मत्स्यभगवान् ने कहा- राजर्षे। इस प्रकार जगत्के एकार्णवके जलमें निमग्न हो जानेपर परम कान्तिमान हंसस्वरूपी नारायण पृथ्वीको जलसे भलीभाँति आच्छादित कर विशाल रेतीले टापूके मध्यमें स्थित उस महार्णवके सरोवरमें शयन करते हैं। उन्हीं महाबाहुको रजोगुणरहित अविनाशी ब्रह्म कहा जाता है। अन्धकारसे आच्छादित हुए भगवान् अपने स्वरूपके प्रकाशसे प्रकाशित हो मनको सत्त्वगुणमें स्थापितकर वहाँ विराजित होते हैं। वे ही सत्यस्वरूप हैं। यथार्थ परम ज्ञान भी वे ही हैं, जिसका पूर्वकालमें ब्रह्माने अनुभव किया था। वे ही आरण्यकोंद्वारा उपदिष्ट रहस्य और उपनिषत्प्रतिपादित ज्ञान हैं। उन्हींको परमोत्कृष्ट यज्ञपुरुष कहा गया है। इसके अतिरिक्त जो दूसरा पुरुष नामसे विख्यात है, वह पुरुषोत्तम भी वे ही हैं। जो यज्ञपरायण ब्राह्मण और जो ऋत्विज कहे गये हैं, वे सभी पूर्वकालमें इन्हींसे उत्पन्न हुए थे। अब यज्ञोंके विषयमें सुनिये। राजन् ! उन प्रभुने सर्वप्रथम मुखसे ब्रह्मा और सामगान करनेवाले उद्गालाको दोनों भुजाओंसे होता और अध्वर्युको, ब्रह्मासे ब्राह्मणाच्छंसी और प्रस्तोताको, पृष्ठभागसे मैत्रावरुण और प्रतिप्रस्तोताको, उदरसे प्रतिहर्ता और पोताको, उरुआँसे अच्छावाक और नेष्टाको हाथोंसे आग्नीध्रको, जानुओंसे सुब्रह्मण्यको तथा पैरोंसे ग्रावस्तुत और यजुर्वेदी उन्नेताको उत्पन्न किया ॥ 110 ॥
इस प्रकार इन जगदीश्वर भगवान्ने सम्पूर्ण यज्ञेकि प्रवक्ता सोलह श्रेष्ठ ऋत्विजोंको उत्पन्न किया। ये ही वेदमय पुरुष' यज्ञोंमें भी स्थित रहते हैं। सभी वेद और उपनिषदोंकी साङ्गोपाङ्ग क्रियाएँ इन्हींके स्वरूप हैं। विप्रवरो! पूर्वकालमें एकार्णवके जलमें शयन करते समय मार्कण्डेय मुनिको कुतूहल उत्पन्न करनेवाली एक आश्चर्यजनक घटना घटित हुई थी। अब आप उसे सुनिये। भगवान्द्वारा निगले गये महामुनि मार्कण्डेय उन्होंकी कुक्षिमें उन्होंके श्रेष्ठ तेजसे कई हजार वर्षोंकी आयुतक भ्रमण करते रहे।ये तीर्थयात्रा के प्रसङ्गसे तीर्थोंको प्रकट करनेवाली पृथ्वी, पुण्यमय आश्रमों, देव मन्दिरों देशों, राष्ट्रों और अनेकों " रमणीय नगरोंको देखते हुए जप और होममें तत्पर | रहकर शान्तभाव से घोर तपस्यामें लगे हुए थे। तत्पश्चात् मार्कण्डेय मुनि धीरे-धीरे भ्रमण करते हुए भगवान्के मुखसे बाहर निकल आये, किंतु देवमाया के वशीभूत होनेके कारण वे अपनेको मुखसे निकला हुआ न जान सके। भगवान्के मुखसे बाहर निकलनेपर मार्कण्डेयजीने देखा कि सारा जगत् एकार्णवके जलमें निमग्न है और सब ओर अन्धकार छाया हुआ है। यह देखकर उनके मनमें महान् भय उत्पन्न हो गया और उन्हें अपने जीवनमें भी संशय दिखायी पड़ने लगा। इसी समय हृदयमें भगवान्का दर्शन होनेसे प्रसन्नता तो हुई, साथ ही महान् आश्चर्य भी हुआ ॥ 11 - 19 ॥
इस प्रकार जलके मध्यमें स्थित मार्कण्डेय मुनि शंकित चित्तसे विचार करने लगे कि यह मेरी आकस्मिक चिन्ता है या मेरी बुद्धिपर मोह छा गया है अथवा मैं स्वप्नका अनुभव कर रहा हूँ? परंतु यह तो स्पष्ट है कि मैं इनमेंसे किसी एक भावका अनुभव तो अवश्य कर रहा हूँ; क्योंकि इस प्रकार क्लेशसे रहित जगत् सत्य नहीं हो सकता। जब चन्द्रमा, सूर्य और वायु नष्ट हो गये तथा पर्वत और पृथ्वीका विनाश हो गया, तब यह कौन-सा लोक हो सकता है? वे इस प्रकारकी चिन्तासे ग्रस्त हो गये। इतनेमें ही उन्हें वहाँ एक पर्वत- सरीखा विशालकाय पुरुष शयन करता हुआ दीख पड़ा, जिसके शरीरका आधा भाग सागरमें बादलकी तरह जलमें डूबा हुआ था यह अपने तेजसे किरणयुक्त सूर्यको भौति प्रकाशित हो रहा था। अपने तेजसे उद्भासित होता हुआ वह रात्रिके अन्धकारमें जाग्रत् सा दीख रहा था। तब मार्कण्डेय मुनि आश्चर्ययुक्त हो उस देवको देखनेके लिये ज्यों ही उसके निकट जाकर बोले—'आप कौन है?" त्यों ही उसने पुनः उन्हें अपनी कुक्षिमें समेट लिया। पुनः कुक्षिमें प्रविष्ट हुए मार्कण्डेयको परम विस्मय हुआ । वे बाह्य जगत्को पूर्ववत् स्वप्नदर्शन ही मान रहे थे। वे उस कुक्षिके अन्तर्गत जैसे पहले पृथ्वीपर विचरण कर रहे थे, उसी प्रकार पुनः भ्रमण करने लगे। उन्होंने | पुण्यमय तीर्थजलसे भरी हुई नदियों, अनेकों आश्रमों तथाकुक्षिके भीतर स्थित सैकड़ों याजक ब्राह्मणों को देखा, जो कहीं यज्ञोंद्वारा यजन कर रहे थे और कहीं यज्ञ समाप्त होनेके पश्चात् उत्तम दक्षिणाओंसे युक्त थे। जैसा मैंने तुम्हें पहले बतलाया है, उसके अनुसार ब्राह्मण आदि सभी वर्गों तथा चारों आश्रमोंके लोग सम्यक् प्रकारसे सदाचारका पालन करते थे ॥ 20- 29 ॥
इस प्रकार बुद्धिमान् मार्कण्डेयके सौ वर्षोंसे भी अधिक कालतक समूची पृथ्वीपर भ्रमण करते रहनेपर भी उन्हें उस कुक्षिका अन्त न दीख पड़ा। तत्पश्चात् किसी समय वे पुनः उस पुरुषके मुखसे बाहर निकल आये। उस समय उन्होंने बरगदकी शाखामें छिपे हुए एक बालकको देखा, जो उसी प्रकारके एकार्णवके जलमें, यद्यपि आकाश नीहारसे आच्छादित था तथा जगत् समस्त प्राणियोंसे शून्य हो गया था, तथापि निश्चिन्त भावसे खेल रहा था। यह देखकर मार्कण्डेय मुनि आश्चर्यचकित हो गये। उनके मनमें उसे जाननेके लिये कुतूहल उत्पन्न हो गया, किंतु वे सूर्यके समान तेजस्वी उस बालककी ओर देखने में असमर्थ हो गये। तब जलके निकट एकान्त स्थानमें स्थित होकर विचार करते हुए मार्कण्डेयजी देवमायाके प्रभावसे सशङ्कित हो उसे पहले देखा हुआ मानने लगे। परम विस्मित हुए मार्कण्डेय उस अथाह जलमें तैरते हुए कष्टका अनुभव करने लगे तथा भयके कारण उनके नेत्र कातर हो गये। तब बालयोगी भगवान् पुरुषोत्तम मेघ-सरा गम्भीर स्वरसे मार्कण्डेयसे स्वागतपूर्वक बोले- 'वत्स! डरो मत, तुम्हें डरना नहीं चाहिये। यहाँ मेरे निकट आओ।' तदुपरान्त धके-माँदै मार्कण्डेय मुनि उस बालकसे बोले ।। 30- 37 ll
मार्कण्डेयजीने कहा- यह कौन है, जो मेरी तपस्याका तिरस्कार करता हुआ मेरा नाम लेकर पुकार रहा है ? यह एक हजार दिव्य वर्षोंवाली मेरी आयुका भी अपमान सा कर रहा है। देवताओंमें भी किसीको मेरे प्रति ऐसा व्यवहार करना उचित नहीं है; क्योंकि देवेश्वर ब्रह्मा भी मुझे 'दीर्घायु' कहकर ही पुकारते हैं जीवनसे हाथ धोनेवाला ऐसा कौन है, जो घोर अज्ञानान्धकारका आश्रय लेकर आज मुझे 'मार्कण्डेय' ऐसा कहकर मृत्युका मुख देखना चाहता है ? ll 38-40 ॥
सूतजी कहते हैं- ऋषियो! महामुनि मार्कण्डेय क्रोधवश उस बालकसे ऐसा कहकर चुप हो गये। तब भगवान् मधुसूदन पुनः उसी प्रकार बोले ll 41 ॥श्रीभगवान्ने कहा- 'वत्स! मैं पुराणप्रसिद्ध हृषीकेश ही तुम्हें जन्म देनेवाला तुम्हारा पिता और गुरु हूँ। मैंने ही तुम्हें दीर्घायु प्रदान किया है, तुम मेरे निकट क्यों नहीं आ रहे हो? तुम्हारे पिता अङ्गिरा मुनिने पहले पुत्र प्राप्तिकी कामनासे कठोर तपका आश्रय ले मेरी आराधना की थी और उस घोर तपस्याके परिणामस्वरूप तुम्हारे जैसे अमित ओजस्वी पुत्रका वरदान माँगा था, तब मैंने उन आत्मज्ञानमें लीन एवं अमित पराक्रमी महर्षिको वरदान दिया था। अन्यथा तुम्हारे अतिरिक्त पञ्चभूतात्मक शरीरधारीका पुत्र दूसरा कौन है, जो एकार्णवके जलमें योगमार्गका आश्रय लेकर क्रीडा करते हुए मुझे देखनेका साहस कर सकता है? यह सुनकर महातपस्वी मार्कण्डेयका मुख प्रसन्नतासे खिल उठा और उनके नेत्र विस्मयसे उत्फुल्ल हो गये। तब वे लोकपूजित दीर्घायु मुनि मस्तकपर हाथ जोड़कर नाम और गोत्रका उच्चारण करके भक्तिपूर्वक उन भगवान्को नमस्कार करते हुए बोले । 42 - 47 ॥ मार्कण्डेयजीने कहा- अनघ! मैं आपकी इस मायाको तत्त्वपूर्वक जानना चाहता हूँ, जो आप बालकका रूप धारण करके इस एकार्णवके जलके मध्यमें स्थित होकर शयन करते हैं। ऐश्वर्यशाली प्रभो! आप लोकमें किस नामसे विख्यात होते हैं? मैं आपको एक महान् | आत्मबल सम्पन्न पुरुष मानता हूँ, अन्यथा दूसरा कौन | इस प्रकार स्थित रह सकता है ।। 48-49 ।।
श्रीभगवान् बोले- ब्रह्मन् मैं सभी प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाला तथा सबका विनाशक नारायण हूँ। जो सहस्रशीर्ष आदि नामोंसे अभिहित होता है, वह मैं ही हूँ। मैं ही आदित्यवर्ण पुरुष और यज्ञमें ब्रह्ममय यज्ञ हूँ। मैं ही हव्यको वहन करनेवाला अग्नि और जल जन्तुओंका अविनाशी स्वामी हूँ। इन्द्रपदपर स्थित रहनेवाला इन्द्र तथा वर्षोंमें परिवत्सर मैं हूँ। मैं ही योगी, युग नामसे प्रसिद्ध और युगोंका अन्त करनेवाला हूँ। समस्त प्राणी और सम्पूर्ण देवता मेरे ही स्वरूप हैं। मैं सपनें शेषनाग और सम्पूर्ण पक्षियोंमें गरुड हूँ मैं सभी प्राणियोंका | अन्त करनेवाला तथा लोकोंका काल हूँ। चारों आश्रमों में निवास करनेवाले मनुष्यों का धर्म और तप में ही हूँ। मैं दिव्य नदी गङ्गा और दूधरूपी जलसे भरा हुआ महासागर हूँ। जो परम सत्य है वह मैं हूँ मै हो एकमात्र प्रजापति हूँ।मैं ही सांख्य, मैं ही योग और मैं ही वह परमपद हूँ। मैं ही यज्ञकी क्रिया और मैं ही विद्याका अधिपति कहलाता हूँ। मैं ही अग्नि, मैं ही वायु, मैं ही पृथ्वी, मैं ही आकाश, मैं ही जल, समुद्र, नक्षत्र और दसों दिशाएँ हूँ। मैं ही वर्ष, मैं ही चन्द्रमा, मैं ही बादल तथा मैं ही रवि है। क्षीरसागर में शयन करनेवाला मैं ही हूँ। मैं ही समुद्रमे बडवाग्नि हूँ ॥ 50- 58 ॥
मैं ही संवर्तक अग्नि बनकर जलरूप हविका पान करता हूँ। जैसे मैं पुराण- पुरुष हूँ, उसी प्रकार मैं सबके लिये आश्रयदाता भी हूँ। भूत, भविष्य और वर्तमानका उत्पत्तिस्थान मैं हूँ। विप्रवर! तुम जो कुछ देख रहे हो, जो कुछ सुन रहे हो और लोकमें जिसका अनुभव कर रहे हो, उस सबमें मेरा ही स्मरण करो। मार्कण्डेय! पूर्वकालमें मैंने ही विश्वकी सृष्टि की थी और इस समय भी सृष्टिकर्ता मुझे ही समझो। मार्कण्डेय! प्रत्येक युगमें मैं ही सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि करता हूँ, अतः तुम इन सबका रहस्य इस प्रकार जानो। यदि तुम मेरे धर्मोको सुनना चाहते हो तो मेरी कुक्षिमें प्रवेश करके सुखपूर्वक विचरण करो। देवताओं और ऋषियोंके साथ ब्रह्मा मेरे शरीरमें ही विद्यमान हैं। मुझे ही व्यक्त (प्रकट) और अव्यक्त (अप्रकट) योगवाला तथा असुरोंका शत्रु समझो। मैं ही एक अक्षर तथा तीन अक्षरोंवाला तारक मन्त्र हूँ। त्रिवर्गसे परे तथा त्रिवर्गके अभिप्रायको निर्दिष्ट करनेवाला ओंकार मैं ही हूँ आदि पुराणेश महाबुद्धिमान् भगवान् इस प्रकार कह ही रहे थे कि उन्होंने शीघ्र ही महामुनि | मार्कण्डेयको अपने मुखमें समेट लिया। तदनन्तर मुनिश्रेष्ठ मार्कण्डेय भगवान्की कुक्षिमें प्रविष्ट हो गये और उस एकान्त स्थानमें अविनाशी हंसधर्मको सुननेकी इच्छासे सुखपूर्वक विचरण करने लगे। (इतनेमें ही ऐसी ध्वनि सुनायी पड़ी) मैं ही वह हूँ, जो चन्द्रमा और सूर्यसे रहित महार्णवके जलमें विविध शरीर धारण कर समर्थ होते हुए भी शनैः-शनैः विचरण करता हूँ और हंस नामसे पुकारा जाता हूँ तथा काल-परिवर्तनके समाप्त होनेपर पुनः जगत्की सृष्टि करता हूँ ॥ 59-67 ॥