सूतजी कहते हैं ऋषियो। तदनन्तर राखमे छिपी हुई अग्निकी तरह नरसिंह शरीर में छिपे हुए महात्मा विष्णुको कालचक्रकी भाँति आया देख हिरण्यकशिपुके पुत्र पराक्रमी प्रह्लादने दिव्य दृष्टिसे सिंहको देखकर समझ लिया कि भगवान् विष्णु आ गये। सुमेरु पर्वतको सो कान्तिवाले अपूर्व शरीरको धारण किये हुए उस सिंहको देखकर हिरण्यकशिपुसहित सभी दानव घबरा गये ॥ 1-3 ॥
तब प्रह्लादने कहा- महाबाहु महाराज! आप दैत्योंके मूल पुरुष हैं। आपके इस नरसिंह- शरीरके विषयमें अबतक कभी कुछ न सुना ही गया और न इसे कभी देखा हो गया, अज्ञातरूपसे उत्पन्न होनेवाला यह कौन सा दिव्यरूप आ पहुँचा है ? मुझे लगता है कि आपका यह भयंकर रूप दैत्योंका अन्त ही करनेवाला है। इस सिंहके शरीरमें सभी देवता, समुद्र, सभी नदियाँ, हिमवान् पारियात्र (विन्ध्य) आदि सभी कुलपर्वत, नक्षत्रों, आदित्यगणों और वसुगणोंसहित चन्द्रमा, कुबेर, वरुण, यमराज, शचीपति इन्द्र, मरुद्रण, देवगन्धर्व, तपोधन महर्षि, नाग, यक्ष, पिशाच, भयंकर पराक्रमी राक्षस, ब्रह्मा और भगवान् शंकर स्थित हैं। ये सभी ललाटमें स्थित होकर भ्रमण कर रहे हैं। राजन् ! सभी स्थावरजङ्गम प्राणी, हमलोगों सहित तथा समस्त दैत्यगणोंसे घिरे हुए आर सैकड़ों विमानोंसे भरी हुई आपकी यह सभा, सारी त्रिलोकी, शाश्वत लोकधर्म तथा यह अखिल जगत् इस नरसिंहके शरीरमें दिखायी पड़ रहे हैं। साथ ही इस शरीरमें प्रजापति, महात्मा मनु, ग्रह, योग, वृक्ष, उत्पात, काल, धृति, मति, रति,सत्य, तप, दम, महानुभाव सनत्कुमार, विश्वेदेवगण, सभी ऋषिगण, क्रोध, काम, हर्ष, धर्म, मोह और सभी पितृगण भी विद्यमान हैं ॥4-13 ॥
इस प्रकार प्रह्लादकी बात सुनकर दानवगणोंके | अधीवर सामर्थ्यशाली हिरण्यकशिपुने सभी दानवोंको आदेश देते हुए कहा- 'दानवो! अपूर्व शरीर धारण करनेवाले इस मृगेन्द्रको पकड़ लो। अथवा यदि पकड़ने में कोई संदेह हो तो इस बनैले जीवको मार डालो।' यह | सुनकर वे सभी दानवगण हर्यपूर्वक उस भयंकर पराक्रमी मृगेन्द्रपर टूट पड़े और बलपूर्वक त्रास देने लगे। तदनन्तर मुख फैलाये हुए कालकी तरह भीषण दीखनेवाले महाबली नरसिंहने सिंहनाद करके उस सारी सभाको नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। सभाको विध्वंस होते देखकर हिरण्यकशिपुके नेत्र क्रोधसे व्याकुल हो गये, तब वह स्वयं नरसिंहपर अस्त्र छोड़ने लगा ॥14- 18 ॥
उस समय हिरण्यकशिपु सम्पूर्ण अस्यो सबसे बड़ा दण्ड अस्त्र, अत्यन्त भीषण कालचक्र, अतिशय भयंकर विष्णुचक्र, त्रिलोकोको भस्म कर देनेवाला अत्यन्त उग्र पितामहका महान् अस्त्र ब्रह्मास्त्र विचित्र वज्र, सूखी और गोलो दोनों प्रकारकी अशनि, भयानक तथा उग्र शूल, कंकाल, मूसल, मोहन, शोषण, संतापत विलापन, वायव्य, मथन, कापाल, कैंकर, अमोघ शक्ति, क्रौञ्चास्त्र, ब्रह्मशिरा अस्त्र, सोमास्त्र, शिशिर कम्पन | शातन, अत्यन्त भयंकर त्वाष्ट्रास्त्र, कभी क्षुब्ध न होनेवाला कालमुद्रर, महाबलशाली तपन, संवर्तन, मादन, परमोत्कृष्ट मायाधर, परमप्रिय गान्धर्वास्त्र, असिरत्न नन्दक, प्रस्वापन, प्रमथन, सर्वोत्तम वारुणास्त्र, जिसको गति अप्रतिहत होती है ऐसा पाशुपतास्त्र, हयशिरा अस्त्र, ब्राह्म अस्त्र, नारायणास्त्र ऐन्द्रास्त्र अद्भुत नागास्त्र, अजेय पैशाचास्त्र, शोषण, सामन महाबलसे सम्पन्न भावन, प्रस्थापन, विकम्पन इन सभी दिव्यास्त्रोंको नरसिंहके ऊपर उसी प्रकार छोड़ रहा था, मानो प्रज्वलित अग्निमें आहुति डाल रहा हो।उस असुरश्रेष्ठने नरसिंहको प्रज्वलित अस्त्रोंद्वारा ऐसा आच्छादित कर दिया, जैसे ग्रीष्म सूर्य अपनी किरणोंसे हिमवान् पर्वतको ढक लेते हैं। दैत्योंका वह सेनारूपी सागर क्रोधरूपी वायुसे उलित हो और क्षणमात्रमें ही वहाँकी भूमिपर इस प्रकार छा गया, जैसे सागर मैनाक पर्वतको डुबाकर उबल उठा था। फिर तो वे भाला, पाश, तलवार, गदा, मुसल, वज्र, अग्निसहित अशनि, विशाल वृक्ष, मुदर, भिन्दिपाल, शिला, ओखली, पर्वत, प्रज्वलित शतघ्नी (तोप) और अत्यन्त भीषण दण्डसे नरसिंहपर प्रहार करने लगे ॥19 - 32 ॥
उस समय महेन्द्रके वज्र एवं अशनिके समान वेगशाली वे दानव हाथमें पाश लिये हुए चारों ओर अपनी भुजाओं और शरीरोंको ऊपर उठाये हुए स्थित थे, जो तीन शिखावाले नागपाशकी तरह दीख रहे थे। उनके शरीर सोनेकी मालाओंसे विभूषित थे, उनके अङ्गोंपर पोला रेशमी वस्त्र शोभा पा रहा था तथा कटिबंध मोतियोंकी लड़ियोंसे संयुक्त थे, जिससे वे विशाल पंखधारी हंसकी भाँति शोभा पा रहे थे। केयूर मुकुट और कंकणसे सुशोभित उन उत्कट पराक्रमी एवं वायुके समान ओजस्वी दानवोंके मस्तक प्रात:कालीन सूर्यकी किरणोंकी कान्ति सदृश चमक रहे थे। उन महाबली दानवोंद्वारा चलाये गये भयंकर एवं उद्दीष महान् अस्वसमूहों से आच्छादित हुए भगवान् नरसिंह उसी प्रकार शोभा पा रहे थे, मानो निरन्तर वर्षा करनेवाले बादलों और वृक्षोंसे अन्धकारित किये गये गुफाओंसे युक्त पर्वत हो। संगठित हुए उन महाबली दैत्योंद्वारा महान् अस्त्रसमूहोंसे आघात किये जानेपर भी प्रतापशाली भगवान् नरसिंह युद्धस्थलमें विचलित नहीं हुए, अपितु प्रकृतिसे अटल रहनेवाले हिमवान्की तरह अडिग होकर डटे रहे। अग्निके समान तेजस्वी नृसिंहरूपधारी भगवान् विष्णुके द्वारा डराये गये दैत्यगण भयके कारण उसी प्रकार विचलित हो गये, जैसे समुद्रके जलमें उठी हुई लहरें वायुके थपेड़ोंसे क्षुब्ध हो जाती है ॥33-244 ll