शौनकजीने कहा—असुरराज बलिने समस्त दैत्योंको निस्तेज देखकर अपने पितामह प्रह्लादसे प्रश्न किया ॥ 1 ॥
बलिने पूछा- तात! क्या बात है कि आज सहसा ये दैत्यगण अग्निसे जले हुएके समान निस्तेज और ब्रह्मदण्डसे मारे हुएकी भाँति निर्बल दिखायी पड़ने लगे हैं? क्या दैत्योंके ऊपर कोई अरिष्ट आ गया है? या वैरियोंद्वारा निर्मित कोई कृत्या इनका विनाश करनेके लिये प्रकट हुई है, जिससे ये असुर तेजोहीन हो गये हैं? ॥ 2-3 ॥शौनकजीने कहा- राजन्। इस प्रकार अपने पौत्र बलिद्वारा पूछे जाने पर धैर्यशाली दैत्यपति ने बहुत देरतक ध्यानकर उस असुरनायक बलिसे कहा ।। 4 ।।
प्रह्लाद बोले- दानवराज बलि। इस समय पर्वत काँप उठे हैं, पृथ्वीने अपनी स्वाभाविक धीरता छोड़ दी है, सभी समुद्र विक्षुब्ध हो उठे हैं और दैत्यगण तेजोहीन कर दिये गये हैं। ग्रहगण सूर्योदय होनेपर जिस प्रकार पहले सूर्यका अनुगमन करते थे वैसा अब नहीं कर रहे हैं। कुछ कारणोंसे ऐसा अनुमान होता है कि देवताओंकी विशेष अभ्युन्नति होनेवाली है। महाबाहो ! इसका कोई महान कारण है। सुरार्दन! तुम्हें इस कार्यको तुच्छ नहीं मानना चाहिये ॥ 5-7 ॥
शौनकजीने कहा- परम भक्त असुरश्रेष्ठ प्रह्लाद दानवराज बलिसे ऐसा कहकर मन-ही-मन देवेश्वर श्रीहरिको शरणमें गये। तत्पश्चात् प्रह्लाद परम मनोहर ध्यानयोगका आश्रय लेकर देवाधिदेव जनार्दनका ध्यान करने लगे। तब उन्होंने अदितिके उदरमें वामनरूपमें उन आदिप्रजापतिको देखा जिनके भीतर सातों लोक विराजमान थे उस समय प्रह्लादने भगवान्के भीतर वसु रुद्र, अश्विनीकुमार, मरुद्गण, साध्यगण, विश्वेदेव, आदित्य, गन्धर्व, नाग, राक्षस, अपना पुत्र विरोचन, असुरराज बलि, जम्भ, कुजम्भ, नरक, बाण तथा अन्य असुरगण, स्वयं अपने आप पृथ्वी, आकाश, वायु, जल, अग्नि, समुद्र, वृक्ष, नदियाँ, सरोवर, पशु, मृग, पक्षी, मनुष्य, सर्पादि जीव, सभी लोकोंके सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, शिव, ग्रह, नक्षत्र, नाग तथा दक्ष आदि प्रजापतियोंको भी देखा। यह देखकर प्रह्लाद आश्चर्यचकित हो गये। पुनः क्षणभर बाद स्वस्थ होनेपर उन्होंने विरोचन पुत्र असुरराज बलिसे इस प्रकार कहा ॥ 8- 15 ॥ प्रह्लाद बोले-वत्स जिस कारण तुम राक्षसोंके तेजकी यह हानि उत्पन्न हुई है उस सारे रहस्यको मैं जान गया। उसे तुम पूर्णरूपसे सुनो। जो देवाधिदेव, जगत्के उत्पत्तिस्थान, अजन्मा, जगत्के आदिकर्ता, अनादि, विश्वके आदि, सर्वश्रेष्ठ, वरदायक,पापनाशक, परावरोंमें उत्तम, परात्पर, प्रमाणोंके प्रमाण, सातों लोकोंके गुरुके गुरु, प्रभुके प्रभु, पर-से-परे, आदि-मध्य-अन्तसे रहित तथा महान् आत्मबलसे सम्पन्न हैं, वे भगवान् अपने अंशसे त्रिलोकीको सनाथ करनेके लिये अदिति के गर्भसे अवतीर्ण हो रहे हैं। दैत्यपते। जिनके स्वरूपको रुद्र, पद्मयोनि ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा, मरीचि प्रभृति महर्षिगण नहीं जानते, वे भगवान् वासुदेव | अपनी कलासे उत्पन्न हो रहे हैं। जिन भगवान्ने पूर्वकालमें अपनी एक कलाद्वारा नृसिंहरूपमें अवतीर्ण होकर मेरे पिता (हिरण्यकशिपु का वध किया था तथा जो सभी योगिराजोंके मनमें निवास करनेवाले हैं, वे भगवान् वासुदेव अपनी कलासे अवतीर्ण हो रहे हैं। जिनके ज्ञानसे पापमुक्त हुए वेदवेत्ता जिन अव्यय भगवान्को जानकर उनमें प्रवेश करते हैं तथा जिनमें प्रवेश कर पुनः जन्म नहीं धारण करते, उन भगवान् वासुदेवको मैं नित्य प्रणाम करता हूँ ॥ 16- 22 ॥
समस्त प्राणी समुद्रसे लहरोंकी भाँति जिनसे निरन्तर उत्पन्न होते हैं और प्रलयकालमें पुनः जिनमें लय हो जाते हैं, उन अचिन्त्य वासुदेवको मैं नमस्कार करता हूँ। जिन परम पुरुषके स्वरूप, बल, प्रभाव और भावको शिव तथा ब्रह्मा आदि देवगण भी नहीं समझ पाते, उन भगवान् वासुदेवको मैं सर्वदा नमस्कार करता हूँ। जिन भगवान् वासुदेवने मनुष्योंको स्वरूप देखनेके लिये नेत्र, स्पर्शके लिये चमड़ा रसास्वादनके लिये जिह्वा शब्द सुननेके लिये कान तथा सुगन्ध ग्रहण करनेके लिये नासिका दी है, जिन्होंने अपने एक दाँतके अग्रभागपर इस पृथ्वीको, जो सभी पर्वतोंको धारण करती है, धारण किया है, तथा जिनमें यह समस्त जगत् शयन करता है, | उन आदिभूत भगवान् विष्णुको मैं नमस्कार करता हूँ।जो अक्षयात्मा सर्वेश्वर नासिका, नेत्र और कान आदि इन्द्रियोंद्वारा जाने नहीं जा सकते, जिन्हें केवल मनद्वारा ग्रहण किया जा सकता है उन पूज्य परमेश्वर भगवान् विष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ। जिन्होंने गर्भ में अपने अंशमात्रसे अवतीर्ण होकर बड़े-बड़े दैत्योंके तेजोंका हरण कर लिया है, जो समस्त संसाररूपी वृक्षके लिये कुठारस्वरूप हैं उन अनन्त परमात्मदेवको मैं नमस्कार करता हूँ। महासुरेन्द्र। जो ये महान् आत्मबलसे सम्पन्न एवं जगत्के उत्पत्तिस्थान भगवान् विष्णु हैं, ये अपने सोलह अंशोंसे माता अदितिके उदरमें प्रविष्ट हुए हैं, उन्होंने ही बलपूर्वक तुमलोगोंके शरीरको निस्तेज कर दिया है। 23 - 29 ।। बलिने कहा तात यह हरि कौन है जिससे हम लोगोंको भय प्राप्त हो गया है? मेरे पास तो उस वासुदेवसे भी अधिक बलवान् सैकड़ों दैत्य हैं। विप्रचित्ति, शिवि, शङ्ख, अयःशङ्कु, अय: शिरा, अश्वशिरा, भङ्गकारी, महाहनु प्रताप, प्रथस, शुम्भ, अत्यन्त कठिनाईसे जीतने योग्य कुकुर-ये तथा इनके अतिरिक्त और भी दैत्य एवं दानव मेरे अधिकारमें हैं। ये सभी महाबली, महान् पराक्रमी तथा पृथ्वीके भारको उठाने में समर्थ हैं। इनमेंसे एक एकके आधे पराक्रमसे भी कृष्णकी कोई समानता नहीं है ।। 30- 33 ll
शौनकजी बोले – दैत्यश्रेष्ठ प्रह्लाद अपने पौत्रकी यह बात सुनकर भगवान्की निन्दा करनेवाले उस बलिको धिक्कारते हुए बोले ll 34 ॥
प्रह्लादने कहा- मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जिनका तुम जैसा अविवेकी एवं दुर्बुद्धि राजा है, उन दैत्यों और दानवोंका विनाश हो जायगा। तुम्हारे अतिरिक्त दूसरा कौन ऐसा पापी होगा जो देवाधिदेव, महाभाग, अजन्मा एवं सर्वव्यापी वासुदेवको ऐसा कहेगा? तुमने जिनका नाम गिनाया है ये सभी दैत्य-दानव, ब्रह्मासहित देवगण, चराचर जगत्, तुम, मैं, पर्वत, वृक्ष, नदी और नदोंसहित यह संसार, समुद्र, द्वीप और लोक- ये सभी भगवान् केशवकी समानता नहीं कर सकते।जिन सर्वव्यापी एवं वन्दनीयोंके भी वन्दनीय परमात्माके एक अंशसे यह सारा जगत् उत्पन्न हुआ है, उन्हें अकेले तुम जैसे अविवेकी, विनाशोन्मुख, कुबुद्धि, अजितात्मा वृद्धोंकी आज्ञाका उल्लङ्घन करनेवाले के सिवा दूसरा कौन ऐसा कहेगा? अब तो शोचनीय में हुआ, जिसके घरमें तुम्हारा नीच पिता उत्पन्न हुआ, जिसके तुम इस प्रकार देवाधिदेव विष्णुकी निन्दा करनेवाले पुत्र हुए। संसारमें जन्म लेकर उपार्जित किये गये पापोंको नष्ट करनेवाली भगवान् कृष्णके चरणोंमें हमारी भक्ति अक्षुण्ण बनी रहे, भले ही मैं तुम्हारे द्वारा अपमानित क्यों न होऊँ ? ।। 35-42 ।।
दैत्याधम! भगवान् (विष्णु) से बढ़कर मुझे अपना शरीर भी प्रिय नहीं है, इसे यह संसार जानता है, किंतु तुम्हें विदित नहीं है। मेरे प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय भगवान् विष्णुको जानते हुए भी तुम मेरे गौरवको रक्षा न करते हुए उनकी निन्दा कर रहे हो। बलि! तुम्हारा गुरु विरोचन है और मैं उसका भी गुरु हूँ तथा मेरे एवं समस्त संसारके गुरुके भी गुरु नारायण हैं। चूँकि तुम उन गुरुओंके गुरु विष्णुकी निन्दा कर रहे हो, इसलिये इस लोकमें शीघ्र ही ऐश्वर्यसे भ्रष्ट हो जाओगे। बलि ! जगदीश्वर जनार्दन मेरे देवता हैं। वे मेरे गुरु मुझपर प्रसन्न रहें, भले ही मैं तुम्हारे द्वारा उपेक्षित हो जाऊँ। (मुझे इसकी परवा नहीं है।) चूँकि तुमने बिना विचारे त्रिलोकीके गुरु भगवान्की जो इस प्रकार इतनी निन्दा की है, इसीलिये मैं तुम्हें शाप दे रहा हूँ जिस प्रकार तुमने मेरा सिर काट लेनेसे भी बढ़कर यह भगवान् अच्युतको निन्दा करनेवाला वचन कहा है, उसी प्रकार तुम राज्यसे भ्रष्ट होकर (अवनतिके गर्तमें) गिर जाओ। जिस प्रकार इस संसारसागरमें विष्णुसे बढ़कर अन्य कोई शरणदाता नहीं है. (मेरी यह बात सत्य है तो) मैं शीघ्र ही तुम्हें राज्यसे च्युत हुआ देखूं ॥ 43-50 ॥
शौनकजी बोले- दैत्यराज बलिने अपने पितामह प्रह्लादकी ऐसी अप्रिय बात सुनकर उन्हें बारम्बार प्रणाम कर सभी प्रकारसे प्रसन्न करते हुए इस प्रकार कहना | आरम्भ किया ॥ 51 llबलिने कहा-तात प्रसन्न हो जाइये। अज्ञानसे मारे हुए मुझपर क्रोध मत कीजिये। मैंने बलके गर्वसे उन्मत्त होकर ऐसी बात कह दी है। दैत्यश्रेष्ठ! मेरा सारा ज्ञान मोहसे नष्ट हो गया है, मैं पापी और दुराचारी हूँ। अतः आपने जो मुझे यह शाप दिया है, वह अच्छा हो किया है। तात! मैं राज्यसे च्युत और सम्पत्तिसे रहित हो जाऊँगा इससे मैं उतना दुःखी नहीं हूँ जितना आपके साथ अविनयपूर्ण व्यवहार करनेसे मुझे कष्ट हो रहा है। त्रिलोकीका राज्य, ऐश्वर्य अथवा अन्य कोई भी वस्तु अत्यन्त दुर्लभ नहीं है, परंतु आपके समान जो गुरुजन हैं, वे विश्वमें अवश्य दुर्लभ हैं। इसलिये दैत्योंके पालक ! आप प्रसन्न हो जाइये, मुझपर क्रोध न कीजिये तात! मैं आपकी क्रोधपूर्ण दृष्टिसे दुःखी हो रहा हूँ, शापसे नहीं ll 52-56 ॥
प्रह्लाद बोले- वत्स! कोपके कारण मुझे मोह उत्पन्न हो गया, जिससे अभिभूत होकर मैंने तुम्हें शाप दे दिया; क्योंकि मोहने मेरे विवेकको नष्ट कर दिया था महासुर! यदि मोहके द्वारा मेरा ज्ञान नष्ट न हुआ होता तो भगवान् विष्णुको सर्वव्यापी जानता हुआ मैं शाप क्यों देता ? असुरश्रेष्ठ। मैंने तुम्हें जो यह शाप दिया है, यह तुम्हारे लिये अवश्य घटित होगा, अतः तुम विषाद मत करो। आजसे जो देवेश्वर, कभी च्युत न होनेवाले और शास्ता हैं, उन भगवान् श्रीहरिके प्रति तुम भक्तिमान् हो जाओ। वे ही तुम्हारे रक्षक होंगे। वीर! इस शापके घटित होनेपर तुम मेरा स्मरण करना। तुम जैसे स्मरण करोगे वैसे ही मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा कि जिससे तुम कल्याणके भागी होओगे दैत्यराज बलिसे ऐसा कहकर महामतिमान् प्रह्लाद चुप हो गये। उधर भगवान् गोविन्द वामनरूपमें प्रकट हुए। सम्पूर्ण देवताओंके स्वामी उन जगन्नाथके अवतरित होनेपर देवगण तथा देवमाता अदिति दुःखसे विमुख हो गर्यो उस समय सुख-स्पर्शी वायु बहने लगी, आकाश निर्मल हो गया और सभी प्राणियोंको बुद्धि धर्ममें संलग्न हो गयी। तभीसे राजाओं और राक्षसोंके तथा पृथ्वी, आकाश और स्वर्गमें निवास करनेवाले सभी जीवोंके मनोंमें उद्वेग नहीं हुआ राजन्। भगवान्के उत्पन्न होते ही लोकपितामह भगवान् ब्रह्माने उनका जातकर्म आदि संस्कार किया। तत्पश्चात् उन देवदेवेश्वर श्रीविष्णुका दर्शन कर वे ऋषियोंके सुनते हुए उनकी स्तुति करने लगे ।। 57-66 ।।ब्रह्मा बोले - आदि परमेश्वर! आपकी जय हो। अजेय! आपकी जय हो। सर्वात्मस्वरूप ! आपकी जय हो। आप जन्म एवं वृद्धतासे विमुक्त, अन्तरहित तथा कभी च्युत होनेवाले नहीं हैं, आपकी जय हो, जय हो, जय हो। आप अजित, अमेय और अव्यक्त स्थितिवाले हैं, आपकी जय हो, जय हो, जय हो आप परमार्थके प्रयोजनस्वरूप, सर्व ज्ञानद्वारा जानने योग्य और अपनी महिमासे प्रकट होनेवाले है, आपकी जय हो आप सम्पूर्ण जगत्के साक्षी जगत्के कर्ता और जगत्के गुरु हैं, आपकी जय हो। देव! आप जगत्की स्थिति, पालन और अन्त करनेवाले हैं, आपकी जय हो। आप शेषरूप, अशेषरूप तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित रहनेवाले हैं, आपकी जय हो, जय हो, जय हो। आप जगत्के आदि, मध्य और अन्त हैं, आपकी जय हो। सर्वज्ञाननिधे! आपकी जय हो। आप मोक्षार्थीजनों द्वारा अज्ञात, स्वयंदृष्ट, ईश्वर, योगियोंको मुक्तिरूप फल प्रदान करनेवाले और दम आदि गुणोंसे विभूषित हैं, आपकी जय हो। आप अत्यन्त सूक्ष्म, दुर्जेय, स्थूल, जगन्मय, इन्द्रियवान् और अतीन्द्रिय हैं, आपकी वारंवार जय हो। आप अपनी योगमायामें स्थित रहनेवाले, शेषनागके फणपर शयन करनेवाले और अव्यय हैं, आपकी जय हो। आप एक दाँतके | अग्रभागपर वसुंधराको उठाकर रख लेनेवाले (आदिवराह) हैं, आपकी जय हो ll 67-73 ।।
शत्रुके वक्षःस्थलको विदीर्ण करनेवाले नृसिंह! आपकी जय हो विश्वात्मन्! इस समय आप वामन रूपमें प्रकट हैं | आपकी जय हो। केशव आपकी जय हो। जगन्मूर्ति जनार्दन ! आप अपनी मायाके आवरणसे छिपे रहते हैं, आपकी जय हो। प्रभो! आप अचिन्त्य, अनेक स्वरूप धारण करनेवाले और एकरूप है, आपकी जय हो हरे! आप सम्पूर्ण प्रकृतिके विकारोंसे युक्त हैं, आपकी वृद्धि हो। आप परमेश्वरमें जगत्को यह धर्ममर्यादा स्थित है। हरे! न मैं, न शंकर, न इन्द्रादि देवगण, न सनकादि मुनिगण और न योगीजन ही आपको जाननेमें समर्थ हैं। जगदीश्वर सर्वेश! इस जगत्में आपकी मायारूपी वस्त्रसे लिपटा हुआ कौन मनुष्य आपको कृपाके बिना आपको जान सकता है। प्रसन्नतासे सुन्दर मुखवाले देव! जिसने आपकी आराधना की है, केवल वही आपको जानता है, अन्य लोग नहीं। विश्वात्मन्! आप बड़े-बड़े नेत्रोंसे सुशोभित एवं नन्दीश्वरके स्वामी शंकररूप हैं। सामर्थ्यशाली वामन! आप इस विश्वकी उन्नतिके लिये वृद्धिको प्राप्त हों ।। 74-80 ।।शौनकजी बोले – राजन्! ब्रह्माद्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर वामनस्वरूपधारी भगवान् हृषीकेशने उस समय हँसकर कमलजन्मा ब्रह्मासे भावोंसे युक्त गम्भीर वाणीमें कहा- 'ब्रह्मन् ! प्राचीनकालमें इन्द्रादि | देवताओंके साथ कश्यपने तथा आपने मेरी स्तुति की थी, उस समय मैंने आपलोगोंसे इन्द्रको त्रिभुवन दिलानेकी प्रतिज्ञा की थी। पुनः अदितिने भी मेरी स्तुति की थी और मैंने उससे भी प्रतिज्ञा की थी कि इन्द्रको कण्टकरहित त्रिलोकीका राज्य समर्पित करूँगा। वही मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा, जिससे सहस्राक्ष इन्द्र पुनः जगत्के अधिपति होंगे, यह मैं आपलोगों से सत्य कह रहा हूँ।' तदनन्तर ब्रह्माने हृषीकेशको कृष्णमृगका चर्म दिया। भगवान् बृहस्पतिने उन्हें यज्ञोपवीत प्रदान किया । ब्रह्माके पुत्र महर्षि मरीचिने उन्हें पलाश-दण्ड, वसिष्ठने कमण्डलु, अङ्गिराने कुशासन और वेद, पुलहने अक्षसूत्र तथा पुलस्त्यने दो श्वेत वस्त्र समर्पित किये। फिर प्रणवके स्वरोंसे विभूषित वेद, सम्पूर्ण शास्त्र और सांख्ययोगकी उक्तियाँ उनके निकट उपस्थित हुईं। राजन् ! तत्पश्चात् सर्वदेवमय भगवान् वामन जटा, दण्ड, छत्र और कमण्डलु धारण करके बलिके यज्ञकी ओर प्रस्थित हुए। उस समय भगवान् वामन पृथ्वीतलपर जहाँ-जहाँ अपने चरणोंको रखते थे वहाँ-वहाँ अत्यन्त पीड़ित होनेके कारण पृथ्वीमें दरारें पड़ जाती थीं। इस प्रकार धीरे-धीरे मंद गति से चलते हुए भगवान् वामनने पर्वतों, समुद्रों और द्वीपोंसहित समूची पृथ्वीको चलायमान कर दिया ।। 81 - 90 ॥