सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! भगवान् मस्त्यद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर मनुने उन मधुसूदनसे प्रश्न किया— 'भगवन्! यह युगान्त प्रलय कितने वर्षों बाद आयेगा? नाथ! मैं सम्पूर्ण जीवोंको रक्षा किस प्रकार कर सकूँगा? तथा मधुसूदन! आपके साथ मेरा पुनः सम्मिलन कैसे हो सकेगा ?' ॥1-2 ॥
मत्स्यभगवान् कहने लगे- 'महामुने! आजसे लेकर सौ वर्षतक इस भूतलपर वृष्टि नहीं होगी, जिसके फलस्वरूप परम अमाङ्गलिक एवं अत्यन्त भयंकर दुर्भिक्ष आ पड़ेगा। तदनन्तर युगान्त प्रलयके उपस्थित होनेपर तपे हुए अंगारकी वर्षा करनेवाली सूर्यकी सात भयंकर किरणें छोटे-मोटे जीवोंका संहार करनेमें प्रवृत्त हो जायेंगी। वडवानल भी अत्यन्त भयानक रूप धारण कर लेगा। पाताललोकसे ऊपर उठकर संकर्षणके मुखसे निकली हुई विषाग्नि तथा भगवान् रुद्रके ललाटसे उत्पन्न तीसरे नेत्रको अग्नि भी तीनों लोकोंको भस्म करती हुई भभक उठेगी। परंतप ! इस प्रकार जब सारी पृथ्वी जलकर राखको ढेर बन जायगी और गगन मण्डल ऊष्मासे संतप्त हो उठेगा, तब देवताओं और नक्षत्रोंसहित सारा जगत् नष्ट हो जायगा। उस समय संवर्त, भीमनाद, द्रोण, चण्ड, बलाहक, विद्युत्पताक और शोण नामक जो ये सात प्रलयकारक मेघ हैं, ये सभीअग्रिके प्रस्वेदसे उत्पन्न हुए जलकी घोर वृष्टि करके सारी पृथ्वीको आप्लावित कर देंगे। तब सातों समुद्र क्षुब्ध होकर एकमेक हो जायेंगे और इन तीनों लोकोंको पूर्णरूपले | एकार्णवके आकारमें परिणत कर देंगे। सुव्रत। उस समय तुम इस वेदरूपी नौकाको ग्रहण करके इसपर समस्त जीवों और बीजोंको लाद देना तथा मेरे द्वारा प्रदान की गयी रस्सीके बन्धनसे इस नावको मेरे सींगमें बाँध देना। परंतप (ऐसे भीषण कालमें जब कि) सारा देव-समूह जलकर भस्म हो जायगा तो भी मेरे प्रभावसे सुरक्षित होनेके कारण एकमात्र तुम्हीं अवशेष रह जाओगे। इस आन्तर- प्रलयमें सोम, सूर्य, मैं चारों लोकोंसहित ब्रह्मा, | पुण्यतोया नर्मदा नदी, महर्षि मार्कण्डेय, शंकर, चारों वेद, | विद्याओंद्वारा सब ओरसे घिरे हुए पुराण और तुम्हारे साथ यह (नौका स्थित) विश्व-ये ही बचेंगे। महीपते! चाक्षुप मन्वन्तरके प्रलयकालमें जब इसी प्रकार सारी पृथ्वी एकार्णवमें निमग्न हो जायगी और तुम्हारे द्वारा सृष्टिका प्रारम्भ होगा, तब मैं वेदोंका (पुनः) प्रवर्तन करूँगा।' ऐसा कहकर भगवान् मत्स्य वहीं अन्तर्धान हो गये तथा मनु भी वहीं स्थित रहकर भगवान् वासुदेवको कृपासे प्राप्त हुए योगका तबतक अभ्यास करते रहे, जबतक पूर्वसूचित प्रलयका समय उपस्थित न हुआ ॥ 3—16 ll
तदनन्तर भगवान् वासुदेवके मुखसे कहे गये। पूर्वोक्त प्रलयकालके उपस्थित होनेपर भगवान् जनार्दन एक सॉंगवाले मत्स्यके रूपमें प्रादुर्भूत हुए। उसी समय एक सर्प भी रज्जु-रूपसे बहता हुआ मनुके पार्श्वभागमें आ पहुँचा। तब धर्मज्ञ मनुने अपने योगबलसे समस्त जीवोंको खींचकर नौकापर लाद लिया और उसे सर्परूपी रस्सीसे मत्स्यके सींगमें बाँध दिया। तत्पश्चात् भगवान् जनार्दनको प्रणाम करके वे स्वयं भी उस नौकापर बैठ गये। श्रेष्ठ ऋषियो! इस प्रकार उस अतीत प्रलयके अवसरपर योगाभ्यासी मनुद्वारा पूछे जाने पर मत्स्यरूपी भगवान्ने जिस पुराणका वर्णन किया था, उसीका मैं इस समय आपलोगोंके समक्ष प्रवचन करूँगा, सावधान होकर श्रवण कीजिये। द्विजवरो! पहले आपलोगोंने मुझसे जिस सृष्टि आदिके विषयमें प्रश्न किया है, उन्हीं विषयोंको उस एकार्णवके समय मनुने भी भगवान् केशवसे पूछा था ॥ 17- 21 ॥मनुने पूछा-भगवन्! सृष्टिकी उत्पत्ति और उसका संहार, मानव वंश, मन्वन्तर, मानव वंशमें उत्पन्न हुए लोगोंके चरित्र, भुवनका विस्तार, दान और धर्मकी विधि, सनातन श्राद्धकल्प, वर्ण और आश्रमका विभाग, इष्टापूर्त (वापी, कूप, तड़ाग आदि) के निर्माणकी विधि और देवताओंकी प्रतिष्ठा आदि तथा और भी जो कोई धार्मिक विषय भूतलपर विद्यमान हैं, उन सभीका आप मुझसे | विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ॥22 - 24 ॥
मत्स्यभगवान् कहने लगे-महाप्रलय के समयका अवसान होनेपर यह सारा स्थावरजङ्गमरूप जगत् सोये हुएकी भाँति अन्धकारसे आच्छन्न था। न तो इसके विषयमें कोई कल्पना ही की जा सकती थी, न कोई वस्तु जानी ही जा सकती थी, न किसी वस्तुका कोई चिह्न ही अवशेष था। सभी वस्तुएँ विस्मृत हो चुकी थीं। कोई ज्ञातव्य वस्तु | रह ही नहीं गयी थी। तदनन्तर जो पुण्यकर्मोके उत्पत्ति स्थान तथा निराकार हैं, वे स्वयम्भूभगवान् इस समस्त जगत्को प्रकट करनेके अभिप्रायसे अन्धकारका भेदन करके प्रादुर्भूत हुए। उस समय जो इन्द्रियोंसे परे, परात्पर, सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म, महान्से भी महान्, अविनाशी और नारायण नामसे विख्यात हैं, वे स्वयं अकेले ही आविर्भूत हुए। उन्होंने अपने शरीरसे अनेक प्रकारके जगत्को सृष्टि करनेकी इच्छासे (पूर्वसृष्टिका) भलीभाँति ध्यान करके प्रथमतः जलकी ही रचना की और उसमें (अपने वीर्यस्वरूप) बीजका निक्षेप किया। वही बीज एक हजार वर्ष व्यतीत होनेपर सुवर्ण एवं रजतमय अण्डेके रूपमें परिणत हो गया, उसकी कान्ति दस सहस्र सूयोंके सदृश थी। तत्पश्चात् महातेजस्वी स्वयम्भू स्वयं ही उस अण्डेके भीतर प्रविष्ट हो गये तथा अपने प्रभावसे एवं उस अण्डेमें | सर्वत्र व्याप्त होनेके कारण वे पुनः विष्णुभावको प्राप्त हो गये। तदनन्तर उस अण्डेके भीतर सर्वप्रथम ये भगवान् सूर्य उत्पन्न हुए जो आदिसे प्रकट होनेके कारण 'आदित्य' और वेदोंका पाठ करनेसे 'ब्रह्मा' नामसे विख्यात हुए। | उन्होंने ही उस अण्डेको दो भागोंमें विभक्त कर स्वर्गलोक और भूतलकी रचना की तथा उन दोनोंके मध्यमें सम्पूर्ण दिशाओं और अविनाशी आकाशका निर्माण किया। उस समय उस अण्डेके जरायु-भागसे मेरु आदि सातों पर्वत प्रकट हुए और जो उल्ब (गर्भाशय) था, वह विद्युत्समूहसहित मेघमण्डलके रूपमें परिणत हुआ तथा उसी अण्डेसे नदियाँ, पितृगण और मनुसमुदाय उत्पन्न हुए। नाना खोंसे परिपूर्ण जो ये लवण, इक्षु सुरा आदि सातों समुद्र हैं, वे भी उस अण्डेके अन्तःस्थित जलसे प्रकट हुए।शत्रुदमन! जब उन प्रजापति देवको सृष्टि रचनेकी इच्छा हुई, तब वहीं उनके तेजसे ये मार्तण्ड (सूर्य) प्रादुर्भूत हुए। चूँकि ये अण्डेके मृत हो जानेके पश्चात् उत्पन्न हुए थे, इसलिये 'मार्तण्ड' नामसे प्रसिद्ध हुए। उन महात्माका जो रजोगुणमय रूप था, वह लोकपितामह चतुर्मुख भगवान् ब्रह्माके रूपमें प्रकट हुआ। जिन्होंने देवता, असुर और मानवसहित समस्त जगत्की रचना की, उन्हें तुम | रजोगुणरूप सुप्रसिद्ध महान् सत्त्व समझो ॥ 25-37 ॥