युधिष्ठिरने पूछा- भगवन्! आपने जो प्रयागके माहात्म्यका वर्णन किया है, उसे सुनकर प्रयागका कीर्तन करनेसे अब मेरा हृदय विशुद्ध हो गया है। अब मुझे यह बतलाइये कि प्रयागमें अनशन (उपवास) करनेसे कैसा फल प्राप्त होता है और उसके प्रभावसे समस्त पापोंसे मुक्त होकर मनुष्य किस लोकमें जाता है ? ॥ 1-2 ॥
मार्कण्डेयजीने कहा- ऐश्वर्यशाली राजन्! प्रयागतोर्थमें जो श्रद्धालु विद्वान् इन्द्रियोंको वशमें करके अनशन व्रतका पालन करता है, उसे जो फल प्राप्त होता है, वह सुनो। राजेन्द्र वह सर्वाङ्गसे सम्पन्न, नीरोग और पाँचों कर्मेन्द्रियोंसे स्वस्थ रहता है। चलते समय उसे पग-पगपर अश्वमेध यज्ञके फलकी प्राप्ति होती है। वह अपने पहलेके दस और पीछे होनेवाले दस कुलोंका उद्धार कर देता है तथा सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर परमपदको प्राप्त हो जाता है ॥ 3-5 ॥
युधिष्ठिरने पूछा-प्रभो! आप मुझे जो धर्मका माहात्म्य बतला रहे हैं, उसके अनुसार एक ओर तो थोड़े ही प्रयत्नसे महान् धर्मकी प्राप्ति होती है और दूसरी ओर वह धर्म अश्वमेध सदृश अनेकों उत्तम व्रतोंके अनुष्ठानसे मिलता है। (इस विषमताको लेकर मेरे मनमें महान् संदेह उत्पन्न हो गया है, अतः) मेरे इस संदेहका निवारण कीजिये; क्योंकि मेरे मनमें महान् आश्चर्य हो रहा है ।। 6-7॥
मार्कण्डेयजीने कहा- राजन् ! पूर्वकालमें पद्मयोनि ब्रह्माने ऋषियोंके निकट जिसका वर्णन किया था, उसे कहते समय मैंने भी सुना था (वही इस समय बतला रहा हूँ।) प्रयागका मण्डल पाँच योजन विस्तारवाला है। उसको भूमिमें प्रवेश करते ही पग-पगपर अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है। जो मनुष्य प्रयागमण्डलमें अपने प्राणोंका परित्याग करता है, वह बीती हुई सात पीढ़ियोंका तथा आनेवाली चौदह पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। ऐसा जानकर मनुष्यको सदा प्रयागके सेवनमें तत्पर होना चाहिये।राजेन्द्र जिनमें श्रद्धा नहीं है तथा जिनका चित्त पापोंसे आच्छादित हो गया है, ऐसे पुरुष देवताओंद्वारा सुरक्षित उस प्रयागतीर्थमें नहीं पहुँच पाते ॥ 8-11 ॥
युधिष्ठिरने पूछा- पितामह! प्रयागमें जाकर जो लोग खेहसे अथवा धनके लोभसे कामनाके वशीभूत हो जाते हैं, उन्हें कैसे तीर्थ फलकी प्राप्ति होती है तथा किस प्रकारका पुण्यफल मिलता है? जो कर्तव्य और अकर्तव्यके ज्ञानसे विहीन पुरुष वहाँ सभी प्रकारके पात्रोंका व्यापार करता है, उसकी क्या गति होती है ? यह सब मुझे बतलाइये ।। 12-13 ।।
मार्कण्डेयजीने कहा- राजन्! यह प्रसङ्ग तो परम गोपनीय एवं समस्त पापका विनाशक है, इसे बतला रहा हूँ, सुनो, जो मनुष्य जितेन्द्रिय, श्रद्धायुक्त और अहिंसाती होकर पवित्रभावसे नियमपूर्वक एक मासतक प्रयागमें स्नान करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता। है और परमपदको प्राप्त कर लेता है। अब विश्वासघात: (रूप पाप) करनेवालोंको प्रयागमें आनेपर जो फल मिलता है, उसे सुनो, वह यदि प्रयागमें तीनों (प्रात: मध्याह्न, सायं) वेलामें स्नान करे और भिक्षा माँगकर भोजन करे तो निस्संदेह तीन महीनेमें उस पापसे मुक्त हो सकता है जो मनुष्य अनजानमें ही प्रयागकी यात्रा आदि कार्य कर बैठता है, वह भी सम्पूर्ण कामनाओंसे परिपूर्ण होकर स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है तथा धनधान्यसे परिपूर्ण अविनाशी पदको प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार जो जान-बूझकर नियमानुसार प्रयागकी यात्रा करता है, वह भोगोंसे सम्पन्न हो जाता है तथा अपने प्रपितामह आदि पितरोंका नरकसे उद्धार कर देता है। तत्त्वज्ञ ! तुम्हारे बारंबार पूछनेके कारण मैंने तुम्हारा प्रिय करनेके लिये इस धर्मानुकूल परम गोपनीय एवं सनातन (अविनाशी) विषयका वर्णन किया है।। 14-19 ।।
युधिष्ठिर बोले- मुने! आपके दर्शनसे आज मेरा जन्म सफल हो गया और आज मैंने अपने कुलका उद्धार कर दिया। मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई है तथा मैं अनुगृहीत हो गया हूँ। धर्मात्मन् । आपके दर्शनसे आज पापसे मुक्त हो गया हूँ। भगवन्! अब मैं अपनेको पापरहित अनुभव कर रहा हूँ ॥ 20-21 ॥मार्कण्डेयजीने कहा- राजन् ! तुम्हारे सौभाग्यसे तुम्हारा जन्म सफल हुआ है और सौभाग्यसे ही तुम्हारे कुलका उद्धार हुआ है। प्रयागतीर्थका नाम लेनेसे पुण्यकी वृद्धि होती है और श्रवण करनेसे पापका नाश होता है ॥ 22 ॥ युधिष्ठिरने पूछा- महामुने। यमुना खान करनेपर कैसा पुण्य होता है और कैसा फल प्राप्त होता है, इस विषयमें आपने जैसा देखा एवं सुना हो, वह सब मुझे बतलाइये ॥ 23 ॥
मार्कण्डेयजीने कहा- राजन् ! महाभागा यमुनादेवी सूर्यकी कन्या हैं। ये तीनों लोकोंमें विख्यात हैं। प्रयागमें (संगम स्थलपर) ये नदीरूपसे विशेष ख्याति प्राप्त कर रही हैं। जहाँसे गङ्गाका प्रादुर्भाव हुआ है, वहाँसे यमुना भी उद्भूत हुई हैं। ये हजार योजन (चार हजार मील) दूरसे भी नाम लेनेसे पापों का नाश करनेवाली हैं। युधिष्ठिर! यमुनामें स्नान, जलपान और यमुनाका नाम-कीर्तन करनेसे महान् पुण्यकी प्राप्ति होती है तथा दर्शन करनेसे मनुष्यको अपने जीवनमें कल्याणकारी अवसर देखनेको मिलते हैं। यमुनामें स्नान और जलपान करके मनुष्य अपने सात कुलोंको पावन बना देता है, परंतु जो यमुना-तटपर अपने प्राणोंका त्याग करता है, वह परमगतिको प्राप्त हो जाता है। यमुनाके दक्षिण तटपर सुप्रसिद्ध अग्नितीर्थ है और उसमें पश्चिम दिशामें धर्मराजका तीर्थ है, जो नरक नामसे प्रसिद्ध है। वहाँ स्नान करके मनुष्य स्वर्गलोकको चले जाते हैं तथा जो लोग वहाँ प्राण त्याग करते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता अर्थात् वे मुक्त हो जाते हैं। इस प्रकार यमुनाके दक्षिण तटपर हजारों तीर्थ हैं युधिष्ठिर अब मैं यमुनाके उत्तर तटपर महात्मा सूर्यके नौरुजक (निरंजन) नामक तीर्थका वर्णन कर रहा है, जहाँ इन्द्रसहित सभी देवता त्रिकाल संध्योपासन करते हैं। देवता तथा अन्यान्य विद्वज्जन सदा उस तीर्थका सेवन करते हैं। इसी प्रकार और भी बहुत-से तीर्थ हैं, जो समस्त पापोंके विनाशक बतलाये जाते हैं। इसलिये तुम भी श्रद्धापरायण होकर उन तीर्थों में स्नान करो; क्योंकि उन तीर्थों में स्नान करके मनुष्य स्वर्गलोकमें चले जाते हैं और जो वहाँ मरते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता।गङ्गा और यमुना- -ये दोनों समान फल देनेवाली बतलायी जाती हैं। केवल ज्येष्ठ होनेके कारण गङ्गाकी सर्वत्र पूजा होती है । कुन्तीनन्दन ! इस प्रकार तुम सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान करो; क्योंकि ऐसा करनेसे जीवनपर्यन्त किया हुआ सारा पाप तत्काल ही नष्ट हो जाता है। जो मनुष्य प्रातः काल उठकर इस प्रसङ्गका पाठ अथवा श्रवण करता है, वह सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है तथा उसे स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है । 24-35 ॥