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मत्स्य पुराण (मत्स्यपुराण)

Matsya Purana (Matsyapurana )

अध्याय 141 - Adhyaya 141

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पुरूरवाका सूर्य-चन्द्रके साथ समागम और पितृतर्पण, पर्वसंधिका वर्णन तथा श्राद्धभोजी पितरोंका निरूपण

ऋषियोंने पूछा- सूतजी इलानन्दन महाराज पुरूरवा प्रति मासकी अमावास्याको किस प्रकार स्वर्गलोकमें जाते हैं और वहाँ अपने पितरोंको कैसे तृप्त करते हैं? उन बुद्धिमान् नरेशके इस प्रभावको हमलोग सुनना चाहते हैं ॥ 1 ॥

सूतजी कहते हैं-ऋषियो! पूर्वकालमें महाराज मनुने भगवान् मधुसूदनसे यही प्रश्न किया था। उस समय भगवान्ने उन सूर्यपुत्र मनुके प्रति जो कुछ कहा था, वही मैं बतला रहा हूँ, आपलोग ध्यान देकर सुनिये ॥ 2 ॥मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन् मैं इलापुत्र पुरूरवाका प्रभाव, स्वर्गलोकमें उसका बुद्धिमान् चन्द्रमाके साथ संयोग, उन चन्द्रमासे अमृतकी उपलब्धि तथा पितृतर्पणकी बात विस्तारपूर्वक बतला रहा हूँ। सौम्य, बर्हिषद्, काव्य तथा अग्निष्वात्तसंज्ञक पितरों तथा नक्षत्रोंपर विचरण करते हुए सूर्य और चन्द्रमा जिस समय अमावास्या तिथिको एक मण्डल अर्थात् एक राशिपर स्थित होते हैं, उस समय वह प्रत्येक अमावास्याको सूर्य और चन्द्रमाका दर्शन करनेके लिये स्वर्गमें जाता है और वहाँ मातामह (नाना) और पितामह (बाबा) - दोनोंको अभिवादन कर कालकी प्रतीक्षा करता हुआ कुछ दिनतक ठहरा रहता है। चन्द्रमासे अमृतके क्षरण होनेपर उससे परिश्रमपूर्वक पितरोंकी पूजा करके लौटता है। किसी महीने में श्राद्ध करनेकी इच्छासे इला-नन्दन विद्वान् पुरूरवा स्वर्गलोकमें चन्द्रमा और पितरोंके निकट गया और दो लवमात्र कुहू अमावास्यामें उसने दोनोंको स्थापित किया; क्योंकि पितृ-व्रतमें जब सिनीवालीका प्रमाण थोड़ा तथा कुहू (अमावास्या) प्रशस्त मानी गयी है। अतः कुहूका समय प्राप्त हुआ जानकर वह पितरोंके उद्देश्यसे कुहूकी उपासना करता है। उसकी उपासना करनेके पश्चात् वह कालकी प्रतीक्षा करता हुआ चन्द्रमाकी भी प्रतीक्षा करता है वहाँ रहते हुए उसे पितरोंकी तृक्षिके लिये चन्द्रमासे स्वधारूप अमृत प्राप्त होता है। चन्द्रमाकी पंद्रह किरणोंसे स्वधामृतका क्षरण होता है। कृष्णपक्ष श्राद्धभोजी | पितरोंका उन श्रेष्ठ किरणोंसे बड़ा प्रेम रहता है तथा अन्य पितर उनसे द्वेष करते हैं। पुरूरवा तुरंत अभिक्षरित हुए उस उत्तम मधुको पितृ ब्राद्धकी विधि अनुसार श्राद्धके समय पितरोंको प्रदान करता है। इस प्रकार वह उत्तम स्वधामृत सौम्य बर्हिषद् काव्य तथा अग्निष्वात्त पितरोंको तृप्त करता रहता है। महर्षियोंने ऋतुको अग्नि बतलाया है और ऋतुको संवत्सर भी कहते हैं। उस संवत्सरसे ऋतुकी उत्पत्ति होती है और ऋतुओंसे उत्पन्न हुए पितर आर्तव कहलाते हैं। आर्तव और अर्धमास पितरोंको ऋतुका पुत्र तथा ऋतुस्वरूप पितामह और अमावास्याको संवत्सरका पुत्र जानना चाहिये। प्रपितामह और पक्ष संवत्सररूप देवगण ब्रह्मा के पुत्र माने गये हैं॥ 3-15 ॥सौम्य, बर्हिषद्, काव्य और अग्निष्वात्त- पितरोंके ये तीन भेद हैं। इनमें जो गृहस्थ, यज्ञकर्ता और हवन करनेवाले हैं, वे आर्तव पितर पुराणमें बर्हिषद् नामसे निश्चित किये गये हैं। गृहस्थाश्रमी और यज्ञकर्ता आर्तव पितर अग्निष्वात्त कहलाते हैं। अष्टकापति आर्तव पितरोंको काव्य कहा जाता है। अब पञ्चाब्दोंको सुनिये। इनमें अग्नि संवत्सर, सूर्य परिवार, सोम इदयत्सर, वायु अनुवत्सर और रुद्र वत्सर हैं। ये पञ्चाब्द युगात्मक होते। हैं। समयानुसार इनपर स्थित हुए चन्द्रमा अमृतका क्षरण करते हैं। ये देवकर्म कहे जाते हैं। जबतक पुरूरवा वहाँ रहता था तबतक वह जो सोमप और ऊष्मप पितर हैं, उनको भी उसी अमृतसे तृप्त करता था। चूँकि चन्द्रमा प्रत्येक मासमें विशेषरूपसे अमृतका क्षरण करते हैं और वह सोमपायी पितरोंको स्वधामृतरूपसे प्राप्त होता है। इसीलिये वह अमृतस्वरूप मधु सोमको प्राप्त होता है। इस प्रकार पितरोंद्वारा चन्द्रमाका अमृत पी लिये जानेपर सूर्यदेव अपनी एकमात्र सुषुम्णा नामकी किरणद्वारा उन सोमपायी चन्द्रमाको पुनः परिपूर्ण कर देते हैं। इस प्रकार सूर्य सुषुम्णाद्वारा पूर्ण किये जाते हुए चन्द्रमाकी पहले की सम्पूर्ण कलाओंको दिनके क्रमसे थोड़ा-थोड़ा करके पूर्ण करते हैं। चन्द्रमाको कलाएँ कृष्णपक्षमें क्षीण हो जाती हैं और शुक्लपक्षमें वे पुनः पूर्ण हो जाती हैं। इस प्रकार सूर्यके प्रभावसे चन्द्रमाका शरीर पूर्ण होता रहता है। इसी कारण शुक्लपक्षमें दिनके क्रमसे परिपूर्ण किये गये चन्द्रमाका सम्पूर्ण मण्डल पूर्णिमा तिथिको श्वेत वर्णका दिखायी पड़ता है। पहले देवगण चन्द्रमासे स्रवित हुए अमृतको पीते हैं, उसके बाद सूर्य भी सोमका पान करते हैं। सूर्य अपनी एक किरणसे पंद्रह दिनोंतक सोमको पीते हैं और पुनः दिनके क्रमसे थोड़ा-थोड़ा कर सुषुम्णा किरणद्वारा उसे पूर्ण कर देते हैं। इसी कारण शुक्लपक्षमें चन्द्रमाको कलाएँ बढ़ती हैं और कृष्णपक्षमें वे क्षीण होती हैं, यही इनका क्रम है। इस प्रकार चन्द्रमा पंद्रह दिनोंतक बढ़ते हैं और पुनः पंद्रह दिनतक क्षीण होते रहते हैं चन्द्रमाकी इस प्रकारकी समृद्धि और हास शुक्लपक्ष एवं कृष्णपक्षके आश्रयसे होते हैं। इस प्रकार सुधामृतस्रावी पंद्रह किरणोंसे सुशोभित ये चन्द्रमा सुधात्मक एवं पितृमान् | कहे जाते हैं ।। 16- 29 ॥इसके बाद अब मैं पर्वोंकी जो संधियाँ हैं, उनका वर्णन कर रहा हूँ। जैसे गन्ने और बाँसमें गोलाकार गाँठें बनी रहती हैं वैसे ही वर्ष, मास, शुक्लपक्ष, कृष्णपक्ष, अमावास्या और पूर्णिमाके भेद ये सभी पर्वकी ग्रन्थिय और संधियाँ हैं। (प्रत्येक पक्षमें) प्रतिपद् द्वितीया आदि पंद्रह तिथियाँ होती है। चूँकि अग्न्याधान आदि क्रियाएँ पर्वसंधियोंमें सम्पन्न की जाती हैं, अतः उन्हें (अमा, पूर्णिमा) पर्वकी तथा प्रतिपदाकी संधियोंमें करना चाहिये। चतुर्दशी और पूर्णिमा आदिके दो लवको पर्वकाल कहा जाता है तथा राकाके दूसरे दिनमें आनेवाले दो लबको पर्वकाल जानना चाहिये। कृष्णपक्षके अपराधिक कालके व्यतीत हो जानेपर सायंकालमें प्रतिपदाके योगमें जो काल आता है उसे पीर्णमासिक कहते हैं। सूर्यके लेखा (विषुव) के ऊपर व्यतीपात में स्थित होनेपर युगान्तर कहलाता है। उस समय चन्द्रमा लेखाके ऊपर स्थित युगान्तरमें उदित होते हैं। इस प्रकार जब चन्द्रमा और व्यतीपात परस्पर एक-दूसरेको देखें और प्रतिपदा तिथितक उसी अवस्थामें स्थित रहें तो उस समय सूर्यके उद्देश्यसे उस समयको देखकर गणना करनी चाहिये। उसे सत्क्रियाकाल नामक छठा काल कहते हैं। शुक्लपक्षके पूर्ण होनेपर रात्रिकी संधिमें जब पूर्णचन्द्र उदय होते हैं, तब उसे पूर्णिमा कहते हैं। इसीलिये चन्द्रमा पूर्णिमाकी रात में अपनी सभी कलाओंसे पूर्ण हो जाते हैं। पूर्णिमा तिथिकी ह्रास वृद्धि होती रहती है, अतः यदि वृद्धिके समय दूसरे दिन सूर्य और चन्द्र दिनमें पूर्णिमामें दीखते हैं तो वह तिथि पूर्ण होनेके कारण पूर्णिमा कहलाती है। यदि दूसरे दिन प्रतिपदाका योग होनेमें चन्द्रमाको एक कला हीन हो गयी तो उस पूर्णिमाको अनुमति कहते हैं। यह अनुमति देवताओं सहित पितरोंको परम प्रिय है। चूँकि पूर्णिमाकी रातमें चन्द्रमा अत्यन्त सुशोभित होते हैं, इसलिये चन्द्रमाको प्रिय होनेके कारण उस पूर्णिमाको विद्वानोंने राका नामसे अभिहित किया है। कृष्णपक्षकी पंद्रहवीं रात्रिको जब सूर्य और चन्द्र एक साथ एक नक्षत्रपर स्थित होते हैं, तब उसे अमावास्या कहा जाता है ॥ 30-42 ll

उस अमावास्याको लक्ष्य कर जब सूर्य और चन्द्रमा दर्शपर आ जाते हैं और परस्पर | एक-दूसरेको देखते हैं, तब उसे दर्श कहते हैं।अमावास्यामें पर्वसंधिके अवसरपर दो-दो लव पर्वकाल कहलाते हैं। इनमें प्रतिपदाके योगवाला पर्वकाल कुहू कहलाता है। जिस दिन दोपहरतक अमावास्यामें चन्द्रमाका सम्पर्क बना रहे और उसके बाद रात्रिके प्राप्त होनेपर चन्द्रमा सहसा सूर्यके निकट पहुँच जायें, पुनः प्रात: काल सूर्यमण्डलसे पृथक् हो जायें तो शुक्लपक्षको प्रतिपदामें प्रातःकाल दो लव पर्वकाल कहलाता है। इस प्रकार सूर्यमण्डल और चन्द्रमण्डलके पृथक् होते समय अमावास्याके उस मध्यवर्ती कालको अन्वाहुति कहते हैं। इसमें पितरोंके निमित्त वषट् क्रियाएँ की जाती हैं। इसे ऋतुमुख और अमावास्याको पार्वण जानना चाहिये। दिनमें जब क्षीण चन्द्रमा सूर्यके साथ मिलते हैं। तब अमावास्याका वह काल पर्वकाल कहलाता है। इसीलिये दिनमें अमावास्याके उस पर्वकालमें सूर्यके पहुँचनेपर सूर्य गृहीत हो जाते हैं अर्थात् सूर्यग्रहण लगता है। कोयलद्वारा उच्चरित 'कुहू' शब्द जितने समयमें समाप्त होता है, अमावास्याका उतना मुख्य काल 'कुहू' नामसे कहा जाता है। सिनीवालीका प्रमाण यह है कि जब क्षीण चन्द्रमा सूर्यमें प्रवेश करते हैं तब वह अमावास्या सिनीवाली कही जाती है। अनुमति, राका, सिनीवाली और कुहू इनका दो लवकाल पर्वकाल होता है। कुहू शब्दके उच्चारणपर्यन्त कालको कुहू कहते हैं। इस प्रकार पर्वसंधियोंका यह काल दो लवका बतलाया जाता है और यह पर्वोके समान फलदायक होता है। इसमें हवन और वषट् क्रियाएँ की जाती हैं। चन्द्रमा और सूर्यका व्यतिपातपर स्थित होना तथा दोनों (अमावास्या और पूर्णिमा) पूर्णिमाएँ ये सभी एक-से पुण्यदायक हैं। प्रतिपदाके संयोगसे उत्पन्न होनेवाला पर्वकाल दो लवका होता है। इसी प्रकार कुहू और सिनीवालीके सम्बन्धसे उत्पन्न हुआ पर्वकाल भी दो लवका ही माना जाता है। चन्द्रमा जब सूर्यमण्डलसे बाहर होते हैं, तब वह पर्वकाल एक कलाका बतलाया जाता है। चूँकि दिनके क्रमसे पंद्रहवीं तिथिको चन्द्रमा पंद्रह कलाओंद्वारा पूर्ण किये जाते हैं, इसलिये उस तिथिको पूर्णिमा कहते हैं। इस प्रकार चन्द्रमा पंद्रह कलाओंवाले ही हैं, उनमें सोलहवीं कला नहीं है। इसी कारण मैंने पंद्रहवीं तिथिको चन्द्रमाकाक्षय बतलाया है। इस प्रकार ये सोमपायी देव-पितर सोमकी वृद्धि करनेवाले हैं और ऋतु एवं अन्दसे सम्बन्धित आर्तवसंज्ञक देवगण उन्हींके परिपोषक हैं ॥ 43-57॥ इसके बाद अब मैं जो श्राद्धभोजी पितर हैं, उनकी गति, उनका उत्तम तत्त्व तथा उनके निमित्त दिये गये श्राद्धकी प्राप्तिका वर्णन कर रहा हूँ। मृतकोंके आवागमनका रहस्य तो उत्कृष्ट तपोबलसम्पन्न तपस्वी भी नहीं जान सकते, फिर चर्मचक्षुधारी साधारण मनुष्यकी तो बात ही क्या है। इन श्राद्धभोजियोंमें देवता और पितर दोनों हैं। इनमें जो अपने धर्मके बलसे सायुज्य मुक्तिको प्राप्त कर चुके हैं अथवा आश्रमधर्मका पालन करते हुए ज्ञान-प्राप्तिमें लगे हुए हैं और श्रद्धायुक्त कर्मोंके सम्पन्न होनेपर प्रसन्न होते हैं, उन्हें महर्षिगण लौकिक पितर कहते हैं ब्रह्मचर्य तप, यज्ञ, संतान, श्राद्ध, विद्या और अन्नदान—ये भूतलपर | प्रधान धर्म कहे गये हैं। जो लोग मृत्युपर्यन्त इन सातों धर्मोका पालन करते हुए इनमें आसक्त रहते हैं, वे ऊष्मप तथा सोमप देवताओं और पितरोंके साथ स्वर्गलोकमें जाकर आनन्दका उपभोग करते हुए पितरोंकी उपासना करते हैं ऐसी प्रसिद्धि उन संतानयुक्त श्राद्धकर्ताओंक लिये कही गयी है, जिनके लिये उनके कुलीन भाई बन्धुओंने दानके अवसरपर श्राद्ध आदि प्रदान किया है। मासिक श्राद्धमें भोजन करनेवाले पितर चन्द्रलोकवासी हैं। ये मासश्रद्ध भोजी पितर मनुष्योंकि पितर है। इनके अतिरिक्त जो अन्य लोग कर्मानुसार प्राप्त हुई योनियों में कष्ट झेल रहे हैं, आश्रमधर्मसे भ्रष्ट हो गये हैं, जिनके लिये स्वाहा स्वधाका प्रयोग हुआ ही नहीं है, जो शरीरके न होनेपर यमलोकमें प्रेत होकर दुर्गति भोग रहे हैं, नरक स्थानपर पहुँचकर अपने कर्मोंपर पश्चात्ताप करते हैं, लम्बे शरीरवाले, अत्यन्त कृशकाय, लम्बी दाढ़ियोंसे युक्त, वस्त्रहीन और भूख एवं प्याससे व्याकुल होकर इधर-उधर दौड़ते हैं, नदी, सरोवर, ताग और जलाशयोंपर सब ओर दूसरोंके द्वारा दिये गये अनकी ताकमें इधर-उधर घूमते रहते हैं, शाल्मली, वैतरणी, कुम्भीपाक, तप्तवालुका और असिपत्रवन नामक भीषण नरकोंमें अपने कर्मानुसार गिराये जाते हैं तथा उन नरकोंमें पड़े हुए जो निद्रारहित हो दुःख भोग रहे हैं,उन लोकान्तर स्थित जीवक लिये उनके भाई-बन्धुओं यह भूतलपर जब उनका नाम गोत्र उच्चारण कर अपसव्य होकर कुशौपर तीन पिण्ड प्रदान किये जाते है तब प्रेतस्थानोंमें स्थित
होनेपर भी वे पिण्ड उन्हें प्राप्त होकर तूस करते हैं
।। 58-72 ।।

जो नरकोंमें न जाकर पाँच प्रकारसे विभक्त होकर भ्रष्ट हो चुके हैं अर्थात् जो मृत्युके उपरान्त अपने कर्मोंके अनुसार स्थावर, भूत-प्रेत, अनेकों प्रकारकी जातियों, तिर्यग्योमियों एवं अन्य जन्तुओंमें जन्म ले चुके हैं, वहाँ उन उन योनियोंमें वे जैसे आहारवाले होते हैं, उन्हीं उन्हीं योनियोंमें उसी आहारके रूपमें परिणत होकर श्राद्धमें दिया गया पिण्ड उन्हें तृप्त करता है। यदि श्राद्धोपयुक्त कालमें न्यायोपार्जित अन्न (मृतकोंकि निमित्त) विधिपूर्वक सत्पात्रको दान किया जाता है तो वह अत्र वे मृतक जहाँ-कहीं भी रहते हैं, उन्हें प्राप्त होता है जैसे बछड़ा गौओंमें विलीन हुई अपनी माँको ढूँढ़ निकालता है उसी प्रकार श्राद्धोंमें प्रयुक्त हुआ मन्त्र (दानकी वस्तुओंको) उस जीवके पास पहुँचा देता है। इस प्रकार विधानपूर्वक श्रद्धासहित दिया गया बाद्ध-दान उस जीवको प्राप्त होता है—ऐसा मनुने कहा है। साथ ही महर्षि सनत्कुमारने भी, जो प्रेतोंके गमनागमनके ज्ञाता हैं, दिव्य चक्षुसे देखकर श्राद्धकी प्राप्तिके विषयमें ऐसा ही बतलाया है। कृष्णपक्ष उन पितरोंका दिन है तथा शुक्लपक्ष शयन करनेके लिये उनकी रात्रि है। इस प्रकार ये पितृदेव और देवपितर स्वर्गलोक परस्पर एक-दूसरेके देवता और पितर है यह तो स्वर्गीय देवों और पितरोंकी बात हुई। मनुष्योंकि पितर पिता, पितामह और प्रपितामह हैं। इस प्रकार मैंने सोमपायी पितरोंके विषयमें वर्णन कर दिया। पितरोंका यह | महत्त्व पुराणोंमें निश्चित किया गया है। इस प्रकार मैंने इला नन्दन पुरूरवाका चन्द्रमा और सूर्यके साथ समागम, पितरोंको श्रद्धापूर्वक दी गयी वस्तुकी प्राप्ति, पितरोंका तर्पण, पर्व काल और यातनास्थान (नरक) का संक्षिप्त वर्णन आपको सुना दिया, यही सनातन सर्ग है। इसका विस्तार बहुत बड़ा है। मैंने संक्षेपमें ही इसका वर्णन किया है; क्योंकि पूर्णरूपसे वर्णन करना तो असम्भव है। इसलिये कल्याणकामीको | इसपर श्रद्धा रखनी चाहिये। मैंने स्वायम्भुव मनुके इस सर्गका विस्तारपूर्वक आनुपूर्वी वर्णन कर दिया। अब पुनः आपलोगोंको क्या बतलाऊँ ? ॥ 73- 85 ॥

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मत्स्य पुराण
Index


  1. [अध्याय 1]मङ्गलाचरण, शौनक आदि मुनियोंका सूतजीसे पुराणविषयक प्रश्न, सूतद्वारा मत्स्यपुराणका वर्णनारम्भ, भगवान् विष्णुका मत्स्यरूपसे सूर्यनन्दन मनुको मोहित करना, तत्पश्चात् उन्हें आगामी प्रलयकालकी सूचना देना
  2. [अध्याय 2]मनुका मत्स्यभगवान्से युगान्तविषयक प्रश्न, मत्स्यका प्रलयके स्वरूपका वर्णन करके अन्तर्धान हो जाना, प्रलयकाल उपस्थित होनेपर मनुका जीवोंको नौकापर चढ़ाकर उसे महामत्स्यके सींगमें शेषनागकी रस्सीसे बाँधना एवं उनसे सृष्टि आदिके विषयमें विविध प्रश्न करना और मत्स्यभगवान्‌का उत्तर देना
  3. [अध्याय 3]मनुका मत्स्यभगवान् से ब्रह्माके चतुर्मुख होने तथा लोकोंकी सृष्टि करनेके विषयमें प्रश्न एवं मत्स्य भगवानद्वारा उत्तररूपमें ब्रह्मासे वेद, सरस्वती, पाँचवें मुख और मनु आदिकी उत्पत्तिका कथन
  4. [अध्याय 4]पुत्रीकी और बार-बार अवलोकन करनेसे ब्रह्मा दोषी क्यों नहीं हुए- एतद्विषयक मनुका प्रश्न, मत्स्यभगवान्का उत्तर तथा इसी प्रसङ्गमें आदिसृष्टिका वर्णन
  5. [अध्याय 5]दक्षकन्याओं की उत्पत्ति, कुमार कार्त्तिकेयका जन्म तथा दक्षकन्याओं द्वारा देवयोनियोंका प्रादुर्भाव
  6. [अध्याय 6]कश्यप-वंशका विस्तृत वर्णन
  7. [अध्याय 7]मरुतोंकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें दितिकी तपस्या, मदनद्वादशी व्रतका वर्णन, कश्यपद्वारा दितिको वरदान, गर्भिणी स्त्रियोंके लिये नियम तथा मरुतोंकी उत्पत्ति
  8. [अध्याय 8]प्रत्येक सर्गके अधिपतियोंका अभिषेचन तथा पृथुका राज्याभिषेक
  9. [अध्याय 9]मन्वन्तरोंके चौदह देवताओं और सप्तर्षियोंका विवरण
  10. [अध्याय 10]महाराज पृथुका चरित्र और पृथ्वी दोहनका वृत्तान्त
  11. [अध्याय 11]सूर्यवंश और चन्द्रवंशका वर्णन तथा इलाका वृत्तान्त
  12. [अध्याय 12]इलाका वृत्तान्त तथा इक्ष्वाकु वंशका वर्णन
  13. [अध्याय 13]पितृ-वंश-वर्णन तथा सतीके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें देवीके एक सौ आठ नामोंका विवरण
  14. [अध्याय 14]अच्छोदाका पितृलोकसे पतन तथा उसकी प्रार्थनापर पितरोंद्वारा उसका पुनरुद्धार
  15. [अध्याय 15]पितृवंशका वर्णन, पीवरीका वृत्तान्त तथा श्रद्ध-विधिका कथन
  16. [अध्याय 16]श्राद्धोंके विविध भेद, उनके करनेका समय तथा श्राद्धमें निमन्त्रित करनेयोग्य ब्राह्मणके लक्षण
  17. [अध्याय 17]साधारण एवं आभ्युदयिक श्राद्धकी विधिका विवरण
  18. [अध्याय 18]एकोदिए और सपिण्डीकरण श्राद्धकी विधि
  19. [अध्याय 19]श्राद्धों में पितरोंके लिये प्रदान किये गये हव्य-कव्यकी प्राप्तिका विवरण
  20. [अध्याय 20]महर्षि कौशिकके पुत्रोंका वृत्तान्त तथा पिपीलिकाकी कथा
  21. [अध्याय 21]ब्रह्मदत्तका वृत्तान्त तथा चार चक्रवाकोंकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22]श्राद्धके योग्य समय, स्थान (तीर्थ) तथा कुछ विशेष नियमोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23]चन्द्रमाकी उत्पत्ति, उनका दक्ष प्रजापतिकी कन्याओंके साथ विवाह, चन्द्रमाद्वारा राजसूय यज्ञका अनुष्ठान, उनकी तारापर आसक्ति, उनका भगवान् शङ्करके साथ युद्ध तथा ब्रह्माजीका बीच-बचाव करके युद्ध शान्त करना'
  24. [अध्याय 24]ताराके गर्भसे बुधकी उत्पत्ति, पुरूरवाका जन्म, पुरूरवा और उर्वशीकी कथा, नहुष-पुत्रोंके वर्णन-प्रसङ्गमें ययातिका वृत्तान्त
  25. [अध्याय 25]कचका शिष्यभावसे शुक्राचार्य और देवयानीकी सेवामें संलग्न होना और अनेक कष्ट सहनेके पश्चात्मृतसंजीविनी विद्या प्राप्त करना
  26. [अध्याय 26]देवयानीका कचसे पाणिग्रहणके लिये अनुरोध, कचकी अस्वीकृति तथा दोनोंका एक-दूसरेको शाप देना
  27. [अध्याय 27]देवयानी और शर्मिष्ठाका कलह, शर्मिष्ठाद्वारा कुऍमें गिरायी गयी देवयानीको ययातिका निकालना और देवयानीका शुक्राचार्यके साथ वार्तालाप
  28. [अध्याय 28]शुक्राचार्यद्वारा देवयानीको समझाना और देवयानीका असंतोष
  29. [अध्याय 29]शुक्राचार्यका नृपपको फटकारना तथा उसे छोड़कर जानेके लिये उद्यत होना और वृषपवकि आदेशसे शर्मिष्ठाका देवयानीकी दासी बनकर शुक्राचार्य तथा देवयानीको संतुष्ट करना
  30. [अध्याय 30]सखियोंसहित देवयानी और शर्मिष्ठाका वनविहार, राजा ययातिका आगमन, देवयानीके साथ बातचीत तथा विवाह
  31. [अध्याय 31]ययातिसे देवयानीको पुत्रप्राप्ति, ययाति और शर्मिष्ठाका एकान्त मिलन और उनसे एक पुत्रका जन्म
  32. [अध्याय 32]देवयानी और शर्मिष्ठाका संवाद, ययातिसे शर्मिष्ठाके पुत्र होनेकी बात जानकर देवयानीका रूठना और अपने पिताके पास जाना तथा शुक्राचार्यका ययातिको बूढ़े होनेका शाप देना
  33. [अध्याय 33]ययातिका अपने यदु आदि पुत्रोंसे अपनी युवावस्था देकर वृद्धावस्था लेनेके लिये आग्रह और उनके अस्वीकार करनेपर उन्हें शाप देना, फिर पूरुको जरावस्था देकर उसकी युवावस्था लेना तथा उसे वर प्रदान करना
  34. [अध्याय 34]राजा ययातिका विषय सेवन और वैराग्य तथा पूरुका राज्याभिषेक करके वनमें जाना
  35. [अध्याय 35]वनमें राजा ययातिकी तपस्या और उन्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति
  36. [अध्याय 36]इन्द्रके पूछनेपर ययातिका अपने पुत्र पुरुको दिये हुए उपदेशकी चर्चा करना
  37. [अध्याय 37]ययातिका स्वर्गसे पतन और अष्टकका उनसे प्रश्न करना
  38. [अध्याय 38]ययाति और अष्टकका संवाद
  39. [अध्याय 39]अष्टक और ययातिका संवाद
  40. [अध्याय 40]ययाति और अष्टकका आश्रमधर्मसम्बन्धी संवाद
  41. [अध्याय 41]अष्टक-ययाति-संवाद और ययातिद्वारा दूसरोंके दिये हुए पुण्यदानको अस्वीकार करना
  42. [अध्याय 42]राजा ययातिका वसुमान् और शिबिके प्रतिग्रहको अस्वीकार करना तथा अष्टक आदि चारों राजाओंके साथ स्वर्गमें जाना
  43. [अध्याय 43]ययाति-वंश-वर्णन, यदुवंशका वृत्तान्त तथा कार्तवीर्य अर्जुनकी कथा
  44. [अध्याय 44]कार्तवीर्यका आदित्यके तेजसे सम्पन्न होकर वृक्षोंको जलाना, महर्षि आपवद्वारा कार्तवीर्यको शाप और क्रोष्टुके वंशका वर्णन
  45. [अध्याय 45]वृष्णिवंशके वर्णन-प्रसङ्गमें स्यमन्तक मणिकी कथा
  46. [अध्याय 46]वृष्णिवंशका वर्णन
  47. [अध्याय 47]श्रीकृष्ण चरित्रका वर्णन, दैत्योंका इतिहास तथा देवासुर संग्रामके प्रसङ्गमें विभिन्न अवान्तर कथाएँ
  48. [अध्याय 48]तुर्वसु और झुके वंशका वर्णन, अनुके वंश-वर्णनमें बलिकी कथा और कर्णकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग
  49. [अध्याय 49]पूरु- वंशके वर्णन-प्रसङ्गमें भरत वंशकी कथा, भरद्वाजकी उत्पत्ति और उनके वंशका कथन, नीप - वंशका वर्णन तथा पौरवोंका इतिहास
  50. [अध्याय 50]पुरुवंशी नरेशोंका विस्तृत इतिहास
  51. [अध्याय 51]अग्नि- वंशका वर्णन तथा उनके भेदोपभेदका कथन
  52. [अध्याय 52]कर्मयोगकी महत्ता
  53. [अध्याय 53]पुराणोंकी नामावलि और उनका संक्षिप्त परिचय
  54. [अध्याय 54]नक्षत्र-पुरुष-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  55. [अध्याय 55]आदित्यशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  56. [अध्याय 56]श्रीकृष्णाष्टमी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  57. [अध्याय 57]रोहिणीचन्द्रशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  58. [अध्याय 58]तालाब, बगीचा, कुआं,बावली,पुष्करिणी तथा देव मन्दिर की प्रतिष्ठ आदिका विधान
  59. [अध्याय 59]वृक्ष लगानेकी विधि
  60. [अध्याय 60]सौभाग्यशयन-व्रत तथा जगद्धात्री सतीकी आराधना
  61. [अध्याय 61]अगस्त्य और वसिष्ठकी दिव्य उत्पत्ति, उर्वशी अप्सराका प्राकट्य और अगस्त्य के लिये अयं-प्रदान करनेकी विधि एवं माहात्म्य
  62. [अध्याय 62]अनन्ततृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  63. [अध्याय 63]रसकल्याणिनी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  64. [अध्याय 64]आर्द्रानन्दकरी तृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  65. [अध्याय 65]अक्षयतृतीया-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  66. [अध्याय 66]सारस्वत - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  67. [अध्याय 67]सूर्य-चन्द्र-ग्रहणके समय स्नानकी विधि और उसका माहात्म्य
  68. [अध्याय 68]सप्तमीस्त्रपन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  69. [अध्याय 69]भीमद्वादशी व्रतका विधान
  70. [अध्याय 70]पण्यस्त्री व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  71. [अध्याय 71]अशून्यशयन (द्वितीया ) - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  72. [अध्याय 72]अङ्गारक- व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  73. [अध्याय 73]शुक्र और गुरुकी पूजा-विधि
  74. [अध्याय 74]कल्याणसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  75. [अध्याय 75]विशोकसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  76. [अध्याय 76]फलसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  77. [अध्याय 77]शर्करासप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  78. [अध्याय 78]कमलसप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  79. [अध्याय 79]मन्दारसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  80. [अध्याय 80]शुभ सप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  81. [अध्याय 81]विशोकद्वादशी व्रतकी विधि
  82. [अध्याय 82]गुड-धेनु के दान की विधि और उसकी महिमा
  83. [अध्याय 83]पर्वतदानके दस भेद, धान्यशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  84. [अध्याय 84]लवणाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  85. [अध्याय 85]गुडपर्वतके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  86. [अध्याय 86]सुवर्णाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  87. [अध्याय 87]तिलशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  88. [अध्याय 88]कार्पासाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  89. [अध्याय 89]घृताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  90. [अध्याय 90]रत्नाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  91. [अध्याय 91]रजताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  92. [अध्याय 92]शर्कराशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य तथा राजा धर्ममूर्तिके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें लवणाचलदानका महत्त्व
  93. [अध्याय 93]शान्तिक एवं पौष्टिक कर्मों तथा नवग्रह शान्तिकी विधिका वर्णन *
  94. [अध्याय 94]नवग्रहोंके स्वरूपका वर्णन
  95. [अध्याय 95]माहेश्वर-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  96. [अध्याय 96]सर्वफलत्याग- व्रतका विधान और उसका माहात्म्य
  97. [अध्याय 97]आदित्यवार-कल्पका विधान और माहात्म्य
  98. [अध्याय 98]संक्रान्ति व्रतके उद्यापनकी विधि
  99. [अध्याय 99]विभूतिद्वादशी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  100. [अध्याय 100]विभूतिद्वादशी* के प्रसङ्गमें राजा पुष्पवाहनका वृत्तान्त
  101. [अध्याय 101]साठ व्रतोंका विधान और माहात्म्य
  102. [अध्याय 102]स्नान और तर्पणकी विधि
  103. [अध्याय 103]युधिष्ठिरकी चिन्ता, उनकी महर्षि मार्कण्डेयसे भेंट और महर्षिद्वारा प्रयाग-माहात्म्यका उपक्रम
  104. [अध्याय 104]प्रयाग-माहात्म्य-प्रसङ्गमें प्रयाग क्षेत्रके विविध तीर्थस्थानोंका वर्णन
  105. [अध्याय 105]प्रयागमें मरनेवालोंकी गति और गो-दानका महत्त्व
  106. [अध्याय 106]प्रयाग माहात्म्य वर्णन-प्रसङ्गमें वहांके विविध तीर्थोंका वर्णन
  107. [अध्याय 107]प्रयाग स्थित विविध तीर्थोका वर्णन
  108. [अध्याय 108]प्रयागमें अनशन-व्रत तथा एक मासतकके निवास ( कल्पवास) का महत्त्व
  109. [अध्याय 109]अन्य तीर्थोकी अपेक्षा प्रयागकी महत्ताका वर्णन
  110. [अध्याय 110]जगत्के समस्त पवित्र तीर्थोंका प्रयागमें निवास
  111. [अध्याय 111]प्रयाग में ब्रह्मा, विष्णु और शिवके निवासका वर्णन
  112. [अध्याय 112]भगवान् वासुदेवद्वारा प्रयागके माहात्म्यका वर्णन
  113. [अध्याय 113]भूगोलका विस्तृत वर्णन
  114. [अध्याय 114]भारतवर्ष, किम्पुरुषवर्ष तथा हरिवर्षका वर्णन
  115. [अध्याय 115]राजा पुरूरवाके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  116. [अध्याय 116]ऐरावती नदीका वर्णन
  117. [अध्याय 117]हिमालयकी अद्भुत छटाका वर्णन
  118. [अध्याय 118]हिमालयकी अनोखी शोभा तथा अत्रि - आश्रमका वर्णन
  119. [अध्याय 119]आश्रमस्थ विवरमें पुरूरवा * का प्रवेश, आश्रमकी शोभाका वर्णन तथा पुरूरवाकी तपस्या
  120. [अध्याय 120]राजा पुरूरवाकी तपस्या, गन्धवों और अप्सराओंकी क्रीडा, महर्षि अत्रिका आगमन तथा राजाको वरप्राप्त
  121. [अध्याय 121]कैलास पर्वतका वर्णन, गङ्गाकी सात धाराओंका वृत्तान्त तथा जम्बूद्वीपका विवरण
  122. [अध्याय 122]शाकद्वीप, कुशद्वीप, क्रौञ्चद्वीप और शाल्मलद्वीपका वर्णन
  123. [अध्याय 123]गोमेदकद्वीप और पुष्करद्वीपका वर्णन
  124. [अध्याय 124]सूर्य और चन्द्रमाको गतिका वर्णन
  125. [अध्याय 125]सूर्यकी गति और उनके रथका वर्णन
  126. [अध्याय 126]सूर्य रथ पर प्रत्येक मासमें भिन्न-भिन्न देवताओंका अधिरोहण तथा चन्द्रमाकी विचित्र गति
  127. [अध्याय 127]ग्रहोंके रथका वर्णन और ध्रुवकी प्रशंसा
  128. [अध्याय 128]देव-गृहों तथा सूर्य-चन्द्रमाकी गतिका वर्णन
  129. [अध्याय 129]त्रिपुर- निर्माणका वर्णन
  130. [अध्याय 130]दानवश्रेष्ठ मयद्वारा त्रिपुरकी रचना
  131. [अध्याय 131]त्रिपुरमें दैत्योंका सुखपूर्वक निवास, मयका स्वप्न-दर्शन और दैत्योंका अत्याचार
  132. [अध्याय 132]त्रिपुरवासी दैत्योंका अत्याचार, देवताओंका ब्रह्माकी शरणमें जाना और ब्रह्मासहित शिवजीके पास जाकर उनकी स्तुति करना
  133. [अध्याय 133]त्रिपुर- विध्वंसार्थ शिवजीके विचित्र रथका निर्माण और देवताओंके साथ उनका युद्धके लिये प्रस्थान
  134. [अध्याय 134]देवताओं सहित शङ्करजीका त्रिपुरपर आक्रमण, त्रिपुरमें देवर्षि नारदका आगमन तथा युद्धार्थ असुरोंकी तैयारी
  135. [अध्याय 135]शङ्करजीकी आज्ञा इन्द्रका त्रिपुरपर आक्रमण, दोनों सेनाओंमें भीषण संग्राम, विद्युन्मालीका वध, देवताओंकी विजय और दानवोंका युद्ध विमुख होकर त्रिपुरमें प्रवेश
  136. [अध्याय 136]मयका चिन्तित होकर अद्भुत बावलीका निर्माण करना, नन्दिकेश्वर और तारकासुरका भीषण युद्ध तथा प्रमथगणोंकी मारसे विमुख होकर दानवोंका त्रिपुर-प्रवेश
  137. [अध्याय 137]वापी शोषणसे मयको चिन्ता, मय आदि दानवोंका त्रिपुरसहित समुद्रमें प्रवेश तथा शंकरजीका इन्द्रको युद्ध करनेका आदेश
  138. [अध्याय 138]देवताओं और दानवोंमें घमासान युद्ध तथा तारकासुरका वध
  139. [अध्याय 139]दानवराज मयका दानवोंको समझा-बुझाकर त्रिपुरकी रक्षामें नियुक्त करना तथा त्रिपुरकौमुदीका वर्णन
  140. [अध्याय 140]देवताओं और दानवोंका भीषण संग्राम, नन्दीश्वरद्वारा विद्युन्मालीका वध, मयका पलायन तथा शङ्करजीकी त्रिपुरपर विजय
  141. [अध्याय 141]पुरूरवाका सूर्य-चन्द्रके साथ समागम और पितृतर्पण, पर्वसंधिका वर्णन तथा श्राद्धभोजी पितरोंका निरूपण
  142. [अध्याय 142]युगोंकी काल-गणना तथा त्रेतायुगका वर्णन
  143. [अध्याय 143]यज्ञकी प्रवृत्ति तथा विधिका वर्णन
  144. [अध्याय 144]द्वापर और कलियुगकी प्रवृत्ति तथा उनके स्वभावका वर्णन, राजा प्रमतिका वृत्तान्त तथा पुनः कृतयुगके प्रारम्भका वर्णन
  145. [अध्याय 145]युगानुसार प्राणियोंको शरीर स्थिति एवं वर्ण-व्यवस्थाका वर्णन, श्रौतस्मार्त, धर्म, तप, यज्ञ, क्षमा, शम, दया आदि गुणोंका लक्षण, चातुर्होत्र की विधि तथा पाँच प्रकारके ऋषियोंका वर्णन
  146. [अध्याय 146]वज्राङ्गकी उत्पत्ति, उसके द्वारा इन्द्रका बन्धन, ब्रह्मा और कश्यपद्वारा समझाये जानेपर इन्द्रको बन्धनमुक्त करना, वज्राङ्गका विवाह, तप तथा ब्रह्माद्वारा वरदान
  147. [अध्याय 147]ब्रह्माके वरदानसे तारकासुरकी उत्पत्ति और उसका राज्याभिषेक
  148. [अध्याय 148]तारकासुरकी तपस्या और ब्रह्माद्वारा उसे वरदानप्राप्ति, देवासुर संग्रामकी तैयारी तथा दोनों दलोंकी सेनाओंका वर्णन
  149. [अध्याय 149]देवासुर संग्रामका प्रारम्भ
  150. [अध्याय 150]देवताओं और असुरोंकी सेनाओंमें अपनी-अपनी जोड़ीके साथ घमासान युद्ध, देवताओंके विकल होनेपर भगवान् विष्णुका युद्धभूमिमें आगमन और कालनेमिको परास्त कर उसे जीवित छोड़ देना
  151. [अध्याय 151]भगवान् विष्णुपर दानवोंका सामूहिक आक्रमण, भगवान् विष्णुका अद्भुत युद्ध-कौशल और उनके द्वारा दानव सेनापति ग्रसनकी मृत्यु
  152. [अध्याय 152]भगवान् विष्णुका मधन आदि दैत्योंके साथ भीषण संग्राम और अन्तमें घायल होकर युद्धसे पलायन
  153. [अध्याय 153]भगवान् विष्णु और इन्द्रका परस्पर उत्साहवर्धक वार्तालाप, देवताओंद्वारा पुनः सैन्ध-संगठन, इन्द्रका असुरोंके साथ भीषण युद्ध, गजासुर और जम्भासुरकी मृत्यु तारकासुरका घोर संग्राम और उसके द्वारा भगवान् विष्णुसहित देवताओंका बंदी बनाया जाना
  154. [अध्याय 154]तारकके आदेश से देवताओंकी बन्धन-मुक्ति, देवताओंका ब्रह्माके पास जाना और अपनी विपत्तिगाथा सुनाना, ब्रह्माद्वारा तारक-वधके उपायका वर्णन, रात्रिदेवीका प्रसङ्ग, उनका पार्वतीरूपमें जन्म, काम दहन और रतिकी प्रार्थना, पार्वतीकी तपस्या, शिवपार्वती विवाह तथा पार्वतीका वीरकको पुत्ररूपमें स्वीकार करना *
  155. [अध्याय 155]भगवान् शिवद्वारा पार्वतीके वर्णपर आक्षेप, पार्वतीका वीरकको अन्तःपुरका रक्षक नियुक्त कर पुनः तपश्चर्याके लिये प्रस्थान
  156. [अध्याय 156]कुसुमामोदिनी और पार्वतीकी गुप्त मन्त्रणा, पार्वतीका तपस्यायें निरत होना आदि दैत्यका पार्वतीरूपमें शंकरके पास जाना और मृत्युको प्राप्त होना तथा पार्वतीद्वारा वीरकको शाप
  157. [अध्याय 157]पार्वतीद्वारा वीरकको शाप, ब्रह्माका पार्वती तथा एकानंशाको वरदान, एकानंशाका विन्ध्याचलके लिये प्रस्थान, पार्वतीका भवनद्वारपर पहुँचना और वीरकद्वारा रोका जाना
  158. [अध्याय 158]वीरकद्वारा पार्वतीकी स्तुति, पार्वती और शंकरका पुनः समागम, अग्निको शाप, कृत्तिकाओंकी प्रतिज्ञा और स्कन्दकी उत्पत्ति
  159. [अध्याय 159]स्कन्दकी उत्पत्ति, उनका नामकरण, उनसे देवताओंकी प्रार्थना और उनके द्वारा देवताओंको आश्वासन, तारकके पास देवदूतद्वारा संदेश भेजा जाना और सिद्धोंद्वारा कुमारकी स्तुति
  160. [अध्याय 160]तारकासुर और कुमारका भीषण युद्ध तथा कुमारद्वारा तारकका वध
  161. [अध्याय 161]हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरप्राप्ति, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, विष्णुद्वारा देवताओंको अभयदान, भगवान् विष्णुका नृसिंहरूप धारण करके हिरण्यकशिपुकी विचित्र सभायें प्रवेश
  162. [अध्याय 162]प्रह्लादद्वारा भगवान् नरसिंहका स्वरूप वर्णन तथा नरसिंह और दानवोंका भीषण युद्ध
  163. [अध्याय 163]नरसिंह और हिरण्यकशिपुका भीषण युद्ध, दैत्योंको उत्पातदर्शन, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, नरसिंहद्वारा हिरण्यकशिपुका वध तथा ब्रह्मद्वारा नरसिंहकी स्तुति
  164. [अध्याय 164]पद्मोद्भवके प्रसङ्गमें मनुद्वारा भगवान् विष्णुसे सृष्टिसम्बन्धी विविध प्रश्न और भगवान्‌का उत्तर
  165. [अध्याय 165]चारों युगोंकी व्यवस्थाका वर्णन
  166. [अध्याय 166]महाप्रलयका वर्णन
  167. [अध्याय 167]भगवान् विष्णुका एकार्णवके जलमें शयन, मार्कण्डेयको आश्चर्य तथा भगवान् विष्णु और मार्कण्डेयका संवाद
  168. [अध्याय 168]पञ्चमहाभूतों का प्राकट्य तथा नारायणकी नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  169. [अध्याय 169]नाभिकमलसे ब्रह्माका प्रादुर्भाव तथा उस कमलका साङ्गोपाङ्ग वर्णन
  170. [अध्याय 170]मधु-कैटभकी उत्पत्ति, उनका ब्रह्माके साथ वार्तालाप और भगवानद्वारा बध
  171. [अध्याय 171]ब्रह्माके मानस पुत्रोंकी उत्पत्ति, दक्षकी बारह कन्याओंका वृत्तान्त, ब्रह्माद्वारा सृष्टिका विकास तथा विविध
  172. [अध्याय 172]तारकामय-संग्रामकी भूमिका एवं भगवान् विष्णुका महासमुद्रके रूपमें वर्णन, तारकादि असुरोंके अत्याचारसे दुःखी होकर देवताओंकी भगवान् विष्णुसे प्रार्थना और भगवान्का उन्हें आश्वासन
  173. [अध्याय 173]दैत्यों और दानवोंकी युद्धार्थ तैयारी
  174. [अध्याय 174]देवताओंका युद्धार्थ अभियान
  175. [अध्याय 175]देवताओं और दानवोंका घमासान युद्ध, मयकी तामसी माया, और्वाग्निकी उत्पत्ति और महर्षि द्वारा हिरण्यकशिपुको उसकी प्राप्ति
  176. [अध्याय 176]चन्द्रमाकी सहायतासे वरुणद्वारा और्वाग्नि- मायाका प्रशमन, मयद्वारा शैली-मायाका प्राकट्य, भगवान् विष्णुके आदेश से अग्नि और वायुद्वारा उस मायाका निवारण तथा कालनेमिका रणभूमिमें आगमन
  177. [अध्याय 177]देवताओं और दैत्योंकी सेनाओंकी अद्भुत मुठभेड़, कालनेमिका भीषण पराक्रम और उसकी देवसेनापर विजय
  178. [अध्याय 178]कालनेमि और भगवान् विष्णुका रोषपूर्वक वार्तालाप और भीषण युद्ध, विष्णुके चक्रके द्वारा कालनेमिका वध और देवताओंको पुनः निज पदकी प्राप्ति
  179. [अध्याय 179]शिवजीके साथ अन्धकासुरका युद्ध, शिवजीद्वारा मातृकाओंकी सृष्टि, शिवजीके हाथों अन्धककी मृत्यु और उसे गणेशत्वकी प्राप्ति, मातृकाओंकी विध्वंसलीला तथा विष्णुनिर्मित देवियोंद्वारा उनका अवरोध
  180. [अध्याय 180]वाराणसी माहात्म्यके प्रसङ्गमें हरिकेश यक्षकी तपस्या, अविमुक्तकी शोभा और उसका माहात्म्य तथा हरिकेशको शिवजीद्वारा वरप्राप्ति
  181. [अध्याय 181]अविमुक्तक्षेत्र (वाराणसी) का माहात्म्य
  182. [अध्याय 182]अविमुक्त-माहात्म्य
  183. [अध्याय 183]अविमुक्तमाहात्म्यके प्रसङ्गमें शिव-पार्वतीका प्रश्नोत्तर
  184. [अध्याय 184]काशीकी महिमाका वर्णन
  185. [अध्याय 185]वाराणसी माहात्य
  186. [अध्याय 186]नर्मदा माहात्म्यका उपक्रम
  187. [अध्याय 187]नर्मदामाहात्यके प्रसङ्गमें पुनः त्रिपुराख्यान
  188. [अध्याय 188]त्रिपुर- दाहका वृत्तान्त
  189. [अध्याय 189]नर्मदा-कावेरी संगमका माहात्म्य
  190. [अध्याय 190]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थ
  191. [अध्याय 191]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका माहात्म्य
  192. [अध्याय 192]शुक्लतीर्थका माहाल्य
  193. [अध्याय 193]नर्मदामाहात्म्य-प्रसङ्गमें कपिलादि विविध तीर्थोंका माहात्म्य, भृगुतीर्थका माहात्स्य, भृगुमुनिको तपस्या, शिव-पार्वतीका उनके समक्ष प्रकट होना, भृगुद्वारा उनकी स्तुति और शिवजीद्वारा भृगुको वर प्रदान
  194. [अध्याय 194]नर्मदातटवर्ती तीर्थोका माहात्म्य
  195. [अध्याय 195]गोत्रप्रवर-निरूपण-प्रसङ्गमें भृगुवंशकी परम्पराका विवरण
  196. [अध्याय 196]प्रवरानुकीर्तनमें महर्षि अङ्गिराके वंशका वर्णन
  197. [अध्याय 197]महर्षि अत्रिके वंशका वर्णन
  198. [अध्याय 198]प्रवरानुकौर्तन में महर्षिं विश्चामित्र के वंशका वर्णन
  199. [अध्याय 199]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि कश्यपके वंशका वर्णन
  200. [अध्याय 200]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि वसिष्ठकी शाखाका कथन
  201. [अध्याय 201]प्रवरानुकीर्तन महर्षि पराशरके वंशका वर्णन
  202. [अध्याय 202]गोत्रप्रवरकीर्तनमें महर्षि अगस्त्य, पुलह, पुलस्त्य और क्रतुकी शाखाओंका वर्णन
  203. [अध्याय 203]प्रवरकीर्तनमें धर्मके वंशका वर्णन
  204. [अध्याय 204]श्राद्धकल्प – पितृगाथा-कीर्तन
  205. [अध्याय 205]धेनु-दान-विधि
  206. [अध्याय 206]कृष्णमृगचर्मके दानकी विधि और उसका माहाय्य
  207. [अध्याय 207]उत्सर्ग किये जानेवाले वृषके लक्षण, वृषोत्सर्गका विधान और उसका महत्त्व
  208. [अध्याय 208]सावित्री और सत्यवान्‌का चरित्र
  209. [अध्याय 209]सत्यवान्का सावित्रीको वनकी शोभा दिखाना
  210. [अध्याय 210]यमराजका सत्यवान के प्राणको बाँधना तथा सावित्री और यमराजका वार्तालाप
  211. [अध्याय 211]सावित्रीको यमराजसे द्वितीय वरदानकी प्राप्ति
  212. [अध्याय 212]यमराज - सावित्री-संवाद तथा यमराजद्वारा सावित्रीको तृतीय वरदानकी प्राप्ति
  213. [अध्याय 213]सावित्रीकी विजय और सत्यवान्की बन्धन मुक्ति
  214. [अध्याय 214]सत्यवान्‌को जीवनलाभ तथा पत्नीसहित राजाको नेत्रज्योति एवं राज्यकी प्राप्ति
  215. [अध्याय 215]राजाका कर्तव्य, राजकर्मचारियोंके लक्षण तथा राजधर्मका निरूपण
  216. [अध्याय 216]राजकर्मचारियोंके धर्मका वर्णन
  217. [अध्याय 217]दुर्ग-निर्माणकी विधि तथा राजाद्वारा दुर्गमें संग्रहणीय उपकरणोंका विवरण
  218. [अध्याय 218]दुर्गमें संग्राह्य ओषधियोंका वर्णन
  219. [अध्याय 219]विषयुक्त पदार्थोके लक्षण एवं उससे राजाके बचने के उपाय
  220. [अध्याय 220]राजधर्म एवं सामान्य नीतिका वर्णन
  221. [अध्याय 221]दैव और पुरुषार्थका वर्णन
  222. [अध्याय 222]साम-नीतिका वर्णन
  223. [अध्याय 223]नीति चतुष्टयीके अन्तर्गत भेद नीतिका वर्णन
  224. [अध्याय 224]दान-नीतिकी प्रशंसा
  225. [अध्याय 225]दण्डनीतिका वर्णन
  226. [अध्याय 226]सामान्य राजनीतिका निरूपण
  227. [अध्याय 227]दण्डनीतिका निरूपण
  228. [अध्याय 228]अद्भुत शान्तिका वर्णन
  229. [अध्याय 229]उत्पातोंके भेद तथा कतिपय ऋतुस्वभावजन्य शुभदायक अद्भुतोका वर्णन
  230. [अध्याय 230]अद्भुत उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  231. [अध्याय 231]अग्निसम्बन्धी उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  232. [अध्याय 232]वृक्षजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  233. [अध्याय 233]वृष्टिजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  234. [अध्याय 234]जलाशयजनित विकृतियाँ और उनकी शान्तिके उपाय
  235. [अध्याय 235]प्रसवजनित विकारका वर्णन और उसकी शान्ति
  236. [अध्याय 236]उपस्कर - विकृतिके लक्षण और उनकी शान्ति
  237. [अध्याय 237]पशु-पक्षी सम्बन्धी उत्पात और उनकी शान्ति
  238. [अध्याय 238]राजाकी मृत्यु तथा देशके विनाशसूचक लक्षण और उनकी शान्ति
  239. [अध्याय 239]ग्रहयागका विधान
  240. [अध्याय 240]राजाओंकी विजयार्थ यात्राका विधान
  241. [अध्याय 241]अङ्गस्फुरणके शुभाशुभ फल
  242. [अध्याय 242]शुभाशुभ स्वप्नोंके लक्षण
  243. [अध्याय 243]शुभाशुभ शकुनोंका निरूपण
  244. [अध्याय 244]वामन-प्रादुर्भाव-प्रसङ्गमें श्रीभगवान्द्वारा अदितिको वरदान
  245. [अध्याय 245]बलिद्वारा विष्णुकी निन्दापर प्रह्लादका उन्हें शाप, बलिका अनुनय, ब्रह्माजीद्वारा वामनभगवान्‌का स्तवन, भगवान् वामनका देवताओंको आश्वासन तथा उनका बलिके यज्ञके लिये प्रस्थान
  246. [अध्याय 246]बलि-शुक्र- संवाद, वामनका बलिके यज्ञमें पदार्पण, बलिद्वारा उन्हें तीन डग पृथ्वीका दान, वामनद्वारा बलिका बन्धन और वर प्रदान
  247. [अध्याय 247]अर्जुनके वाराहावतारविषयक प्रश्न करनेपर शौनकजी द्वारा भगवत्स्वरूपका वर्णन
  248. [अध्याय 248]वराहभगवान्का प्रादुर्भाव, हिरण्याक्षद्वारा रसातलमें ले जायी गयी पृथ्वीदेवीद्वारा यज्ञवराहका भगवानद्वारा उनका उद्धारस्तवन और
  249. [अध्याय 249]अमृत-प्राप्तिके लिये समुद्र मन्थनका उपक्रम और वारुणी (मदिरा) का प्रादुर्भाव
  250. [अध्याय 250]अमृतार्थ समुद्र मन्धन करते समय चन्द्रमासे लेकर विपतकका प्रादुर्भाव
  251. [अध्याय 251]अमृतका प्राकट्य, मोहिनीरूपधारी भगवान् विष्णुद्वारा देवताओंका अमृत पान तथा देवासुरसंग्राम
  252. [अध्याय 252]वास्तुके प्रादुर्भावकी कथा
  253. [अध्याय 253]वास्तु चक्रका वर्णन
  254. [अध्याय 254]वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत राजप्रासाद आदिकी निर्माण-विधि
  255. [अध्याय 255]वास्तुविषयक वेधका विवरण
  256. [अध्याय 256]वास्तुप्रकरणमें गृह निर्माणविधि
  257. [अध्याय 257]गृहनिर्माण (वास्तुकार्य ) में ग्राह्य काष्ठ
  258. [अध्याय 258]देव-प्रतिमाका प्रमाण-निरूपण
  259. [अध्याय 259]प्रतिमाओंके लक्षण, मान, आकार आदिका कथन
  260. [अध्याय 260]विविध देवताओंकी प्रतिमाओंका वर्णन
  261. [अध्याय 261]सूर्यादि विभिन्न देवताओंकी प्रतिमाके स्वरूप, प्रतिष्ठा और पूजा आदिकी विधि
  262. [अध्याय 262]पीठिकाओंके भेद, लक्षण और फल
  263. [अध्याय 263]शिवलिङ्गके निर्माणकी विधि
  264. [अध्याय 264]प्रतिमा-प्रतिष्ठा के प्रसङ्गमें यज्ञाङ्गरूप कुण्डादिके निर्माणकी विधि
  265. [अध्याय 265]प्रतिमाके अधिवासन आदिकी विधि
  266. [अध्याय 266]प्रतिमा प्रतिष्ठाकी विधि
  267. [अध्याय 267]देव (प्रतिमा) - प्रतिष्ठा के अङ्गभूत अभिषेक-स्नानका निरूपण
  268. [अध्याय 268]वास्तु शान्तिकी विधि
  269. [अध्याय 269]प्रासादोंके भेद और उनके निर्माणकी विधि
  270. [अध्याय 270]प्रासाद संलग्न मण्डपोंके नाम, स्वरूप, भेद और उनके निर्माणकी विधि
  271. [अध्याय 271]राजवंशानुकीर्तन *
  272. [अध्याय 272]कलियुगके प्रद्योतवंशी आदि राजाओं का वर्णन
  273. [अध्याय 273]आन्ध्रवंशीय शकवंशीय एवं यवनादि राजाओंका संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण
  274. [अध्याय 274]षोडश दानान्तर्गत तुलादानका वर्णन
  275. [अध्याय 275]हिरण्यगर्भदानकी विधि
  276. [अध्याय 276]ब्रह्माण्डदानकी विधि
  277. [अध्याय 277]कल्पपादप-दान-विधि
  278. [अध्याय 278]गोसहस्त्र दानकी विधि
  279. [अध्याय 279]कामधेनु दानकी विधि
  280. [अध्याय 280]हिरण्याश्व - दानकी विधि
  281. [अध्याय 281]हिरण्याश्वरथ दानकी विधि
  282. [अध्याय 282]हेमहस्तिरथ-दानकी विधि
  283. [अध्याय 283]पञ्चाङ्गल (हल) प्रदानकी विधि
  284. [अध्याय 284]हेमधरा (सुवर्णमयी पृथ्वी) दानकी विधि
  285. [अध्याय 285]विश्वचक्रदानकी विधि
  286. [अध्याय 286]कनककल्पलतादानकी विधि
  287. [अध्याय 287]सप्तसागर दानकी विधि
  288. [अध्याय 288]रत्नधेनुदानकी विधि
  289. [अध्याय 289]महाभूतघट-दानकी विधि
  290. [अध्याय 290]कल्पानुकीर्तन
  291. [अध्याय 291]मत्स्यपुराणकी अनुक्रमणिका