वराङ्गी बोली- 'पतिदेव ! क्रूर स्वभाववाले देवराज इन्द्रने मुझे एक अनाथ विधवाकी तरह बहुत प्रकारसे डराया है, अपमानित किया है, ताडना दी है और कष्ट पहुँचाया है। इसलिये दुःखका अन्त न देखकर मैं अपने प्राणोंका परित्याग करनेके लिये उद्यत हूँ। अतः मुझे एक ऐसा पुत्र दीजिये, जो मेरा इस दुःख एवं शोकरूप महासागरसे उद्धार करनेमें समर्थ हो। पत्नीद्वारा ऐसा कहे जानेपर दैत्यराज वज्राङ्गका हृदय क्रोधसे व्याकुल हो गया। यद्यपि महासुर वज्राङ्ग देवराज इन्द्रसे बदला चुकाने में समर्थ था, तथापि उस महाबली दैत्यने पुनः तप करनेका ही निश्चय किया। तब सामर्थ्यशाली भगवान् ब्रह्मा उसके उस क्रूरतर विचारको जानकर फिर जहाँ यह दिति पुत्र वज्राङ्ग स्थित था वहाँ आ पहुँचे और उससे मधुर वाणीमें बोले- ॥1-5 ॥
ब्रह्माजीने कहा- बेटा! तुम तो तपसे निवृत्त हो भोजन करने जा रहे थे, फिर तुम पुनः कठोर नियममें किस कारणसे तत्पर होना चाहते हो? महाव्रतधारी दैत्यराज ! वह कारण मुझे बतलाओ। कमललोचन ! एक हजार वर्षतक निराहार रहनेका जो फल होता है, वह सामने उपस्थित आहारका त्याग कर देनेसे क्षणमात्रमें ही प्राप्त हो जाता है; क्योंकि अप्राप्त मनोरथवालोंका त्याग उतना महत्त्वपूर्ण नहीं माना जाता, जितना प्राप्त कामनावालेका त्याग वरिष्ठ होता है। ब्रह्माकी ऐसी बात सुनकर तपस्वी दैत्यराज वज्राङ्ग उस ब्रह्मवाणीका हृदयमें विचार करते हुए हाथ जोड़कर बोला।। 6-9 ।।
वज्राङ्गने कहा- भगवन्! आपकी आज्ञासे समाधिसे विरत होनेपर मैंने देखा कि मेरी पटरानी वराङ्गी एक वृक्षके नीचे बैठी हुई दोनभावसे भयभीत होकर रो रही है। यह देखकर मेरा मन दुःखी हो गया। तब मैंने उस सुन्दरीसे | पूछा- 'भीरु ! तुम क्यों ऐसी दशामें पड़ गयी हो? मुझे बतलाओ तो सही, तुम क्या करना चाहती हो?' वाणीके अभीश्वर देव मेरे ऐसा पूछनेपर भयभीत हुई सुन्दरी | वराङ्गीने लड़खड़ाते हुए शब्दोंमें कारण बतलाते हुए कहाहै कि- 'नाथ देवराज इन्द्रने निर्दय होकर मुझे अनाथ नारीकी तरह अनेक प्रकारसे डराया, अपमानित किया, घसीटा है और कष्ट पहुँचाया है। दुःखका अन्त न देखकर मैं प्राण त्याग करनेको उद्यत हो गयी हूँ। इसलिये मुझे इस दुःखरूपी महासागरसे उद्धार करनेवाला पुत्र प्रदान कोजिये।' उसके ऐसा कहनेपर मेरा मन संक्षुब्ध हो उठा है। इसलिये मैं उसे पुत्र प्रदान करनेके लिये उद्यत हो देवताओंपर विजय पानेके लिये घोर तप करूँगा। उसकी यह बात सुनकर पद्मसम्भव चतुर्मुख ब्रह्मा प्रसन्न हो गये. और उस दैत्यराजसे बोले ॥ 10-16 ॥
ब्रह्माने कहा-वत्स! तुम्हारी तपस्या पूरी हो चुकी है। अब तुम उस दुस्तर क्लेशपूर्ण कार्यमें मत प्रविष्ट होओ। तुम्हें तारक नामका ऐसा महाबली पुत्र प्राप्त होगा जो देवाङ्गनाओंके केशकलापको खोल देनेवाला होगा (अर्थात् उन्हें विधवाको परिस्थितिमें ला देगा)। ब्रह्माद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर दैत्यराज वज्राङ्गका मुख हर्पसे खिल उठा। तब वह ब्रह्माजीके चरणोंमें प्रणिपात करके अपनी पटरानी वराङ्गीके पास आया और उसने (पुत्र प्राप्तिके वरदानकी बात बतलाकर) उसे आनन्दित किया। तत्पश्चात् दोनों पति-पत्नी कृतार्थ | होकर प्रसन्नतापूर्वक अपने आश्रमको लौट गये। समयानुसार वज्राङ्गद्वारा स्थापित किये गये गर्भको सुन्दरी वराङ्गी पूरे एक हजार वर्षोंतक अपने उदरमें ही धारण किये रही। एक हजार वर्ष पूरा होनेपर वराङ्गीने पुत्र उत्पन्न किया। उस लोकभयंकर दैत्येन्द्रके जन्म लेते ही सारी पृथ्वी डगमगा उठी अर्थात् भूकम्प आ गया, समुद्रोंमें ज्वार-भाटा उठने लगा, सभी पर्वत विचलित हो उठे, भयावना झंझावात बहने लगा। श्रेष्ठ मुनिगण शान्त्यर्थ जप करने लगे, सर्प तथा वन्य पशु आदि भी उच्च स्वरसे शब्द करने लगे, चन्द्रमा और सूर्यको कान्ति फीकी पड़ गयो तथा दिशाओंमें कुहासा छा गया। द्विजवरो! उस महासुरके जन्म लेनेपर सभी प्रधान असुर हर्षसे भरे हुए वहाँ आ पहुँचे।उनके साथ राक्षसियाँ भी थीं। हर्षसे फूली हुई उन असुराङ्गनाओंमें कुछ तो नाचने लगीं और कुछ गाने लगीं। इस प्रकार वहाँ दानवोंका महोत्सव प्रारम्भ हो गया। यह देखकर इन्द्रसहित सभी देवताओंका मन खिन्न हो गया। उधर वराङ्गी अपने पुत्रका मुख देखकर हर्षसे भर गयी। उसी समय वह देवराज इन्द्रकी विजयको तुच्छ मानने लगी। प्रचण्ड पराक्रमी दैत्यराज तारक जन्म लेते ही पृथ्वीको भी उठा लेनेमें समर्थ कुजम्भ और महिष आदि सभी प्रधान असुरोंद्वारा सम्पूर्ण असुरोंके सम्राट्पदपर अभिषिक्त कर दिया गया। मुनिवरो ! तब उस महान् राज्यका अधिकार पाकर तारक उन दानवश्रेष्ठोंसे ऐसा युक्तिसंगत वचन बोला- ॥ 17–29॥