युधिष्ठिरने पूछा— भगवन्! आप ज्यों-ज्यों प्रयागके माहात्म्यका वर्णन कर रहे हैं, त्यों-त्यों मैं निःसंदेह समस्त पापोंसे मुक्त होता जा रहा हूँ। महामुने! धर्ममें सुदृढ़ बुद्धि रखनेवाले मनुष्योंको किस विधिसे प्रयागकी यात्रा करनी चाहिये? इसके लिये शास्त्रोंमें जिस विधिका वर्णन किया गया है, वह मुझे बतलाइये ॥ 1-2 ॥
मार्कण्डेयजीने कहा- राजन्! मैंने ऋषिप्रणीत विधिके अनुसार जैसा देखा एवं जैसा सुना है, उसीके अनुरूप प्रयागतीर्थको यात्रा विधिका क्रम बतला रहा हूँ। जो मनुष्य कहाँसे भी प्रयागतीर्थकी यात्राके लिये हष्ट-पुष्ट बैलपर सवार होकर प्रस्थान करता है, उसे जो फल प्राप्त होता है, वह सुनो। गो वंशको कष्ट देनेवाला वह मनुष्य अत्यन्त घोर नरकमें निवास करता है तथा उस प्राणीके पितर उसका दिया हुआ जल नहीं ग्रहण करते; क्योंकि गौओंका क्रोध बड़ा भयानक होता है। जो विधिके अनुसार पुत्रों तथा बालकोंको प्रयागमें स्नान कराता है, गङ्गाजलका पान कराता है तथा अपनी ही तरह ब्राह्मणोंको सारा दान दिलाता है (वह तीर्थ-फलका भागी होता है)। जो मनुष्य ऐश्वर्यके लोभसे अथवा | मोहवश सवारीपर बैठकर प्रयागकी यात्रा करता है, उसका वह तीर्थफल नष्ट हो जाता है, इसलिये सवारीका परित्याग कर देना चाहिये। जो गङ्गा-यमुनाके संगमपर ऋषिप्रणीत विवाह विधिसे अपनी सम्पत्तिके अनुसार कन्या दान करता है, उसे उस पुण्यकर्मके फलस्वरूप पूर्वोक्त घोर नरकका दर्शन नहीं होता, अपितु वह उत्तरकुरु देशमें जाकर अक्षय-कालतक आनन्दका उपभोग करता है और उसे धर्मात्मा एवं सौन्दर्यशाली स्त्री- पुत्रोंकी भी प्राप्ति होती है। इसलिये राजेन्द्र अपनी सम्पत्तिके अनुकूल प्रयागमें दान अवश्य करना चाहिये। इससे तीर्थका फल बढ़ जाता है और वह दाता प्रलयपर्यन्त स्वर्गलोकमें निवास करता है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है ॥ 3-10 ॥ जो मनुष्य प्रयागस्थित अध्यकटके नीचे पहुँचकर प्राणोंका त्याग करता है, वह अन्य सभी | पुण्यलोकोंका अतिक्रमण कर रुद्रलोकको चला जाता है।प्रलयकालमें जब बारहों सूर्य रुद्रके आश्रय में स्थित होकर अपने प्रखर तेजसे तपने लगते हैं, उस समय वे सारे जगत्को तो जलाकर भस्म कर देते हैं, परंतु अक्षयवटको वे भी नहीं जला पाते। प्रलयकालमें जब सूर्य, चन्द्रमा और चौदहों भुवन नष्ट हो जाते हैं तथा सारा जगत् एकार्णवके जलमें निमग्र हो जाता है, उस समय भी भगवान् विष्णु प्रयागमें बजाराधनमें तत्पर होकर स्थित रहते हैं। देवता, दानव, गन्धर्व, ऋषि, सिद्ध और चारण आदि गङ्गा यमुनाके संगमभूत तीर्थका सदा सेवन करते हैं। अतः राजेन्द्र जहाँ प्रयागकी स्तुति करते हुए ब्रह्मा आदि देवगण ऋषि, सिद्ध, चारण, लोकपाल, साध्यगण, लोकसम्मत पितर; सनत्कुमार आदि परमर्षि; अङ्गिरा आदि महर्षि तथा अन्य ब्रह्मर्षि, नाग, एवं गरुड आदि पक्षी, सिद्ध, आकाशचारी जीव, सागर, नदियाँ, पर्वत, सर्प, विद्याधर तथा ब्रह्मासहित भगवान् श्रीहरि निवास करते हैं, उस प्रयागकी यात्रा अवश्य करनी चाहिये। राजसिंह ! यह गङ्गा-यमुनाके अन्तरालका प्रयाग क्षेत्र पृथ्वीका जघनस्थल कहा गया है ॥ 11-18॥
भारत ! यह प्रयाग तीनों लोकोंमें विख्यात है। इससे बढ़कर पुण्यप्रद तीर्थ तीनों लोकोंमें दूसरा नहीं है। इस प्रयागतीर्थका नाम सुननेसे, इसके नामोंका संकीर्तन करनेसे अथवा इसकी मिट्टीका स्पर्श करनेसे मनुष्य पापसे छूट से जाता है। जो व्रतनिष्ठ मनुष्य उस संगममें स्नान करता है, उसे राजसूय और अश्वमेध यज्ञोंके समान फलकी प्राप्ति होती है। तात! इसलिये न तो किसी वेद-वचनसे, न लोगोंके आग्रहपूर्ण कथनसे ही तुम्हें प्रयाग मरणके प्रति निश्चित की हुई अपनी बुद्धिमें किसी प्रकारका उलट-फेर करना चाहिये। कुरुनन्दन! इस भूतलपर जो दस हजार बड़े तीर्थ हैं तथा इनके अतिरिक्त जो तीन करोड़ अन्य तीर्थ हैं, उन सबका प्रयागमें ही निवास है। गङ्गा-यमुनाके संगमपर प्राण छोड़नेवालेको वही गति प्राप्त होती है, जो गति योगनिष्ठ एवं सत्यपरायण विद्वान्को मिलती है। युधिष्ठिर। जिन लोगोंने प्रयागकी यात्रा नहीं को, वे तो मानो तीनों लोकोंमें ठग लिये गये और उनका जीवन इस लोकमें नहींके समान है। इस प्रकार परमपदस्वरूप इस प्रयागतीर्थका दर्शन करके मनुष्य उसी प्रकार समस्त पायसे छूट जाता है, जैसे (ग्रहणकालके बाद )राहुग्रस्त चन्द्रमा ll 19 - 26 ॥कम्बल और अश्वतर नामवाले दोनों नाग यमुनाके दक्षिण तटपर निवास करते हैं, अतः वहाँ खान और जलपान कर मनुष्य समस्त पापोंसे छूट जाता है। प्रयागक्षेत्रमें स्थित महादेवजीके सुप्रसिद्ध स्थानकी यात्रा करके मनुष्य अपनी दस आगेकी और दस पीछेकी पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। जो मनुष्य वहाँ खान करता है, उसे अमे-यह पलकी प्राप्ति होती है और वह प्रलयपर्यन्त स्वर्गलोकमें निवास करता है। भारत । गङ्गाके पूर्वी तटपर तीनों लोकोंमें विख्यात समुद्रकूप और प्रतिष्ठानपुर (झूसी) है। वहाँ यदि मनुष्य तीन राततक क्रोधको वशमें कर ब्रह्मचर्यपूर्वक निवास करता है तो उसका आत्मा समस्त पापोंसे मुक्त होकर शुद्ध हो जाता है और उसे अश्वमेध यज्ञके फलकी प्राप्ति होती है। भारत ! भागीरथी के पूर्वतटपर प्रतिष्ठानपुर (झूसी) से उत्तर दिशामें 'हंसप्रपतन' नामक तीर्थ है, जो तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। वहाँ स्नानमात्र कर लेनेसे अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है तथा यह यात्री सूर्य एवं चन्द्रमाको स्थितिपर्यन्त स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। इसी प्रकार जो मनुष्य पुण्यप्रद उर्वशीरमण तथा विशाल हंसपाण्डुर नामक तीर्थोंमें अपने प्राणोंका परित्याग करता है, उसे जो फल प्राप्त होता है, वह सुनो! नरेश्वर! वह स्वर्गलोकमें छाछठ हजार वर्षोंतक पितरोंके साथ सेवित होता है और नरोत्तम! स्वर्गलोकमें वह सदा उर्वशीको देखता रहता है। पुत्र! साथ ही युधिष्ठिर ऋषि, गन्धर्व और किन्नर निरन्तर उसकी पूजा करते हैं। तदनन्तर पुण्य क्षीण हो जानेपर जब वह स्वर्गसे च्युत होता है, तब दस हजार गाँवोंका उपभोग करनेवाला भूपाल होता है वह अनेकों सहस्र नारियोंके बीच रहता हुआ उनका पति होता है। उससे उर्वशी सरीखी सौन्दर्यशालिनी सौ कन्याएँ उत्पन्न होती है। यह करधनी और नूपुरके शंकार-शब्दोंद्वारा नींदसे जगाया जाता है। इस प्रकार प्रचुर भोगोंका उपभोग करके वह पुनः प्रयागतीर्थकी यात्रा करता है । ll27-39 ॥
जो मनुष्य प्रयागतीर्थ में एक मासतक श्वेत वस्त्र धारण करके जितेन्द्रिय होकर नित्य नियमपूर्वक रहते हुए एक ही समय भोजन करता है, वह (जन्मान्तरमें) राजा होता है,तथा समुद्रपर्यन्त पृथ्वीका चक्रवर्ती सम्राट् हो जाता है। उसे सुवर्णालंकारोंसे विभूषित सैकड़ों स्त्रियाँ प्राप्त होती हैं। वह धन-धान्यसे सम्पन्न होकर नित्य दान देता रहता है। इस प्रकार प्रचुर भोगोंका उपभोग करके वह पुनः प्रयागतीर्थकी यात्रा करता है। तदनन्तर रमणीय संध्यावटकी छायामें जो मनुष्य ब्रह्मचर्यपूर्वक जितेन्द्रिय एवं निराहार रहकर पवित्र भावसे संध्योपासन करता है वह ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। जो मनुष्य कोटितीर्थमें जाकर प्राणोंका परित्याग करता है वह हजारों करोड़ तक स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। तत्पश्चात् पुण्य क्षीण होनेपर जब स्वर्गलोकसे नीचे गिरता है, तब सुन्दर रूप धारण कर सुवर्ण, मणि और मोतीसे भरे पूरे कुलमें जन्म लेता है। इसके बाद वासुकिहदकी उत्तर दिशामें स्थित भोगवती नामक तीर्थमें जानेपर वहाँ दशाश्वमेध नामवाला दूसरा तीर्थ मिलता है। वहाँ जो मनुष्य स्नान करता है उसे अश्वमेध यज्ञके फलकी प्राप्ति होती है। वह सम्पत्तिशाली, सौन्दर्य सम्पन्न, चतुर, दानी और धर्मात्मा होता है। चारों वेदोंके अध्ययनसे जो पुण्य होता है, सत्यभाषणसे जो पुण्य कहा गया है तथा अहिंसा व्रतका पालन करनेसे जो धर्म बतलाया गया है, वह सारा फल प्रयागतीर्थकी यात्रासे ही प्राप्त हो जाता है। गङ्गामें जहाँ कहीं भी स्नान किया जाय, वहाँ गङ्गा कुरुक्षेत्रके समान फलदायिका मानी गयी हैं, परंतु जहाँ वह विन्ध्यपर्वतसे संयुक्त हुई हैं, वहाँ गङ्गा कुरुक्षेत्र दसगुना अधिक फलदायिनी हो जाती हैं ।। 40-49 ।।
जहाँ बहुत से तीथोंसे युक्त, महाभाग्यशालिनी एवं तपस्विनी गङ्गा बहती हैं, उस स्थानको सिद्धक्षेत्र मानना चाहिये, इसमें अन्यथा विचार करना अनुचित है। गङ्गा भूतलपर मनुष्योंको, पातालमें नागोंको तथा स्वर्गलोकमें देवताओंको तारती हैं, इसी कारण उन्हें 'त्रिपथगा कहा जाता है। मृत प्राणीकी हड्डियाँ जितने समयतक गङ्गामें वर्तमान रहती हैं, उतने वर्षोंतक वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। तत्पश्चात् स्वर्गसे च्युत होनेपर वह जम्बूद्वीपका स्वामी होता है। गड़ा सभी तीर्थोंमें सर्वोत्तम तीर्थ, नदियोंमें महानदी और महान् से महान् -से | पाप करनेवाले सभी प्राणियोंके लिये मोक्षदायिनी हैं।गङ्गा सर्वत्र तो सुलभ हैं, परंतु गङ्गाद्वार, प्रयाग और गङ्गासागर संगममें दुर्लभ मानी गयी हैं। इन स्थानोंपर स्नान करनेसे मनुष्य स्वर्गलोकको चले जाते हैं और जो यहाँ शरीर त्याग करते हैं, उनका तो पुनर्जन्म होता ही नहीं, अर्थात् वे मुक्त हो जाते हैं। जिनका चित्त पापसे आच्छादित है, अतः उद्धार पानेके लिये गतिकी खोजमें लगे हैं, उन सभी प्राणियोंके लिये गङ्गाके समान दूसरी गति नहीं है। महेश्वरके जटाजूटसे च्युत हुई मङ्गलमयी गङ्गा समस्त पापोंका हरण करनेवाली हैं। ये पवित्रोंमें परम पवित्र और मङ्गलोंमें मङ्गल-स्वरूपा हैं ॥ 50-56 ll