सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! इस प्रकार उपर्युक्त विधिसे देवताओंकी प्रतिमाका शुभ अधिवासन करना। चाहिये। यजमानको एकाग्रचित्तसे प्रासादके अनुरूप लिङ्ग (प्रतिमा) का या लिङ्गके अनुरूप प्रासादका मान रखना चाहिये। लिङ्गस्थापनके पूर्व पुष्यमिश्रित जलसे मन्दिरको धोकर मन्त्रोच्चारण करते हुए पक्षसूत्र तथा द्वारसूत्रको गिराकर नापना चाहिये ।। बुद्धिमान् पुरुषको देवमण्डपको मध्यभूमिका निश्चय कर कुछ ईशानकोणकी ओर बढ़ना चाहिये क्योंकि | देवतागण ईशानकी दिशामें अवस्थित भगवान् शंकरको पूजा करते हैं। उत्तर दिशामें अधिष्ठित देवता आयु तथा आरोग्यरूपी फल देनेवाले और कल्याणकारी कहे गये हैं। बुद्धिमानोंने इनके अतिरिक्त अन्य दिशाओंमें स्थापनाको अशुभकारी बताया है। लिङ्गके नीचे कूर्म शिलाको स्थापना करनी चाहिये। यह ब्रह्मशिलाकी अपेक्षा बड़ी तथा भारी होती है। उसके ऊपर ब्रह्मभागसे बड़ी ब्रह्मशिला स्थापित होती है। उसके ऊपर पूर्वोक्त परिमाणोंके अनुसार पिण्डिकाकी स्थापना करनी चाहिये। तत्पश्चात् पञ्चगव्यद्वारा पिण्डिकाको धोकर पुनः पञ्चकषायके जलसे मन्त्रोच्चारणपूर्वक प्रक्षालन करे। पिण्डिकाओंमें भी देव-प्रतिमा-सम्बन्धी मन्त्रका प्रयोग करना चाहिये। तदुपरान्त 'उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते0 ' (वाजसने0 34 56) इस मन्त्रसे देव-प्रतिमाको उठाकर मण्डपके मध्यमें लाकर पुनः पीठिकापर स्थापित करे वहाँ अर्घ्य, पाद्य और मधुपर्क आदि समर्पित करे। फिर एक मुहूर्ततक विश्रामकर वहाँ रत्नोंकी स्थापना करनी चाहिये। हीरा, मोती, विल्लौर, शङ्ख, स्फटिक, पुखराज, नीलम और महानील- इन रत्नोंको पूर्व दिशाके क्रमसे स्थापित करना चाहिये ll 1-10 ॥फिर हरताल, शिलाजीत, अंजन, श्याम, कांजी, काशी, मधु और गेरू- इन सबको क्रमसे पूर्वादि दिशाओंमें रखना चाहिये। गेहूं, जौ, तिल, मूंग, तीनी, साँवाँ, सरसों और चावल इन सबको भी पूर्वाद दिशाके क्रमसे रखकर श्वेत चन्दन, लाल चन्दन, अगुरु, अंजन, उशीर (खश), विष्णुक्रान्ता, सहदेई तथा लक्ष्मणा (श्वेत कटहली) - इन्हें भी पूर्वादि दिशाओं में क्रमश: उन-उन लोकपालोंके नामसे ओंकारपूर्वक | स्थापित करना चाहिये। फिर सभी प्रकारके बीज, धातुएँ, रत्न, ओषधियाँ, सुवर्ण, पद्मराग, पारद, पद्म, कूर्म, पृथ्वी तथा वृषभ- इन्हें भी पूर्वाद दिशाओंके क्रमसे स्थापित करना चाहिये। ब्रह्माके स्थानपर सभी वस्तुओंको परस्पर एकत्र करके रखना चाहिये। सुवर्ण, मूँगा, ताँबा, काँसा, पीतल, चाँदी, निर्मल पुष्प और लौह-इन सबको भी क्रमसे रखना चाहिये। इन सभी वस्तुओंके अभावमें सुवर्ण और हरितालको भी रखा जा सकता है। बीज और औषधिके स्थानपर सहदेवी और जौ रखा जा सकता है। अब मैं न्यास करनेके लिये प्रत्येक लोकपालके क्रमसे मन्त्रोंको बतला रहा हूँ। पूर्व दिशाके स्वामी महान् दीप्तिशाली, सभी देवताओंके अधिपति वज्रधारी महापराक्रमी इन्द्र हैं, उन्हें नित्य बारंबार नमस्कार है। अग्निकोणमें स्थित पुरुष अग्निदेव लाल वर्णवाले, सर्वदेवमय, धूमकेतु और दुर्जय है, उन्हें नित्य बारंबार प्रणाम है। दक्षिण दिशाके स्वामी यमराजका वर्ण कमलके समान है। वे सिरपर किरीट तथा हाथमें सदा दण्ड धारण करनेवाले, धर्मके साक्षी और विशुद्धात्मा हैं, उन्हें नित्य बारंबार अभिवादन है ।। 11-21ई ॥
नैर्ऋत्यकोणके स्वामी निर्ऋति (यातुधान) कृष्णवर्णवाले महान् पुरुष, सम्पूर्ण राक्षसोंके अधिपति, खड्गधारी और महान् पराक्रमी हैं, उन्हें नित्य बारंबार नमस्कार है। पश्चिमके स्वामी वरुणदेव श्वेत वर्णवाले, विजेतास्वरूप, नदियोंके स्वामी, पाशधारी और महाबाहु हैं, उन्हें नित्य बारंबार प्रणाम है। वायव्यकोणके स्वामी वायुदेवता सब प्रकारके वर्णवाले, सभी प्रकारके गन्धको धारण करनेवाले और ध्वजाधारी हैं, उन्हें नित्य बारंबार अभिवादन है। उत्तरके स्वामी सोमदेव गौरवर्णवाले, सौम्य आकृतिसे युक्त, सभी ओषधियोंसे समन्वित तथा नक्षत्रोंके अधिपति हैं, उन्हें नित्य बारंबार नमस्कार है। | ईशानकोणके स्वामी ईशान (महा) देव शुक्ल वर्णवाले,समस्त विद्याओंके अधिपति, महान् शूलधारी और विरूपाक्ष हैं, उन्हें नित्य बारंबार प्रणाम है। ऊर्ध्व (ऊपरकी) दिशाके स्वामी पद्मयोनि ब्रह्मा, वेदरूपी वस्त्रसे सुशोभित, यज्ञाध्यक्ष, चार मुखवाले पितामह हैं, उन्हें नित्य बारंबार अभिवादन है। ये जो अनन्तरूपसे निखिल चराचर ब्रह्माण्डको पुष्पकी भाँति अपने मस्तकपर धारण करते हैं, (नीचेकी दिशाके स्वामी) उन शेषको नित्य बारंबार नमस्कार है। इन मन्त्रोंको न्यास करते तथा बलि देते समय ॐकारपूर्वक उच्चारण करना चाहिये। ये सभी कार्योंमें समृद्धि तथा पुत्ररूपी फल देनेवाले हैं। इस प्रकार मन्त्रोंका न्यास कर घृतसे अनुलिप्त गर्तको श्वेत वस्त्रद्वारा यत्नपूर्वक ऊपरसे आच्छादित कर दे। तदनन्तर देवेशको उठाकर सुन्दर इष्ट देशमें 'ध्रुवा द्यौ: 0 (आथर्वण) इस मन्त्रका उच्चारण करते हुए गर्तपर स्थापित कर दे। फिर उसे स्थिर करके उसके मस्तकपर हाथ रखकर अपनेको नाना प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित परब्रह्मका अंश मानकर परम सद्भावपूर्वक निष्कल देवदेवेश्वरका ध्यान करके सोमसूक्त तथा 'रुद्रसूक्त' का पाठ करे। ध्यानके समय जिस देवताका जैसा स्वरूप हो, वैसा ही उसका स्मरण करना चाहिये ll 22-34 ॥
मैं देवरूप होकर अलसी पुष्पके समान कान्तिवाले तथा शङ्ख, चक्र और गदाधारी देवेश जनार्दनको स्थापित कर रहा हूँ। इसी प्रकार मैं अविनाशी, दस बाहुओंसे सुशोभित, सिरपर अर्धचन्द्र धारण करनेवाले, गणोंके स्वामी, वृषभारूढ़, त्रिनेत्रधारी शिवको स्थापित कर रहा हूँ। मैं ऋषियोंद्वारा संस्तुत, चार मुखवाले, जटाधारी, महाबाहु, कमलोद्भव ब्रह्मदेवकी स्थापना कर रहा हूँ। मैं सहस्र किरणोंसे सुशोभित, शान्त, अप्सरा- समूहसे संयुक्त, पद्महस्त, महाबाहु सूर्यकी स्थापना कर रहा हूँ। बुद्धिमान् पुरुषको रुद्रकी स्थापनामें रौद्र मन्त्रोंका, विष्णुकी स्थापनामें वैष्णव मन्त्रोंका, ब्रह्माकी स्थापनामें ब्राह्म मन्त्रोंका तथा सूर्यको स्थापनामें सूर्यदेवताके मन्त्रोंका जप करना चाहिये। इसी प्रकार अन्य देवताओंकी स्थापनामें उन्होंके मन्त्रोंका जप करना चाहिये; क्योंकि वेदमन्त्रोच्चारणपूर्वक की गयी | प्रतिष्ठा आनन्ददायिनी होती है। जिन देवताकी प्रतिमा स्थापित की जाती है, उन्हींको प्रधान मानना चाहिये। उनके | अगल-बगलमें स्थित अन्य देवताओंको उनके परिकररूपमें| समझना चाहिये। गण, नन्दिकेश्वर, महाकाल, वृषभ, भृङ्गिरिटि स्वामिकार्तिक, देवी, विनायक, विष्णु, ब्रहा, रुद्र, इन्द्र, जयन्त, लोकपाल, अप्सराओंके समूह, गन्धर्वोके | समूह और गुद्धकोंको शिक्के अथवा जो देवता जिस स्थानपर स्थापित किया गया हो, उसके चारों ओर स्थापित करना चाहिये ।। 35-436 ॥
फिर इस निम्न मन्त्रद्वारा यत्नपूर्वक स्का | आवाहन करना चाहिये— 'जिनके रथमें सिंह, व्याघ्र, नाग, ऋषिगण, लोकपाल-वृन्द, देव, स्कन्द, वृष, प्रिय, प्रमथगण, मातृकाएँ चन्द्रमा, विष्णु, ब्रह्मा, सर्प, यक्ष, गन्धर्व, दिव्य आकाशचारी जीव जुते हुए हैं, उन तीन नेत्रोंवाले, ईशान, वृषध्वज, रुद्र, उमापति शिवको मैं गणों तथा पत्नीसहित आवाहन कर रहा हूँ। भगवन् रुद्र ! अनुग्रह करनेके लिये आइये, कल्याणकारी होइये, शाश्वतरूपसे स्थित होइये और मेरी पूजाको ग्रहण कीजिये, आपको बारंबार नमस्कार है।' मन्त्र इस प्रकार है- 'ॐ नमः स्वागतं भगवते नमः, ॐ नमः सोमाय सगणाय सपरिवाराय प्रतिगृह्णातु भगवन् मन्त्रपूतमिदं सर्वमर्घ्यपाद्यमाचमनीयमासनं ब्रह्मणाभिहितं नमो नमः स्वाहा।" अर्थात् " ॐ भगवन्! आपका स्वागत हैं और आपको बारंबार नमस्कार है। ॐ गण और परिवारसहित सोमको प्रणाम हैं। भगवन्! आप मन्त्रद्वारा पवित्र किया हुआ तथा ब्रह्माद्वारा अभिनन्दित इस सकल अर्घ्य, पाद्य, आचमनीय और आसनको ग्रहण कीजिये। आपको वारंवार अभिवादन है। मेरे सभी पाप जल जायें।' तदनन्तर पुण्याहवाचन एवं प्रचुर वेदध्वनिके साथ मूर्तिको दधि, क्षीर, घृत, मधु और शक्करसे स्नान कराकर पुनः पुष्प एवं सुगन्धमिश्रित जलसे स्नान कराये। उस समय एकाग्रचित्तसे भगवान् शिवका ध्यान करते हुए इन मन्त्रोंका उच्चारण करना चाहिये। वे मन्त्र इस प्रकार हैं- 'यजाग्रतो दूरमुदेति0', 'ततो विराडजायत0', 'सहस्त्रशीर्षा पुरुषः 0', 'अभि त्वा शूर नो नुम', 'पुरुष एवेदं सर्वम्0. त्रिपादूर्ध्वम्0, 'येनेदं भूतम्0', 'नत्वा वा अन्य0' इति। (वाजस0 [सं0 31) प्रतिष्ठासम्बन्धी कार्योंमें इन उपर्युक्त सभी मन्त्रोंको बारंबार जप करके चार बार जलसे प्रतिमाके मूलभाग, मध्यभाग तथा शिरोभागमें स्पर्श करे।इस प्रकार देवके स्थापित हो जानेपर यजमान मूर्तिकी प्रतिष्ठा करानेवाले आचार्यकी वस्त्र, अलंकार एवं आभूषणोंसे भक्तिपूर्वक पूजा करे। इसी प्रकार दीन, अन्धे, कृपण तथा अन्य जो कोई यहाँ उपस्थित हों, उन सबको भी संतुष्ट करना चाहिये। तदनन्तर प्रथम दिन मधुसे प्रतिमाका लेपन करना चाहिये। इसी तरह दूसरे दिन हल्दी तथा सरसोंसे, तीसरे दिन चन्दन और जौसे, चौथे दिन मैनसिल तथा प्रिय (मेहदी) से लेप करना चाहिये; क्योंकि यह लेप सौभाग्य और मङ्गलदायक, व्याधिनाशक तथा मनुष्योंके लिये परम प्रीतिकारक है, ऐसा वेदवेत्ताओंने कहा है ।। 44-576 ।।
इसी प्रकार पाँचवें दिन काला अंजन और तिल, छठे दिन घृतसहित चन्दन एवं पद्मकेसर, सातवें दिन रोचना, अगुरु तथा पुष्प देना चाहिये। जिस मूर्तिकी स्थापनामें तुरंत ही अधिवासन हो जाय, वहाँ इन सबको एक साथ ही निवेदित कर देना चाहिये। | अवस्थित हो जानेपर प्रतिमाको अपने स्थानसे विचलित नहीं करना चाहिये अन्यथा दोषभागी होना पड़ता है। छिद्रोंको बालूसे भरकर सब ओर छिद्ररहित कर देना चाहिये स्थापनाके बाद जिस लोकपालकी दिशाकी ओर प्रतिमा अपने-आप झुकती है, उस लोकपालके लिये शान्ति कराकर क्रमशः ये दक्षिणाएँ देनी चाहिये। इन्द्रके लिये हाथी देना चाहिये। यदि थोड़ी सम्पत्तिवाला हो तो सुवर्ण दे। अग्निके लिये सुवर्णकी, यमराजके लिये महिषकी, राक्षसराज निर्ऋतिके लिये बकरा तथा सुवर्णकी, वरुणके लिये सुतुहियोंसहित मोतियोंकी, वायुके लिये दो वस्त्रोंसहित पीतलकी, चन्द्रमाके लिये गौकी और शिवके लिये चाँदी-निर्मित वृषभको दक्षिणा देनी चाहिये जिस-जिस दिशामें संचलन हो, उस-उस दिशाकी शान्ति करानी चाहिये, अन्यथा कुलविनाशक भयंकर भय उत्पन्न होता है। अतः प्रतिमाको बालूसे भरकर अचल कर देना चाहिये। उक्त पुण्य दिनमें अन्न तथा वस्त्रका दान करना चाहिये। साथ ही पुण्याहवाचन, जय जयकार एवं माङ्गलिक शब्दोंका उच्चारण करवाना चाहिये यह महोत्सव तीन, पाँच, सात या दस दिनोंतक होना चाहिये। प्रतिष्ठाके चौथे दिन महास्नान तथा चतुर्थीकर्म कराना चाहिये। उस अवसरपर भी अत्यन्त भक्तिपूर्वक पर्वत दक्षिणा देनी चाहिये।ऋषिवृन्द ! मैंने पापोंके विनाशार्थ आपलोगोंसे देव-प्रतिमाकी प्रतिष्ठाकी यह विधि वर्णन की है; क्योंकि पण्डितोंने इस विषयको पूर्वकालमें अनेक विद्याधर तथा देवताओं द्वारा पूज्य और अनन्त बतलाया है ॥ 58-69 ॥