सूतजी कहते हैं-श्रेष्ठ ऋषिगण अब मैं प्रासादोंके अनुरूप मण्डपका लक्षण बतला रहा है। इस प्रसङ्गमें श्रेष्ठ मण्डपोंका भी वर्णन करूँगा। ज्येष्ठ, मध्यम और कनिष्ठ-भेदोंसे विविध मण्डपोंकी रचना करनी चाहिये। मैं उन सभीका आनुपूर्वी नामनिर्देशपूर्वक वर्णन कर रहा हूँ, सुनिये द्विजगण। पुष्पक, पुष्पभद्र, सुव्रत, अमृतनन्दन, कौसल्य, बुद्धिसंकीर्ण, गजभद्र, जयावह, श्रीवत्स, विजय, वास्तुकीर्ति, श्रुतिंजय, यज्ञभद्र, विशाल, सुश्लिष्ट, शत्रुमर्दन, भागपञ्च, नन्दन, मानव, मानभद्रक, सुग्रीव, हरित, कर्णिकार, शतर्धिक, सिंह, श्यामभद्र तथा सुभद्र- ये सत्ताईस प्रकारके मण्डप कहे गये हैं। अब आपलोग इनके लक्षणोंको सुनिये। जिस मण्डपमें चौंसठ स्तम्भ लगे हों, उस मण्डपको 'पुष्पक' कहते हैं इसी प्रकार बासठ स्तम्भवालेको 'पुष्पभद्र' और साठ स्तम्भवालेको 'सुव्रत' कहा गया है। अट्ठावन स्तम्भवाला मण्डप 'अमृतनन्दन' कहा जाता है। छप्पन स्तम्भोंवाले मण्डपको 'कौसल्य', चौवन स्तम्भवालेको बुद्धिसंकीर्ण, उससे दो स्तम्भ कम अर्थात् बावन स्तम्भवालेको 'गजभद्रक', पचास स्तम्भवालेको 'जयावह', अड़तालीस स्तम्भोंवाले मण्डपको ' श्रीवत्स' तथा छियालीस स्तम्भोंवालेको 'विजय' कहते हैं। उसी प्रकार छियालीस स्तम्भोंवाला मण्डप 'वास्तुकीर्ति' कहलाता है। चौवालीस स्तम्भोंवाले मण्डपको 'श्रुतिंजय' कहते हैं ॥ 1-10 ॥'यज्ञभद्र' मण्डपमें चालीस विशालकमें उससे दो स्तम्भ न्यून अर्थात् अड़तीस 'मुश्लिष्ट' में छत्तीस और 'शत्रुमर्दन' में उससे दो स्तम्भ न्यून अर्थात् चाँतीस, 'भागपञ्च' में बत्तीस और 'नन्दन' में तीस स्तम्भ माने गये हैं। अट्ठाईस स्तम्भोंका 'मानव' छब्बीसका 'मानभद्र', चौबीसका 'सुग्रीव', बाईसका 'हरित', बीसकी 'कर्णिका', अठारहका 'शतधिक', सोलहका 'सिंह', चौदहका 'श्यामभद्र' और बारहका 'सुभद्र' कहा गया है इस प्रकार मैंने लक्षणोंसहित मण्डपोंके नाम तुम्हें बतला दिया। इन मण्डपोंकी स्थापना त्रिकोण, गोलाकार, अर्धचन्द्राकार, अष्टकोण, दशकोण अथवा चतुष्कोणरूपमें करनी चाहिये। इन त्रिकोणादिकोंकी स्थापनासे क्रमशः राज्य, विजय, आयुकी वृद्धि, पुत्र-लाभ, लक्ष्मी और पुष्टिकी प्राप्ति होती है। इस प्रकारके मण्डप मङ्गलदायक तथा इनसे विपरीत अमङ्गलकारक होते हैं। गृहके मध्यमें चौंसठ पदोंकी कल्पनाकर मध्यमें द्वार बनाना चाहिये चौड़ाईसे ऊँचाई दुगुनी होनी चाहिये और उसके कटिभागको तृतीयांशके बराबर बनाना चाहिये। चौड़ाईका आधा मध्यभाग होना चाहिये। उसके चारों | ओर दूसरी दीवालें रहेंगी। मध्यभागके चतुर्थांशसे तिगुना लम्बा और दूना विस्तृत द्वार होना चाहिये, जो गूलरका बना हुआ हो। दोनों शाखाओंका विस्तार द्वारके विस्तारका चतुर्थांश हो । ll 11 - 20 ॥
मण्डप द्वार, तीन, पाँच, सात अथवा नौ शाखाओंसे युक्त बनते हैं, जो क्रमशः कनिष्ठ, मध्यम और ज्येष्ठ कहलाते हैं। एक सौ साढ़े चालीस अंगुल ऊँचा द्वार धनप्रद एवं उत्तम होता है। अन्य दो एक सौ तीस तथा एक सौ बीस अंगुलके होते हैं। शुद्ध वायुके आने-जाने के लिये एक सौ अस्सी अंगुल ऊँचा द्वार होना चाहिये। उसी प्रकार एक सौ दस, एक सौ सोलह, एक सौ नब्बे तथा अस्सी अंगुलके द्वार होने चाहिये। सर्वदा क्रमश: ये दस प्रकारके द्वार कहे गये हैं। इनके अतिरिक्त अन्य प्रकारके द्वार वर्जित हैं; क्योंकि वे चित्तको उद्विग्न करनेवाले होते हैं। सभी वास्तुओंमें प्रयत्नपूर्वक द्वारवेधसे बचना चाहिये सामनेकी ओर वृक्ष, कोण, भ्रमि, द्वार, स्तम्भ, कूप, ध्वज, दीवाल और गुड्डा इन सबसे विद्ध किया हुआ द्वार मंगलकारी नहींहोता। इन द्वारवेधसे क्रमशः क्षय, दुर्गति, प्रवास, क्षुधाका भय, दुर्भाग्य, बन्धन, रोग, दरिद्रता, कलह, विरोध, धनहानि- ये सब कुपरिणाम होते हैं। घरके पूर्व दिशामें फलदार वृक्ष, दक्षिण दिशामें दूधवाले वृक्ष, पश्चिम दिशामें विविध भाँतिके कमलोंसे सुशोभित जल तथा उत्तर दिशामें चीड़ और ताड़के वृक्षोंसे युक्त पुष्पवाटिका मङ्गलदायिनी होती है । ll 21 - 29 ॥
जल सभी दिशाओंमें श्रेष्ठ है, चाहे वह (नदी आदिका) बहता हुआ हो अथवा (कूप, सरोवर आदिका) अचल। मुख्य भवनके दोनों पार्श्वों में परिवार वर्गका निवासस्थान बनाना चाहिये। दक्षिणकी ओर तपोवन अथवा तपस्याका स्थान, उत्तरमें मातृकाओंका भवन, अग्निकोणमें पाकशाला, नैर्ऋत्यकोणमें गणेशका निवास, पश्चिममें लक्ष्मीका निवास, वायव्यकोणमें गृहमालिका, उत्तरमें यज्ञशाला और निर्माल्यका स्थान होना चाहिये। पश्चिमकी ओर चन्द्रादि देवताओंके लिये बलिदान देनेका स्थान, सामनेकी ओर वृषभका स्थान और शेष भागमें कामदेवके स्थानका निर्माण करना चाहिये। ईशानकोणमें जलयुक्त बावली रहे तथा वहीं जलशायी विष्णुभगवान्का भी स्थान रहे। इस प्रकार कुण्ड और मण्डपसे युक्त गृहका निर्माण करना चाहिये। जो मनुष्य घण्टा, वितान, तोरण तथा चित्रसे सुशोभित, नित्य महोत्सवसे प्रमुदित जनसमूहके साथ विविध ध्वजाओंसे विभूषित देव मन्दिर बनवाता है, उसे लक्ष्मी कभी नहीं छोड़तीं और स्वर्गमें उसकी पूजा होती है। इसी प्रकार गृहपूजनके अवसरपर भी अपनी शक्तिके अनुरूप सभी मन्त्रों और विधानोंसे युक्त स्थापना करनी चाहिये। उस समय गुरु तथा ब्राह्मणोंको गौ, वस्त्र, सुवर्णके आभूषण, सुवर्ण और पृथ्वीका दान देना चाहिये तथा अन्नदान भी करना चाहिये ॥ 30-36 ॥