नन्दिकेश्वर बोले-नारदजी तदनन्तर धर्मराज युधिष्ठिरने अपने सभी भाइयों तथा पत्नी द्रौपदीके साथ ||ब्राह्मणको नमस्कार कर देवताओं एवं अपने गुरुजनोंको तर्पणद्वारा तृप्त किया। भगवान् वासुदेव भी अकस्मात् उसी क्षण वहीं आ पहुँचे। तब सभी पाण्डवोंने मिलकर भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा की। तत्पश्चात् सभी महात्माओंके साथ-साथ भगवान् श्रीकृष्णने धर्मपुत्र युधिष्ठिरको पुनः | उनके राज्यपर अभिषिक्त कर दिया। इसी बीच महामुनि मार्कण्डेय 'स्वस्ति- तुम्हारा कल्याण हो'- यों कहकर क्षणमात्रमें अपने आश्रमको लौट गये। तदनन्तर महामना एवं धर्मात्मा धर्मपुत्र युधिष्ठिर भी बड़ा बड़ा दान देकर भाइयोंके साथ वहाँ निवास करने लगे। जो मनुष्य प्रातः काल उठकर इस माहात्म्यका पाठ करता है तथा नित्य प्रयागका स्मरण करता है, वह परमपदको प्राप्त कर लेता है तथा समस्त पापोंसे मुक्त होकर रुद्रलोकको चला जाता है ॥ 1-6 ॥भगवान् वासुदेवने कहा- महाराज युधिष्ठिर! मैं जैसा कह रहा हूँ, मेरे उस वचनका पालन कीजिये। आप प्रयागमें जाकर संतापरहित हो नित्य भगवन्नामका जप और हवन कीजिये तथा हमलोगोंके साथ नित्य प्रयागका स्मरण कीजिये। राजेन्द्र ! ऐसा करनेसे आप स्वयं स्वर्गलोकको प्राप्त कर लेंगे, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। जो मनुष्य प्रयागकी यात्रा करता है अथवा वहाँ निवास करता है, उसका आत्मा समस्त पापोंसे विशुद्ध हो जाता है और वह दलोकको चला जाता है। जो प्रतिग्रह ( दान लेने) से विमुख, संतुष्ट, जितेन्द्रिय, पवित्र और अहंकारसे दूर रहता है, उसे तीर्थफलकी प्राप्ति होती है जो क्रोधरहित, ईमानदार, सत्यवादी, दृढव्रत और समस्त प्राणियोंके प्रति अपने समान ही व्यवहार करता है, वह तीर्थफलका भागी होता है। महीपते। ऋषियों तथा देवताओंने क्रमश: जिन यज्ञोंका विधान बतलाया है, उन यज्ञोंका अनुष्ठान निर्धन मनुष्य नहीं कर सकता; क्योंकि उन यज्ञोंमें बहुत से उपकरणों तथा नाना प्रकारकी सामग्रियोंकी आवश्यकता पड़ती है। इनका अनुष्ठान तो राजा अथवा कहीं-कहीं कुछ समृद्धिशाली मनुष्य ही कर सकते हैं नरेश्वर युधिष्ठिर । निर्धन मनुष्योंद्वारा भी जिस विधिका पालन किया जा सकता है और जो पुण्यमें यज्ञफलके समान है, उसे मैं बतला रहा है, सुनो भरतसत्तम! यह पुण्यमयी तीर्थयात्रा ऋषियोंके लिये भी परम गोपनीय है तथा यज्ञोंसे भी बढ़कर फलदायक है। भरतर्षभ। दस हजार तीर्थ तथा तीन करोड़ नदियाँ माघमासमें गङ्गामें आकर निवास करती हैं। महाराज! आप स्वस्थ हो जायँ और निष्कण्टक राज्यका उपभोग करें। राजेन्द्र ! पुनः कभी विशेषरूपसे यज्ञ करते समय आप मुझे देख सकेंगे ॥ 7 -17 ॥
नन्दिकेश्वर बोले- नारदजी ! महान् भाग्यशाली एवं महान् तपस्वी वसुदेव नन्दन श्रीकृष्ण महाराज बुधिष्ठिरसे ऐसा कहकर वहीं अन्तर्हित हो गये। तदनन्तर महाराज युधिष्ठिरने सकुटुम्ब प्रयागमें जाकर यथोक्त विधिके अनुसार खान किया, जिससे उन्हें परम शान्ति प्राप्त हुई देवर्षे इसलिये आप भी प्रयागको ओर पधारिये और वहाँ स्नान कर आज ही कृतकृत्य हो जाइये ॥ 18-20 ॥
सूतजी कहते हैं— ऋषियो ! तदनन्तर नन्दिकेश्वर ऐसा कहकर वहीं अन्तर्हित हो गये तथा नारदजी भी शीघ्र ही प्रयागकी ओर चल दिये।वहाँ पहुँचकर उन्होंने शास्त्रोक्त विधिके अनुसार स्नान एवं जप आदि कार्य सम्पन्न किया। तत्पश्चात् श्रेष्ठ ब्राह्मणों को दान देकर वे अपने आश्रमकी ओर चले गये ॥ 21-22 ॥