत्ति तथा उनके स्वभावका वर्णन, राजा प्रमतिका वृत्तान्त तथा पुनः कृतयुगके प्रारम्भका वर्णन
  145. [अध्याय 145]युगानुसार प्राणियोंको शरीर स्थिति एवं वर्ण-व्यवस्थाका वर्णन, श्रौतस्मार्त, धर्म, तप, यज्ञ, क्षमा, शम, दया आदि गुणोंका लक्षण, चातुर्होत्र की विधि तथा पाँच प्रकारके ऋषियोंका वर्णन
  146. [अध्याय 146]वज्राङ्गकी उत्पत्ति, उसके द्वारा इन्द्रका बन्धन, ब्रह्मा और कश्यपद्वारा समझाये जानेपर इन्द्रको बन्धनमुक्त करना, वज्राङ्गका विवाह, तप तथा ब्रह्माद्वारा वरदान
  147. [अध्याय 147]ब्रह्माके वरदानसे तारकासुरकी उत्पत्ति और उसका राज्याभिषेक
  148. [अध्याय 148]तारकासुरकी तपस्या और ब्रह्माद्वारा उसे वरदानप्राप्ति, देवासुर संग्रामकी तैयारी तथा दोनों दलोंकी सेनाओंका वर्णन
  149. [अध्याय 149]देवासुर संग्रामका प्रारम्भ
  150. [अध्याय 150]देवताओं और असुरोंकी सेनाओंमें अपनी-अपनी जोड़ीके साथ घमासान युद्ध, देवताओंके विकल होनेपर भगवान् विष्णुका युद्धभूमिमें आगमन और कालनेमिको परास्त कर उसे जीवित छोड़ देना
  151. [अध्याय 151]भगवान् विष्णुपर दानवोंका सामूहिक आक्रमण, भगवान् विष्णुका अद्भुत युद्ध-कौशल और उनके द्वारा दानव सेनापति ग्रसनकी मृत्यु
  152. [अध्याय 152]भगवान् विष्णुका मधन आदि दैत्योंके साथ भीषण संग्राम और अन्तमें घायल होकर युद्धसे पलायन
  153. [अध्याय 153]भगवान् विष्णु और इन्द्रका परस्पर उत्साहवर्धक वार्तालाप, देवताओंद्वारा पुनः सैन्ध-संगठन, इन्द्रका असुरोंके साथ भीषण युद्ध, गजासुर और जम्भासुरकी मृत्यु तारकासुरका घोर संग्राम और उसके द्वारा भगवान् विष्णुसहित देवताओंका बंदी बनाया जाना
  154. [अध्याय 154]तारकके आदेश से देवताओंकी बन्धन-मुक्ति, देवताओंका ब्रह्माके पास जाना और अपनी विपत्तिगाथा सुनाना, ब्रह्माद्वारा तारक-वधके उपायका वर्णन, रात्रिदेवीका प्रसङ्ग, उनका पार्वतीरूपमें जन्म, काम दहन और रतिकी प्रार्थना, पार्वतीकी तपस्या, शिवपार्वती विवाह तथा पार्वतीका वीरकको पुत्ररूपमें स्वीकार करना *
  155. [अध्याय 155]भगवान् शिवद्वारा पार्वतीके वर्णपर आक्षेप, पार्वतीका वीरकको अन्तःपुरका रक्षक नियुक्त कर पुनः तपश्चर्याके लिये प्रस्थान
  156. [अध्याय 156]कुसुमामोदिनी और पार्वतीकी गुप्त मन्त्रणा, पार्वतीका तपस्यायें निरत होना आदि दैत्यका पार्वतीरूपमें शंकरके पास जाना और मृत्युको प्राप्त होना तथा पार्वतीद्वारा वीरकको शाप
  157. [अध्याय 157]पार्वतीद्वारा वीरकको शाप, ब्रह्माका पार्वती तथा एकानंशाको वरदान, एकानंशाका विन्ध्याचलके लिये प्रस्थान, पार्वतीका भवनद्वारपर पहुँचना और वीरकद्वारा रोका जाना
  158. [अध्याय 158]वीरकद्वारा पार्वतीकी स्तुति, पार्वती और शंकरका पुनः समागम, अग्निको शाप, कृत्तिकाओंकी प्रतिज्ञा और स्कन्दकी उत्पत्ति
  159. [अध्याय 159]स्कन्दकी उत्पत्ति, उनका नामकरण, उनसे देवताओंकी प्रार्थना और उनके द्वारा देवताओंको आश्वासन, तारकके पास देवदूतद्वारा संदेश भेजा जाना और सिद्धोंद्वारा कुमारकी स्तुति
  160. [अध्याय 160]तारकासुर और कुमारका भीषण युद्ध तथा कुमारद्वारा तारकका वध
  161. [अध्याय 161]हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरप्राप्ति, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, विष्णुद्वारा देवताओंको अभयदान, भगवान् विष्णुका नृसिंहरूप धारण करके हिरण्यकशिपुकी विचित्र सभायें प्रवेश
  162. [अध्याय 162]प्रह्लादद्वारा भगवान् नरसिंहका स्वरूप वर्णन तथा नरसिंह और दानवोंका भीषण युद्ध
  163. [अध्याय 163]नरसिंह और हिरण्यकशिपुका भीषण युद्ध, दैत्योंको उत्पातदर्शन, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, नरसिंहद्वारा हिरण्यकशिपुका वध तथा ब्रह्मद्वारा नरसिंहकी स्तुति
  164. [अध्याय 164]पद्मोद्भवके प्रसङ्गमें मनुद्वारा भगवान् विष्णुसे सृष्टिसम्बन्धी विविध प्रश्न और भगवान्‌का उत्तर
  165. [अध्याय 165]चारों युगोंकी व्यवस्थाका वर्णन
  166. [अध्याय 166]महाप्रलयका वर्णन
  167. [अध्याय 167]भगवान् विष्णुका एकार्णवके जलमें शयन, मार्कण्डेयको आश्चर्य तथा भगवान् विष्णु और मार्कण्डेयका संवाद
  168. [अध्याय 168]पञ्चमहाभूतों का प्राकट्य तथा नारायणकी नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  169. [अध्याय 169]नाभिकमलसे ब्रह्माका प्रादुर्भाव तथा उस कमलका साङ्गोपाङ्ग वर्णन
  170. [अध्याय 170]मधु-कैटभकी उत्पत्ति, उनका ब्रह्माके साथ वार्तालाप और भगवानद्वारा बध
  171. [अध्याय 171]ब्रह्माके मानस पुत्रोंकी उत्पत्ति, दक्षकी बारह कन्याओंका वृत्तान्त, ब्रह्माद्वारा सृष्टिका विकास तथा विविध
  172. [अध्याय 172]तारकामय-संग्रामकी भूमिका एवं भगवान् विष्णुका महासमुद्रके रूपमें वर्णन, तारकादि असुरोंके अत्याचारसे दुःखी होकर देवताओंकी भगवान् विष्णुसे प्रार्थना और भगवान्का उन्हें आश्वासन
  173. [अध्याय 173]दैत्यों और दानवोंकी युद्धार्थ तैयारी
  174. [अध्याय 174]देवताओंका युद्धार्थ अभियान
  175. [अध्याय 175]देवताओं और दानवोंका घमासान युद्ध, मयकी तामसी माया, और्वाग्निकी उत्पत्ति और महर्षि द्वारा हिरण्यकशिपुको उसकी प्राप्ति
  176. [अध्याय 176]चन्द्रमाकी सहायतासे वरुणद्वारा और्वाग्नि- मायाका प्रशमन, मयद्वारा शैली-मायाका प्राकट्य, भगवान् विष्णुके आदेश से अग्नि और वायुद्वारा उस मायाका निवारण तथा कालनेमिका रणभूमिमें आगमन
  177. [अध्याय 177]देवताओं और दैत्योंकी सेनाओंकी अद्भुत मुठभेड़, कालनेमिका भीषण पराक्रम और उसकी देवसेनापर विजय
  178. [अध्याय 178]कालनेमि और भगवान् विष्णुका रोषपूर्वक वार्तालाप और भीषण युद्ध, विष्णुके चक्रके द्वारा कालनेमिका वध और देवताओंको पुनः निज पदकी प्राप्ति
  179. [अध्याय 179]शिवजीके साथ अन्धकासुरका युद्ध, शिवजीद्वारा मातृकाओंकी सृष्टि, शिवजीके हाथों अन्धककी मृत्यु और उसे गणेशत्वकी प्राप्ति, मातृकाओंकी विध्वंसलीला तथा विष्णुनिर्मित देवियोंद्वारा उनका अवरोध
  180. [अध्याय 180]वाराणसी माहात्म्यके प्रसङ्गमें हरिकेश यक्षकी तपस्या, अविमुक्तकी शोभा और उसका माहात्म्य तथा हरिकेशको शिवजीद्वारा वरप्राप्ति
  181. [अध्याय 181]अविमुक्तक्षेत्र (वाराणसी) का माहात्म्य
  182. [अध्याय 182]अविमुक्त-माहात्म्य
  183. [अध्याय 183]अविमुक्तमाहात्म्यके प्रसङ्गमें शिव-पार्वतीका प्रश्नोत्तर
  184. [अध्याय 184]काशीकी महिमाका वर्णन
  185. [अध्याय 185]वाराणसी माहात्य
  186. [अध्याय 186]नर्मदा माहात्म्यका उपक्रम
  187. [अध्याय 187]नर्मदामाहात्यके प्रसङ्गमें पुनः त्रिपुराख्यान
  188. [अध्याय 188]त्रिपुर- दाहका वृत्तान्त
  189. [अध्याय 189]नर्मदा-कावेरी संगमका माहात्म्य
  190. [अध्याय 190]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थ
  191. [अध्याय 191]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका माहात्म्य
  192. [अध्याय 192]शुक्लतीर्थका माहाल्य
  193. [अध्याय 193]नर्मदामाहात्म्य-प्रसङ्गमें कपिलादि विविध तीर्थोंका माहात्म्य, भृगुतीर्थका माहात्स्य, भृगुमुनिको तपस्या, शिव-पार्वतीका उनके समक्ष प्रकट होना, भृगुद्वारा उनकी स्तुति और शिवजीद्वारा भृगुको वर प्रदान
  194. [अध्याय 194]नर्मदातटवर्ती तीर्थोका माहात्म्य
  195. [अध्याय 195]गोत्रप्रवर-निरूपण-प्रसङ्गमें भृगुवंशकी परम्पराका विवरण
  196. [अध्याय 196]प्रवरानुकीर्तनमें महर्षि अङ्गिराके वंशका वर्णन
  197. [अध्याय 197]महर्षि अत्रिके वंशका वर्णन
  198. [अध्याय 198]प्रवरानुकौर्तन में महर्षिं विश्चामित्र के वंशका वर्णन
  199. [अध्याय 199]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि कश्यपके वंशका वर्णन
  200. [अध्याय 200]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि वसिष्ठकी शाखाका कथन
  201. [अध्याय 201]प्रवरानुकीर्तन महर्षि पराशरके वंशका वर्णन
  202. [अध्याय 202]गोत्रप्रवरकीर्तनमें महर्षि अगस्त्य, पुलह, पुलस्त्य और क्रतुकी शाखाओंका वर्णन
  203. [अध्याय 203]प्रवरकीर्तनमें धर्मके वंशका वर्णन
  204. [अध्याय 204]श्राद्धकल्प – पितृगाथा-कीर्तन
  205. [अध्याय 205]धेनु-दान-विधि
  206. [अध्याय 206]कृष्णमृगचर्मके दानकी विधि और उसका माहाय्य
  207. [अध्याय 207]उत्सर्ग किये जानेवाले वृषके लक्षण, वृषोत्सर्गका विधान और उसका महत्त्व
  208. [अध्याय 208]सावित्री और सत्यवान्‌का चरित्र
  209. [अध्याय 209]सत्यवान्का सावित्रीको वनकी शोभा दिखाना
  210. [अध्याय 210]यमराजका सत्यवान के प्राणको बाँधना तथा सावित्री और यमराजका वार्तालाप
  211. [अध्याय 211]सावित्रीको यमराजसे द्वितीय वरदानकी प्राप्ति
  212. [अध्याय 212]यमराज - सावित्री-संवाद तथा यमराजद्वारा सावित्रीको तृतीय वरदानकी प्राप्ति
  213. [अध्याय 213]सावित्रीकी विजय और सत्यवान्की बन्धन मुक्ति
  214. [अध्याय 214]सत्यवान्‌को जीवनलाभ तथा पत्नीसहित राजाको नेत्रज्योति एवं राज्यकी प्राप्ति
  215. [अध्याय 215]राजाका कर्तव्य, राजकर्मचारियोंके लक्षण तथा राजधर्मका निरूपण
  216. [अध्याय 216]राजकर्मचारियोंके धर्मका वर्णन
  217. [अध्याय 217]दुर्ग-निर्माणकी विधि तथा राजाद्वारा दुर्गमें संग्रहणीय उपकरणोंका विवरण
  218. [अध्याय 218]दुर्गमें संग्राह्य ओषधियोंका वर्णन
  219. [अध्याय 219]विषयुक्त पदार्थोके लक्षण एवं उससे राजाके बचने के उपाय
  220. [अध्याय 220]राजधर्म एवं सामान्य नीतिका वर्णन
  221. [अध्याय 221]दैव और पुरुषार्थका वर्णन
  222. [अध्याय 222]साम-नीतिका वर्णन
  223. [अध्याय 223]नीति चतुष्टयीके अन्तर्गत भेद नीतिका वर्णन
  224. [अध्याय 224]दान-नीतिकी प्रशंसा
  225. [अध्याय 225]दण्डनीतिका वर्णन
  226. [अध्याय 226]सामान्य राजनीतिका निरूपण
  227. [अध्याय 227]दण्डनीतिका निरूपण
  228. [अध्याय 228]अद्भुत शान्तिका वर्णन
  229. [अध्याय 229]उत्पातोंके भेद तथा कतिपय ऋतुस्वभावजन्य शुभदायक अद्भुतोका वर्णन
  230. [अध्याय 230]अद्भुत उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  231. [अध्याय 231]अग्निसम्बन्धी उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  232. [अध्याय 232]वृक्षजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  233. [अध्याय 233]वृष्टिजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  234. [अध्याय 234]जलाशयजनित विकृतियाँ और उनकी शान्तिके उपाय
  235. [अध्याय 235]प्रसवजनित विकारका वर्णन और उसकी शान्ति
  236. [अध्याय 236]उपस्कर - विकृतिके लक्षण और उनकी शान्ति
  237. [अध्याय 237]पशु-पक्षी सम्बन्धी उत्पात और उनकी शान्ति
  238. [अध्याय 238]राजाकी मृत्यु तथा देशके विनाशसूचक लक्षण और उनकी शान्ति
  239. [अध्याय 239]ग्रहयागका विधान
  240. [अध्याय 240]राजाओंकी विजयार्थ यात्राका विधान
  241. [अध्याय 241]अङ्गस्फुरणके शुभाशुभ फल
  242. [अध्याय 242]शुभाशुभ स्वप्नोंके लक्षण
  243. [अध्याय 243]शुभाशुभ शकुनोंका निरूपण
  244. [अध्याय 244]वामन-प्रादुर्भाव-प्रसङ्गमें श्रीभगवान्द्वारा अदितिको वरदान
  245. [अध्याय 245]बलिद्वारा विष्णुकी निन्दापर प्रह्लादका उन्हें शाप, बलिका अनुनय, ब्रह्माजीद्वारा वामनभगवान्‌का स्तवन, भगवान् वामनका देवताओंको आश्वासन तथा उनका बलिके यज्ञके लिये प्रस्थान
  246. [अध्याय 246]बलि-शुक्र- संवाद, वामनका बलिके यज्ञमें पदार्पण, बलिद्वारा उन्हें तीन डग पृथ्वीका दान, वामनद्वारा बलिका बन्धन और वर प्रदान
  247. [अध्याय 247]अर्जुनके वाराहावतारविषयक प्रश्न करनेपर शौनकजी द्वारा भगवत्स्वरूपका वर्णन
  248. [अध्याय 248]वराहभगवान्का प्रादुर्भाव, हिरण्याक्षद्वारा रसातलमें ले जायी गयी पृथ्वीदेवीद्वारा यज्ञवराहका भगवानद्वारा उनका उद्धारस्तवन और
  249. [अध्याय 249]अमृत-प्राप्तिके लिये समुद्र मन्थनका उपक्रम और वारुणी (मदिरा) का प्रादुर्भाव
  250. [अध्याय 250]अमृतार्थ समुद्र मन्धन करते समय चन्द्रमासे लेकर विपतकका प्रादुर्भाव
  251. [अध्याय 251]अमृतका प्राकट्य, मोहिनीरूपधारी भगवान् विष्णुद्वारा देवताओंका अमृत पान तथा देवासुरसंग्राम
  252. [अध्याय 252]वास्तुके प्रादुर्भावकी कथा
  253. [अध्याय 253]वास्तु चक्रका वर्णन
  254. [अध्याय 254]वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत राजप्रासाद आदिकी निर्माण-विधि
  255. [अध्याय 255]वास्तुविषयक वेधका विवरण
  256. [अध्याय 256]वास्तुप्रकरणमें गृह निर्माणविधि
  257. [अध्याय 257]गृहनिर्माण (वास्तुकार्य ) में ग्राह्य काष्ठ
  258. [अध्याय 258]देव-प्रतिमाका प्रमाण-निरूपण
  259. [अध्याय 259]प्रतिमाओंके लक्षण, मान, आकार आदिका कथन
  260. [अध्याय 260]विविध देवताओंकी प्रतिमाओंका वर्णन
  261. [अध्याय 261]सूर्यादि विभिन्न देवताओंकी प्रतिमाके स्वरूप, प्रतिष्ठा और पूजा आदिकी विधि
  262. [अध्याय 262]पीठिकाओंके भेद, लक्षण और फल
  263. [अध्याय 263]शिवलिङ्गके निर्माणकी विधि
  264. [अध्याय 264]प्रतिमा-प्रतिष्ठा के प्रसङ्गमें यज्ञाङ्गरूप कुण्डादिके निर्माणकी विधि
  265. [अध्याय 265]प्रतिमाके अधिवासन आदिकी विधि
  266. [अध्याय 266]प्रतिमा प्रतिष्ठाकी विधि
  267. [अध्याय 267]देव (प्रतिमा) - प्रतिष्ठा के अङ्गभूत अभिषेक-स्नानका निरूपण
  268. [अध्याय 268]वास्तु शान्तिकी विधि
  269. [अध्याय 269]प्रासादोंके भेद और उनके निर्माणकी विधि
  270. [अध्याय 270]प्रासाद संलग्न मण्डपोंके नाम, स्वरूप, भेद और उनके निर्माणकी विधि
  271. [अध्याय 271]राजवंशानुकीर्तन *
  272. [अध्याय 272]कलियुगके प्रद्योतवंशी आदि राजाओं का वर्णन
  273. [अध्याय 273]आन्ध्रवंशीय शकवंशीय एवं यवनादि राजाओंका संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण
  274. [अध्याय 274]षोडश दानान्तर्गत तुलादानका वर्णन
  275. [अध्याय 275]हिरण्यगर्भदानकी विधि
  276. [अध्याय 276]ब्रह्माण्डदानकी विधि
  277. [अध्याय 277]कल्पपादप-दान-विधि
  278. [अध्याय 278]गोसहस्त्र दानकी विधि
  279. [अध्याय 279]कामधेनु दानकी विधि
  280. [अध्याय 280]हिरण्याश्व - दानकी विधि
  281. [अध्याय 281]हिरण्याश्वरथ दानकी विधि
  282. [अध्याय 282]हेमहस्तिरथ-दानकी विधि
  283. [अध्याय 283]पञ्चाङ्गल (हल) प्रदानकी विधि
  284. [अध्याय 284]हेमधरा (सुवर्णमयी पृथ्वी) दानकी विधि
  285. [अध्याय 285]विश्वचक्रदानकी विधि
  286. [अध्याय 286]कनककल्पलतादानकी विधि
  287. [अध्याय 287]सप्तसागर दानकी विधि
  288. [अध्याय 288]रत्नधेनुदानकी विधि
  289. [अध्याय 289]महाभूतघट-दानकी विधि
  290. [अध्याय 290]कल्पानुकीर्तन
  291. [अध्याय 291]मत्स्यपुराणकी अनुक्रमणिका