मनुने पूछा- भगवन्! ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ लोक पितामह ब्रह्मा चतुर्मुख कैसे हुए तथा उन्होंने (सभी) लोकोंकी रचना किस प्रकार को ? ॥ 1 ॥ मत्स्यभगवान् कहने लगे-राजर्षे देवताओंके पितामह ब्रह्माने पहले बड़ा ही कठोर तप किया था, जिसके प्रभावसे अङ्ग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छन्द), उपाङ्ग (पुराण, न्याय, मीमांसा और धर्मशास्त्र), पद (वैदिक मन्त्रोंका पद-पाठ निर्धारित करना) और क्रम (वेद पाठकी एक विशेष प्रणाली) सहित वेदका प्रादुर्भाव हुआ। सम्पूर्ण शास्त्रोंकी उत्पत्तिके पूर्व ब्रह्माने उस पुराणका स्मरण किया, जो अविनाशी, शब्दमय, पुण्यशाली एवं सौ करोड़ श्लोकोंमें विस्तृत है। तदनन्तर ब्रह्माके मुखोंसे वेद, आठ प्रमाणसहित मीमांसा और न्यायशास्त्रका आविर्भाव हुआ। तत्पश्चात् वेदाभ्यासमें निरत रहनेवाले ब्रह्माने पुत्र उत्पन्न करनेकी कामनासे युक्त होकर पूर्वनिर्धारित दस मानस पुत्रोंको उत्पन्न किया। मानसिक संकल्पसे उत्पन्न होनेके कारण वे सभी मानस पुत्रके नामसे प्रख्यात हुए। उन पुत्रोंमें सर्वप्रथम मरीचि, तदनन्तर ऐश्वर्यशाली महर्षि अत्रि हुए। पुनः अङ्गिरा और उनके बाद पुलस्त्य हुए। तदनन्तर पुलह और तत्पश्चात् क्रतु उत्पन्न हुए। उसके बाद प्रचेत नामक पुत्र हुए पुनः वसिष्ठजी का जन्म हुआ। तत्पश्चात् भृगु पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए तथा शीघ्र ही नारदका भी आविर्भाव हुआ। इन्हीं दस पुत्रोंको ब्रह्माने अपने मनसे उत्पन्न किया, जो सभी मुनि-रूपसे विख्यात हुए। राजन्। अब मैं ब्रह्माके शरीरसे उत्पन्न हुए मातृ-विहीन पुत्रोंका वर्णन करता हूँ। प्रजापति ब्रह्मा के दाहिने अंगूठेसे दक्ष प्रजापति प्रकट हुए। उनके स्तनान्तभागसे धर्म और हृदयसे कुसुमायुध (कामदेव) का जन्म हुआ। भूमध्यसे क्रोध और हॉउसे लोभकी उत्पत्ति हुई। बुद्धिसे मोहका तथा अहंकारसे मदका जन्म हुआ। कण्ठसे प्रमोद और नेत्रोंसे मृत्युकी उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् हथेलीसे ब्रह्मपुत्र भरत * प्रकट हुए। राजन्! ये नौ पुत्र ब्रह्माके शरीरसे प्रकट हुए हैं। ब्रह्माकी | दसवीं संतान (एक) कन्या है, जो अङ्गजा नामसे विख्यात हुई ।। 2-12 ॥
मनुने पूछा-भगवन्! आपने जो यह बतलाया कि बुद्धिसे मोहकी उत्पत्ति हुई और (इसी प्रसङ्गमें) अहंकार, क्रोध एवं बुद्धिका भी नाम लिया, सौ ये सब क्या हैं? (इनपर प्रकाश डालिये) ॥ 13 ॥
मत्स्यभगवान् कहने लगे-राजर्षे! सत्त्व, रजस् और तमस्— जो ये तीनों गुण बतलाये गये हैं, इनकी साम्यावस्थाको प्रकृति कहा जाता है। कुछ लोग इसे प्रधान कहते हैं। दूसरे लोग इसे अव्यक्त नामसे भी निर्देश करते हैं। यही प्रकृति प्रजाको सृष्टि करती है और (यही सृष्टिको) बिगाड़ती भी है। इन्हीं तीनों गुणोंके शुब्ध होनेपर इनसे तीन | देवता उत्पन्न होते हैं। इन (तीनों देवों) की मूर्ति तो एक ही है, परंतु वह ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर- इन तीन देवताओंके रूपमें विभक्त हो जाती है। तदनन्तर प्रधानके विकृत होनेपर उससे महत्तत्त्वकी उत्पत्ति होती है, जिससे लोकोंके मध्यमें उसकी सदा 'महान्' रूपसे ख्याति होती है। उस महत्तत्त्वसे मानको बढ़ानेवाला अहंकार प्रकट होता है। उस अहंकारसे दस इन्द्रियाँ होती हैं, जिनमें पाँच बुद्धि (न) के वशीभूत रहती हैं और दूसरी पाँच कर्मके अधीन रहती हैं।इस इन्द्रिय-समुदायमें क्रमश: श्रत्र वा नेत्र, जिहा और नासिका - ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं तथा पायु (गुदा), उपस्थ (जेन्द्रिय) हस्त पाद और वाणी ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। इन दसों इन्द्रियोंके क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, उत्सर्ग (मल एवं अपानवायु आदिका त्याग), आनन्दन (आनन्दप्रदान), आदान ( ग्रहण करना), गमन और आलाप-ये दस कार्य हैं। इन दसों इन्द्रियोंके अतिरिक्त मननामक ग्यारहवीं इन्द्रिय है, जिसमें कर्मेन्द्रियों और | ज्ञानेन्द्रियोंके समस्त गुण वर्तमान हैं। इन इन्द्रियोंके जो सूक्ष्म अवयव उस मनीषीके शरीरका आश्रय लेते हैं, वे तन्मात्र कहलाते हैं और जिसके सम्पर्कसे तन्मात्रकी उत्पत्ति होती है, उसे शरीर कहा जाता है। उस शरीरका सम्बन्ध होनेके कारण विद्वान्लोग जीवको भी 'शरीरी' कहते हैं। जब सृष्टि करनेकी इच्छासे मनको प्रेरित किया जाता है, तब वही सृष्टिकी रचना करता है। उस समय शब्दतन्मात्रसे शब्दरूप गुणवाला आकाश प्रकट होता है। इसी आकाशके विकृत होनेपर वायुकी उत्पत्ति होती है, जो शब्द और स्पर्श- दो गुणोंवाली है। तत्पश्चात् वायु और स्पर्शतन्मात्रसे तेजका आविर्भाव होता है, जो शब्द, स्पर्श और रूपनामक तीन | विकारोंसे युक्त होनेके कारण त्रिगुणात्मक हुआ। राजन् ! इस त्रिगुणात्मक तेजमें विकार उत्पन्न होनेसे चार गुणोंवाले जलका प्राकट्य होता है, जो रस- तन्मात्रसे उद्भूत होनेके कारण प्रायः रसगुणप्रधान ही होता है। तत्पश्चात् पाँच गुणोंसे | सम्पन्न पृथ्वीका प्रादुर्भाव होता है। वह प्रायः गन्ध-गुणसे ही युक्त रहती है। यही (इन सबका यथार्थ ज्ञान रखना ही) श्रेष्ठ बुद्धि है। इन्हीं चौबीस (पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच महाभूत, पाँच तन्मात्र, एक मन, एक बुद्धि, एक अव्यक्त, अहंकार) तत्त्वोंद्वारा सम्पादित सुख-दुःखात्मक कर्मका | पचीसवाँ पुरुषनामक तत्त्व भोग करता है। वह भी ईश्वरकी इच्छाके वशीभूत रहता है, इसीलिये विद्वान्लोग उसे जीवात्मा कहते हैं। इस प्रकार इस मानव-योनिमें यह शरीर छब्बीस तत्त्वोंसे संयुक्त बतलाया जाता है। कपिल आदि | महर्षियोंने संख्यात्मक होनेके कारण इसे 'सांख्य' (ज्ञान) नामसे अभिहित किया है तथा इन्हीं तत्त्वोंका आश्रय लेकर ब्रह्माने जगत्की रचना की है ।। 14-29 ॥
जब ब्रह्माने जगत्की सृष्टि करनेकी इच्छासे हृदयमें सावित्रीका ध्यान करके तपश्चरण प्रारम्भ किया। उस समय जप करते हुए उनका निष्पाप शरीर दो भागों में विभक्त हो गया। उनमें आधा भाग स्त्रीरूप और आधा पुरुषरूप हो गया।परंतप ! वह स्त्री सरस्वती, 'शतरूपा' नामसे विख्यात हुई। वही सावित्री, गायत्री और ब्रह्माणी भी कही जाती है। इस प्रकार ब्रह्माने अपने शरीरसे उत्पन्न होनेवाली सावित्रीको अपनी पुत्रीके रूपमें स्वीकार किया; परंतु तत्काल ही उस सावित्रीको देखकर वे सर्वश्रेष्ठ प्रजापति ब्रह्मा मुग्ध हो उठे और यों कहने लगे-'कैसा मनोहर रूप है! कैसा सौन्दर्यशाली रूप है।' ब्रह्माको सावित्रीके मुखकी ओर अवलोकन करनेके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं दीखता था वे वारंवार यही कह रहे थे "कैसा अद्भुत रूप है। कैसी अनोखी सुन्दरता है।' तत्पश्चात् जब सावित्री झुककर उन्हें प्रणाम करने लगी, तब ब्रह्मा पुनः उसे देखने लगे। तदनन्तर सुन्दरी सावित्रीने अपने पिता ब्रह्माकी प्रदक्षिणा की इसी समय सावित्रीके रूपका अवलोकन करने की इच्छा होनेके कारण ब्रह्माके मुखके दाहिने पार्श्वमें पीले गण्डस्थलोंवाला (एक दूसरा) नूतन मुख प्रकट हो गया। पुनः विस्मययुक्त एवं फड़कते हुए होंठोंवाला दूसरा (तीसरा मुख पीछेकी ओर उद्भूत हुआ तथा उनकी बायीं ओर कामदेवके बाणोंसे व्यथित
से दीखनेवाले एक अन्य (चौथे) मुखका आविर्भाव हुआ सावित्रीकी ओर बार-बार अवलोकन करनेके कारण ब्रह्माद्वारा सृष्टि रचनाके लिये जो अत्यन्त उग्र तप किया गया था, उसका सारा फल नष्ट हो गया तथा उसी पापके परिणामस्वरूप बुद्धिमान् ब्रह्माके मुखके ऊपर एक पाँच मुख आविर्भूत हुआ, जो जटाओंसे व्याप्त था। ऐश्वर्यशाली ब्रह्माने उस मुखको भी वरण (स्वीकार) कर लिया ॥ 30-40 ॥
तदनन्तर ब्रह्माने अपने उन मरीचि आदि मानस पुत्रोंको आज्ञा दी कि तुमलोग भूतलपर चारों ओर देवता, असुर और मानवरूप प्रजाओंकी सृष्टि करो पिताद्वारा इस | प्रकार कहे जानेपर उन पुत्रोंने अनेकों प्रकारको प्रजाओंकी रचना की सृष्टि कार्यके लिये अपने उन पुत्रोंके चले जानेपर विश्वात्मा ब्रह्माने प्रणाम करनेके लिये चरणोंमें पड़ी | हुई उस अनिन्दिता शतरूपा का पाणिग्रहण किया। तदनन्तर अधिक समय व्यतीत होनेके उपरान्त शतरूपाके गर्भसे मनु नामका पुत्र उत्पन्न हुआ, जो स्वायम्भुव नामसे विख्यात हुआ। उसे विराट् भी कहा जाता है तथा अपने पिता ब्रह्माके रूप और गुणकी समानताके कारण उसे- लोग अधिपुरुष भी कहते हैं—ऐसा हमने सुना है। उस ब्रह्म-वंशमें सात-सातके विभागसे जो बहुत-से |महाभाग्यशाली एवं नियमोंका पालन करनेवाले स्वारोचिष आदि तथा उसी प्रकार औत्तमि आदि स्वायम्भुव मनु हुए हैं, वे सभी ब्रह्माके समान ही स्वरूपवाले थे। उन्हींमें इस समय तुम सातवें मनु हो ॥ 41–47॥