सूतजी कहते हैं-ऋषिगणो इस प्रकार उपर्युक्त | बलि प्रदान करनेके उपरान्त वास्तु (मन्दिर) को सोलह भागों में विभक्त करे। फिर उसके मध्य भागके चार भागोंको केन्द्र मानकर मध्यभागकी ओर शेष वारह भागों में प्रासादकी कल्पना करे बुद्धिमान् व्यक्तिको चारों दिशाओंमें बाहर निकलनेका मार्ग भी जानना चाहिये। दीवालको ऊँचाई वास्तुमानकी चौथाईके तुल्य होनी चाहिये और दीवालकी ऊँचाईके प्रमाणसे दूनी शिखरकी ऊँचाई होनी चाहिये। शिखरकी ऊँचाईके चौथाई मानसे प्रदक्षिणा बनानी चाहिये। मण्डपके अग्रभागका विस्तार गर्भके मानसे दूना होना चाहिये। इसकी लम्बाई तीन भागोंसे युक्त होगी, जो भद्रयुक्त और सुन्दर रहेगी। विद्वान् पुरुषको गर्भमानको पाँच भागोंमें विभक्तकर एक भागमें प्राग्ग्रीवकी कल्पना करनी चाहिये। गर्भसूत्रके समान आगे मुखमण्डपकी रचना करनी चाहिये। यह सामान्यतया सभी प्रासादोंका लक्षण बतलाया गया है। अब अन्य प्रासाद (शिवमन्दिर) की रचनाकी विधि बतला रहा हूँ, जो लिङ्गमानके
आधारपर निर्मित होता है। बुद्धिमान पुरुषोंको लिङ्ग पूजाके लिये उपयोगी पीठिका तैयार करनी चाहिये। पिण्डिकाके अर्धभागको विभक्त कर उक्त अर्धा मानमें उसके दीवालकी रचना करनी चाहिये एवं बाहरी दीवालके प्रमाणके अनुसार उसकी ऊँचाई करनी चाहिये। दीवालकी ऊँचाईसे दूनी शिखरकी ऊँचाई होनी चाहिये। शिखरके चतुर्थ भागसे प्रदक्षिणा बनानी चाहिये। प्रदक्षिणाके बराबर मानका ही आगेका मण्डप निर्मित करना चाहिये ॥ 1-10 ॥
उसके आधे भागमें आगेकी ओर मुखमण्डप बनाना चाहिये। गर्भमानके अनुसार प्रासादसे बाहर निकले दो कपोलोंकी रचना करनी चाहिये। उसकी दीवालकी ऊँचाईके ऊपर मञ्जरीको कल्पना करनी चाहिये मंजरीके अर्धभागमें शुकनासाकी और|ऊपरवाले आधे भागमें वेदीकी रचना करानी चाहिये। वेदीके ऊपर जो भाग शेष रह जाता है, वह कण्ठ और अमलसारक कहलाता है। इस प्रकार विभागकर बुद्धिमान्को मनोहर प्रासादकी रचना करनी चाहिये। द्विजवरो! अब अन्य प्रकारके प्रासादके लक्षणोंको बतला रहा हूँ, सुनिये। गर्भमानके अनुसार प्रासादको नौ भागों में विभक्तकर गर्भके मध्य लिङ्गपीठिका स्थापित करनी चाहिये और | उसके अगल-बगलमें रुचिर पादाष्टककी रचना करनी चाहिये। उन्होंके मानके अनुसार दीवालका विस्तार करना चाहिये। उस पादको पाँचसे गुणा करनेपर जो गुणनफल हो, वही दीवालकी और उसकी दूनी शिखरकी ऊँचाई होती है। शिखरको चार भागों में विभक्तकर आधे दो भागोंमें शुकनासा बनानी चाहिये, तीसरे भागमें वेदिका मानी गयी है तथा चतुर्थभागमें कण्ठ और अमलरखरकी रचना करनी चाहिये। इस प्रासादमें कपोलोंका मान दूना माना गया है। यह मनोहर पत्तियों, लताओं तथा अण्डकोंसे विभूषित तीसरे ढंगके प्रासादका वर्णन मैंने आपलोगोंको बतलाया है ॥ 11-20 ॥
द्विजश्रेष्ठो! अब अन्य साधारण प्रकारके प्रासाद | (देवमन्दिरों) का वर्णन सुनिये। जहाँ देवता स्थित होते हैं, उस क्षेत्रको तीन भागों में विभक्तकर उसी परिमाणमें बाहरकी ओर निकला हुआ रथाङ्क बनाना चाहिये। प्रासादके चारों ओर चतुर्थ भागमें विस्तृत नेमी बनानी चाहिये। मध्य भागको उससे दूना करना चाहिये, वही उसका मान है और वही दीवालकी ऊँचाई है। शिखरको ऊँचाई उससे दूनी मानी गयी है। उस प्रासादका प्रारग्रीव पाँचवें भागमें होना चाहिये। यह उसका | निष्कास कहा जाता है। उसे प्राकारके तीन भागमें छिद्रयुक्त बनाना चाहिये। प्राग्ग्रीवको पाँच भागों में विशेषतया निष्काससे बनाना चाहिये अथवा कर्णमूलसे पाँच भागोंमें प्राग्ग्रोवकी कल्पना करनी चाहिये। वहाँ द्वारमूलसे गर्भान्तमें कनककी स्थापना करनी चाहिये। इस प्रकार इसे ज्येष्ठ, मध्यम और कनिष्ठ-इन तीन प्राकारावाला बनाना चाहिये। ये चाहे लिङ्गके परिमाण भेदसे हों या रूप-भेदसे हों। इन प्रासादोंके निर्माणकी विधि मैंने संक्षेपमें बतला दी, अब उनके नाम सुनिये।मेरु, मन्दर, कैलास, कुम्भ, सिंह, मृग, विमान, छन्दक, चतुरस्र, अष्टास्र, षोडशास्त्र, वर्तुल, सर्वभद्रक, सिंहास्य, नन्दन, नन्दिवर्धन, हंस, वृष, सुवर्णेश, पद्मक और समुद्गक- ये प्रासादोंके नाम हैं। द्विजो! अब इनके विभागोंको सुनिये ॥। 21-30 ॥
सौ शृङ्ग तथा चार द्वारवाला, सोलह खण्डों में ऊँचा, अनेकों विचित्र शिखरोंसे युक्त प्रासाद 'मेरु' कहलाता है। इसी प्रकार 'बारह खण्डोंवाला' मन्दर तथा नव खण्डोंवाला 'कैलास' कहा गया है। 'विमान' और 'छन्दक' भी उन्होंकी भाँति अनेक शिखरों और मुखोंसे युक्त तथा आठ खण्डोंवाले होते हैं। सात खण्डोंवाला 'नन्दिवर्धन' होता है। जो विषाणकसे संयुक्त रहता है, उसे 'नन्दन' कहा जाता है। जो प्रासाद सोलह पहलोंवाला, विविध रूपोंसे सुशोभित और अनेक शिखरोंसे संबलित होता है, उसे 'सर्वतोभद्र' कहते हैं। इसे चित्रशालासे संयुक्त तथा पाँच खण्डोंवाला जानना चाहिये। प्रासादके बलभी (बुर्ज) तथा छन्दकको भी उसी प्रकार अनेक शिखरों और मुखोंसे युक्त बनाना चाहिये। ऊँचाईमें वृषभके समान तथा मण्डलमें बिना | पहलके सिंहप्रासादको सिंहकी आकृतिका तथा गजको गजके समान ही जानना चाहिये कुम्भ आकृतिमें कुम्भकी भाँति और ऊँचाईमें नौ खण्डका हो। जिसकी स्थिति अंगुलीपुटकी भाँति हो, जो पाँच अण्डोंसे विभूषित और चारों ओरसे सोलह पहलवाला हो, उसे 'समुद्गक' जानना चाहिये इसके दोनों पार्श्वमें चन्द्रशालाएँ हों और ऊँचाई दो खण्डोंसे युक्त हो उसी प्रकारकी बनावट 'पद्मक' की भी होनी चाहिये, केवल ऊँचाईमें यह तीन खण्डोंवाला हो इसे विचित्र शिखरोंसे युक्त, शुभदायक और सोलह पहलोंवाला 'जानना चाहिये। 'मृगराज' प्रासाद वह है, जो चन्द्रशालासे विभूषित, प्राग्ग्रीवसे युक्त और छः खण्डों (मंजिलों) तक ऊँचा हो। अनेक चन्द्रशालाओंसे युक्त प्रासाद 'राज' | कहलाता है ॥ 31-40 3 ॥'गरुड़' नामक प्रासाद पीछे की ओर बहुत फैला हुआ, तीन चन्द्रशालाओंसे विभूषित और सात खण्ड ऊँचा होता है। उसके बाहर चारों ओर छियासी खण्ड होते हैं। एक अन्य प्रकारका भी गरुड़ प्रासाद होता है, जो ऊँचाईमें दस खण्ड ऊँचा होता है 'पद्मक' सोलह पहलोंवाला तथा पूर्वकथित प्रासाद गरुड़से दो खण्ड अधिक ऊँचा होना चाहिये। पद्मके समान ही 'श्रीवृक्षक' प्रासादका परिमाण कहा जाता है। (प्रकोष्ठ) जिसमें पाँच अण्डक, दो खण्ड तथा मध्यभागमें चार हाथका विस्तार होता है, वह 'वृष' नामक प्रासाद सभी मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला होता है। मैंने पाँच-सात प्रकारके प्रासादोंका वर्णन किया है। अतः अन्य प्रासादोंको, जिनका वर्णन नहीं किया गया, सिंहास्यके प्रमाणानुसार हो जान लेना चाहिये। वे सभी चन्द्रशालाओंसे संयुक्त तथा प्रारग्रीवसे संवलित रहेंगे। इन्हें ईंट, लकड़ी या पत्थरके तोरणसहित बनवाना चाहिये। 'मेरु' प्रासाद पचास हाथ, 'मन्दर' उससे पाँच हाथ न्यून अर्थात् पैंतालीस हाथ, 'कैलास' चालीस हाथ और विमान चौतीस हाथका होता है। उसी प्रकार 'नन्दिवर्धन' बत्तीस हाथ तथा 'नन्दन' और 'सर्वतोभद्र' तीस हाथोंके कहे गये हैं। 'वर्तुल' और 'पद्मक' का परिमाण बीस हाथका कहा गया है। गज, सिंह, कुम्भ, वलभी तथा छन्दक—ये सोलह हाथके होते हैं। 'कैलास', 'मृगराज', 'विमान' और 'छन्दक - ये बारह हाथके माने गये हैं। ये चारों देवताओंको अत्यन्त प्रिय हैं ॥ 41-50ई ॥
'प्रासाद 'गरुड़' आठ हाथोंका तथा 'हंस' दस हाथोंका कहा गया है। इस प्रकार उपर्युक्त प्रमाणके अनुसार इन शुभ लक्षणसम्पन्न प्रासादोंकी रचना करनी चाहिये। यक्ष, राक्षस और नागोंके प्रासाद मातृहस्तके प्रमाणसे प्रशस्त माने गये हैं। मेरु आदि सात प्रासाद ज्येष्ठ लिङ्गके लिये शुभदायक हैं। 'श्रीवृक्षक' आदि आठ मध्यम लिङ्गके लिये शुभदायक कहे गये हैं। इसी प्रकार हंस आदि पाँच कनिष्ठ लिङ्गके लिये शुभदायक माने गये हैं। वलभी और छन्दक प्रासादमें गौरवर्णा, जटा मुकुटधारिणी एवं क्रमश: चार हाथोंमें वरमुद्रा, अभयमुद्रा, अक्षसूत्र और कमण्डलु धारण करनेवाली देवी शुभदायिनीहैं । गृहमें लाल मुकुट धारण करनेवाली, चार हाथों में क्रमशः कमल, अङ्कुश, वरदमुद्रा एवं अभयमुद्रासे युक्त || देवीका पतिसहित पूजन करना चाहिये। बुद्धिमान् पुरुषको दूसरी जो तपोवनमें स्थित रहनेवाली देवी हैं, उनकी भलीभाँति पूजा करनी चाहिये। देवीके साथ विनायक (गणेशजी) वलभी और छन्दक प्रासादमें शुभदायक होते हैं ॥ 51-56॥