मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन्! रथन्तरकल्पकी बात है, पिनाकधारी भगवान् शंकर मन्दराचलपर विराजमान थे। उस समय महात्मा ब्रह्माजीने स्वयं ही उनके पास जाकर प्रश्न किया ॥ 1 ॥
ब्रह्माजीने पूछा- देवेश्वर! थोड़ी-सी तपस्यासे मनुष्योंको नीरोगता, अनन्त ऐश्वर्य और मोक्षकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? महादेव! आपके लिये कुछ अज्ञात तो है नहीं, अर्थात् आप सर्वज्ञ हैं, इसलिये अधोक्षज ! आपकी कृपासे थोड़ी-सी तपस्याद्वारा इस लोकमें महान् फलकी प्राप्तिका क्या उपाय है? यह बतलाइये ॥ 2-3 ॥
मत्स्यभगवान्ने कहा- ब्रह्माजीके इस प्रकार प्रश्न करनेपर जगत्की उत्पत्ति एवं वृद्धि करनेवाले विश्वात्मा उमानाथ शिव मनको प्रिय लगनेवाले वचन बोले ॥ 4 ॥
ईश्वरने कहा- ब्रह्मन् ! इस तेईसवें रथन्तरकल्पके पश्चात् जब पुनः वाराहकल्प आयेगा, तब उसके सातवें वैवस्वत नामक मङ्गलमय मन्वन्तरके प्राप्त होनेपर अट्ठाईसवें द्वापर नामक युगके अन्तमें सातों लोकोंके रचयिता देवाधिदेव जनार्दन भगवान् विष्णु वासुदेवरूपसे पृथ्वीका भार दूर करनेके लिये अपनेको महर्षि द्वैपायन, रोहिणीनन्दन बलराम और केशवरूपसे तीन भागों में विभक्त करके अवतीर्ण होंगे। वे कष्टहारी केशव कंस आदि राक्षसोंक मदको चूर्ण करेंगे। शार्ङ्गधनुषधारी उन जगत्पतिके निवासके लिये मेरी आज्ञासे विश्वकर्मा द्वारवती (द्वारका) नामकी पुरीका निर्माण करेंगे, जो समस्त दिव्य भावोंसे युक्त होगी। वह इस समय कुशस्थली नामसे विख्यात है। वहीं कभी जब द्वारकाकी सभामें दानवराज कैटभके संहारक अमिततेजस्वी भगवान् श्रीकृष्ण अपनी परियों, वृष्णिवंशी पुरुषों, प्रचुर दक्षिणा देनेवाले राजाओं, कौरवों और देव गन्धयोंसे घिरे हुए बैठे रहेंगे और धर्मको वृद्धि करनेवाली पौराणिक कथाएँ होती रहेंगी,तब कथाको समातिपर भीमसेन प्रतापी श्रीकृष्णसे वैसा हो प्रश्न करेंगे, जो तुम्हारे द्वारा पूछा गया है और इस धर्मके रहस्यके भेदको प्रकट करनेवाला है। ब्रह्मन् उस समय पाण्डुपुत्र महाबली भीमसेन इस धर्मके कर्ता एवं प्रवर्तक होंगे। उनके उदरमें मेरे द्वारा दिये गये वृक नामक तीक्ष्ण अग्रिका निवास होगा, इसी कारण वे धर्मात्मा 'वृकोदर' नामसे विख्यात होंगे। वे श्रेष्ठ बुद्धिसम्पन्न, | दानशील, दस हजार हाथियोंके सदृश बलशाली, महत्त्वयुक्त, जरारहित, लक्ष्मीवान् और कामदेव सदृश सौन्दर्यशाली होंगे। भीमसेनके धर्मात्मा होनेपर भी उदरमें तीव्र अग्रिके स्थित रहनेके कारण उपवासमें असमर्थ जानकर विश्वात्मा जगदुरु भगवान् वासुदेव उन्हें यह व्रत बतलायेंगे; क्योंकि यह सम्पूर्ण व्रतोंमें श्रेष्ठ है। यह समस्त यज्ञोंका फलदाता, सम्पूर्ण पापका विनाशक, अखिल दोषोंका शामक, समस्त देवताओंद्वारा सम्मानित, सम्पूर्ण पवित्र पदार्थोंमें परम पवित्र, निखिल मङ्गलोंमें श्रेष्ठ मङ्गलरूप, भविष्य में सर्वाधिक भव्य और पुरातनों में विशेष पुरातन है ॥5- 18 ll
भगवान् वासुदेव कहेंगे-भारत यदि तुम अष्टमी, चतुर्दशी, द्वादशी तिथियोंमें तथा अन्यान्य दिनों और नक्षत्रोंमें उपवास करनेमें असमर्थ हो तो मैं तुम्हें एक पापविनाशिनी तिथिका परिचय देता हूँ। उस दिन निम्राङ्कित विधिसे उपवास कर तुम श्रीविष्णुके परम धामको प्राप्त करो। जिस दिन माघमासके शुक्लपक्षको दशमी तिथि आये, उस दिन व्रतीको चाहिये कि) समस्त शरीरमें घी लगाकर तिलमिश्रित जलसे स्नान करे तथा 'ॐ नमो नारायणाय' इस मन्त्रसे भगवान् श्रीविष्णुका पूजन करे। 'श्रीकृष्णाय नमः' कहकर दोनों चरणोंकी और 'सर्वात्मने नमः ' कहकर मस्तककी पूजा करे। 'वैकुण्ठाय नमः इस मन्त्र से कण्ठकी और 'श्रीवत्सधारिणे नमः 'इससे वक्ष:स्थलको अर्चा करे। फिर 'शङ्खिने नमः', 'चक्रिणे नमः', 'गदिने नमः', वरदाय नमः तथा 'सर्वं नारायणस्य' (सब कुछ नारायणका ही है)—ऐसा कहकर आवाहन आदिके क्रमसे भगवान्की बाहुओंकी पूजा करे ।। 19-23 ॥'इसके बाद 'दामोदराय नमः' कहकर उदरका, 'पञ्चशराय नमः' इस मन्त्रसे जननेन्द्रियका, 'सौभाग्यनाथाय नमः 'इससे दोनों जंयोंका 'भूतधारिणे नमः' से दोनों घुटनोंका, नीलाय नमः' इस मन्त्रसे पिंडलियों (घुटने से नीचे के भाग) का और विश्वसृजे नमः' इससे पुनः दोनों चरणोंका पूजन करे। तत्पश्चात् 'देव्यै नमः', 'शान्त्यै नमः', 'लक्ष्म्यै नमः', 'श्रियै नमः', पुष्ट्यै नमः, 'तुष्टयै नमः', 'धृष्टयै नमः', 'हृष्ट्यै नमः - इन मन्त्रोंसे भगवती लक्ष्मीकी पूजा करे। इसके बाद 'विहङ्गनाथाय नमः', 'वायुवेगाय नमः ' 'पक्षिणे नमः', 'विषप्रमाथिने नमः - इन मन्त्रोंके द्वारा सदा गरुडकी पूजा करनी चाहिये। इस प्रकार गन्ध, पुष्प, धूप तथा नाना प्रकारके पकवानद्वारा श्रीकृष्णकी, | महादेवजीकी तथा गणेशजीकी भी पूजा करे। फिर गौके दूधको बनी हुई खीर लेकर घीके साथ मौनपूर्वक भोजन करे। भोजनके अनन्तर विद्वान् पुरुष सौ पग चलकर बरगद अथवा खैरकी दाँतुन ले उसके द्वारा दाँतोंको साफ करे, फिर मुँह धोकर आचमन करे। सूर्यास्त होनेके बाद पूर्वाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख बैठकर सायंकालीन संध्या करे। उसके अन्तमें यह कहे — 'भगवान् श्रीनारायणको नमस्कार है। भगवन्! मैं आपकी शरणमें आया हूँ।' (इस प्रकार प्रार्थना करके रात्रिमें शयन करे।) ।। 24-30 ॥
दूसरे दिन एकादशीको निराहार रहकर भगवान् केशवकी पूजा करे और रातभर बैठा रहकर प्रात:काल दूध या जलसे स्नान करे। फिर अग्निमें चौकी आहुति देकर प्रार्थना करे- 'पुण्डरीकाक्ष ! मैं जितेन्द्रिय होकर द्वादशीको श्रेष्ठ ब्राह्मणके साथ ही खोरका भोजन करूँगा। मेरा यह व्रत निर्विघ्रतापूर्वक पूर्ण हो।" यह कहकर इतिहास पुराणको कथा सुननेके पश्चात् भूमिपर शयन करे। राजन्! सबेरा होनेपर जाकर नदीमें प्रसन्नतापूर्वक खान करे। पाखण्डियोंके संसर्गसे दूर रहे। विधिपूर्वक संध्योपासन करके पितरोंका तर्पण करे। फिर सातों लोकोंके एकमात्र अधीश्वर भगवान् हृषीकेशको प्रणाम करके बुद्धिमान् व्रती घरके सामने भक्तिपूर्वक एक मण्डपका निर्माण कराये। राजन् ! वह | मण्डप दस अथवा आठ हाथ लम्बा चौड़ा होना चाहिये।शत्रुसूदन उसके भीतर चार हाथकी सुन्दर वेदी बनवाये। वेदोके ऊपर चार हाथका तोरण लगाये फिर (सुदृढ़ खम्भोंके आधारपर एक कलश रखे और दिक्पालोंकी पूजा करे, उसमें नीचेकी ओर (उड़दके दानेके बराबर) छेद कर दे। तदनन्तर उसे जलसे भरे और स्वयं उसके नीचे काला मृगचर्म बिछाकर बैठ जाय। कलशसे गिरती हुई धाराको सारी रात अपने मस्तकपर धारण करे। उसी | प्रकार भगवान् विष्णुके सिरपर दूधकी धारा गिराये। फिर उनके निमित्त एक कुण्ड बनवाये, जो हाथभर लंबा, उतना ही चौड़ा और उतना ही गहरा हो उसके ऊपरी किनारेपर तीन मेखलाएँ बनवाये। उसमें यथास्थान योनि और मुखके चिह्न बनवाये। तदनन्तर ब्राह्मण (कुण्डमें अग्नि प्रज्वलित कर ) एकाग्रिक उपासककी तरह जौ, घी और तिलोंका श्रीविष्णु-सम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा हवन करे। फिर गो-दुग्धसे बने हुए चरुका हवन करके विधिपूर्वक वैष्णवयागका सम्पादन करे। फिर कुण्डके मध्यमें मटरकी | दालके बराबर मोटी घीकी धारा गिराये॥ 31-41 ll
महावीर्य फिर जलसे भरे हुए तेरह कलशोंको स्थापना करे। वे नाना प्रकारके भक्ष्य पदार्थोंसे युक्त और श्वेत वस्त्रोंसे अलंकृत होने चाहिये। उनके साथ उदुम्बर पात्र तथा पञ्चरत्नका होना भी आवश्यक है। वहाँ चार ऋग्वेदी ब्राह्मण उत्तरकी ओर मुख करके हवन करें, चार यजुर्वेदी विप्र रुद्राध्यायका पाठ करें तथा चार सामवेदी ब्राह्मण चारों ओरसे अरिष्टवर्गसहित वैष्णवसामका गान करते रहें। इस प्रकार उपर्युक्त बारहों ब्राह्मणोंको वस्त्र, पुष्प, चन्दन, अँगूठी, कड़े, सोनेकी जंजीर, वस्त्र तथा शय्या आदि | देकर उनका पूर्ण सत्कार करे। इस कार्यमें धनकी कृपणता न करे। इस प्रकार गीत और माङ्गलिक शब्दोंके साथ रात्रि व्यतीत करे। उपाध्याय (आचार्य या पुरोहित) को सब वस्तुएँ अन्य ब्राह्मणोंकी अपेक्षा दूनी मात्रामें अर्पण करे। कुरुश्रेष्ठ! रात्रिके बाद जब निर्मल प्रभातका उदय हो, तब शयनसे उठकर (नित्यकर्मके पश्चात्) मुखपर सोनेके पत्रसे विभूषित की हुई तेरह गौएँ दान करनी चाहिये। वे सब की सब दूध देनेवाली और सीधी हों उनके खुर चाँदीसे मँढ़े हुए हों तथा उन सबको वस्त्र ओढ़ाकर चन्दनसे विभूषित किया गया हो। गौओंके साथ काँसेका दोहनपात्र भी होना चाहिये। गोदानके पश्चात् उन सभी ब्राह्मणोंको भक्तिपूर्वक नाना प्रकारके योग्य पदार्थोंसे तुमकरके स्वयं भी क्षार लवणसे रहित अत्रका भोजन करके ब्राह्मणोंको विदा करे ॥ 42- 50 ॥
पुत्र और स्त्रीके साथ आठ पगतक उनके पीछे पीछे जाय और इस प्रकार प्रार्थना करे- 'हमारे इस कार्यसे देवताओंके स्वामी भगवान् श्रीविष्णु, जो सबका क्लेश दूर करनेवाले हैं, प्रसन्न हों। श्रीशिवके हृदयमें श्रीविष्णु हैं और श्रीविष्णुके हृदयमें श्रीशिव विराजमान हैं मैं यदि इन दोनोंमें अन्तर न देखता होऊँ तो इस धारणासे मेरी आयु बढ़े तथा कल्याण हो।' यह कहकर बुद्धिमान् व्रती उन कलशों, गौओं, शय्याओं तथा वस्त्रोंको सब ब्राह्मणके घर पहुँचवा दे। अधिक शय्याएँ सुलभ न हों तो गृहस्थ पुरुष एक ही सुसज्जित एवं सभी उपकरणोंसे सम्पन्न शय्या ब्राह्मणको दान करे। नरसिंह! जिसे विपुल लक्ष्मोकी अभिलाषा हो, उसे वह दिन इतिहास और पुराणोंके श्रवणमें ही बिताना चाहिये। अतः भीमसेन तुम भी सत्त्वगुणका आश्रय ले मात्सर्यका त्यागकर इस व्रतका सम्यक् प्रकारसे अनुष्ठान करो। (यह बहुत गुप्त व्रत है, किंतु) स्नेहवश मैंने तुम्हें बता दिया है। वीर! तुम्हारे द्वारा इसका अनुष्ठान होनेपर यह व्रत तुम्हारे ही नामसे प्रसिद्ध होगा। इसे लोग भीमद्वादशी' कहेंगे। यह भीमद्वादशी सब पापोंको नाश करनेवाली और शुभकारिणी होगी। प्राचीन कल्पोंमें इस व्रतको 'कल्याणिनी व्रत' कहा जाता था। महान् वीरोंमें श्रेष्ठ वीर भीमसेन! इस वाराहकल्पमें तुम इस व्रतके सर्वप्रथम अनुष्ठानकर्ता बनो। इसका स्मरण और कीर्तनमात्र करनेसे मनुष्यका सारा पाप नष्ट हो जाता है और वह देवताओंका राजा इन्द्र बन जाता है ॥ 51-58 ॥
जन्मान्तरमें एक अहीरकी कन्याने अत्यन्त कुतूहलवश इस व्रतका अनुष्ठान किया था, जिसके फलस्वरूप वह वेश्या अप्सराओंकी अधीश्वरी हुई। वही इस समय स्वर्गलोक में उर्वशी नामसे विख्यात है। इसी प्रकार वैश्यकुलमें उत्पन्न हुई एक दूसरी कन्याने भी इस व्रतका अनुष्ठान किया था, जिसके परिणामस्वरूप वह पुलोम (दानव) की पुत्रीरूपमें उत्पन्न होकर इन्द्रकी पत्नी बनी उसके अनुष्ठान कालमें जो उसको सेविका थी,वही इस समय मेरी प्रिया सत्यभामा है। पूर्वकालमें इस कल्याणमयी तिथिको सहस्र किरणधारी सूर्यने हजारों धाराओंसे स्नान किया था, इसी कारण उन्हें उस प्रकारका तेजोमय मण्डल और वेदमय शरीर प्राप्त हुआ है। महेन्द्र आदि देवताओं, वसुओं तथा असुरोंने भी इस व्रतका अनुष्ठान किया है। यदि एक मुखमें दस हजार करोड़ जिड़ाएँ हों तो भी इसके फलका पूरा वर्णन नहीं किया जा सकता ॥ 59-62 ॥
ब्रह्मन् ! कलियुगके पापोंको नष्ट करनेवाली एवं अनन्त फल प्रदान करनेवाली इस कल्याणमयी तिथिकी | महिमाका वर्णन यादवराजकुमार भगवान् श्रीकृष्ण अपने श्रीमुखसे करेंगे। जो इसके व्रतका अनुष्ठान करता है, उसके नरकमें पड़े हुए सम्पूर्ण पितरोंका भी यह उद्धार करनेमें समर्थ है। चतुरानन! जो अत्यन्त भक्तिके साथ इस पापनाशक व्रतकी कथाको सुनता तथा दूसरोंके उपकारके लिये पढ़ता है, वह इस लोकमें जनताका स्वामी और सम्पूर्ण सम्पत्तियों का भागी हो जाता है तथा परलोकमें आपकी समताको प्राप्त कर लेता है। पूर्वकल्पमें जो माघमासकी द्वादशी परम पूजनीय कल्याणिनी तिथिके नामसे प्रसिद्ध थी, वही पाण्डुनन्दन भीमसेनके व्रत करनेपर अनन्त पुण्यदायिनी भीमद्वादशी' के नामसे प्रसिद्ध होगी ॥63-65ll