मनुने पूछा-जगत्पते। अब आप मुझे (अभी विशोक द्वादशीके प्रसङ्गमें निर्दिष्ट) गुड-धेनुका विधान बतलाइये। साथ ही उस गुड-धेनुका कैसा रूप होता है और उसे किस मन्त्रका पाठ करके दान करना चाहिये यह भी बतलानेकी कृपा कीजिये ॥ १ ॥
मत्स्यभगवान्ने कहा— राजर्षे! इस लोक में गुड धेनुके विधानका जो रूप है और उसका दान करनेसे जो फल प्राप्त होता है, उसका मैं अब वर्णन कर रहा हूँ। वह समस्त पापोंका विनाशक है। गोवरसे लिपी पुती भूमिपर सब ओरसे कुश बिछाकर उसपर चार हाथ लम्बा काला मृगचर्म स्थापित कर दे, जिसका अग्रभाग पूर्व दिशाकी ओर हो। उसी प्रकार एक छोटे मृगचर्ममें बछड़ेकी कल्पना करके उसीके निकट रख दे। फिर उसमें पूर्व मुख और उत्तर पैरवाली सवत्सा गौकी कल्पना करनी चाहिये। चार भार गुडसे बनी हुई गुड धेनु सदा उत्तम मानी गयी है। उसका बछड़ा एक भार गुडका बनाना चाहिये। दो भार गुडकी बनी हुई धेनु मध्यम कही गयी है। उसका बछड़ा आधा भार गुडका होना चाहिये। एक भार गुडकी बनी धेनु कनिष्ठा होती है, उसका बछड़ा चौथाई भार गुडका बनता है। तात्पर्य यह है कि अपने गृहकी सम्पतिके अनुसार इस (गौ) का निर्माण कराना चाहिये। इस प्रकार गौ और बछड़ेकी कल्पना करके उन्हें श्वेत एवं महीन वस्त्रसे आच्छादित कर दे। फिर घीसे उनके मुखको, सीपसे कानोंकी, गनेसे पैरोंकी, श्वेत मोतीसे नेत्रोंकी, श्वेत सूतसे नाड़ियोंकी, श्वेत कम्बलसे गलकम्बलकी, लाल रंगके चिह्नसे पीठकी घेत रंगके मृगपुच्छके बालोंसे रोएँकी, मूंगेसे दोनों भौंहोंकी, मक्खनसे दोनोंके स्तनोंकी, रेशमके धागेसे पूँछकी, काँसासे दोहनीकी, इन्द्रनीलमणिसे आँखोंको तारिकाओंकी, सुवर्णसे सींगकेआभूषणोंकी चाँदीसे खुरोंकी और नाना प्रकारके फलोंसे नासापुटकी रचना कर धूप दीप आदिद्वारा उनकी अर्चना करनेके पश्चात् यों प्रार्थना करे ॥ 2- 10 ॥
"जो समस्त प्राणियों तथा देवताओंमें निवास करनेवाली लक्ष्मी हैं, धेनुरूपसे वही देवी मुझे शान्ति प्रदान करें जो सदा शङ्करजीके वामाङ्गमें विराजमान रहती हैं तथा उनको प्रिय पत्नी हैं, वे स्ट्राणीदेवी धेनुरूपसे मेरे पापों का विनाश करें। जो लक्ष्मी विष्णु के वक्ष स्थलपर विराजमान हैं, जो स्वाहारूपसे अग्निकी पत्नी हैं तथा जो चन्द्र सूर्य और इन्द्रकी शक्तिरूपा हैं, वे ही धेनुरूपसे मेरे लिये सम्पत्तिदायिनी हों। जो ब्रह्माकी लक्ष्मी हैं, जो कुबेरकी लक्ष्मी हैं तथा जो लोकपालोंकी लक्ष्मी हैं, वे धेनुरूपसे मेरे लिये वरदायिनी हों जो लक्ष्मी प्रधान पितरोंके लिये स्वधारूपा हैं, जो यज्ञभोजी अग्रियोंके लिये स्वाहारूपा है, समस्त पापोंको हरनेवाली वे ही धेनुरूपा हैं, अतः मुझे शान्ति प्रदान करें।' इस प्रकार उस गुड धेनुको आमन्त्रित कर उसे ब्राह्मणको निवेदित कर दे। यही विधान घृत-तिल आदि सम्पूर्ण धेनुओंके दानके लिये कहा जाता है। नरेश्वर! अब जो दस पापविनाशिनी गौएँ बतलायी जाती हैं, उनका नाम और स्वरूप बतला रहा हूँ। पहली गुडधेनु, दूसरी घृत धेनु, तीसरी तिल धेनु, चौथी जल- धेनु, पाँचवीं सुप्रसिद्ध क्षीर-धेनु, छठी मधु-धेनु, सातवीं शर्करा-धेनु, आठवीं दधि-धेनु, नवीं रस-धेनु और दसवीं स्वरूपतः प्रत्यक्ष धेनु है द्रव (बहनेवाले) पदार्थोंसे बननेवाली गौओंका स्वरूप घट है और अद्रव पदार्थोंसे बननेवाली गौओंका उन-उन पदार्थोंकी राशि है। इस लोकमें कुछ मानव सुवर्ण धेनुकी तथा अन्य महर्षिगण नवनीत (मक्खन) और रत्नोंसे भी गौकी रचनाकी इच्छा करते हैं। परंतु सभीके लिये यही विधान है और ये ही सामग्रियाँ भी हैं। सदा पर्व पर्वपर अपनी श्रद्धा के अनुसार मन्त्रोच्चारणपूर्वक आवाहनसहित | इन गौओंका दान करना चाहिये; क्योंकि ये सभी भोग और मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाली हैं । 11 - 22 ॥ इस प्रकार गुडधेनुके वर्णन-प्रसङ्गसे मैंने सभी धेनुका वर्णन कर दिया। ये सभी सम्पूर्ण यज्ञोंका फल प्रदान करनेवाली, कल्याणकारिणी और पापहारिणी है। चूंकि इस लोकमें विशोकद्वादशी व्रत सभी व्रतोंमें श्रेष्ठ माना गया है, इसलिये उसका अङ्ग होने के कारण गुड धेनु भी प्रशस्त मानी गयी है।उत्तरायण और दक्षिणायनके दिन, पुण्यप्रद विषुवयोग, व्यतीपातयोग अथवा सूर्य-चन्द्रके ग्रहण आदि पर्वोपर इन गुड- धेनु आदि गौओंका दान करना चाहिये। यह विशोकद्वादशी पुण्यदायिनी, पापहारिणी और मङ्गलकारिणी है। इसका व्रत करके मनुष्य विष्णुके परमपदको प्राप्त हो जाता है तथा इस लोकमें सौभाग्य, नीरोगता और दीर्घायुका उपभोग करके मरनेपर श्रीहरिका स्मरण करता हुआ विष्णुलोकको चला जाता है। धर्मज्ञ नरेश ! उसे नौ अरब अठारह हजार वर्षोंतक शोक, दुःख और दुर्गतिकी प्राप्ति नहीं होती। अथवा जो स्त्री नित्य नाच-गानमें तत्पर रहकर इस विशोकद्वादशी व्रतका अनुष्ठान करती है, उसे भी वही पूर्वोक्त फल प्राप्त होता है। राजन् ! इसलिये वैभवकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषको उत्कृष्ट भक्ति के साथ श्रीहरिके समक्ष नित्य निरन्तर गायन वादनका आयोजन करना चाहिये। इस प्रकार जो मनुष्य इस व्रत विधानको पढ़ता अथवा श्रवण करता है एवं मधु, मुर और नरक नामक राक्षसोंके शत्रु श्रीहरिके पूजनको भलीभाँति देखता है तथा वैसा करनेके लिये लोगोंको सम्मति देता है, वह इन्द्रलोक में वास करता है और एक कल्पतक देवगणोंद्वारा पूजित होता है । ll 23-31 ॥