ईश्वरने कहा- ब्रह्मन् ! अब मैं फलसप्तमी नामक एक अन्य व्रतका वर्णन कर रहा हूँ, जिसका अनुष्ठान करके मनुष्य पापोंसे विमुक्त हो स्वर्गभागी हो जाता है। व्रतनिष्ठ मनुष्यको चाहिये कि वह मार्गशीर्ष नामक शुभ मासमें शुक्लपक्षकी सप्तमी तिथिको सोनेका एक कमल बनवाये और उस दिन उपवास कर उसे शक्करसमेत कुटुम्बी ब्राह्मणको दान कर दे। इसी प्रकार धर्मवेत्ता व्रती एक पल सोनेकी सूर्यकी मूर्ति बनवाकर उसे सायंकालके समय 'भगवान् सूर्य मुझपर प्रसन्न हों- यों कहकर ब्राह्मणको दान करे। फिर अष्टमीके दिन ब्राह्मणोंको फलसहित दूधसे बने हुए अन्नका भोजन कराकर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करे। ऐसा तबतक करते रहना चाहिये जबतक पुनःकृष्णपक्षकी सप्तमी न आ जाय। उस दिन भी उसी क्रमसे विधिपूर्वक उपवास करके स्वर्णमय कमलके साथ स्वर्णनिर्मित फलका दान करना चाहिये। उसके साथ शक्करसे भरा हुआ पात्र, वस्त्र और पुष्पमाला भी होना आवश्यक है। इस प्रकार एक वर्षतक दोनों पक्षोंकी सप्तमीके दिन उपवास और दान कर क्रमश: सूर्य मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये। भानु, अर्क, रवि, ब्रह्मा, सूर्य, शक्र, हरि, शिव, श्रीमान्, विभावसु, त्वचा और वरुण-ये मुझपर प्रसन्न हों मार्गशीर्षसे प्रारम्भ कर प्रत्येक मासकी सप्तमी तिथिको उपर्युक्त नामोंमें क्रमशः एक-एकका कीर्तन करना चाहिये। प्रत्येक पक्षमें फलदान करने का भी विधान है। इस प्रकार सारा कार्य करते हुए व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये ॥ 1-8॥
व्रतकी समाप्तिपर वस्त्र और आभूषण आदिद्वारा सपत्नीक ब्राह्मणकी पूजा करे और स्वर्णमय कमलसहित शक्करसे भरा हुआ कलश दान करे। उस समय ऐसा कहे- 'सूर्यदेव जिस प्रकार आपके भक्तोंकी कामनाएँ कभी विफल नहीं होतीं, उसी प्रकार मुझे भी सात जन्मोंतक अनन्त फलकी प्राप्ति होती रहे।' जो मनुष्य इस अनन्त फलदायिनी फलसप्तमीका व्रत करता है, उसका आत्मा समस्त पापोंसे विशुद्ध हो जाता है और वह सूर्यलोकमें प्रतिष्ठित होता है। फलसप्तमी व्रत अनुष्ठान करनेवाले मनुष्यद्वारा इस लोकमें अथवा परलोकमें मद्यपान आदि जो कुछ भी दुष्कर्म किया गया है, वह सारा का सारा विनष्ट हो जाता है। इस | फलसप्तमी व्रतका निरन्तर अनुष्ठान करनेवाले मनुष्यके पास रोग नहीं फटकते और वह अपनी भूत एवं भविष्यकी इक्कीस पीढ़ियोंको तार देता है जो इस व्रत विधानको सुनता अथवा पढ़ता है, वह भी कल्याणभागी | हो जाता है ॥ 9-13 ॥