मत्स्यभगवान्ने कहा- राजसत्तम। महातेजस्वी वसिष्ठजी निमिके पूर्व पुरोहित थे। उनके सदा चारों ओर यज्ञ होते रहते थे। पार्थिवश्रेष्ठ किसी समय यज्ञोंका सम्पादन करानेसे श्रान्त हुए गुरु वसिष्ठ विश्राम कर रहे थे, उसी समय राजाओंमें श्रेष्ठ निमिने उनके पास जाकर इस प्रकार कहा- 'भगवन्! में यज्ञ करना चाहता हूँ, अतः मेरा यज्ञ कराइये, देर मत कीजिये।' यह सुनकर महातेजस्वी वसिष्ठजीने राजश्रेष्ठ निमिसे कहा- 'राजन्! मैं आपके श्रेष्ठ यज्ञोंका अनुष्ठान करानेसे थक गया हूँ, अतः कुछ कालतक प्रतीक्षा कीजिये। नरेश! विश्राम कर लेनेके बाद मैं पुनः आपका यज्ञ कराऊँगा।' ऐसा कहे जानेपर राजश्रेष्ठ निमिने वसिष्ठजीको इस प्रकार उत्तर दिया—'ब्रह्मन्! परलोक सम्बन्धी कार्यमें कौन मनुष्य प्रतीक्षा करना चाहेगा? बलवान् यमराजसे मेरी कोई मित्रता तो है नहीं, अतः धर्मकार्यमें शीघ्रता ही करनी चाहिये; क्योंकि जीवन क्षणभङ्गुर है। धर्मरूप ओदनको पथ्य बनानेवाला प्राणी मरनेपर भी सुखका उपभोग करता है। इसलिये कल होनेवाले कार्यको आज ही एवं दूसरे प्रहरमें सम्पादित होनेवाले कार्यको पूर्वप्रहरमें ही सम्पन्न कर लेना चाहिये क्योंकि मृत्यु इस बातकी प्रतीक्षा नहीं करती कि इसने अपना कार्य कर लिया है अथवा नहीं। अतः मृत्यु खेत, बाजार और गृहमें आसक्त या अन्यत्र कहीं आसक्त मनवाले मनुष्यको उसी प्रकार लेकर चल देती है, जैसे भेड़िया मृगके बच्चेको लेकर चला जाता है। कालका न तो कोई प्रिय है और न कोई द्वेष्य ही है। आयुके साधक कर्मके क्षीण होते ही वह बलपूर्वक मनुष्यका अपहरण कर लेता है। प्राणवायुको चञ्चलता तो आप भी जानते ही है। ब्रह्मन् ऐसी दशामें जो क्षणभर भी जीवित रहता है, यही आश्चर्य है। विद्याके अभ्यास और धनके उपार्जनमें शरीरको चिरस्थायी समझना चाहिये, किंतु धर्म-कार्यमें उसे क्षणभङ्गुर मानना चाहिये। ऐसे संकटके समय में ऋणी बन गया है, अतः मैं सभी द्रव्योंका आयोजन कर आपके चरणोंके निकट आया हूँ। यदि इस समय आप मेरा यज्ञ नहीं करायेंगे तो मैं किसी अन्य याजकके पास जाऊँगा ॥1- 123॥तब उन निमिद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर ब्राह्मण श्रेष्ठ वसिष्ठने क्रोधपूर्वक निमिको शाप देते हुए कहा 'नरेन्द्र यदि तुम धर्मके ज्ञाता होकर भी मुझ थके हुए पुरोहितका परित्याग कर किसी अन्य ब्राह्मणश्रेष्ठको याजक बनाना चाहते हो तो तुम शरीररहित हो जाओगे।' तब निमिने उत्तर दिया- 'मैं धार्मिक कार्यके लिये उद्यत हैं, किंतु आप इसमें विघ्न डाल रहे हैं तथा दूसरेके द्वारा यज्ञ सम्पन्न होने देना भी नहीं चाहते, अतः मैं भी आपको शाप दे रहा हूँ कि आप भी विदेह हो जायँगे।' ऐसा कहते ही वे दोनों ब्राह्मण और राजा शरीररहित हो गये। तब उन दोनोंके देहहीन जीव ब्रह्माके पास गये। उन दोनोंको आया हुआ देखकर ब्रह्मा इस प्रकार बोले 'निमिरूप जीव! आजसे मैं तुम्हारे लिये एक स्थान दे रहा हूँ। राजन्! तुम सभी प्राणियोंके नेत्रोंके पलकों में निवास करोगे। तुम्हारे संयोगसे ही उनके निमेष-उन्मेष (आँखका खुलना और बंद होना) होंगे। तब सभी मानव नेत्रोंके पलकोंको चलाते रहेंगे।' इस प्रकार कहे जानेपर निमिका जीव ब्रह्माके वरदानसे सभी मनुष्योंके नेत्र- पलकोंपर स्थित हो गया ॥ 13- 203 ॥
तदनन्तर भगवान् ब्रह्माने वसिष्ठके जीवसे कहा— 'वसिष्ठ! तुम मित्रावरुणके पुत्र होओगे। वहाँ भी तुम्हारा नाम वसिष्ठ ही होगा और तुम्हें बीते हुए दो जन्मोंका स्मरण बना रहेगा। इसी समय मित्र और वरुण दोनों बदरिकाश्रममें आकर दुष्कर तपस्यामें तत्पर थे। इस प्रकार उन दोनोंके तपस्या में रत रहनेपर किसी समय बसन्त ऋतु जब सभी वृक्ष और लताएँ पुष्पित थीं, मन्द मन्द मनोहर पवन प्रवाहित हो रहा था, सुन्दरी उर्वशी पुष्पोंको चुनती हुई वहाँ आयी। वह महीन लाल वस्त्र धारण किये हुए थी। संयोगवश वह उन दोनों तपस्वियोंकी आँखोंके सामने आ गयी। उसके नेत्र नील कमलके समान थे तथा मुख चन्द्रमाके समान सुन्दर था। उस सुन्दर भौहोंवाली उर्वशीको देखकर उसके रूपपर मोहित हो उन दोनों तपस्वियोंका मन क्षुब्ध हो उठा। तब तपस्या करते हुए ही उन दोनोंका वीर्य मृगासनपर स्खलित हो गया। तब शापसे भयभीत हुई सुन्दरी उर्वशीने उस वीर्यको जलपूर्ण मनोरम कलशमें रख दिया। उस कलशसे वसिष्ठ और अगस्त्य नामक दो ऋषिश्रेष्ठ उत्पन्न हुए, जो भूतलपर अनुपम तेजस्वी थे। वे मित्र और वरुणके पुत्र कहलाये । तदनन्तर वसिष्ठनेदेवर्षि नारदकी बहन सुन्दरी अरुन्धतीसे विवाह किया और उसके गर्भसे शक्ति नामक पुत्रको उत्पन्न किया। शक्तिके पुत्र पराशर हुए। अब मुझसे उनके वंशका वर्णन सुनिये। स्वयं भगवान् विष्णु पराशरके पुत्र रूपमें द्वैपायन नामसे उत्पन्न हुए, जिन्होंने इस लोकमें भारतरूपी चन्द्रमाको प्रकाशित किया, जिससे अज्ञानान्धकारसे अन्धे हुए लोगोंके नेत्र खुल गये। अब उन पराशरके श्रेष्ठ वंशकी परम्परा सुनिये ॥21-32॥
काण्डशय, वाहनप, जैह्यप, भौमतापन और पाँचवें गोपालि-ये गौर पराशर नामसे प्रसिद्ध हैं। प्रपोहय, वाह्यमय ख्यातेय, कौतुजाति और पाँचवें हर्यश्वि— इन्हें नील पराशर जानना चाहिये। कार्ष्णायन, कपिमुख, काकेयस्थ, जपाति और पाँचवें पुष्कर- इन्हें कृष्ण पराशर समझना चाहिये। श्राविष्ठायन, बालेय, स्वायष्ट, उपय और इषीकहस्त—ये पाँच श्वेत पराशर हैं। वाटिक, बादरि, स्तम्ब, क्रोधनायन और पाँचवें क्षैमि—ये श्याम पराशर हैं। खल्यायन, वार्ष्णायन, तैलेय, यूथप और पाँचवें तन्ति- ये धूम्र पराशर हैं। इन सभी पराशरोंके पराशर, शक्ति और महातपस्वी वसिष्ठ- ये तीन ऋषि प्रवर माने गये हैं। इन सभी पराशरोंका परस्पर विवाह सम्बन्ध निषिद्ध है। राजन्! मैंने आपसे सूर्यके समान प्रभावशाली पराशरवंशी गोत्रप्रवर्तक ऋषियोंका वर्णन कर दिया। इनके नामोंके परिकीर्तनसे मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है । ll 33- 40 ॥