सूतजी कहते हैं— ऋषियो ! उस सेनानायक दैत्यराज ग्रसनके मारे जानेपर दानवगण श्रीहरिके साथ युद्ध मर्यादाका परित्याग कर (भयंकर) युद्ध करने लगे। उस समय वे पट्टिश, मुसल, पाश, गदा, कुणक, तीखे मुखवाले बाण, चक्र और शक्तियोंसे प्रहार कर रहे थे। तब विचित्र ढंगसे युद्ध करनेवाले भगवान् जनार्दनने अपने अग्निकी लपटोंके समान उद्दीप्त बाणोंसे दैत्योंद्वारा छोड़े गये उन अस्त्रोंमें प्रत्येकके सौ-सौ टुकड़े कर दिये। तब दानवोंके अस्त्र प्रायः नष्ट हो गये और उनका चित्त व्याकुल हो गया। इस प्रकार जब वे रणभूमिमें अस्त्र ग्रहण करनेमें असमर्थ हो गये,तब मरे हुए हाथियों और घोड़ोंकी लाशोंसे जनार्दनके साथ युद्ध करने लगे। इस तरह करोड़ों दैत्य चारों ओरसे घेरकर उनके साथ युद्ध कर रहे थे। उस समय उस भयंकर संग्राममें भगवान् विष्णुको, जो अनेकों विग्रह (शरीर) धारण कर उनके साथ युद्ध कर रहे थे, भुजाएँ कुछ शिथिल पड़ गर्यो। तब वे गरुडसे बोले-'गरुड! तुम इस युद्ध में थक तो नहीं गये हो ? यदि थके न हो तो तुम मुझे मथनके रथके निकट ले चलो और यदि तुम थक गये हो तो दो घड़ीके लिये रणभूमिसे दूर हट चलो।' शक्तिशाली भगवान् विष्णुके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर गरूड रणभूमिमें भयंकर आकृतिवाले दैत्यराज मथनके निकट जा पहुँचे। दैत्यराज मथनने शङ्ख, चक्र एवं गदा धारण किये हुए विष्णुको सम्मुख उपस्थित देखकर उनके वक्षःस्थलपर भिन्दिपाल (ढेलवाँस) एवं तीखे बाणसे प्रहार किया ॥ 1-93 ll
उस महायुद्धमें दैत्यद्वारा किये गये उस प्रहारकी कुछ भी परवा न कर विष्णुने उसे ऐसे पाँच बाणोंसे घायल किया, जो पत्थरपर रगड़कर तेज किये गये थे। पुनः कानतक खींचकर छोड़े गये दस बाणोंसे उसके स्तनोंके मध्यभागमें चोट पहुँचायी। श्रीहरिके बाणोंसे मर्मस्थानोंके घायल हो जानेपर दैत्येन्द्र मथन काँपने लगा। फिर दो घड़ीके बाद आश्वस्त होकर उसने परिघ उठाया और उस अग्निके समान तेजस्वी परिघसे जनार्दनपर भी आघात किया। भगवान् विष्णु उस प्रहारसे कुछ चकार सा काटने लगे। तत्पश्चात् माधवकी आँखें क्रोधसे चढ़ गयीं, तब उन्होंने गदा हाथमें ली और क्रोधपूर्वक उसके आघातसे रथसहित मथनको पीस डाला। दैत्येन्द्र मथन इस प्रकार धराशायी हो गया, जैसे प्रलयकालमें पर्वत ढह जाते हैं। उस पराक्रमशाली दानवके धराशायी हो जानेपर दैत्योंमें उसी प्रकार विषाद छा गया, मानो हाथियोंका समूह दलदलमें फँस गया हो। उन अत्यन्त अभिमानी दानवोंके इस प्रकार विपत्तिग्रस्त हो जानेपर दानवेश्वर महिषने, जिसके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये थे और जो अत्यन्त उग्र स्वभाववाला था, अपने बाहुबलका आश्रय लेकर श्रीहरिपर आक्रमण किया। उस समय महिषने श्रीहरिपर तीखी धारवाले शूलसे आघात किया। फिर वीरवर महिषने गरुडके हृदयपर शक्तिसे प्रहार | किया। तत्पश्चात् उस दैत्यने रणभूमिमें विशाल पर्वतकी गुफाके समान अपने मुखको फैलाकर गरुडसहित | अच्युतको निगल जानेकी चेष्टा करने लगा ॥ 10- 19 ।।तदनन्तर जब महाबली विष्णुको उस दानवकी चेष्टा ज्ञात हुई, तब उन्होंने दिव्यास्त्रोंसे उसके मुखको भर दिया। इस प्रकार भगवान् गरुडध्वजने दिव्यास्त्रोंसे अभिमन्त्रित दिव्य बाणोंद्वारा महिषासुरके मुखको ढककर उसपर बाणसमूहोंकी वृष्टि करने लगे। उन बाणोंसे आहत हुए पर्वत सदृश विशालकाय महिषासुरका शरीर विकृत हो गया और वह रथसे नीचे गिर पड़ा. परंतु मृत्युको नहीं प्राप्त हुआ। महिषको भूमिपर पड़ा हुआ देखकर केशवने कहा- 'महिषासुर इस युद्धमें तुम मेरे अखद्वारा मृत्युको नहीं प्राप्त हो सकते क्योंकि कमलयोनि साक्षात् ब्रह्माने तुमसे पहले कह ही दिया है कि तुम्हारी मृत्यु किसी स्त्रीके हाथसे होगी। अतः उठो, अपने जीवनकी रक्षा करो और शीघ्र ही इस युद्धस्थलसे दूर हट जाओ।' इस प्रकार उस दैत्यराज महिषके युद्धविमुख हो जानेपर शुम्भ नामक दानव कुपित हो उठा। उसकी भाँहें तन गयीं और मुख विकराल हो गया। वह दाँतोंसे होंठको चबाता हुआ हाथ से हाथ मलने लगा। तत्पश्चात् उसने अपने भयंकर धनुषको हाथमें लेकर उसपर प्रत्यञ्चा चढ़ा दी तथा सर्पके समान जहरीले बाणोंको हाथमें लिया ॥ 20 - 26ll
फिर तो सुदृढ़ मुष्टिसे युक्त एवं विचित्र ढंगसे युद्ध करनेवाले उस दैत्यने धधकती हुई अग्निकी लपटोंके समान विकराल एवं अचूक लक्ष्यवाले असंख्य वाणोंके प्रहारसे विष्णु और गरुडको घायल कर दिया। तब दैत्येन्द्र शुम्भके वाणसे आहत हुए विष्णुने भी कृतान्तके समान भुशुण्डि हाथमें ली और उस भुशुण्डि शुभके वाहन पर्वतके समान विशालकाय मेषको पीसकर चूर्ण कर दिया। तब वह दैत्यराज मरे हुए मेषसे कूदकर पृथ्वीपर आ गया और पैदल ही युद्ध करने लगा इस प्रकार पृथ्वीपर खड़े हुए उस दानवपर श्रीहरि प्रलयकालीन अग्निके तुल्य चमकीले बाणसमूहोंकी वर्षा करने लगे। उस समय (उस दैत्यकी ओर) आँख फाड़कर देखते हुए विष्णुने प्रत्यञ्चाको कानतक खींचकर छोड़े गये तीन बाणोंसे उस दैत्यकी भुजाको, छः बाणोंसे मस्तकको और दस बाणोंसे ध्वजको विदीर्ण कर दिया। इसप्रकार विष्णुद्वारा बींधा गया दैत्येश्वर शुम्भ व्यथित हो उठा। उसके शरीरसे रक्तकी धाराएँ बहने लगीं। तत्पश्चात् जब वह कुछ धैर्य धारणकर उठ खड़ा हुआ, तब हाथमें शङ्ख, कमल और शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले विष्णुने उससे कहा- 'शुम्भासुर! तुम थोड़े ही दिनों में किसी कुमारी कन्याके हाथों मारे जाओगे, अतः रणभूमिको छोड़कर हट जाओ। मूर्ख! इस युद्धमें तुम्हारा मेरे हाथों वध नहीं हो सकता, फिर व्यर्थ ही मेरे साथ युद्ध करनेके लिये क्यों समुत्सुक हो रहे हो ? ' ॥ 27-32 ॥
तदनन्तर भगवान् विष्णुके मुखसे निकले हुए उस वचनको सुनकर जम्भ और निमि—दोनों दैत्य विष्णुको पीस डालनेके लिये आ पहुँचे। तब निमिने अपनी प्रचण्ड गुर्वीली गदाको उठाकर गरुड़के मस्तकपर प्रहार किया। उधर शुम्भने भी चमकीले रत्नसमूहोंकी विचित्र कान्तिसे सुशोभित परिघद्वारा विष्णुके मस्तकपर आघात किया। इस प्रकार उन दोनों दानवोंके भीषण प्रहारसे क्रमशः मेघ एवं अग्निकी-सी कान्तिवाले दोनों विष्णु और गरुड पृथ्वीपर गिर पड़े। उन दोनों दैत्योंके उस कर्मको देखकर सभी दैत्य सिंहनाद करते हुए उच्च स्वरसे गर्जना करने लगे। कुछ प्रचण्ड पराक्रमी दैत्य अपने धनुषोंको हिलाते हुए पैरोंके आघातसे पृथ्वीको भी विदीर्ण करने लगे। कुछ दैत्य हर्षमें भरकर अपने वस्त्रोंको हिलाने लगे तथा कुछ शङ्ख, नगाड़ा और गोमुख आदि बाजे बजाने लगे। तदनन्तर थोड़ी देर बाद केशवसहित गरुडकी भी चेतना लौट आयी। तब वे उस युद्धसे विमुख हो बड़े वेगसे भाग खड़े हुए ॥ 33-36 ॥