ऋषियोंने पूछा-प्रभो! इस भूतलपर कितने द्वीप हैं? कितने समुद्र और पर्वत हैं? कितने वर्ष (पृथ्वीके खण्ड) हैं? उनमें कौन-कौन-सी नदियाँ बतलायी जाती हैं? इस विस्तृत भूमिका प्रमाण कितना है? लोकालोक पर्वत कैसा है ? तथा चन्द्रमा और सूर्यको गति अवस्थिति। और परिमाण कितना है? यह सब हमें विस्तारपूर्वक बतलाइये, क्योंकि आप यथार्थवेत्ता हैं। हमलोग यह सारा विषय आपके मुखसे सुनना चाहते हैं ॥13॥
सूतजी कहते हैं-ऋषियो! द्वीपोंके तो हजारों भेद हैं, परंतु वे सभी इन्हीं सात प्रधान द्वीपोंके अन्तर्गत हैं। इस सम्पूर्ण जगत्का क्रमशः वर्णन करना सम्भव नहीं है, अतः चन्द्रमा, सूर्य आदि ग्रहोंके साथ उन सात द्वीपोंका ही वर्णन कर रहा हूँ। साथ ही मनुष्यके अनुमानानुसार उनका प्रमाण भी बतला रहा है; क्योंकि जो अचिन्त्य भाव हैं, उन्हें बुद्धि, ज्ञान एवं अनुमानद्वारा ही सिद्ध करनेको चेष्टा नहीं करनी चाहिये। जो प्रकृतिसे परे है, वही अचिन्त्यका लक्षण है। अब मैं सातों वर्षोंका वर्णन प्रारम्भ कर रहा हूँ। इनमें सर्वप्रथम योजनके परिमाणसे जम्बूद्वीपका जितना बड़ा विस्तृत मण्डल है, उसे बतला रहा हूँ, सुनिये। जम्बूद्वीपका विस्तार एक लाख योजन है। यह अनेकों प्रकारके सुन्दर देशों एवं नगरोंसे परिपूर्ण है। इसमें सिद्ध और चारण निवास करते हैं। यह सभी प्रकारको धातुओंसे संयुक्त एवं शिलासमूहों से समन्वित पर्वतोंद्वारा सुशोभित हैउन पर्वतों से निकलनेवाली नदियोंसे यह चारों ओरमे व्याप्त है। इसमें पूर्वसे पश्चिमतक फैले हुए अत्यन्त विस्तृत वर्षपर्वत है। इसमें पूर्व और पश्चिम- दोनों ओरके समुदॉतक फैला हुआ हिमवान नामक पर्वत है जो सदा बर्फसे ढका रहता है। इसके बाद सुवर्णसे व्याप्त हेमकूट नामक पर्वत है। तत्पश्चात् जो चारों ओरसे देखनेमें अत्यन्त सुन्दर है, वह निषेध नामक महान् पर्वत है ॥4- 113 ॥ इसके एक ओर सुवर्णमय मेरुपर्वत है जिसके चारों पार्श्वभाग चार रंगोंकि हैं और जो उल्बमय (गर्भाशय के समान) कहा जाता है। यह चारों दिशाओंमें चौबीस हजार योजनोंतक फैला हुआ है। इसका ऊपरी भाग वृत्तकी आकृतिका अर्थात् गोलाकार है तथा निचला भाग चौकोर है। इसके पार्श्वभाग नाना प्रकारकी रंग-बिरंगी समतल भूमियोंसे युक्त हैं, जिससे प्रजापतिके गुणोंसे युक्त-सा दीखता है। यह अव्यक्तजन्मा ब्रह्माके नाभि-बन्धनसे उद्भूत हुआ है। इसका पूर्वी भाग श्वेत रंगका है, इसीसे इसकी ब्राह्मणता झलकती है। इसका दक्षिणी भाग पीले रंगका है, इसीसे इसमें वैश्यत्वकी प्रतीति होती है। इसका पश्चिमी भाग भँवरेके पंख सरीखा काला है, इसीसे इसकी शूद्रता तथा अर्थ और काम दोनों दृष्टियोंसे मेरुके नामको सार्थकता सिद्ध होती है। इसका उत्तरी भाग स्वभावसे हो लाल रंगका है, इसीसे इसका क्षत्रियत्व सूचित होता है। इस प्रकार मेरुके चारों रंगोंका विवरण बतलाया गया है। तदनन्तर नील पर्वत है, जो वैदूर्यमणिसे व्याप्त है। पुनः श्वेत पर्वत है, जो सुवर्णमय होनेके कारण पीले रंगका है तथा सुवर्णमय शिखरोंसे सुशोभित शृङ्गवान् पर्वत है, जो मयूर पिच्छ सरीखे चित्र-विचित्र रंगोंवाला है। ये सभी पर्वतराज सदा सिद्धों एवं चारणोंसे सेवित होते रहते हैं। उनका भीतरी व्यास नौ हजार योजन बतलाया जाता है ॥ 12-18 ॥
पृथ्वी के मध्य भागमें इलावृत नामक वर्ष है, जो महामेरु पर्वतके चारों ओर फैला हुआ है। यह चौबीस हज़ार योजनकी समतल भूमिमें विस्तृत है। इसके मध्य भागमें महामेरु नामक पर्वत है, जो धूमरहित अनिके समान चमकता रहता है। मेरु पर्वतका आधा दक्षिणी भाग दक्षिण मेरु और आधा उत्तरी भाग उत्तर मेरुके नामसे प्रसिद्ध है। इस प्रकार जो सात वर्ष बतलाये गये हैं, उनमें पृथक् पृथक् सात वर्षपर्वत हैं, जो दक्षिणसे उत्तरतक दो दो हजार योजनके परिमाणमें फैले हुए हैं। जम्बुद्वीपका विस्तार इन्हीं वर्षों तथा पर्वतोंके विस्तारके बराबर कहा जाता है। इनमें नील और निषेध- ये दोनों विशाल पर्वत हैंतथा श्वेत, हेमकूट, हिमवान् और शृङ्गवान् ये अपेक्षाकृत उनसे छोटे हैं। ऋषभ पर्वत जम्बूद्वीपके समान ही विस्तारवाला बतलाया जाता है। हेमकूट पर्वत ऋषभ पर्वतके बारहवें भागसे न्यून है और हिमवान् उसके बीसवें अंशसे कम है। हेमकूट नामक महान् पर्वत अठासी हजार योजनके परिमाणवाला कहा जाता है तथा हिमवान् पर्वत पूर्वसे पश्चिमतक अस्सी हजार योजनमें फैला हुआ है। जम्बूद्वीपके मण्डलाकार में स्थित होनेके कारण इन पर्वतोंका न्यूनाधिक्य बतलाया गया है। पर्वतोंकी हो भाँति वर्षोंमें भी भिन्नता है। वे सभी एक-दूसरे से उत्तर दिशाको ओर फैले हुए हैं। इनके बीचमें देश बसे हुए हैं, जो सात वर्षोंमें विभक्त हैं। ये सभी वर्ष ऐसे पर्वतोंसे घिरे हुए हैं, जो झरनोंके कारण अगम्य हैं। इसी प्रकार सात नदियोंके विभाजनसे ये परस्पर गमनागमनरहित हैं। इन वर्षोंमें सब ओर अनेकों जातियोंके प्राणी निवास करते हैं। यह हिमवान् पर्वतसे सम्बन्धित वर्ष भारतवर्षके नामसे विख्यात हैll 19-28ll
हिमवान् के बाद हेमकूटतकका प्रदेश किम्पुरुष नामसे कहा जाता है तथा हेमकूटसे आगे निषेध पर्वततक हरिवर्ष कहलाता है। हरिवर्षके बाद मेरुपर्वततकका प्रदेश इलावृतवर्षके नामसे तथा इलावृतके बाद नीलपर्वततकका प्रदेश रम्यकवर्षके नामसे विख्यात है। रम्यकवर्षके बाद तपर्वततकका जो प्रदेश है, वह हिरण्यकवर्षके नामसे प्रसिद्ध है। हिरण्यकवर्षके बाद शृङ्गशाक नामक वर्ष है, जिसे कुरुवर्ष भी कहते हैं। मेरुपर्वतके दक्षिण और उत्तर दिशामें धनुषके आकारमें दो वर्ष स्थित है। उन्होंके मध्यमें इलावृतवर्ष है। निषेध पर्वतके पूर्व दिशामें मेरुकी वेदीका अर्धभाग दक्षिणवेदी और इलावृतसे पश्चिमकी ओर वेदीका आधा भाग उत्तरवेदीके नामसे विख्यात है। इन्हीं दोनोंके बीचमें मेरुकी स्थिति समझनी चाहिये, जहाँ इलावृतवर्ष अवस्थित है। नील पर्वतके दक्षिण और निषेध पर्वतके उत्तर माल्यवान् नामक पर्वत है, जिसकी गणना विशाल पर्वतोंमें है। यह उत्तरसे दक्षिणकी ओर लम्बा है। यह पश्चिम दिशामें सागरपर्यन्त बत्तीस हजार योजनमें फैला हुआ है। इस प्रकार माल्यवान् पर्वत नील और निषेध पर्वतोंके बीचमें एक हजार योजनके विस्तार में स्थित है। इसी तरह गन्धमादन पर्वत भी बत्तीसहजार योजन विस्तृत बतलाया गया है। इन दोनोंके मण्डलके मध्यमें मेरु नामक स्वर्णमय पर्वत है। यह चार प्रकारके रंगाँसे युक्त, चौकोर और अत्यन्त ऊँचा है ।। 29-37 ॥ उसके पार्श्वभाग अनेक प्रकारके रंगोंसे विभूषित हैं। इसका पूर्वीय भाग श्वेत, दक्षिणी भाग पीला, पश्चिमका भाग भ्रमरके पंखके समान काला और उत्तरी हिस्सा लाल है। इस प्रकार यह चार रंगोंसे युक्त कहा जाता है। इस तरह चारों ओरसे पर्वतोंसे घिरा हुआ दिव्य पर्वत मेरु राजाकी भाँति सुशोभित होता है। इसकी कान्ति तरुण सूर्य अर्थात् मध्याह्नकालिक सूर्यकी सी है। यह धूमरहित अग्रिके सदृश चमकता रहता है। पृथ्वीके ऊपर इसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजन है। यह सोलह हजार योजनतक पृथ्वीके नीचे धँसा हुआ है और अट्ठाईस हजार योजनतक फैला हुआ है। चारों ओरसे इसका फैलाव विस्तारसे दुगुना है। यह महान् दिव्य पर्वत मेरु दिव्य औषधियोंसे परिपूर्ण तथा सभी सुवर्णमय भुवनोंसे घिरा हुआ है। इस पर्वतराजपर देवगण, गन्धर्व, असुर और राक्षस सर्वत्र अप्सराओंके साथ रहकर आनन्दका अनुभव करते हैं। यह मेरु प्राणियोंके निमित्तकारणभूत भुवनोंसे घिरा हुआ है। इसके विभिन्न पार्श्वभागों में चार देश अवस्थित हैं। उनके नाम हैं- (पूर्वमें) भद्राश्व, (दक्षिणमें) भारत, (पश्चिममें) केतुमाल और (उत्तरमें) किये हुए पुण्योंके आश्रयस्थानरूप उत्तरकुरु। इसी प्रकार उसके चारों दिशाओंमें सभी प्रकारके रखोंसे विभूषित मन्दर, गन्धमादन, विपुल और सुपार्श्व नामक विष्कम्भ पर्वत भी विद्यमान हैं। उनके ऊपर अरुणोद, मानस, सितोद और भद्र नामक | सरोवर और अनेकों वन हैं तथा मन्दर पर्वतपर भद्रकदम्ब, गन्धमादनपर जामुन, विपुलपर पीपल और सुपार्श्वपर बरगदका वृक्ष है ॥ 38- 47 ।।
गन्धमादनके पश्चिम भागमें अमरगण्डिक नामक पर्वत है, जो सब ओरसे बत्तीस हजार योजनकी समतल भूमिसे | सम्पन्न है वहाँक शुभ कर्म करनेवाले निवासी केतुमाल नामसे विख्यात हैं। वे सभी कालाग्रिके समान भयानक, | महान् सत्त्वसम्पन्न एवं महाबली होते हैं। वहाँकी स्त्रियोंके शरीरका रंग लाल कमलके समान होता है। वे परम सुन्दरी एवं देखनेमें आह्लादकारिणी होती हैं। उसपर कटहलका | एक महान् दिव्य वृक्ष है, जिसके पत्ते अत्यन्त चमकीले हैं।उसके फलोंका रस पीकर वहाँके निवासी दस हजार वर्षोंतक जीवित रहते हैं माल्यवान के पूर्वी भागमें पूर्वगण्डिका नामक पर्वत है, जो बत्तीस हजार योजन लम्बा और सौ योजन चौड़ा कहा जाता है। उसकी तलहटीमें भद्राश्व नामक देश है, जहाँके निवासी सदा प्रसन्न मन रहते हैं। वहाँ भद्रमाल नामक वन है, जिसमें कालाम्र नामक एक महान् वृक्ष है। वहाँके निवासी पुरुष गोरे, महान् सत्त्वसम्पन्न एवं महाबली होते हैं तथा कुछ स्त्रियाँ कुमुदिनीकी-सी कान्तिवाली, परम सुन्दरी एवं देखने में प्रिय लगनेवाली होती हैं। इसी प्रकार कुछ स्त्रियाँ गौर वर्णवाली होती हैं, उनकी कान्ति चन्द्रमा सरीखी उज्ज्वल होती है और उनका मुख पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान चमकदार होता है। उनका शरीर भी चन्द्रमाके समान शीतल होता है और उससे | कमलको-सी गन्ध निकलती है। कालाम्र वृक्षोंके फलोंका रस पान कर वहाँके सभी निवासियोंकी युवावस्था स्थिर बनी रहती है और वे नीरोग रहकर दस हजार वर्षोंतक जीवित रहते हैं । ll 48-55 ॥
सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! पूर्वकालमें ब्रह्माने स्वभावतः मुझपर कृपा कर जिन वर्षोंका वर्णन किया था, उनका विवरण मैं आपलोगोंको बतला चुका। अब पुनः आपलोगों से किसका वर्णन करूँ? सूतजीकी यह बात सुनकर वे सभी व्रतनिष्ठ ऋषि विस्मयविमुग्ध हो गये । तत्पश्चात् वे प्रसन्नतापूर्वक बोले ।। 56-57 ।।
ऋषियोंने पूछा- मुने पूर्व और पश्चिम दिशामें स्थित जो देश हैं उनके विषयमें तो आप हमलोगोंको बतला चुके। अब उत्तर दिशामें स्थित वर्षो और पर्वतोंका वर्णन कीजिये। साथ ही उन पर्वतोंपर निवास करनेवाले लोगोंका चरित्र भी यथार्थरूपसे बतलाइये। ऋषियोंद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर सूतजीने पुनः उनसे वर्णन करना आरम्भ किया ।। 58-59 ॥
सूतजी कहते हैं-ऋषिये पहले मैं आपलोगों जिन वर्षोंके विषयमें वर्णन कर चुका हूँ (उनके अतिरिक्त अन्य वर्षोंका वर्णन) सुनिये। नीलपर्वतसे दक्षिण और निषध | पर्वतसे उत्तर दिशामें रमणक नामक वर्ष है, जहाँकी प्रजाएँविशेष विलासिनी एवं स्वच्छ गौरवर्णवाली होती हैं। वहाँ उत्पन्न हुए सारे मानव गौरवर्ण, कुलीन और देखने में प्रिय लगनेवाले होते हैं। वहाँ भी रोहिण नामक एक महान् बरगदका वृक्ष है, उसीके फलोंका रस पान करके वहाँके निवासी जीवन निर्वाह करते हैं। वे सभी महान् भाग्यशाली श्रेष्ठ पुरुष सदा प्रसन्न रहते हुए ग्यारह हजार वर्षोंतक जीवित रहते हैं। श्वेत पर्वतके उत्तर और शृङ्गवान् पर्वतके दक्षिण पार्श्वमें हिरण्वत नामक वर्ष है, जहाँ हैरण्यती नामकी नदी प्रवाहित होती है। वहाँक निवासी श्रेष्ठ मानव, महाबली, महापराक्रमी, नित्य प्रसन्नचित्त, गौरवर्ण, कुलीन और देखनेमें मनोरम होते हैं। वे बारह हजार पाँच सौ वर्षोंकी आयुतक जीवित रहते हैं। उस वर्षमें पत्तोंसे आच्छादित लकुच (बड़हर) का एक महान् वृक्ष है, उसके फलोंका रस पीकर वहाँके मानव जीवनयापन करते हैं। शृङ्गवान् पर्वतके तीन शिखर हैं, जो बड़े ऊँचे-ऊँचे हैं। उनमेंसे एक मणिसे परिपूर्ण, एक सुवर्णसे सम्पन्न और एक सर्वरत्नमय एवं भुवनोंसे सुशोभित है ॥ 60-68 ॥
इस शृङ्गवान् पर्वतके उत्तर और दक्षिण समुद्र-तटतक उत्तरकुरु नामक वर्ष है जो परम पुण्यप्रद एवं सिद्धाद्वारा सुसेवित है। वहाँ नदियोंमें दिव्य अमृततुल्य जल प्रवाहित होता है। वृक्ष मधुसदृश मीठे फलवाले होते हैं और उन्होंसे वस्त्र, फल और आभूषणोंकी उत्पत्ति होती है। उनमेंसे कुछ वृक्ष तो अत्यन्त सुन्दर और सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं तथा दूसरे कुछ ऐसे मनोहर वृक्ष हैं, जिनसे दूध निकलता है। वे सदा दूध और अमृततुल्य सुस्वादु छहों रसोंकी रक्षा करते हैं। वहाँकी सारी भूमि मणिमयी है जिसपर सुवर्णकी महीन बालुका बिखरी रहती है। चारों ओर सुख स्पर्शवाली शब्दरहित शीतल-मंद-सुगन्ध वायु बहती रहती है। वहाँ देवलोकसे च्युत हुए धर्मात्मा मानव ही जन्म धारण करते हैं। वे सभी गौरवर्ण, कुलीन और स्थिर जवानीसे युक्त होते हैं। वे जोड़ेके रूपमें उत्पन्न होते हैं, उनमें स्त्रियाँ अप्सराओंकी भाँति सुन्दरी होती हैं। वे उन दूधसे भरे हुए वृक्षोंके अमृततुल्य दूधका पान करते हैं। वे प्राणी एक ही दिन जोड़े के रूपमें उत्पन्न होते हैं, साथ-ही | साथ बढ़ते हैं, उनका रूप तथा शील स्वभाव एक साहोता है और वे एक साथ ही प्राण त्याग भी करते हैं। वे चक्रवाककी तरह निश्चितरूपसे परस्पर अनुरक्त, नीरोग, शोकरहित और सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं। वे महापराक्रमी मानव ग्यारह हजार वर्षोंतक जीवित रहते हैं। वहाँ कोई पुरुष दूसरा विवाह नहीं करता ॥ 69 – 77 ॥
सूतजी कहते हैं— परम धर्मज्ञ ऋषियो ! इस प्रकार मैंने भारतीय युगमें वर्षोंकी सृष्टि देखी है (जिसका वर्णन कर दिया), अब पुनः आपलोगोंको क्या बतलाऊँ । बुद्धिमान् सूतपुत्रद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर ऋषियोंने पुनः उत्तरवर्ती वर्षोंके विषयमें सुननेके लिये सूतनन्दनसे जिज्ञासा प्रकट की ।। 78-79 ॥