ऋषियोंने पूछा-सुव्रत। जो यह भारतवर्ष है, जिसमें स्वायम्भुव आदि चौदह मनु हुए हैं, जिन्होंने प्रजाओंकी सृष्टि की है, उनके विषयमें हमलोग आपके मुखसे सुनना चाहते हैं। साथ ही वक्ताओंमें श्रेष्ठ सूतजी! पुनः इसके बाद भारत आदि अन्य वर्षोंके विषयमें भी कुछ बतलाइये ॥ 1-2 ॥
प्रसिद्ध पौराणिक लोमहर्षणके पुत्र सूतजीने उन पवित्रात्मा ऋषियोंका प्रश्न सुनकर अपनी बुद्धिसे बारम्बार बहुधा विचार-विमर्श करके उन ऋषियोंसे 'उत्तर श्रवण' (उत्तरवर्ती वर्षों) के विषयमें कहना आरम्भ किया ।। 3-4 ।।
सूतजी कहते हैं—ऋषियो! अब मैं इस भारतवर्षमें उत्पन्न होनेवाली प्रजाओंका वर्णन कर रहा हूँ। इन प्रजाओंकी सृष्टि करने तथा इनका भरण-पोषण करनेके कारण मनुको भरत कहा जाता है। निरुक्त वचनोंके आधारपर यह वर्ष (उन्होंके नामपर ) भारतवर्षके नामसे प्रसिद्ध है। यहाँ स्वर्ग, मोक्ष तथा इन दोनोंके अन्तर्वर्ती (भोग) पदको प्राप्ति होती है।इस भूतलपर भारतवर्षके अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी प्राणियोंके लिये कर्मका विधान नहीं सुना जाता। इस भारतवर्षके भी भेद हैं, उनके नाम सुनिये इन्द्रद्वीप, कशेरुमान् ताम्रपर्ण, गभस्तिमान् नागद्वीप, सौम्यद्वीप, गान्धर्वद्वीप और वारुणद्वीप ये आठ तथा उनमें नवाँ यह समुद्रसे घिरा हुआ भारतद्वीप (या खण्ड) है। यह द्वीप दक्षिणसे उत्तरतक एक हजार योजनमें फैला हुआ है। इसका विस्तार गङ्गाके उगमस्थानसे लेकर कन्याकुमारी अथवा कुमारी अन्तरीपतक है। यह तिरछेरूपमें ऊपर ही ऊपर दस हजार योजन विस्तृत है। इस द्वीपके चारों और सीमावर्ती प्रदेशोंमें म्लेच्छ जातियोंकी वस्तियाँ हैं। इसकी पूर्व एवं पश्चिम दिशामें क्रमशः किरात और यवन निवास करते हैं। इसके मध्यभागमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र विभागपूर्वक यज्ञ, शस्त्र ग्रहण और व्यवसाय आदिके द्वारा जीवन-यापन करते हुए निवास करते हैं। उन चारों वर्णोंका पारस्परिक व्यवहार धर्म, अर्थ और कामसे संयुक्त होता है और वे अपने-अपने कर्मोंमें ही लगे रहते हैं। यहाँ कल्पसहित पाँचों वर्णों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, योगी और संन्यासी) तथा आश्रमोंका विधिपूर्वक पालन होता है। इस द्वीपके मनुष्योंकी कर्म प्रवृत्ति स्वर्ग और मोक्षके लिये होती है ॥ 5-14 ।।
इस मानव द्वीपको जो त्रिकोणाकार फैला हुआ है, जो सम्पूर्ण रूपमें जीत लेता है वह सम्राट् कहलाता है। अन्तरिक्षपर विजय पानेवालोंके लिये यह लोक सम्राट् कहा गया है और यही लोक स्वराट्के नामसे भी प्रसिद्ध है। अब मैं इसका पुनः विस्तारपूर्वक वर्णन कर रहा हूँ। इस महान् भारतवर्षमें स्वत विश्वविख्यत कुलपर्वत है। महेन्द्र मला शुक्तिमान् वान् विध्य और परिवारे ये कुलपर्वत हैं। इनके समीप अन्य हजारों पर्वत हैं।इनके अतिरिक्त अन्य भी विशाल एवं चित्र-विचित्र शिखरोंवाले पर्वत हैं तथा दूसरे कुछ उनसे भी छोटे हैं जो निम्न (पर्वतीय) जातियोंके आश्रयभूत हैं। इन्हीं पर्वतोंसे संयुक्त जो प्रदेश हैं उनमें चारों ओर आर्य एवं म्लेच्छ जातियाँ निवास करती हैं, जो इन आगे कही जानेवाली नदियोंका जल पान करती हैं। जैसे गङ्गा, सिन्धु, सरस्वती, शतद्रु (सतलज), चन्द्रभागा ( चिनाव), यमुना, सरयू, इरावती (रावी), वितस्ता (झेलम), विपाशा (व्यास), देविका, कुहू, गोमती, धूतपापा (धोपाप), बाहुदा, दृषद्वती, कौशिकी (कोसी), तृतीया, निश्चीरा, गण्डकी, चक्षु, लौहित- ये सभी नदियाँ हिमालयकी उपत्यका (तलहटी) से निकली हुई हैं। वेदस्मृति, वेत्रवती (तया), वृत्रघ्नी, सिन्धु, पर्णाश, चन्दना, सदानीरा, मही, पारा, चर्मण्वती, यूपा, विदिशा, वेणुमती, शिप्रा, अवन्ती तथा कुन्ती-इन नदियोंका उद्गमस्थान पारियात्र पर्वत है ॥ 15-24 ॥
शोण, महानदी, नर्मदा, सुरसा, क्रिया, मन्दाकिनी, दशार्णा, चित्रकूटा, तमसा, पिप्पली, श्येनी करतोया, पिशाचिका, विमला, चञ्चला, वञ्जुला, वालुवाहिनी, शुक्तिमन्ती, शुनी, लज्जा, मुकुटा और हदिकाये स्वच्छसलिला कल्याणमयी नदियाँ ऋक्षवन्त (ऋक्षवान्) पर्वतसे उद्धृत हुई है। लापी, पयोष्णी (पूर्णानदी या जगा निर्विन्ध्या, क्षिप्रा, निषधा, वेण्या, वैतरणी, विश्वमाला, कुमुद्वती, तोया, महागौरी, दुर्गा तथा अन्तः शिला- ये सभी पुण्यतोया मङ्गलमयी नदियाँ विन्ध्याचलकी उपत्यका ओंसे निकली हुई हैं। गोदावरी, भीमरथी, कृष्णवेणी, वञ्जुला (मंजीरा), कर्णाटककी तुङ्गभद्रा, सुप्रयोगा, वाह्या (वर्धानदी) और कावेरी- ये सभी दक्षिणापथमें प्रवाहित होनेवाली नदियाँ हैं, जो सह्यपर्वतकी शाखाओंसे प्रकट हुई हैं। कृतमाला (वैगईन नदी), ताम्रपर्णी, पुष्पजा (कुसुमाङ्गा पेम्बे या पेनार नदी) और उत्पलावती ये कल्याणमयी नदियाँ मलयाचलसे निकली हुई हैं। इनका जल बहुत शोतल होता है। त्रियामा, ऋषिकुल्या, इशुला, त्रिदिवा, अचला, लाङ्गलिनी और वंशधरा- ये सभी नदियाँ महेन्द्रपर्वतसे निकली हुई मानी जाती हैं। ऋषीका, सुकुमारी, मन्दगा, मन्दवाहिनी, कृपा और पलाशिनी इन नदियोंका उगम शुतिमान् पर्वतसे हुआ है।ये सभी पुण्यतोया नदियाँ पुण्यप्रद, सर्वत्र बहनेवाली तथा साक्षात् या परम्परासे समुद्रगामिनी हैं। ये सब की सब विश्वके लिये माता सदृश हैं तथा इन सबको कल्याणकारिणी एवं पापहारिणी माना गया है ॥ 25- 33 ॥
अथवा इनकी सैकड़ों-हजारों छोटी-बड़ी सहायक नदियाँ भी हैं जिनके कछारोंमें कुरु, पाञ्चाल, शाल्व, सजाङ्गल, शूरसेन, भद्रकार, बाह्य, सहपटच्चर, मत्स्य किरात, कुन्ती, कुन्तल, काशी, कोसल, आवन्त, कलिङ्ग, मूक और अन्धक- ये देश अवस्थित हैं, जो प्रायः मध्यदेशके जनपद कहलाते हैं। ये सह्यपर्वतके निकट बसे हुए हैं, यहाँ गोदावरी नदी प्रवाहित होती है। अखिल भूमण्डलमें यह प्रदेश अत्यन्त मनोरम है। तत्पश्चात् गोवर्धन, मन्दराचल और श्रीरामचन्द्रजीका प्रियकारक गन्धमादन पर्वत है. जिसपर मुनिवर भरद्वाजजीने श्रीरामके मनोरंजनके लिये स्वर्गीय वृक्षों और दिव्य औषधियोंको अवतरित किया था। उन्हीं मुनिवरके प्रभावसे वह प्रदेश पुष्पोंसे परिपूर्ण होनेके कारण मनोमुग्धकारी हो गया था। बाह्लीक (बलख), वाटधान, आभीर, कालतोयक, पुरन्ध्र, शूद्र, पल्लव, आत्तखण्डिक, गान्धार, यवन, सिन्धु (सिंध), सौवीर (सिन्धका उत्तरी भाग), मद्रक (पंजाबका उत्तरी भाग), शक, दुह्य (ययाति-पुत्र दुह्युका उत्तरी भाग-पश्चिमी पंजाब), पुलिन्द, पारद, आहारमूर्तिक, रामठ, कण्टकार, कैकेय और दशनामक—ये क्षत्रियोंके उपनिवेश हैं तथा इनमें वैश्य और शूद्र कुलके लोग भी निवास करते हैं। इनके अतिरिक्त कम्बोज (अफगानिस्तान), दरद, बर्बर, पहलव (ईरान), अत्रि, भरद्वाज, प्रस्थल, कसेरक, लम्पक, तलगान और जाङ्गलसहित सैनिक प्रदेश- ये सभी उत्तरापथके देश हैं। अब पूर्व दिशाके देशोंको सुनिये। अङ्ग (भागलपुर), वङ्ग (बंगाल), मद्गुरक, अन्तर्गिरि, बहिगिरि, प्लवङ्ग, मातङ्ग, यमक, मालवर्णक, सुझ (उत्तरी असम), प्रविजय, मार्ग, वागेय, मालव, प्राग्ज्योतिष (आसामका पूर्वीभाग), पुण्ड (बंगलादेश), विदेह (मिथिला), ताम्रलिक (उड़ीसाका उत्तरी भाग), शाल्व, मागभ और गोनर्द ये पूर्व दिशाके जनपद है।। 34-46 llइनके बाद अब दक्षिणापथके देश बतलाये जा रहे हैं। पाण्ड्य, केरल, चोल, कुल्य, सेतुक, मूषिक, कुपथ, वाजिवासिक, महाराष्ट्र, माहिपक, कलिंग (उड़ीसाका दक्षिणी भाग), आभीर, सहषीक, आटव्य, शवर, पुलिन्द, विन्ध्यमुलिक, वैदर्भ (विदर्भ), दण्डक, कुलीय, सिराल, अश्मक (महाराष्ट्रका दक्षिण भाग), भोगवर्धन (उड़ीसाका दक्षिणभाग), तैतिरिक, नासिक्य तथा नर्मदाके अन्तः प्रान्तमें स्थित अन्य प्रदेश- ये दक्षिणापथके अन्तर्गतके देश हैं। भारुकच्छ, माहेय, सारस्वत, काच्छीक, सौराष्ट्र, आनर्त और अर्बुद ये सभी अपरान्त प्रदेश हैं। अब जो विन्ध्यवासियोंके प्रदेश हैं, उन्हें सुनिये मालव, करुष, मेकल, उत्कल, औण्डू (उड़ीसा), माप, दशार्ण, भोज, किष्किन्धक, तोशल, कोसल (दक्षिणकोसल), त्रैपुर, वैदिश (भेलसाराज्य), तुमुर, तुम्बर, पद्म, नैषध, अरूप, शौण्डिकेर, वीतिहोत्र तथा अवन्ति- ये सभी प्रदेश विन्ध्यपर्वतको घाटियोंमें स्थित बतलाये जाते हैं। इसके बाद अब मैं उन देशोंका वर्णन कर रहा हूँ जो पर्वतपर | स्थित हैं। उनके नाम हैं-निराहार, सर्वग, कुपथ, अपथ, कुथप्रावरण, ऊर्णादर्व, समुद्रक, त्रिगर्त, मण्डल, किरात और चामर। मुनियोंका कथन है कि इस भारतवर्ष में सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग-इन चार युगोंकी व्यवस्था है। अब मैं उनके वृत्तान्तका पूर्णतया वर्णन कर रहा हूँ ।। 47-58 ।।
मत्यभगवान्ने कहा- राजर्षे सूतजीद्वारा कहे हुए इस प्रकरणको सुनकर मुनियोंको और भी आगे सुननेकी उत्कट इच्छा उत्पन्न हो गयी, तब वे पुनः लोमहर्षण- पुत्र सूतजीसे बोले ॥ 59 ॥
ऋषियोंने पूछा- वेत्ताओंमें श्रेष्ठ सूतजी आपने भारतवर्षको वर्णन कर दिया। अब हमें किम्पुरुषवर्ष हरिवर्षविषयमें बतलाइये। साथ ही जम्बूखण्डके विस्तारका तथा अन्य द्वीपोंके निवासियोंका एवं | वहाँ उगत होनेवाले वृक्षोंका भी वर्णन हमें सुनाइये ।उन ब्रह्मर्षियोंद्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर सूतजीने उनके प्रश्नके अनुकूल जैसा देखा था तथा जो पुराण सम्मत था, वैसा उत्तर देना प्रारम्भ किया ।। 60-62 ।। सूतजी कहते हैं-ह्मणो! आपलोग जिस विषयको सुनना चाहते हैं, उसे बतला रहा है, आलस्यरहित होकर श्रवण कीजिये। जम्बूवर्प और किम्पुरुषवर्ष- ये दोनों अत्यन्त विशाल एवं नन्दन-बनकी भाँति शोभासम्पन्न हैं। इनमें किम्पुरुषवर्षमें मनुष्योंकी आयु दस हजार वर्षकी बतलायी जाती है। वहाँ जन्म लेनेवाले मनुष्य भलीभाँति तपाये हुए सुवर्णकी-सी कान्तिवाले होते हैं। उस पुण्यमय किम्पुरुषवर्षमें एक पाकड़का वृक्ष बतलाया जाता है जिससे सदा मधु टपकता रहता है। उसके उस उत्तम रसको सभी किम्पुरुषनिवासी पान करते हैं, जिसके कारण वे नीरोग, शोकरहित और सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं। वहाँ पुरुषोंके शरीरका रंग सुवर्ण-जैसा होता है और स्त्रियाँ अप्सराओं जैसी सुन्दरी कही गयी हैं। उस किम्पुरुषवर्षके बाद हरिवर्ष बतलाया जाता है। वहाँ सुवर्णकी-सी कान्तिसे युक्त शरीरवाले मानव उत्पन्न होते हैं। वे सभी देवलोकसे च्युत हुए जीव होते हैं और उनके | विभिन्न प्रकारके रूप होते हैं। हरिवर्षमें सभी मनुष्य मङ्गलमय इक्षु-रसका पान करते हैं, जिससे उन्हें वृद्धावस्था बाधा नहीं पहुँचाती और वे चिरकालतक जीवित रहते हैं। उनकी आयुका प्रमाण ग्यारह हजार वर्ष बतलाया जाता है। इनके बीचमें इलावृत नामक वर्ष है, जिसका वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ। वहाँ सूर्यका ताप नहीं होता वहाँक मानव भी वृद्ध नहीं होते। इलावृतवर्ष में नक्षत्रोंसहित चन्द्रमा और सूर्यका प्रकाश नहीं होता। यहाँ पैदा होनेवाले सभी मानवोंके शरीर कमलके से कान्तिमान् और उनका रंग कमल-जैसा लाल होता है। उनके नेत्र कमल-दलके समान विशाल होते हैं और उनके शरीरसे कमलकी-सी गन्ध निकलती है। जामुनके फलका रस उनका आहार है। वे निस्पन्दरहित एवं सुगन्धयुक्त होते हैं। उनके वस्त्र सुवर्णके तारोंसे खचित होते हैं। देवलोकसे च्युत हुए जीव ही यहाँ जन्म धारण करते हैं। जो श्रेष्ठ पुरुष | इलावृतवर्ष में पैदा होते हैं वे तेरह हजार वर्षोंकी आयुक्तक जीवित रहते हैं । ll 63–7363॥
मेरुगिरिके दक्षिण तथा निषधपर्वतके उत्तर भागमेंसुदर्शन नामका एक विशाल प्राचीन जामुनका वृक्ष है। वह सदा पुष्प और फलोंसे लदा रहता है। सिद्ध और | चारण सदा उसका सेवन करते हैं। उसी वृक्षके नामपर यह द्वीप जम्बूद्वीपके नामसे विख्यात हुआ है। उस वृक्षराजकी ऊंचाई ग्यारह सौ योजन है। वह महान वृक्ष स्वर्गलोकतक व्याप्त है। उसके फलोंका रस नदीरूपमें प्रवाहित होता है। वह नदी मेरुकी प्रदक्षिणा करके पुनः उसी जम्बूके मूलपर पहुँचती है। इलावृतवर्षमें वहाँके निवासी सदा हर्षपूर्वक उस जम्बूरसका पान करते हैं उस जम्बूवृक्षके फलोंका रस पान करनेके कारण वहाँके निवासियोंकों वृद्धावस्था बाधा नहीं पहुंचाती न उन्हें भूख लगती है और न थकावट ही प्रतीत होती है तथा न किसी प्रकारका दुःख ही होता है। वहाँ जाम्बूनद नामक सुवर्ण पाया जाता है जो देवताओंके लिये आभूषण के काम आता है। यह इन्द्रगोप (बीरबहूटी) के समान लाल और अत्यन्त चमकीला होता है। उस वर्षके सभी वृक्षोंमें इस जामुन | वृक्षके फलोंका रस परम शुभकारक है। यह वृक्षसे टपकने पर निर्मल सुवर्ण बन जाता है जिससे देवताओंके आभूषण बनते हैं ईश्वरकी कृपासे वहाँकी भूमि आठों दिशाओंमें सब ओर इलावृत-निवासियोंके मूत्र, विष्ठा और मृत शरीरोंको आत्मसात् कर लेती है। राक्षस, पिशाच और यक्ष-ये सभी हिमालय पर्वतपर निवास करते हैं। हेमकूट पर्वतपर अप्सराओं सहित गन्धर्वोका निवास जानना चाहिये तथा शेष वासुकि और तक्षक आदि सभी प्रधान नाग भी उसपर स्थित रहते हैं। महामेरुपर यज्ञसम्बन्धी मङ्गलमय तैंतीस देवता क्रीडा करते रहते हैं। नीलम एवं वैदूर्य मणियोंसे सम्पन्न नीलपर्वतपर सिद्धों और ब्रह्मर्षियोंका निवास है। श्वेतपर्वत दैत्यों और दानवोंका निवासस्थान बतलाया जाता है। पर्वत श्रेष्ठ शृङ्गवान् पितरोंका विहारस्थल है। इस प्रकार मैंने भारतवर्षके अन्तर्गत इन नौ वर्षोंका वर्णन कर दिया। इनमें प्राणी निवास करते हैं। ये परस्पर गतिमान् और स्थिर हैं। देवताओं और मनुष्योंने अनेकों प्रकारसे इनकी वृद्धि देखी है। उनकी गणना करना असम्भव है, अतः मङ्गलार्थी मनुष्यको इनपर श्रद्धा रखनी चाहिये ।। 74-87 ।।