मार्कण्डेयजीने कहा- राजन् ! पुनः प्रयागके माहात्म्यका ही वर्णन सुनो, जिसे सुनकर मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। दुःखियों, दरिद्रों और निश्चित व्यवसाय करनेवालोंके कल्याणके लिये प्रयागक्षेत्र ही प्रशस्त कहा गया है। इसे कभी (कहीं) प्रकट नहीं करना चाहिये। श्रेष्ठ ऋषियोंका कथन है कि जो मनुष्य रोगग्रस्त, दीन अथवा वृद्ध होकर गङ्गा और यमुनाके संगममें प्राणोंका त्याग करता है, वह तपाये हुए सुवर्णकी-सी कान्तिवाले एवं सूर्यसदृश तेजस्वी विमानद्वारा स्वामि जाकर गन्धयों और अप्सराओंक मध्यमें | आनन्दका उपभोग करता है और अपने अभीष्ट मनोरथोंको प्राप्त कर लेता है। वहाँ वह सम्पूर्ण रोंसे सुशोभित अनेकों रंगोंकी ध्वजाओंसे मण्डित, अप्सराओंसे खचाखच भरे हुए शुभ लक्षणसम्पन्त्र दिव्य विमानों में बैठकर आनन्द मनाता है तथा माङ्गलिक गीतों और बाजोंके शब्दोंद्वारा नींदसे जगाया जाता है। इस प्रकार जबतक वह अपने जन्मका स्मरण नहीं करता, तबतक स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। तत्पश्चात् पुण्य क्षीण होनेपर उसका स्वर्गसे पतन हो जाता है। इस प्रकार स्वर्गसे भ्रष्ट हुआ वह जीव सुवर्णरत्नसे परिपूर्ण एवं समृद्ध कुलमें जन्म धारण करता है और समयानुसार पुनः उसी तीर्थका स्मरण करता है तथा स्मरण आनेसे पुनः उस प्रयागक्षेत्रकी यात्रा करता है। ऋषिवरोंका कथन है कि मनुष्य चाहे देशमें हों अथवा विदेशमें, घरमें हो अथवा वनमें, यदि वह प्रयागका स्मरण करते हुए प्राणोंका परित्याग करता है तो ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है ॥ 1-8 ॥
वह ऐसे लोकमें जाता है, जहाँको भूमि स्वर्णमयी है, जहाँके वृक्ष इच्छानुसार फल देनेवाले हैं और जहाँ ऋषि, मुनि तथा सिद्धलोग निवास करते हैं। वहाँ वह अपने इस जन्ममें किये हुए पुण्यकर्मो के प्रभावसे सहस्त्रों स्वियोंसे युक्त, मङ्गलमय एवं रमणीय मन्दाकिनीके तटपर ऋषियोंके साथ सुख भोगता है। स्वर्गलोकमें देवताओंके साथ सिद्ध, चारण और गन्धर्व उसकी पूजा करते हैं। | तत्पश्चात् (पुण्य क्षीण होनेपर) वह स्वर्गसे च्युत होकरभूतलपर जम्बूद्वीपका अधिपति होता है। इस जन्ममें उसे बारंबार अपने शुभकर्मोका स्मरण होता है, जिससे वह निस्संदेह गुणवान् और धनसम्पन्न होता है तथा वह मनुष्य मन-वचन-कर्मसे सत्यधर्ममें स्थित रहता है। जो व्यक्ति गङ्गा-यमुनाके संगमपर कार्योंमें अपने मङ्गलके निमित्त या पितरोंके उद्देश्यसे किये जानेवाले अथवा देवपूजन आदि कार्योंमें गोदान करता है, वह उस गौके रोमतुल्य वर्षोंतक स्वर्गमें निवास करता है। यदि कोई वहाँ गोदान लेता है या स्वर्ण, मणि, मोती अथवा अन्य जो कुछ सामग्री दानरूपमें ग्रहण करता है, तो जबतक वह धन उसके पास रहता है, तबतक उसका वह तीर्थ विफल होता है। इस प्रकार (तीर्थयात्रीको) तीर्थमें, पुण्यमय देव मन्दिरोंमें तथा सभी निमित्तों (दानपर्वो) में दान लेना कदापि उचित नहीं है। इसके लिये ब्राह्मणको विशेषरूपसे सावधान रहना चाहिये ll 9-16 ॥
जो मनुष्य प्रयागमें जिसके सींग सोनेसे और खुर चाँदीसे मढ़े हुए हों, निकटमें काँसेकी दोहनी भी रखी हो, ऐसी लाल रंगकी दुधारू कपिला गौका दान करना चाहता हो तो उसे वह गौ गङ्गा-यमुनाके संगमपर विधिपूर्वक ऐसे ब्राह्मणको देनी चाहिये जो श्रोत्रिय, साधुस्वभाव, श्वेत वस्त्र धारण करनेवाला, शान्त, धर्मज्ञ और वेदोंका पारगामी विद्वान् हो। उसके साथ बहुमूल्य वस्त्र और अनेकों प्रकारके रन भी दान करने चाहिये। राजसत्तम! ऐसा करनेसे उस गौके अङ्गोंमें जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षोंतक दाता स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। तत्पश्चात् जहाँ वह जन्म लेता है, वहीं वह गौ भी उसके घर उत्पन्न होती है। उस पुण्यकर्मके प्रभावसे उसे नरकका दर्शन नहीं होता, अपितु वह उत्तरकुरु- प्रदेशको पाकर अक्षय कालतक आनन्दका उपभोग करता है। लाखों गौओंकी अपेक्षा एक ही दुधारू गौका दान प्रशस्त माना गया है; क्योंकि वह एक ही गौ पुत्रों, स्त्रियों और नौकरोंतकका उद्धार कर देती है। यही कारण है कि समस्त दानोंमें गो दानका विशेष महत्त्व बतलाया जाता है। दुर्गम स्थानपर, भयंकर विषम परिस्थितिमें और महापातकके घटित हो जानेपर केवल गौ ही रक्षा कर सकती है, अतः मनुष्यको श्रेष्ठ ब्राह्मणको गो-दान देना चाहिये ।। 17- 23 ॥