शिवजीने (विवाहके बाद एक बार पार्वतीसे) कहा— कृशाङ्गी पार्वति कृष्ण कान्तिसे युक्त तुम मेरे श्वेत शरीरमें लिपटनेपर चन्दन-वृक्षमें लिपटी हुई सीधी काली नागिन जैसी दीखती हो। तुम कृष्णपक्षमें चाँदनीके पीछे काले आकाश तथा अँधेरी रात्रिकी तरह मेरी दृष्टिको दूषित कर रही हो। भगवान् शंकरद्वारा इस प्रकार कही जानेपर पार्वती उनके गलेसे अलग हो गर्यो। क्रोधके कारण उनके नेत्र लाल हो गये। तब वे मुख और भौंहोंको टेढ़ी करके बोलीं ॥ 1-3 ॥
देवीने कहा- चन्द्रभूषण ! सभी लोग अपने द्वारा की गयी मूर्खताका दुष्परिणाम भोगते हैं। स्वार्थी मनुष्य जनसमाजमें अवश्य ही अपमानित होता है। दीर्घकालिक तपस्याद्वारा मैंने जिस मनोरथकी प्रार्थना की थी, उसीके परिणामस्वरूप मुझे यह पग-पगपर तिरस्कार प्राप्त हो रहा है। जटाधारी शंकर! (आपके कथनानुसार) न तो मैं कुटिल हूँ और न विषम ही हूँ, अपितु आप स्वयं स्पष्टरूपसे विषयुक्त अर्थात् विषयी और दोषोंके समूह (अथवा चन्द्रमा) के आश्रयरूपसे प्रसिद्ध हैं। मैं पूषाके दाँत और भगके नेत्र भी नहीं हूँ। बारह भागों में विभक्त भगवान् सूर्य मुझे भलीभाँति जानते हैं। अपने दोषोंद्वारा मुझपर आक्षेप करते हुए आप मेरे सिरमें पोड़ा उत्पन्न कर रहे हैं। आपने मुझे जो 'कृष्णा' नामसे सम्बोधित किया है सो आप भी तो 'महाकाल' नामसे विख्यात हैं। अतः अब मैं जीवनका मोह त्यागकर तपस्या करनेके लिये पर्वतपर जाऊँगी; क्योंकि आप जैसे धूर्तसे अपमानित होकर जीवित रहनेसे मैं अपना कोई प्रयोजन नहीं समझ रही हूँ। तब पार्वतीके इस प्रकार क्रोधके कारण तीखे अक्षरोंसे युक्त वचनको सुनकर भगवान् शंकर अतिशय प्रेमसे सनी हुई वाणीमें इस प्रकार बोले ॥ 4- 10 ॥
शंकरजीने कहा- गिरिजे! तुम पर्वतकी पुत्री हो, अतः मैं तुम्हारी निन्दा करनेपर नहीं हूँ। यह तो मैं तुम्हारे ऊपर भक्तिपूर्ण बुद्धिसे तुम्हारे नामका कारण बतलाया है।गिरिजे! मेरे स्वस्थ चित्तमें भी तुम्हें विकल्पकी कल्पना नहीं करनी चाहिये भीरु यदि तुम इस प्रकार कुपित हो गयी हो तो अब मैं पुनः तुम्हारे साथ परिहासकी बात नहीं करूँगा। शुचिस्मिते! तुम क्रोध छोड़ दो। देखो, मैं तुम्हारे सामने हाथ जोड़कर सिर झुकाये हूँ। जो प्रेमयुक्त अवमानना तथा व्याजनिन्दासे क्रुद्ध हो जाता है, उस व्यक्तिके साथ कभी भी परिहासकी बात नहीं करनी चाहिये इस प्रकार महादेवजीने अनेकों चाटुकारिताभरी बातोंसे पार्वतीको समझाया, परंतु सतीका वह उत्कट क्रोध शान्त नहीं हुआ; क्योंकि उस व्यङ्गसे उनका मर्मस्थल विद्ध हो गया था। तत्पश्चात् पार्वती शंकरजीके हाथसे पकड़े हुए अपने वस्त्रको छुड़ाकर बाल बिखेरे हुए वेगपूर्वक वहाँसे चली जानेकी चेष्टा करने लगीं। क्रोधावेशसे जानेके लिये उद्यत हुई पार्वतीसे त्रिपुरारिने पुनः कहा "तुम सचमुच ही सभी अवयवोंद्वारा अपने पिताके सदृश उनकी कन्या हो जैसे हिमाचलके मेघसमूहसे व्याप्त कैचे शिखरोंके कारण आकाश दुर्गम्य हो जाता है, उसी तरह तुम्हारा हृदय भी दुःखगाह्य हृदयोंसे भी अत्यन्त कठोर है तुम्हारे सभी चिह्न बहुधा वनोंकी अपेक्षा कठिनतासे परिपूर्ण हैं। तुम्हारी चालमें पहाड़ी मार्गोंसे भी बढ़कर कुटिलता है। तुम्हारा सेवन बर्फसे भी अधिक कठिन है। सूक्ष्माङ्गी पार्वती ! ये सभी गुण तुम्हारे शरीरमें हिमाचलसे ही संक्रमित हुए हैं। शिवजीद्वारा इस प्रकार कही जानेपर पार्वतीका मस्तक क्रोधके कारण काँपने लगा और होंठ फड़कने लगे। तब वे पुनः शंकरजीसे बोलीं ॥11- 20 ॥ उमाने कहा- भगवन्! आप अन्यान्य सभी गुणीजनोंमें दोष लगाकर उनकी निन्दा मत करें; क्योंकि आपमें भी तो सभी गुण दुष्टोंके संसर्गसे ही प्रविष्ट हुए हैं। आपमें सर्पोंके सम्पर्कसे अधिक टेढ़ापन, भस्मसे प्रेमहीनता, चन्द्रमासे हृदयकी कालिमा और वृषसे दुर्बोधता भर गयी है। आपके विषयमें अधिक कहनेसे क्या लाभ? वह तो केवल वचनका परिश्रम ही होगा। आप श्मशान में निवास करनेके कारण निर्भीक हो गये हैं। नग्न रहनेके कारण आपमें लज्जा रह नहीं गयी है। कपाली होनेके कारण आप निर्मम हो गये हैं और आपकी दया तो चिरकालसे नष्ट हो गयी है। ऐसा कहकर पार्वती उस भवनसे बाहर निकल गर्यो। उनको इस प्रकार जाती देखकर देवेशके गण (प्रमथ) किलकारी मारकर रोते हुए । उनके पीछे दौड़े और कहने लगे—'माँ! हमलोगोंकोछोड़कर आप कहाँ जा रही हैं?' तत्पश्चात् वीरक देवीके दोनों चरणोंको पकड़कर वाष्पगद्गद वाणीमें बोला- 'माँ! यह क्या हो गया? आप क्रुद्ध होकर कहाँ जा रही हैं? तपोनिष्ठे ! इस प्रकार स्नेह छोड़कर जाती हुई आपके पीछे मैं भी चलूँगा, अन्यथा आपके त्याग
देनेपर मैं पर्वतशिखरसे कूदकर प्राण दे दूँगा ॥ 21 - 27॥ तदनन्तर माता पार्वती अपने दाहिने हाथसे वीरकके मुखको ऊपर उठाकर बोलीं- 'बेटा! शोक मत करो। तुम्हारा पर्वतशिखरसे कूदना या मेरे साथ चलना उचित नहीं है। पुत्र! मैं जिस कार्यसे जा रही हूँ, वह तुम्हें बतला रही हूँ, सुनो। मेरे अनिन्द्य होनेपर भी शंकरजीने मुझे 'कृष्णा' कहकर मेरी निन्दा की है। इसलिये अब मैं तपस्या करूँगी, जिससे गौर वर्णकी प्राप्ति कर सकूँ। मेरे चले जानेके बाद ये महादेव स्त्रीलम्पट न हो जायँ, इसके लिये तुम्हें सभी छिद्रोंपर दृष्टि रखते हुए नित्य द्वारकी रक्षा करनी चाहिये, जिससे यहाँ कोई स्त्री शंकरजीके निकट प्रवेश न करने पावे। बेटा! यहाँ किसी परायी स्त्रीको देखकर मुझे तुरंत सूचित करना । फिर उसके बाद जैसा उचित होगा, मैं शीघ्र ही उपाय -कर लूँगी।' इसपर वीरकने देवीसे कहा- 'माँ! ऐसा ही 'होगा।' इस प्रकार माताकी आज्ञारूपी अमृतके आह्लादसे आप्लावित अङ्गोंवाला वीरक शोकरहित हो माताके चरणों में कर अन्तःपुरकी रखवाली करनेके लिये चला गया ॥ 28-34 ॥