ऋषियोंने पूछा- सूतजी इलानन्दन महाराज पुरूरवा प्रति मासकी अमावास्याको किस प्रकार स्वर्गलोकमें जाते हैं और वहाँ अपने पितरोंको कैसे तृप्त करते हैं? उन बुद्धिमान् नरेशके इस प्रभावको हमलोग सुनना चाहते हैं ॥ 1 ॥
सूतजी कहते हैं-ऋषियो! पूर्वकालमें महाराज मनुने भगवान् मधुसूदनसे यही प्रश्न किया था। उस समय भगवान्ने उन सूर्यपुत्र मनुके प्रति जो कुछ कहा था, वही मैं बतला रहा हूँ, आपलोग ध्यान देकर सुनिये ॥ 2 ॥मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन् मैं इलापुत्र पुरूरवाका प्रभाव, स्वर्गलोकमें उसका बुद्धिमान् चन्द्रमाके साथ संयोग, उन चन्द्रमासे अमृतकी उपलब्धि तथा पितृतर्पणकी बात विस्तारपूर्वक बतला रहा हूँ। सौम्य, बर्हिषद्, काव्य तथा अग्निष्वात्तसंज्ञक पितरों तथा नक्षत्रोंपर विचरण करते हुए सूर्य और चन्द्रमा जिस समय अमावास्या तिथिको एक मण्डल अर्थात् एक राशिपर स्थित होते हैं, उस समय वह प्रत्येक अमावास्याको सूर्य और चन्द्रमाका दर्शन करनेके लिये स्वर्गमें जाता है और वहाँ मातामह (नाना) और पितामह (बाबा) - दोनोंको अभिवादन कर कालकी प्रतीक्षा करता हुआ कुछ दिनतक ठहरा रहता है। चन्द्रमासे अमृतके क्षरण होनेपर उससे परिश्रमपूर्वक पितरोंकी पूजा करके लौटता है। किसी महीने में श्राद्ध करनेकी इच्छासे इला-नन्दन विद्वान् पुरूरवा स्वर्गलोकमें चन्द्रमा और पितरोंके निकट गया और दो लवमात्र कुहू अमावास्यामें उसने दोनोंको स्थापित किया; क्योंकि पितृ-व्रतमें जब सिनीवालीका प्रमाण थोड़ा तथा कुहू (अमावास्या) प्रशस्त मानी गयी है। अतः कुहूका समय प्राप्त हुआ जानकर वह पितरोंके उद्देश्यसे कुहूकी उपासना करता है। उसकी उपासना करनेके पश्चात् वह कालकी प्रतीक्षा करता हुआ चन्द्रमाकी भी प्रतीक्षा करता है वहाँ रहते हुए उसे पितरोंकी तृक्षिके लिये चन्द्रमासे स्वधारूप अमृत प्राप्त होता है। चन्द्रमाकी पंद्रह किरणोंसे स्वधामृतका क्षरण होता है। कृष्णपक्ष श्राद्धभोजी | पितरोंका उन श्रेष्ठ किरणोंसे बड़ा प्रेम रहता है तथा अन्य पितर उनसे द्वेष करते हैं। पुरूरवा तुरंत अभिक्षरित हुए उस उत्तम मधुको पितृ ब्राद्धकी विधि अनुसार श्राद्धके समय पितरोंको प्रदान करता है। इस प्रकार वह उत्तम स्वधामृत सौम्य बर्हिषद् काव्य तथा अग्निष्वात्त पितरोंको तृप्त करता रहता है। महर्षियोंने ऋतुको अग्नि बतलाया है और ऋतुको संवत्सर भी कहते हैं। उस संवत्सरसे ऋतुकी उत्पत्ति होती है और ऋतुओंसे उत्पन्न हुए पितर आर्तव कहलाते हैं। आर्तव और अर्धमास पितरोंको ऋतुका पुत्र तथा ऋतुस्वरूप पितामह और अमावास्याको संवत्सरका पुत्र जानना चाहिये। प्रपितामह और पक्ष संवत्सररूप देवगण ब्रह्मा के पुत्र माने गये हैं॥ 3-15 ॥सौम्य, बर्हिषद्, काव्य और अग्निष्वात्त- पितरोंके ये तीन भेद हैं। इनमें जो गृहस्थ, यज्ञकर्ता और हवन करनेवाले हैं, वे आर्तव पितर पुराणमें बर्हिषद् नामसे निश्चित किये गये हैं। गृहस्थाश्रमी और यज्ञकर्ता आर्तव पितर अग्निष्वात्त कहलाते हैं। अष्टकापति आर्तव पितरोंको काव्य कहा जाता है। अब पञ्चाब्दोंको सुनिये। इनमें अग्नि संवत्सर, सूर्य परिवार, सोम इदयत्सर, वायु अनुवत्सर और रुद्र वत्सर हैं। ये पञ्चाब्द युगात्मक होते। हैं। समयानुसार इनपर स्थित हुए चन्द्रमा अमृतका क्षरण करते हैं। ये देवकर्म कहे जाते हैं। जबतक पुरूरवा वहाँ रहता था तबतक वह जो सोमप और ऊष्मप पितर हैं, उनको भी उसी अमृतसे तृप्त करता था। चूँकि चन्द्रमा प्रत्येक मासमें विशेषरूपसे अमृतका क्षरण करते हैं और वह सोमपायी पितरोंको स्वधामृतरूपसे प्राप्त होता है। इसीलिये वह अमृतस्वरूप मधु सोमको प्राप्त होता है। इस प्रकार पितरोंद्वारा चन्द्रमाका अमृत पी लिये जानेपर सूर्यदेव अपनी एकमात्र सुषुम्णा नामकी किरणद्वारा उन सोमपायी चन्द्रमाको पुनः परिपूर्ण कर देते हैं। इस प्रकार सूर्य सुषुम्णाद्वारा पूर्ण किये जाते हुए चन्द्रमाकी पहले की सम्पूर्ण कलाओंको दिनके क्रमसे थोड़ा-थोड़ा करके पूर्ण करते हैं। चन्द्रमाको कलाएँ कृष्णपक्षमें क्षीण हो जाती हैं और शुक्लपक्षमें वे पुनः पूर्ण हो जाती हैं। इस प्रकार सूर्यके प्रभावसे चन्द्रमाका शरीर पूर्ण होता रहता है। इसी कारण शुक्लपक्षमें दिनके क्रमसे परिपूर्ण किये गये चन्द्रमाका सम्पूर्ण मण्डल पूर्णिमा तिथिको श्वेत वर्णका दिखायी पड़ता है। पहले देवगण चन्द्रमासे स्रवित हुए अमृतको पीते हैं, उसके बाद सूर्य भी सोमका पान करते हैं। सूर्य अपनी एक किरणसे पंद्रह दिनोंतक सोमको पीते हैं और पुनः दिनके क्रमसे थोड़ा-थोड़ा कर सुषुम्णा किरणद्वारा उसे पूर्ण कर देते हैं। इसी कारण शुक्लपक्षमें चन्द्रमाको कलाएँ बढ़ती हैं और कृष्णपक्षमें वे क्षीण होती हैं, यही इनका क्रम है। इस प्रकार चन्द्रमा पंद्रह दिनोंतक बढ़ते हैं और पुनः पंद्रह दिनतक क्षीण होते रहते हैं चन्द्रमाकी इस प्रकारकी समृद्धि और हास शुक्लपक्ष एवं कृष्णपक्षके आश्रयसे होते हैं। इस प्रकार सुधामृतस्रावी पंद्रह किरणोंसे सुशोभित ये चन्द्रमा सुधात्मक एवं पितृमान् | कहे जाते हैं ।। 16- 29 ॥इसके बाद अब मैं पर्वोंकी जो संधियाँ हैं, उनका वर्णन कर रहा हूँ। जैसे गन्ने और बाँसमें गोलाकार गाँठें बनी रहती हैं वैसे ही वर्ष, मास, शुक्लपक्ष, कृष्णपक्ष, अमावास्या और पूर्णिमाके भेद ये सभी पर्वकी ग्रन्थिय और संधियाँ हैं। (प्रत्येक पक्षमें) प्रतिपद् द्वितीया आदि पंद्रह तिथियाँ होती है। चूँकि अग्न्याधान आदि क्रियाएँ पर्वसंधियोंमें सम्पन्न की जाती हैं, अतः उन्हें (अमा, पूर्णिमा) पर्वकी तथा प्रतिपदाकी संधियोंमें करना चाहिये। चतुर्दशी और पूर्णिमा आदिके दो लवको पर्वकाल कहा जाता है तथा राकाके दूसरे दिनमें आनेवाले दो लबको पर्वकाल जानना चाहिये। कृष्णपक्षके अपराधिक कालके व्यतीत हो जानेपर सायंकालमें प्रतिपदाके योगमें जो काल आता है उसे पीर्णमासिक कहते हैं। सूर्यके लेखा (विषुव) के ऊपर व्यतीपात में स्थित होनेपर युगान्तर कहलाता है। उस समय चन्द्रमा लेखाके ऊपर स्थित युगान्तरमें उदित होते हैं। इस प्रकार जब चन्द्रमा और व्यतीपात परस्पर एक-दूसरेको देखें और प्रतिपदा तिथितक उसी अवस्थामें स्थित रहें तो उस समय सूर्यके उद्देश्यसे उस समयको देखकर गणना करनी चाहिये। उसे सत्क्रियाकाल नामक छठा काल कहते हैं। शुक्लपक्षके पूर्ण होनेपर रात्रिकी संधिमें जब पूर्णचन्द्र उदय होते हैं, तब उसे पूर्णिमा कहते हैं। इसीलिये चन्द्रमा पूर्णिमाकी रात में अपनी सभी कलाओंसे पूर्ण हो जाते हैं। पूर्णिमा तिथिकी ह्रास वृद्धि होती रहती है, अतः यदि वृद्धिके समय दूसरे दिन सूर्य और चन्द्र दिनमें पूर्णिमामें दीखते हैं तो वह तिथि पूर्ण होनेके कारण पूर्णिमा कहलाती है। यदि दूसरे दिन प्रतिपदाका योग होनेमें चन्द्रमाको एक कला हीन हो गयी तो उस पूर्णिमाको अनुमति कहते हैं। यह अनुमति देवताओं सहित पितरोंको परम प्रिय है। चूँकि पूर्णिमाकी रातमें चन्द्रमा अत्यन्त सुशोभित होते हैं, इसलिये चन्द्रमाको प्रिय होनेके कारण उस पूर्णिमाको विद्वानोंने राका नामसे अभिहित किया है। कृष्णपक्षकी पंद्रहवीं रात्रिको जब सूर्य और चन्द्र एक साथ एक नक्षत्रपर स्थित होते हैं, तब उसे अमावास्या कहा जाता है ॥ 30-42 ll
उस अमावास्याको लक्ष्य कर जब सूर्य और चन्द्रमा दर्शपर आ जाते हैं और परस्पर | एक-दूसरेको देखते हैं, तब उसे दर्श कहते हैं।अमावास्यामें पर्वसंधिके अवसरपर दो-दो लव पर्वकाल कहलाते हैं। इनमें प्रतिपदाके योगवाला पर्वकाल कुहू कहलाता है। जिस दिन दोपहरतक अमावास्यामें चन्द्रमाका सम्पर्क बना रहे और उसके बाद रात्रिके प्राप्त होनेपर चन्द्रमा सहसा सूर्यके निकट पहुँच जायें, पुनः प्रात: काल सूर्यमण्डलसे पृथक् हो जायें तो शुक्लपक्षको प्रतिपदामें प्रातःकाल दो लव पर्वकाल कहलाता है। इस प्रकार सूर्यमण्डल और चन्द्रमण्डलके पृथक् होते समय अमावास्याके उस मध्यवर्ती कालको अन्वाहुति कहते हैं। इसमें पितरोंके निमित्त वषट् क्रियाएँ की जाती हैं। इसे ऋतुमुख और अमावास्याको पार्वण जानना चाहिये। दिनमें जब क्षीण चन्द्रमा सूर्यके साथ मिलते हैं। तब अमावास्याका वह काल पर्वकाल कहलाता है। इसीलिये दिनमें अमावास्याके उस पर्वकालमें सूर्यके पहुँचनेपर सूर्य गृहीत हो जाते हैं अर्थात् सूर्यग्रहण लगता है। कोयलद्वारा उच्चरित 'कुहू' शब्द जितने समयमें समाप्त होता है, अमावास्याका उतना मुख्य काल 'कुहू' नामसे कहा जाता है। सिनीवालीका प्रमाण यह है कि जब क्षीण चन्द्रमा सूर्यमें प्रवेश करते हैं तब वह अमावास्या सिनीवाली कही जाती है। अनुमति, राका, सिनीवाली और कुहू इनका दो लवकाल पर्वकाल होता है। कुहू शब्दके उच्चारणपर्यन्त कालको कुहू कहते हैं। इस प्रकार पर्वसंधियोंका यह काल दो लवका बतलाया जाता है और यह पर्वोके समान फलदायक होता है। इसमें हवन और वषट् क्रियाएँ की जाती हैं। चन्द्रमा और सूर्यका व्यतिपातपर स्थित होना तथा दोनों (अमावास्या और पूर्णिमा) पूर्णिमाएँ ये सभी एक-से पुण्यदायक हैं। प्रतिपदाके संयोगसे उत्पन्न होनेवाला पर्वकाल दो लवका होता है। इसी प्रकार कुहू और सिनीवालीके सम्बन्धसे उत्पन्न हुआ पर्वकाल भी दो लवका ही माना जाता है। चन्द्रमा जब सूर्यमण्डलसे बाहर होते हैं, तब वह पर्वकाल एक कलाका बतलाया जाता है। चूँकि दिनके क्रमसे पंद्रहवीं तिथिको चन्द्रमा पंद्रह कलाओंद्वारा पूर्ण किये जाते हैं, इसलिये उस तिथिको पूर्णिमा कहते हैं। इस प्रकार चन्द्रमा पंद्रह कलाओंवाले ही हैं, उनमें सोलहवीं कला नहीं है। इसी कारण मैंने पंद्रहवीं तिथिको चन्द्रमाकाक्षय बतलाया है। इस प्रकार ये सोमपायी देव-पितर सोमकी वृद्धि करनेवाले हैं और ऋतु एवं अन्दसे सम्बन्धित आर्तवसंज्ञक देवगण उन्हींके परिपोषक हैं ॥ 43-57॥ इसके बाद अब मैं जो श्राद्धभोजी पितर हैं, उनकी गति, उनका उत्तम तत्त्व तथा उनके निमित्त दिये गये श्राद्धकी प्राप्तिका वर्णन कर रहा हूँ। मृतकोंके आवागमनका रहस्य तो उत्कृष्ट तपोबलसम्पन्न तपस्वी भी नहीं जान सकते, फिर चर्मचक्षुधारी साधारण मनुष्यकी तो बात ही क्या है। इन श्राद्धभोजियोंमें देवता और पितर दोनों हैं। इनमें जो अपने धर्मके बलसे सायुज्य मुक्तिको प्राप्त कर चुके हैं अथवा आश्रमधर्मका पालन करते हुए ज्ञान-प्राप्तिमें लगे हुए हैं और श्रद्धायुक्त कर्मोंके सम्पन्न होनेपर प्रसन्न होते हैं, उन्हें महर्षिगण लौकिक पितर कहते हैं ब्रह्मचर्य तप, यज्ञ, संतान, श्राद्ध, विद्या और अन्नदान—ये भूतलपर | प्रधान धर्म कहे गये हैं। जो लोग मृत्युपर्यन्त इन सातों धर्मोका पालन करते हुए इनमें आसक्त रहते हैं, वे ऊष्मप तथा सोमप देवताओं और पितरोंके साथ स्वर्गलोकमें जाकर आनन्दका उपभोग करते हुए पितरोंकी उपासना करते हैं ऐसी प्रसिद्धि उन संतानयुक्त श्राद्धकर्ताओंक लिये कही गयी है, जिनके लिये उनके कुलीन भाई बन्धुओंने दानके अवसरपर श्राद्ध आदि प्रदान किया है। मासिक श्राद्धमें भोजन करनेवाले पितर चन्द्रलोकवासी हैं। ये मासश्रद्ध भोजी पितर मनुष्योंकि पितर है। इनके अतिरिक्त जो अन्य लोग कर्मानुसार प्राप्त हुई योनियों में कष्ट झेल रहे हैं, आश्रमधर्मसे भ्रष्ट हो गये हैं, जिनके लिये स्वाहा स्वधाका प्रयोग हुआ ही नहीं है, जो शरीरके न होनेपर यमलोकमें प्रेत होकर दुर्गति भोग रहे हैं, नरक स्थानपर पहुँचकर अपने कर्मोंपर पश्चात्ताप करते हैं, लम्बे शरीरवाले, अत्यन्त कृशकाय, लम्बी दाढ़ियोंसे युक्त, वस्त्रहीन और भूख एवं प्याससे व्याकुल होकर इधर-उधर दौड़ते हैं, नदी, सरोवर, ताग और जलाशयोंपर सब ओर दूसरोंके द्वारा दिये गये अनकी ताकमें इधर-उधर घूमते रहते हैं, शाल्मली, वैतरणी, कुम्भीपाक, तप्तवालुका और असिपत्रवन नामक भीषण नरकोंमें अपने कर्मानुसार गिराये जाते हैं तथा उन नरकोंमें पड़े हुए जो निद्रारहित हो दुःख भोग रहे हैं,उन लोकान्तर स्थित जीवक लिये उनके भाई-बन्धुओं यह भूतलपर जब उनका नाम गोत्र उच्चारण कर अपसव्य होकर कुशौपर तीन पिण्ड प्रदान किये जाते है तब प्रेतस्थानोंमें स्थित
होनेपर भी वे पिण्ड उन्हें प्राप्त होकर तूस करते हैं
।। 58-72 ।।
जो नरकोंमें न जाकर पाँच प्रकारसे विभक्त होकर भ्रष्ट हो चुके हैं अर्थात् जो मृत्युके उपरान्त अपने कर्मोंके अनुसार स्थावर, भूत-प्रेत, अनेकों प्रकारकी जातियों, तिर्यग्योमियों एवं अन्य जन्तुओंमें जन्म ले चुके हैं, वहाँ उन उन योनियोंमें वे जैसे आहारवाले होते हैं, उन्हीं उन्हीं योनियोंमें उसी आहारके रूपमें परिणत होकर श्राद्धमें दिया गया पिण्ड उन्हें तृप्त करता है। यदि श्राद्धोपयुक्त कालमें न्यायोपार्जित अन्न (मृतकोंकि निमित्त) विधिपूर्वक सत्पात्रको दान किया जाता है तो वह अत्र वे मृतक जहाँ-कहीं भी रहते हैं, उन्हें प्राप्त होता है जैसे बछड़ा गौओंमें विलीन हुई अपनी माँको ढूँढ़ निकालता है उसी प्रकार श्राद्धोंमें प्रयुक्त हुआ मन्त्र (दानकी वस्तुओंको) उस जीवके पास पहुँचा देता है। इस प्रकार विधानपूर्वक श्रद्धासहित दिया गया बाद्ध-दान उस जीवको प्राप्त होता है—ऐसा मनुने कहा है। साथ ही महर्षि सनत्कुमारने भी, जो प्रेतोंके गमनागमनके ज्ञाता हैं, दिव्य चक्षुसे देखकर श्राद्धकी प्राप्तिके विषयमें ऐसा ही बतलाया है। कृष्णपक्ष उन पितरोंका दिन है तथा शुक्लपक्ष शयन करनेके लिये उनकी रात्रि है। इस प्रकार ये पितृदेव और देवपितर स्वर्गलोक परस्पर एक-दूसरेके देवता और पितर है यह तो स्वर्गीय देवों और पितरोंकी बात हुई। मनुष्योंकि पितर पिता, पितामह और प्रपितामह हैं। इस प्रकार मैंने सोमपायी पितरोंके विषयमें वर्णन कर दिया। पितरोंका यह | महत्त्व पुराणोंमें निश्चित किया गया है। इस प्रकार मैंने इला नन्दन पुरूरवाका चन्द्रमा और सूर्यके साथ समागम, पितरोंको श्रद्धापूर्वक दी गयी वस्तुकी प्राप्ति, पितरोंका तर्पण, पर्व काल और यातनास्थान (नरक) का संक्षिप्त वर्णन आपको सुना दिया, यही सनातन सर्ग है। इसका विस्तार बहुत बड़ा है। मैंने संक्षेपमें ही इसका वर्णन किया है; क्योंकि पूर्णरूपसे वर्णन करना तो असम्भव है। इसलिये कल्याणकामीको | इसपर श्रद्धा रखनी चाहिये। मैंने स्वायम्भुव मनुके इस सर्गका विस्तारपूर्वक आनुपूर्वी वर्णन कर दिया। अब पुनः आपलोगोंको क्या बतलाऊँ ? ॥ 73- 85 ॥