सूतजी कहते हैं— ब्राह्मणो! अब मैं संक्षेपमें मूर्तियोंकी रक्षा-पूजा करनेवाले पुजारी तथा प्रतिष्ठा करानेवाले ब्राह्मणोंका लक्षण बतला रहा हूँ, सुनिये। जो सम्पूर्ण शारीरिक अङ्ग-प्रत्यङ्गोंसे सम्पन्न, वेदमन्त्रविशारद, पुराणोंका मर्मज्ञ, तत्त्वदर्शी, दम्भ एवं लोभसे रहित, | कृष्णसारमृगसे युक्त देशमें उत्पन्न, सुन्दर आकृतिवाला, नित्य शौच एवं आचारमें तत्पर, पाखण्डसमूहसे दूर, मित्र और शत्रुमें सम, ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकरका प्रिय, | ऊहापोहके अर्थका तत्त्वज्ञ, वास्तुशास्त्रका पारंगत विद्वान् तथा सभी दोषोंसे रहित हो, ऐसा व्यक्ति आचार्य होने योग्य है। इसी प्रकार मूर्तिकी रक्षा करनेवाले ब्राह्मणोंका भी सत्कुलोत्पन्न तथा मृदु स्वभावका होना चाहिये। ज्येष्ठ, मध्य और कनिष्ठमूर्तियोंकी प्रतिष्ठामें क्रमश: बत्तीस, सोलह और आठ वेदपारगामी ब्राह्मण मूर्तिरक्षक ऋत्विज् बतलाये गये हैं। तदनन्तर लिङ्ग अथवा मूर्तिको गीत तथा माङ्गलिक शब्दपूर्वक मण्डपके स्नानकक्षमें लाकर स्नान कराना चाहिये। (स्नानकी विधि यह है) वहाँ पञ्चगव्य, कषाय, मृत्तिका, भस्म, जल— इन सामग्रियोंद्वारा चार वेद-मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए प्रतिमाका मार्जन करना चाहिये।वे चारों मन्त्र इस प्रकार हैं- 'समुद्रज्येष्ठाः सलिलस्य0 सं0 7 । 49 । 1) 'आपो दिव्याः 0' (ऋ0 सं0 7 । 49 । 2) यासां राजा0 ' ( वही 1।3) तथा 'आपोहि ष्ठा: 0' (वाजस सं0 11।50 ) । इस प्रकार देवताकी प्रतिमाको स्नान कराकर 'गन्धद्वारा इस मन्त्रसे सुगन्धित द्रव्यचन्दनादिसे पूजा करे और दो वस्त्रोंसे ढँककर शयन करावे। यह 'अभिवस्त्र' की विधि है ॥ 1-10 ॥
तदनन्तर विद्वान् पुरुष- 'उतिष्ठ ब्रह्मणस्पते इस मन्त्रका उच्चारण कर प्रतिमाको उठाये और 'आमुरजा0' (वाजस0 सं0) रथे तिष्ठ0' इन दो मन्त्रोंसे रथपर या ब्रह्मरथपर शिल्पियोंद्वारा रखवाकर ले आवे और 'आकृष्णेन' (वाजस0 सं0 33 । 45) मन्त्रद्वारा मूर्तिको मन्दिरमें प्रवेश कराये तथा शय्यापर कुश तथा पुष्पोंको बिछाकर बुद्धिमान् पुरुष उसे पूर्वाभिमुख कर धीरेसे स्थापित करे। तदनन्तर वस्त्र और सुवर्णसहित निद्राकलशको देवताके सिरहानेकी ओर 'आपो देवी0', (वही 12 । 35) 'आपोऽस्मान् मातरः 0- (वाज0 सं0 4।2) इन मन्त्रोंको जपते हुए स्थापित कराना चाहिये। तत्पश्चात् रेशमी वस्त्रद्वारा नेत्रोंको | ढककर तकिया दे अथवा रेशमी वस्त्रको प्रतिमाके सिरके नीचे रख दे। फिर बैठकर मधु और घृतद्वारा स्नान कराकर तथा पीली सरसोंसे पूजाकर 'आप्यायस्व0' (वाजस0 | 12 । 112) तथा 'या ते रुद्र शिवा तनू0' (वाजस0 सं0 | 16 | 2।49) इन मन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक चारों ओरसे | चन्दन तथा पुष्पादिसे देवताको पूजा करे। फिर 'बार्हस्पत्य0 ' | ( वही 17 36) मन्त्रद्वारा श्वेत वर्णके सूतका बना हुआ कंगन अर्पित करे। तदनन्तर अनेक प्रकारके चित्र-विचित्र रेशमी अथवा सूती वस्त्रोद्वारा प्रतिमाको भलीभाँति ढककर अगल-बगलमें छत्र, चामर, दर्पण, आदि सामग्रियाँ रखे और पुष्पयुक्त चंदोवा स्थापित करे। वहीं विविध प्रकारसे रत्न, औषध, अन्य घरेलू वस्तुएँ, विचित्र प्रकारके पात्र, शय्या, आसन आदि सामग्रियाँ अपनी आर्थिक शक्तिके अनुरूप 'अभि त्वा शूरं 'इस मन्त्रका उच्चारण करते हुए रखे। फिर दूध, मधु, मृत, उहाँ प्रकारके रसों (खट्टा मीठा, तीता, कड़वा, नमकीन तथा कसैला) से संयुक्त भक्ष्य एवं भोज्य अन्न और खीरको भी चारों ओर रखकर पूजा करनी चाहिये। फिर 'त्र्यम्बकं यजामहे0' (वाजस0 [सं0 (3।60 ) - इस मन्त्रसे प्रचुर परिमाणमें प्रयत्नपूर्वक भूतलपर सब ओरसे घीसे बलि देनी चाहिये ।। 11-223 ॥तदनन्तर विद्वान् पुरुष सभी दिशाओंमें मूर्तिरक्षकोंको नियुक्त करे तथा चारों द्वारोंपर चार द्वारपालोंको बैठा दे। फिर पूर्व दिशामें बैठकर बह्वृच् नामक ऋत्विज्को श्रीसूक्त पावमान, सुमङ्गलकारी सोमसूक्त, शान्तिकाध्याय, इन्द्रसूक्त तथा रक्षोघ्नसूक्त इन ऋचाओंका जप करना चाहिये। इसी प्रकार दक्षिण दिशामें बैठकर अध्वर्यु नामक ऋत्विज्को रौद्रसूक्त, पुरुषसूक्त, शुक्रियसहित श्लोकाध्याय तथा मण्डलाध्यायका जप करना चाहिये। | सामग नामक उद्गाता ऋत्विज्को पश्चिम दिशामें बैठकर वामदेव्य, बृहत्साम, ज्येष्ठसाम, रथन्तर, पुरुषसूक्त, शान्तिसहित रुद्रसूक्त तथा भारुण्ड सामका जप करना चाहिये। इसी प्रकार अथर्वा नामक ऋत्विज्को उत्तर दिशामें बैठकर अथर्वाङ्गिरस, नीलसूक्त, रौद्रसूक्तसहित | अपराजिता तथा देवीसूक्तके सात मन्त्र और शांन्तिकाध्याय ( वा0 37) का जप करना चाहिये। देवप्रतिमाके सिरहानेकी ओर स्थापकको व्याहतिपूर्वक शान्तिक तथा पौष्टिक मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए हवन करना चाहिये। उस समय पलाश, गूलर, पीपल, अपामार्ग (चिड़चिढ़ा), शमी-इन सबकी एक-एक हजार लकड़ियोंकी अग्निकुण्डमें मन्त्रद्वारा आहुति देते हुए देवताके पैरको स्पर्श किये रहना चाहिये। इसी प्रकार नाभि, वक्षःस्थल और शिरोभागको स्पर्श किये हुए प्रत्येक बार एक-एक सहस्र आहुति प्रदान करनी चाहिये ॥ 23-32 ॥
इस प्रकार एक हाथके बने हुए मेखला एवं योनियुक्त कुण्डमें सभी दिशाओंमें बैठे हुए मूर्तिस्थापकगण आदरपूर्वक हवन करें। कुण्डकी योनि एक बित्ता लम्बी, हाथीके ओठ या पीपलके पत्तेके समान आकारवाली होनी चाहिये। वह आयताकार, छिद्रयुक्त, कुण्डको कलाके अनुसार दोनों बगल ऊँची, चौकोर और समतल होनी | चाहिये। वेदीकी दीवालसे तेरह अंगुल दूर हटकर दूसरे अन्य नौ कुण्डोंको बनाना चाहिये। उनका भी लक्षण पूर्वोक्त प्रकारका समझना चाहिये।" होताओंको अग्निकोण, | पूर्व दिशा तथा दक्षिण दिशामें उत्तरकी ओर मुखकर हवन करना चाहिये। शान्तिके लिये होता सावधानचित्त हो लोकपालों, मूर्तियों तथा मूर्तियोंके अधिदेवताके लिये क्रमसेहवन करे। भूमि, अग्नि, यजमान, दिवाकर (सूर्य), जल, वायु, सोम तथा आठवाँ आकाश-ये आठ भगवान् शंकर (महादेव) की मूर्तियाँ हैं, हवनके समय इनका कुण्डमें स्मरण करना चाहिये। अब मैं मूर्तिके नामानुसार इनके रक्षक अधिपतियोंका वर्णन कर रहा हूँ। इनमें शर्व वसुधाकी, पशुपति वसुरेता (अग्नि) - की, उग्र यजमानकी, दिवाकरकी, भव जलकी, ईशान वायुकी, महादेव सोमकी और भीम आकाशकी मूर्तिरूपमें उनकी रक्षा करते हैं। सभी देवताओंकी प्रतिष्ठामें ये ही मूर्तिष माने गये हैं। इनके लिये अपनी सम्पत्तिके अनुकूल वैदिक मन्त्रोंद्वारा हवन करना चाहिये ।। 33-423 ।।
प्रत्येक कुण्डपर सदा शान्तिघटकी स्थापना करनी चाहिये। सौ या सहस्र आहुतिके बाद सम्पूर्णाहुति मानी गयी है। उस समय पृथ्वीपर समानभावसे पैर रखे हुए होता शान्तचित्तसे सम्पूर्णाहुति छोड़ें। इन सभी आहुतियोंके सम्पातको पूर्ण कलशोंमें रखें। फिर उसीके जलसे प्रतिमाके पैर, मध्य एवं सिरका सेचन करे और उसी आहुतिके जलद्वारा वहाँके कल्पित देवतागणोंको स्नान कराये प्रत्येक प्रहरमें पुनः पुनः धूप, दीप, नैवेद्य, चन्दन आदि द्वारा पूजा करे तथा उसी प्रकार हवन भी बारंबार करना चाहिये। इसी प्रकार यजमानद्वारा पुनः पुनः दक्षिणा भी प्रदान करनी चाहिये और उन सबको श्वेत वस्त्रद्वारा पूजा करनी चाहिये। प्रत्येक प्रहरमें यथाशक्ति अधिवासनपर्यन्त विचित्र प्रकारके बने हुए सुवर्णके कङ्कण, सुवर्णकी जंजीर, अंगूठी, वस्त्र, शय्या और भोजन भी देना चाहिये। सामान्य जीवोंके लिये भी सभी दिशाओंमें तीनों संध्याओंके समय बलि भी देनी चाहिये। पहले ब्राह्मणोंको भोजन कराये, फिर अन्य वर्णवालोंको स्वेच्छानुसार भोजन कराना चाहिये। रातमें नाच-गान आदि मङ्गल कार्योंद्वारा महोत्सव मनाना चाहिये। इस प्रकार चतुर्थीकर्मपर्यन्त सदा प्रयत्नपूर्वक पूजा करते रहना चाहिये। यह अधिवासन तीन रात, एक रात, पाँच रात या सात रातोंतक होता है। पर जहाँ अत्यन्त शीघ्रता हो, वहाँ तुरंत भी कर दिया जाता है। यह अधिवासोत्सव सर्वदा सम्पूर्ण यज्ञोंके फलोंको प्रदान करनेवाला है ।। 43-52 ॥