सूतजी कहते हैं-ऋषियो भगवान् विष्णुको देखकर क्रोधमें भरे हुए सभी दानवेन्द्र अपनी-अपनी सेनाके साथ उनके ऊपर इस प्रकार टूट पड़े जैसे मधु निकालते समय मधु निकालनेवालेको मधुमक्खियाँ चारों ओरसे घेर लेती हैं। उस समय महाबली दैत्यराज निमिने जो काले चँवरोंसे सुशोभित था, जिसके मस्तकपर उज्वल पत्रभंगी की गयी थी, जिसके गण्डस्थलका मुख फूट जानेसे मद चू रहा था, जो पर्वतके समान विशालकाय था और जिसपर रंग-विरंगी पाँच पताकाएँ फहरा रही थीं, ऐसे दुर्धर्ष एवं भयंकर गजराजपर चढ़कर युद्धस्थलमें श्रीहरिपर आक्रमण किया। उसके हाथीकी पदरक्षामें | सत्ताईस हजार भयंकर दानव नियुक्त थे, जो उज्ज्वलकिरीट और कवचसे लैस थे। साथ ही घोड़ेपर चढ़ा हुआ मथन, ऊँटपर बैठा हुआ जम्भक और विशालकाय मेषपर सवार हुआ शुम्भ भी रणभूमिमें पहुंचे। क्रुद्ध हुए अन्यान्य दानवेन्द्र भी विभिन्न प्रकारके अस्त्र हाथमें लिये हुए सतर्क होकर समरभूमिमें अक्लिष्टकर्मा विष्णुपर प्रहार कर रहे थे। उस भयंकर युद्धमें दैत्यराज निमिने परिपसे, मधनने मुदरसे, शुम्भने त्रिशूलसे, ग्रसनने तीखे भालेसे, महिषने चक्रसे, क्रोधसे भरे हुए जम्भने शक्तिसे तथा शेष सभी दानवराज तीखे बाणोंसे नारायणपर चोट कर रहे थे। दैत्योंद्वारा चलाये गये वे अस्त्र श्रीहरिके शरीरमें उसी प्रकार प्रवेश कर रहे थे, जैसे गुरुद्वारा उपदिष्ट वाक्य उत्तम शिष्यके कानमें प्रविष्ट हो जाते हैं ॥ 1-9 ॥
तदनन्तर भगवान् विष्णुने रणभूमिमें स्थिरचित हो अपने धनुष तथा तेलसे धुले हुए एवं सीधे लक्ष्यवेध करनेवाले सर्पाकार बागको हाथमें लिया और उन दैत्योंको | लक्ष्य बनाकर धनुषको कानतक खींचकर उसपर उन वाणोंका संधान किया। तत्पश्चात् वे क्रोधमें भरकर रणभूमि में पुरुषार्थपूर्वक दैत्योंकी सेनापर चढ़ आये। उन्होंने अग्निके समान तेजस्वी बीस बाणोंसे निमिको, दस बाणोंसे मथनको और पाँच बाणोंसे शुम्भको बींध दिया। फिर क्रुद्ध हो एक बाणसे महिषकी छातीपर चोट पहुँचायी तथा बारह तीखे बाणोंसे जम्भको घायल कर शेष सभी दानवेश्वरोंमेंसे प्रत्येकको आठ-आठ बाणोंसे छेद डाला। भगवान् विष्णुके उस हस्तलाघवको देखकर दानवगण क्रोधसे तिलमिला उठे और सिंहनाद करते हुए प्रयत्नपूर्वक अत्यन्त अद्भुत युद्ध करने लगे। उस समय दानवराज निमिने भल्ल नामक बाण मारकर भगवान् विष्णुके धनुषको काट दिया। फिर महिषासुरने संधान किये जाते हुए बाणको उनके हाथमें ही काट गिराया। जम्भने तीखे बाणोंके प्रहारसे गरुङको पीड़ित कर दिया। पर्वताकार शुम्भने उनकी भुजापर गम्भीर आघात किया। धनुषके कट जानेपर भगवान् गोविन्दने भीषण गदा हाथमें ली और उस भयंकर युद्धके समय उसे वेगपूर्वक घुमाकर मथनके ऊपर छोड़ दिया। वह उसके निकटतक पहुँच भी न पायी थी कि निमिने रणभूमिमें अपने बाणोंके प्रहारसे उसके तिलके समान टुकड़े-टुकड़े | कर दिये दयाहीन पुरुषके समक्ष विफल हुई प्रार्थनाकीतरह उस गदाको नष्ट हुई देखकर भगवान्ने दिव्य रत्नोंसे |सुसज्जित भयंकर मुद्रर उठाया और दानवराज निमिको लक्ष्य करके उसे वेगपूर्वक फेंक दिया। ll 10- 19 ॥
उस मुगरको आते हुए देखकर तीन दैत्योंने— जम्भ दैत्यने गदासे प्रसनने पट्टिशसे और महिष दैत्यने शक्ति प्रहार करके आकाशमार्गमें ही उसका निवारण कर दिया; क्योंकि उनके मन अपने पक्षकी विजयकी अभिलाषासे पूर्ण थे। तब दुर्जनके प्रति किये गये प्रेमालापको भाँति उस मुगरको विफल हुआ देखकर रणभूमिमें भयानक कर्म करनेवाले भगवान्ने आठ घंटियोंके उत्कट शब्दसे युक्त एवं कठोर अग्रभागवाली शक्ति हाथमें ली और उसे जम्भको लक्ष्य करके छोड़ दिया। दानवनन्दन गजने उस शक्तिको आकाशमार्गमें ही पकड़ लिया। विवेकियोंद्वारा धारण की गयी शिक्षाकी भाँति उस शक्तिको पकड़ी गयी देखकर भगवान्ने एक दूसरा धनुष उठाया, जो सुदृढ़ सारयुक्त और भार सहन करनेमें सक्षम था। उसपर रौद्रास्त्रका अभिसंधान करके उन्होंने उस बाणको छोड़ दिया। उस अस्त्रके तेजसे सारा चराचर जगत् व्याप्त हो गया और सारा आकाशमण्डल बाणमय दिखायी पड़ने लगा सारी पृथ्वी, दिशाएं और विदिशाएँ बागसमूहसे आच्छादित हो गयीं। उस अस्त्रके प्रभावको देखकर सेनापति असुरराज ग्रसनने ब्रह्मास्त्रको प्रकट किया, जो सम्पूर्ण अवको निवारण करने में समर्थ था उसके प्रभाव से वह लोकभक्षक रौद्रास्त्र शान्त हो गया। उस अस्त्रके | विफल हो जानेर दानवोंके संहारक विष्णुने कालदण्डास्त्रको प्रकट किया, जो सम्पूर्ण लोकोंको भयभीत करनेवाला था। उस अस्त्रके संधान करते ही प्रचण्ड वायु बहने लगी, पृथ्वीदेवी काँप उठीं और दैत्योंकी बुद्धि विकृत हो गयी। युद्धस्थलमें उस भयंकर अस्त्रको देखकर बुद्धदुर्मद दानव नाना प्रकारके दिव्यास्त्रोंका प्रयोग करने लगे ॥ 20-30 ॥
उस कालदण्डास्त्रका निवारण करनेके लिये ग्रसनने नारायणास्त्रको और निमिने अपने श्रेष्ठ अस्त्र चक्रको लेकर उसपर फेंका तथा जम्भने ऐषीकास्त्रका प्रयोग किया। उस अस्त्रके निवारणार्थ जबतक दैत्येश्वरगण अपने बाणोंका संधान भी नहीं कर पाये थे, उतनी ही देरमें कालदण्डास्त्रने दैत्येश्वरोंके | घोड़े हाथीसहित करोड़ों सैनिकोंका सफाया कर दिया।तदनन्तर दैत्योंद्वारा प्रयुक्त किये गये अस्त्रोंके संयोगसे वह कालदण्डास्त्र शान्त हो गया। अपने उस अस्त्रको शान्त हुआ देखकर श्रीहरि अपने पराक्रममें ठेस लगी समझकर क्रोधसे उबल पड़े। फिर तो उन्होंने उस चक्रको हाथमें लिया, जो दस हजार सूर्योंके समान तेजोमय, कठोर अरोंसे युक्त और प्रभावमें अपनी द्वितीय मूर्तिके समान था। उन्होंने उस वज्रकी भाँति कठोर एवं भयंकर चक्रको सेनापति ग्रसनके कण्ठस्थलको लक्ष्य करके छोड़ दिया। उस चक्रको आकाशमें पहुँचा हुआ देखकर दैत्येश्वरगण अपने पराक्रमसे पूरा बल लगानेपर भी उसी प्रकार निवारण करनेमें समर्थ न हो सके, जैसे अनिष्ट कर्मसे निष्पन्न हुए प्रचण्ड दुर्भाग्यको हटाया नहीं | जा सकता। परिणामस्वरूप वह अतर्क्य महिमाशाली एवं अजेय चक्र ग्रसनके कण्ठपर जा गिरा और उसके गलेको दो भागों में विभक्त कर दिया। उससे बहते हुए रक्तकी धारासे उस चक्रकी कठोर नाभि लाल हो गयी थी। तत्पश्चात् धधकती हुई अग्निके समान वह उद्दीप्त चक्र पुनः | भगवान् जनार्दनके हाथमें लौट गया ॥ 31-36॥