ईश्वरने कहा- ब्रह्मन् ! अब मैं परम पुण्यप्रदायिनी मन्दारसमीका वर्णन करता हूँ, जो समस्त पापोंकी विनाशिनी एवं सम्पूर्ण कामनाओंकी प्रदात्री है। बुद्धिमान् व्रतीको चाहिये कि वह माघमासमें शुक्लपक्षकी पञ्चमी तिथिको थोड़ा आहार करके (रात्रिमें शयन करे)। पुनः षष्ठी तिथिको प्रातःकाल दातून कर दिनभर उपवास करे। रातमें ब्राह्मणोंकी पूजा कर मन्दारपुष्पका भक्षण करे और सो जाय। तत्पश्चात् सप्तमी तिथिको प्रातः काल उठकर स्नान आदि नित्यकर्म सम्पादन करअपनी शक्ति के अनुसार पुनः ब्राह्मणोंको भोजन कराये। तदनन्तर सोनेके आठ मन्दार पुष्प और एक पुरुषाकार सुन्दर मूर्ति बनवाये, जिसके हाथमें कमल सुशोभित हो। पुनः ताँबेके पात्रमें काले तिलोंसे अष्टदल कमलकी रचना करे। तदनन्तर स्वर्णमय मन्दार पुष्पोंद्वारा (कमलके | आठों दलोंपर वक्ष्यमाण मन्त्रोंका उच्चारण करके सूर्यका आवाहन करे । यथा-) 'भास्कराय नमः 'से पूर्वदलपर, 'सूर्याय नमः 'से अग्रिकोणस्थित दलपर, 'अर्काय नमः' से दक्षिणदलपर, 'अर्यम्णे नमः' से नैर्ऋत्यकोणवाले दलपर, 'वेदाने नमः' से पश्चिमदलपर 'चण्डभानवे नमः' से वायव्यकोणस्थित दलपर, 'पूष्णे नमः' से उत्तरदलपर, उसके बाद 'आनन्दाय नमः 'से ईशानकोणवाले | दलपर स्थापना करके कर्णिकाके मध्यमें 'सर्वात्मने नमः' कहकर पुरुषाकार मूर्तिको स्थापित कर दे तथा उसे श्वेत वस्त्रोंसे ढँककर खाद्य पदार्थ (नैवेद्य), पुष्पमाला, फल आदिसे उसको अर्चना करे ॥ 1-8 ॥
इस प्रकार गृहस्थ व्रती उस मूर्तिका पूजन कर पुनः | वह सारा सामान वेदज्ञ ब्राह्मणको दान कर दे और स्वयं पूर्वाभिमुख बैठकर मौन हो तेल और नमकरहित अन्नका भोजन करे। इस प्रकार एक वर्षतक प्रत्येक मासमें शुक्लपक्षको सप्तमी तिथिको इसी विधिके अनुसार सारा कार्य सम्पन्न करनेका विधान है। इसमें कृपणता नहीं | करनी चाहिये। व्रतकी समाप्तिके समय वैभवकी अभिलाषा रखनेवाला व्रती उस मूर्तिको कलशके ऊपर रखकर अपनी धन-सम्पत्तिके अनुसार प्रस्तुत की गयी गौओंके साथ दान कर दे। (उस समय सूर्यभगवान्से यों प्रार्थना करे) 'सूर्यदेव! आप मन्दारके स्वामी हैं और मन्दार आपका भवन है, आपको नमस्कार है। आप हमलोगोंका इस संसाररूपी सागरसे उद्धार कीजिये।' जो मानव उपर्युक्त विधिके अनुसार इस मन्दारसप्तमी - व्रतका अनुष्ठान करता है, वह पापरहित हो सुखपूर्वक एक कल्पतक स्वर्गमें आनन्दका उपभोग करता है। यह सप्तमी व्रत पाप समूहरूप परदेसे आच्छादित होनेके कारण प्रकट हुए भयंकर अन्धकारके लिये दीपकके समान है, जो मनुष्य इसे हाथमें लेकर संसाररूपी रात्रिमें यात्रा करता है, वह कहीं पथभ्रष्ट नहीं होता। जो मनुष्य अभीष्ट फल प्रदान करनेवाली इस मन्दारसप्तमीके व्रतको पढ़ता अथवा श्रवण करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥9 - 15 ।।