ऋषियोंने पूछा- सूतजी ! अब आप इन सभी देवताओंकी प्रतिमाके स्थापनकी उत्तम विधि यथार्थरूपसे विस्तारपूर्वक बतलाइये ॥ 1 ॥
सूतजी कहते हैं - ऋषियो ! अब मैं क्रमशः देवप्रतिमाकी प्रतिष्ठाकी उत्तम विधि तथा मण्डप, कुण्ड और वेदीके प्रमाणको बतला रहा हूँ। फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ अथवा माघमासमें सभी देवताओंकी प्रतिष्ठा शुभदायिनी होती है। दक्षिणायन बीत जानेपर अर्थात् उत्तरायणमें शुभकारी शुक्लपक्षमें द्वितीया, तृतीया, पञ्चमी, सप्तमी, दशमी, त्रयोदशी, पूर्णमासी तिथियोंमें विधिपूर्वक की गयी प्रतिष्ठा बहुत फल देनेवाली होती है। पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़, मूल, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराभाद्रपद, ज्येष्ठा, श्रवण, रोहिणी, पूर्वाभाद्रपद, हस्त, अश्विनी, रेवती, पुष्य, मृगशिरा, अनुराधा तथा स्वाती-ये नक्षत्र प्रतिष्ठा आदिमें प्रशस्त माने गये हैं। बुध, बृहस्पति तथा शुक्र- ये तीनों ग्रह शुभकारक हैं। इन तीनों ग्रहोंसे दृष्ट ( एवं युक्त) लग्न तथा नक्षत्रप्रशंसनीय हैं। ग्रह और ताराका बल प्राप्तकर तथा उनकी पूजाकर शुभ शकुनको देखकर, अद्भुत आदि बुरे योगोंको छोड़कर शुभयोगमें शुभस्थानपर क्रूर ग्रहोंसे रहित शुभ लग्न एवं शुभ नक्षत्रमें प्रतिष्ठा आदि उत्तम कार्योंको करना चाहिये ॥ 2-10 ॥
अयन (कर्क-मकर), विषुव (तुला मेष) और षडशीतिमुख (कन्या, मिथुन, धनुर्मीन) संक्रान्तियों में विधिपूर्वक अनुष्ठानद्वारा देवस्थापन करना चाहिये। चतुर मनुष्यको चाहिये कि वह प्राजापत्य मुहूर्तमें शयन, श्वेतमें उत्थापन तथा ब्राह्ममें स्थापन करे। अपने महलकी पूर्व अथवा उत्तर दिशामें मण्डप बनवाना चाहिये। उसे सोलह, बारह अथवा दस हाथका बनाना चाहिये। उसके मध्यभागमें वेदी होनी चाहिये, जो चारों ओरसे समान तथा पाँच, सात या चार हाथ विस्तृत हो। चतुर्मुख मण्डपके चारों ओर चार तोरण बने हों। पूर्व दिशामें पाकड़का, दक्षिणमें गूलरका, पश्चिममें पीपलका तथा उत्तरमें बरगदका द्वार होना चाहिये, जो भूमिमें एक हाथ प्रविष्ट हों तथा भूमिसे ऊपर चार हाथ ऊँचे हों। उसका भूतल भलीभाँति लिपा हुआ, चिकना तथा सुन्दर होना चाहिये। इसी प्रकार विविध वस्त्र, पुष्प और पल्लवोंसे सुशोभित करना चाहिये। इस प्रकार मण्डपका निर्माण कर पहले चारों द्वारोंपर छिद्ररहित आठ कलशोंकी स्थापना करनी चाहिये, जो देदीप्यमान सुवर्णकी भाँति कान्तियुक्त, आमके पल्लवोंसे आच्छादित, दो श्वेत वस्त्रोंसे युक्त, सभी ओषधियों एवं फलोंसे सम्पन्न तथा चन्दनमिश्रित जलसे परिपूर्ण हों। इस प्रकार उन कलशोंको स्थापित कर गन्ध, धूप आदि पूजन-सामग्रियोंद्वारा उनके भीतर पूजन करे। फिर मण्डपके चारों ओर ध्वजा आदिकी स्थापना करनी चाहिये ॥ 11 - 20 ॥
लोकपालोंकी पताका सभी दिशाओंमें स्थापित करे। मण्डपके मध्यभागमें बादलके रंगकी अथवा बहुत ऊँची पताका स्थापित करनी चाहिये। फिर क्रमशः लोकपालोंके | पृथक्-पृथक् मन्त्रोंद्वारा गन्ध-धूपादिसे उनकी पूजा करे तथा उन्हींके मन्त्रोंद्वारा उन्हें बलि प्रदान करे। ब्रह्माजीके लिये ऊपर तथा शेष वासुकिके लिये नीचे पूजाका विधान कहा गया है। संहितामें जो मन्त्र जिस देवताके लिये आये हैं, उसीके लिये प्रयुक्त होनेपर मङ्गलकारी माने गये हैं।उन्हीं मन्त्रोंद्वारा चारों ओर लोकपालोंकी पूजा करनी चाहिये। तत्पश्चात् तीन रात, एक रात, पाँच रात अथवा सात राततक उनका अधिवासन करना चाहिये। इस प्रकार तोरण तथा उत्तम अधिवासन कर उक्त मण्डपकी उत्तर दिशामें उसके आधे तिहाई अथवा चौथाई भागके | परिमाणसे उत्तम स्नानमण्डपका निर्माण करना चाहिये। बुद्धिमान् पुरुष लिङ्ग या मूर्तिको लाकर कारीगरों तथा उनके सभी अनुचरोंकी वस्त्र, आभूषण और रत्नद्वारा पूजा करे। तदनन्तर यजमान उनसे यह कहे कि 'मेरे अपराधोंको क्षमा कीजिये।' तत्पश्चात् देवताको बिछौनेपर लिटाकर उनकी नेत्रज्योति सम्पादित करे ॥ 21-28 ॥
अब मैं संक्षेपमें नेत्रों तथा अन्य चिह्नोंके उद्धारका प्रकार बता रहा हूँ। पहले देवताके चारों ओर पीली सरसों, घृत और खीरद्वारा बलि प्रदान करे। फिर श्वेत पुष्पोंसे अलंकृतकर भूत और गुग्गुलसे धूप करनेके बाद ब्राह्मणोंकी पूजा करे और उन्हें अपनी शक्तिके अनुकूल दक्षिणा दे स्थापना करानेवाले ब्राह्मणको गौ, पृथ्वी तथा सुवर्णकी दक्षिणा देनी चाहिये। फिर ब्राह्मण भक्तिपूर्वक इस मन्त्रद्वारा देवप्रतिमामें नेत्र (ज्योति) की स्थापना करे अथवा करवाये। मन्त्र यों है
'ॐ नमो भगवते तुभ्यं शिवाय परमात्मने। हिरण्यरेतसे विष्णो विश्वरूपाय ते नमः ।'
'विष्णो! आप शिव, परमात्मा, हिरण्यरेता, विश्वरूप और ऐश्वर्यशाली हैं, आपको बारंबार नमस्कार है।' यह मन्त्र सभी देवताओंकी प्रतिमाके नेत्रज्योतिसंस्कारमें उपयोगी माना गया है। इस प्रकार देवेशको आमन्त्रित कर सुवर्णकी शलाकाद्वारा उन्हें चिह्नित करे। तदुपरान्त विद्वान् पुरुष अपनी समृद्धि तथा अमङ्गलका विनाश करनेके लिये माङ्गलिक वाद्य, गीत और ब्राह्मणोंकी वेदध्वनियोंका समारोह करे।। अब मैं स्वस्थचित्त होकर लिङ्गके लक्षणोद्धारणका प्रकार बता रहा हूँ। लिङ्गके तीन भाग करना चाहिये। उसमें विभाजक लक्षण होता है। आठ जौका अन्तर रखते हुए तीन रेखा चिह्नित करनी चाहिये, वे न तो मोटी हों, न सूक्ष्म हों, न टेढ़ी हों और न उनमें छिद्र हो। ज्येष्ठ लिङ्गमें जौके प्रमाणकी निम्न रेखा अंकित करनी चाहिये। उसकेऊपर उससे सूक्ष्म रेखा बनाये और मध्यम लिङ्गमें स्थापित करे। फिर बुद्धिमान् पुरुष आठ भाग करके तीन भागोंको छोड़ दे और दोनों पार्श्वोंमें समान अन्तर रखते हुए सात लम्बी रेखाएँ चिह्नित करे। विद्वान् पुरुष चार | भागोंतक रेखाएँ चिह्नित करे, पाँचवें भागके ऊपर रेखा घुमानी चाहिये और तदनन्तर मिला देनी चाहिये। यहीं पृष्ठभागमें रेखाओंका संगम होगा। इन दो रेखाओंके संगमस्थलपर पृष्ठदेशमें दो भाग हो जायँगे। इस प्रकार मैंने संक्षेपमें यह लक्षणका वर्णन किया है ।। 29-40 ॥