ऋषियोंने पूछा- सूतजी ! ब्रह्मदत्त इस भूतलपर जन्म लेकर समस्त प्राणियोंकी बोलीके ज्ञाता कैसे हो गये ? तथा वे चारों चक्रवाक किसके कुलमें उत्पन्न हुए? ॥ 1 ॥ सूतजी कहते हैं-ऋषियो वे चारों चक्रवाक उसी ब्रह्मदत्तके नगरमें एक वृद्ध ब्राह्मणके पुत्ररूपसे उत्पन्न हुए | थे। उस जन्ममें भी वे ब्राह्मण पूर्ववत् जातिस्मर बने रहे।(उस समय उनके) धृतिमान्, तत्त्वदर्शी, विद्याचण्ड और तपोत्सुक—ये चार नाम थे। वे कर्मानुसार एक अत्यन्त | सुदरिद्र (उस ब्राह्मणका नाम भी सुदरिद्र था) ब्राह्मणके पुत्र थे। बचपनमें ही इन ब्राह्मणोंकी बुद्धि तपस्याकी ओर प्रवृत्त हो गयी। तब ये द्विजश्रेष्ठ पितासे प्रार्थना करते हुए बोले 'पिताजी! हमलोग तपस्या करके परम सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं।' उनके इस कथनको सुनकर महातपस्वी सुदरिद्र दीन वाणीमें बोले- 'पुत्रो ! यह कैसी बात कह रहे हो? मुझ दरिद्र चूड़े पिताको छोड़कर तुमलोग वनवासी होना चाहते हो, भला मेरा परित्याग कर देनेसे तुमलोगोंको कौन-सा धर्म प्राप्त होगा तथा तुम्हारी क्या गति होगी ? यह तो महान् अधर्म है।' | ऐसा कहकर पिताने उन्हें मना कर दिया। यह सुनकर उन पुत्रोंने कहा—'तात! हमलोगोंने आपके जीविकोपार्जनका प्रबन्ध कर लिया है। इसके अतिरिक्त आपको और क्या चाहिये, सो | बतलाइये। यदि आप प्रात:काल राजा ब्रह्मदत्तके समक्ष जाकर (आगे बताये जानेवाले श्लोकका) पाठ कीजियेगा तो वे आपको प्रचुर धन-सम्पत्ति एवं सहस्रों ग्राम प्रदान करेंगे। (उस श्लोकका अर्थ यों है )' जो कुरुक्षेत्र में श्रेष्ठ ब्राह्मण, दाशपुर (मंदसौर) में व्याध, कालञ्जर पर्वतपर मृग और मानसरोवरमें सात चक्रवाक थे, वे सिद्ध (होकर) यहाँ निवास करते हैं।' पितासे ऐसा कहकर वे सभी तपस्या करनेके लिये वनमें चले गये। इधर वृद्ध सुदरिद्र भी अपनी स्वार्थ सिद्धिके लिये राजभवनकी ओर चल पड़े ।। 2- 10 ll
( अब ब्रह्मदत्तकी उत्पत्ति-कथा बतलाते हैं -) पूर्वकालमें पञ्चाल देशके एक अणुह नामक नरेश हो गये हैं, जो विभ्राट्के पुत्र थे। वे पुत्र प्राप्तिकी कामनासे कठोर व्रतमें तत्पर होकर सामर्थ्यशाली एवं सर्वव्यापक देवदेवेश्वर नारायण श्रीहरिकी आराधना करने लगे। तत्पश्चात् अधिक काल व्यतीत होनेपर भगवान् जनार्दन उनकी आराधनासे प्रसन्न हुए (और उनके समक्ष प्रकट होकर बोले- ) 'राजन्! तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम अपना मनोऽभिलषित वरदान माँग लो।' भगवान् विष्णुके ऐसा कहनेपर राजाने उत्तम वरकी याचना करते हुए कहा- 'देवेश! मुझे ऐसा पुत्र प्रदान कीजिये, जो महान् बलपराक्रम सम्पन्न सम्पूर्ण शास्त्रोंका पारणामी विद्वान् धार्मिक, श्रेष्ठ योगी, सम्पूर्ण प्राणियोंकी बोलीका ज्ञाता और योगाभ्यासी हो। भगवन् मुझे ऐसा ही औरस पुत्र दीजिये।' यह सुनकर विश्वात्मा परमेश्वर राजासे 'ऐसा ही हो'- यों कहकर समस्त देवताओंके देखते-देखते वहीं अन्तर्हित हो गये। तदनन्तर समयानुसार वही प्रतापी | ब्रह्मदत्त उस राजा अणुहका पुत्र हुआ, जो आगे चलकरसम्पूर्ण जीवोंपर दयालु, समस्त प्राणियोंमें अ बलसम्पत्र, सम्पूर्ण प्राणियोंकी भाषाका ज्ञाता और समस्त प्राणियोंके राजाधिराज सम्राट् हुआ ॥ 11-17 ॥
तत्पश्चात् जहाँ वे कीट-दम्पति (चींटे-चींटी) बातें करते हुए स्थित थे, वहाँ पहुँचने पर चीटेकी कामचेष्टाको | देखकर योगात्मा ब्रह्मदत्तको हँसी आ गयी। राजाको हंसते देखकर महारानी संनति आश्चर्यचकित हो उठी और मनमें किसी भावी अनर्थको आशङ्का करके नरेश्वर ब्रह्मदत्तसे प्रश्न कर बैठी ।। 18-19 ॥
संनतिने पूछा- राजन्! अकस्मात् आपका यह अट्टहास किसलिये हुआ है ? असमय में आपको जो यह हँसी आयी है, इस हास्यका कारण मैं नहीं समझ पा रही हूँ ॥ 20 ll
सूतजी कहते हैं-ऋषियो तब राजकुमार ब्रह्मदत्तने (महारानी संनतिसे) चीटे चींटीके उस सारे वार्तालापको सुनाते हुए कहा-'वरानने। इनके प्रेमालापपूर्ण वचनोंको सुनने से मुझे ऐसी हँसी आ गयी है। शुचिस्मिते। मेरी हँसीके विषयमें कोई अन्य कारण नहीं है।' परंतु रानी संनतिने (राजाके उस कथनपर) विश्वास नहीं किया और कहा- 'राजन्! आपका यह कथन सरासर असत्य है। अभी-अभी आपने मेरे ही किसी विषयको लेकर हास्य किया है, अतः अब मैं जीवन धारण नहीं करूँगी। भला, देवताओंके अतिरिक्त मृत्युलोकनिवासी प्राणी चींटे-चींटीके वार्तालापको कैसे जान सकता है। इसलिये यहाँ आपने मेरी ही हंसी उड़ानी है। इसके अतिरिक्त और क्या हो सकता है?' रानीकी बात सुनकर निष्पाप राजा ब्रह्मदत्त कुछ उत्तर न दे सके। फिर इस रहस्यको जाननेकी इच्छासे वे श्रीहरिके समक्ष नियमपूर्वक आराधना करते हुए सात राततक बैठे रहे। अन्तमें भगवान् हृषीकेशने स्वप्नमें राजासे कहा- 'राजन्! प्रात:काल तुम्हारे नगरमें घूमता हुआ एक वृद्ध ब्राह्मण जो कुछ कहेगा, उसके उन वचनोंसे तुम्हें सारा रहस्य ज्ञात हो जायगा।' यों कहकर भगवान् विष्णु अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर प्रात:काल जब राजा ब्रह्मदत्त अपनी पत्नी और दोनों मन्त्रियोंके साथ नगरसे निकल रहे थे, उसी समय उन्होंने अपने समक्ष आते हुए उस वृद्ध ब्राह्मणको देखा, जो इस प्रकार कह रहा था ।। 21-27 ॥
ब्राह्मण कह रहा था जो (पहले) कुरुक्षेत्रमें श्रेष्ठ | ब्राह्मणके रूपमें, दाशपुर (मंदसौर) में व्याधके रूपमें,कालजर पर्वतपर मृग योनिमें और मानसरोवरमें सात चक्रवाकके रूपमें उत्पन्न हुए थे, वे ही (व्यक्ति अब ) सिद्ध (होकर) यहाँ निवास कर रहे हैं' ॥ 28 ॥ सूतजी कहते हैं-ऋषियो। ब्राह्मणकी ऐसी बात सुनकर राजा शोकाकुल हो अपने दोनों मन्त्रियोंके साथ भूतलपर गिर पड़े। उस समय उन्हें जातिस्मरत्व (पूर्वजन्मके वृत्तान्तोंके ज्ञातृत्व ) की प्राप्ति हो गयी। उन दोनों श्रेष्ठ मन्त्रियोंमें एक बाभ्रव्य सुबालक कामशास्त्रका प्रणेता और सम्पूर्ण शास्त्रोंका ज्ञाता था। वह संसारमें पाञ्चाल नामसे विख्यात था। दूसरा कण्डरीक भी धर्मात्मा और वेद शास्त्रका प्रवर्तक था। वे दोनों भी उस समय राजाके अग्रभागमें शोकाविष्ट हो धराशायी हो गये और उन्हें भी जातिस्मरत्यकी प्राप्ति हुई। (उस समय वे विलाप करते हुए कहने लगे) 'हाय हमलोग लोलुप हो कर्मबन्धनमें फँसकर योगसे पूर्णतया भ्रष्ट हो गये।' इस तरह अनेकविध विलाप करके वे तीनों योगके पारदर्शी विद्वान् विस्मयाविष्ट हो बारंबार श्राद्धके माहात्म्यका अभिनन्दन करने लगे। तत्पश्चात् राजाने उस ब्राह्मणको अनेक गाँवोंसहित प्रचुर धन-सम्पत्ति प्रदान की। इस प्रकार धनकी प्राप्तिसे हर्षित हुए उस वृद्ध ब्राह्मणको विदाकर राजा ब्रह्मदत्तने राजलक्षणोंसे युक्त अपने विष्वक्सेन नामक औरस पुत्रको राज्यपर अभिषिक्त कर दिया (और स्वयं जंगलकी राह ली) । | तदनन्तर ब्रह्मदत्त आदि वे सभी श्रेष्ठ योगी मत्सररहित एवं पितृभक्त होकर उस मानसरोवरमें परस्पर आ मिले। संनतिका अमर्ष गल गया और वह राजासे कहने लगी 'राजन्! आप जो यह अभिलाषा कर रहे हैं, वह सब राज्य त्यागका ही परिणाम है और निश्चय ही मेरे द्वारा घटित हुआ है।' राजाने 'तथेति'- ऐसा ही है कहकर उसकी बातको स्वीकार किया और पुनः उसका अभिनन्दन करते हुए कहा—'यह तुम्हारी ही कृपा है, जो मुझे यह सारा फल प्राप्त हो रहा है।' तदनन्तर ये सभी वनवासी योगका आश्रय लेकर अपने तपोबलके प्रभावसे ब्रह्मरन्ध्रद्वारा प्राणत्याग करके परमपदको प्राप्त हो गये। इस प्रकार प्रसन्न हुए पितामह पितरलोग मनुष्योंको, आयु, धन, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सुख, पुत्र और राज्य प्रदान करते हैं। द्विजवरो! जो मनुष्य | ब्रह्मदत्तके इस पितृमाहात्म्यको ब्राह्मणों को सुनाता है या स्वयं श्रवण करता है अथवा पढ़ता है, वह सौ करोड़ | कल्पांतक ब्रह्मलोकमें प्रशंसित होता है। ll 29-41 ॥