सूतजी कहते हैं-ऋषियो। दानवश्रेष्ठ मायावी मय स्वामिकार्तिकपर प्रहारकर त्रिपुरमें उसी प्रकार तुरंत प्रवेश कर गया, जैसे नीले आकाशमें बादल प्रविष्ट हो जाते हैं। वहाँ आकर उसने लम्बी और गरम साँस ली तथा त्रिपुरमें भागकर आये हुए दानवोंकी और देखकर लोकके विनाशके अवसरपर दूसरे कालके समान मय कालके विषयमें विचार करने लगा-'अहो! रणभूमि में युद्धको अभिलाषासे सम्मुख खड़ा हो जानेपर जिससे इन्द्र भी डरते थे वह महायशस्वी विद्युन्माली भी कालका ग्रास बन गया। त्रिलोकीमें इस त्रिपुरको समतामें अन्य कोई दुर्ग अथवा पुर नहीं है, फिर भी इसपर भी ऐसी आपत्ति आ हो गयी, अतः (प्राणरक्षा के लिये) दुर्ग कोई कारण नहीं है। (इसलिये में तो ऐसा समझता हूँ कि) दुर्ग ही क्यों? दुर्गसे भी बढ़कर सभी वस्तुएँ कालके ही वशमें हैं तब भला कालके कुपित हो जानेपर इस समय हमलोगोंकी कालसे रक्षा कैसे हो सकेगी ? तीनों लोकों तथा समस्त प्राणियोंमें जो कुछ बल है, वह सारा का सारा कालके वशीभूत है ऐसा ब्रह्माका विधान है। ऐसे अमित पराक्रमी एवं असाध्य कालके प्रति कौन-सा उद्योग सफल हो सकता है? भगवान् शंकरके अतिरिक्त उस कालपर विजय पानेमें कौन समर्थ हो सकता है? मैं इन्द्र, यम और वरुणसे नहीं डरता, कुबेरसे भी मुझे कोई भय नहीं है, किंतु इन देवताओंक स्वामी जो महेश्वर है, उनपर विजय पाना दुष्कर है। फिर भी जबतक ये दानववीर चारों ओर बिखरे हुए हैं, तबतक ऐश्वर्य प्राप्तिका जो फल होता है तथा स्वामी बननेका जो फल होता है, उसे मैं प्रदर्शित करूंगा। मैं एक ऐसी बावलीका निर्माण करूँगा, जिसमें अमृतरूपी जल भरा होगा। साथ ही कुछ श्रेष्ठ ओषधियोंका भी आविष्कार करूँगा। उन श्रेष्ठ संजीविनी ओषधियोंके प्रयोगसे मरे हुए दैत्य जीवित हो जायेंगे ॥ 1-10॥ऐसा विचारकर मायावियोंमें श्रेष्ठ बलवान् मयने एक (सुन्दर) बावलीकी रचना की, जैसे ब्रह्माजीने मायासे रम्भा अप्सराकी रचना कर डाली थी। वह (बावली) दो योजन लम्बी और एक योजन चौड़ी थी। उसमें चित्र-विचित्र प्रसङ्गोंवाली कथाकी भाँति क्रमश: चढ़ाव उतारवाली सीढ़ियाँ बनी थीं। वह चन्द्रमाको किरणोंके समान उज्ज्वल, अमृत-सदृश मधुर एवं सुगन्धित उत्तम जलसे भरी हुई ऐसी लग रही थी, मानो सम्पूर्ण सद्गुणोंसे पूर्ण कोई वनिता हो। उसमें नील कमल, कुमुदिनी और अनेकों प्रकारके कमल खिले हुए थे। वह चन्द्रमा और सूर्यके समान चमकीले रंगवाले भयंकर डैनोंसे युक्त कलहंसोंसे व्याप्त थी। उसमें सुन्दर सुनहली कान्तिवाले पक्षी मधुर शब्दोंमें कूज रहे थे। वह जलाभिलाषी जीवोंसे व्याप्त उन्हें प्राणदान करनेवालीकी तरह दीख रही। थी। जैसे महेश्वरने (अपनी जटासे) गङ्गाको उत्पन्न किया। था, उसी प्रकार मयने उस बावलीकी रचना कर उसके जलसे सर्वप्रथम विद्युन्मालीके शवको धोया। उस बावलीमें डुबोये जानेपर देवशत्रु महाबली दैत्य विद्युन्माली उसी प्रकार उठ खड़ा हुआ, जैसे इन्धन पड़नेसे हवन की गयी अग्नि तुरंत हो उठती है उठते ही विद्युन्मालीने हाथ जोड़कर मय और तारकासुरका अभिवादन किया और मयसे इस प्रकार कहा- 'प्रमथरूपी श्रृंगालोंसे घिरा हुआ रुद्रके साथ नन्दी कहाँ खड़ा है? अब हमलोग शत्रुओंको पीसते हुए युद्ध करेंगे। हमलोगों के शरीरमें दया कहाँ? हमलोग या तो रुद्रको खदेड़कर प्रभावशाली होंगे अथवा उनके द्वारा युद्धस्थलमें मारे जाकर यमराजके ग्रास बन जायेंगे।' विद्युन्मालीके ऐसे उत्साहपूर्ण वचन सुनकर महासुर मयके नेत्रोंमें आँसू छलक आये। तब उसने विद्युन्मालीका आलिङ्गन कर इस प्रकार कहा- 'महावाहु विद्युन्माली! तुम्हारे बिना न तो मुझे राज्य अभीष्ट है, न जीवनकी ही अभिलाषा है। महासुर! अन्य पदार्थोकी तो बात हो क्या है? ऐश्वर्यशाली वीर! मैंने मायाद्वारा अमृतसे | भरी हुई इस बावलीकी रचना की है। यह मरे हुए दानवों और दैत्योंको जीवन दान देगी। दैत्य! सौभाग्यवश (इसके प्रभाव में तुम्हें यमलोक लौटा हुआ देख रहा हूँ। अब हमलोग आपत्तिके समय अन्यायसे अपहरण | की हुई महानिधिका उपभोग करेंगे' ॥11- 24 ॥मायाके प्रभावसे मवद्वारा निर्मित उस बावलीको देख-देखकर दैत्येन्द्रोंके नेत्र और मुख हर्षके कारण उत्फुल्ल हो उठे थे। तब वे (दानवोंको ललकारते हुए) इस प्रकार बोलें- 'दानवो! अब तुमलोग निर्भय होकर प्रमथगणोंके साथ युद्ध करो। मयद्वारा निर्मित यह बावली मरे हुए तुमलोगोंको जीवित कर देगी। फिर तो क्षुब्ध हुए | सागरके समान भय उत्पन्न करनेवाली दानवोंकी भेरी बज उठी। वह बड़े जोरसे भयंकर शब्द कर रही थी। मेघको गर्जनाके समान उस भयंकर भेरीके शब्दको सुनकर | युद्धके लिये लालायित हुए असुरगण तुरंत ही त्रिपुरसे बाहर निकल पड़े। वे लोहे, चाँदी, सुवर्ण और मणियोंके बने हुए कड़े, कुण्डल, हार और उत्तम मुकुट धारण किये हुए थे। वे अनवरत जलते हुए धूमसे युक्त प्रज्वलित अग्निके समान दीख रहे थे। वे सुदृढ़ पराक्रमी दैत्य | अपने-अपने अस्त्र लेकर (उछलते-कूदते हुए) ऐसे लग रहे थे, जैसे रंगमंचपर नाचते हुए नट हों। वे सूँड़ उठाये हुए हाथीके समान हाथ उठाकर और सिंह-सदृश निर्भय होकर बादलकी तरह गर्जना कर रहे थे। कुण्डके समान गम्भीर, सूर्यके सदृश तेजस्वी और वृक्षोंके से धैर्यशाली दैत्येन्द्र प्रमथोंकी विशाल सेनाको पीड़ित करने लगे। तत्पश्चात् गरुडकी भाँति झपट्टा मारनेवाले दानव-शत्रु प्रमथगण भी उत्साहपूर्वक युद्ध करनेकी अभिलाषासे दानवोंपर टूट पड़े। उस समय नन्दीश्वरकी अध्यक्षतामें प्रमथगण और तारकामुरकी अध्यक्षता दानव समवेतरूपसे बुद्ध करने लगे। उन्हें सेनाएँ भी प्रेरित कर रही थीं। वे चन्द्रमाके समान चमकीली तलवारों, अग्निसदृश पीले शूलों और सुदृढ़रूपसे छोड़े गये बाणोंसे परस्पर एक दूसरेपर प्रहार कर रहे थे। उस समय छोड़े जाते हुए बाणों तथा प्रहार की जाती हुई तलवारोंके रूप ऐसे दीख रहे थे मानो आकाशसे गिरती हुई महोल्काएँ हाँ ll 25-36 ॥
शक्तिके आघातसे उनके हृदय छिन्न-भिन्न हो गये थे और वे दयाहीनकी भाँति भूमिपर पड़े हुए थे। इस प्रकार प्रमथगण तथा असुरवृन्द नरकमें पड़े हुए जीवोंकी तरह चीत्कार कर रहे थे। स्वर्णनिर्मित कुण्डलों और प्रभावशाली किरीटोंसे युक्त वीरोंके मस्तक प्रलयकालमें पर्वतशिखरकी भाँति पृथ्वीपर गिर रहे थे वे कुठार, पय खड्ग और लोहेकी गदाके आघातसे छिन्न-भिन्न होकर गजेन्द्रोंके समान धराशायी हो रहे थे। कभीसहसा भयंकर गर्जना करनेवाले प्रमथगण हर्षपूर्वक गर्जना करने लगते तो इधर सिद्धगण अद्भुत युद्ध कौशल दिखाते थे। रणभूमिमें आगे चलनेवाले चारण 'प्रमथ! तुम तो बलवान् मालूम पड़ते हो,' 'दानव! तुम गर्वीले दीख रहे हो'- इस प्रकारके वचन बोल रहे थे। दानवोंद्वारा चलाये गये लोहनिर्मित गदाके आघातसे कुछ पार्षदगण मुखसे रक्त उगल रहे थे, जो ऐसे लगते थे, मानो पर्वत सुवर्णधातु उगल रहे हों। उधर प्रमथगण भी रणभूमिमें बाणों, वृक्षों और पर्वत शिखरोंके प्रहारसे बहुतेरे देवशत्रु असुरोंको पूर्णरूपसे घायल कर उन्हें कालके हवाले कर रहे थे। मय दानवकी आज्ञासे दूसरे दानवश्रेष्ठ उन मरे हुए दानवोंको उठाकर उसी बावली में डाल देते थे। उस बावलीमें पड़ते ही वे सभी दानव स्वर्गवासी देवताओंको तरह तेजस्वी शरीर धारण कर उत्तम आभूषणों और वस्त्रोंसे विभूषित हो बाहर निकल आते थे। तदनन्तर बावलीमें डाल देनेसे जीवित हुए कुछ दानव ताल ठोंककर सिंहनाद करते हुए इधर उधर दौड़ लगा रहे थे और कह रहे थे—'दानवो! इन प्रमथगणोंपर धावा करो। क्यों बैठे हो ? (अब तुमलोगोंको कोई भय नहीं है; क्योंकि) मर जानेपर भी तुमलोगोंको यह बावली पुनः जीवित कर देगी ॥ 37–47 ॥
दानवोंको ऐसा कहते सुनकर सूर्यके समान तेजस्वी शङ्कुकर्णने शीघ्र ही देवेश्वर शंकरजीके निकट जाकर इस प्रकार कहा- 'देव! प्रमथगणोंद्वारा वारंवार मारे गये ये भयंकर असुर पुनः उसी प्रकार जो उठते हैं, जैसे जलके सिञ्चनसे सूखी हुई फसल। निश्चय ही इस पुरमें अमृतरूपी जलसे परिपूर्ण कोई बावली है, जिसमें डाल देनेसे बार-बार मारे गये दानव पुनः जीवित हो जाते हैं।' इस प्रकार शङ्कुकर्णने भगवान् महेश्वरको सूचित किया। उसी समय दानवोंकी सेनामें अत्यन्त भीषण उत्पात होने लगे। तब परम भयानक नेत्रोंवाले तारकाक्षने अत्यन्त कुपित होकर सिंहकी तरह मुँह फैलाये हुए महादेवजीके रथपर धावा किया। उस समय त्रिपुर भेरि और महान् भीषण निनाद होने लगा। देवाधिदेव शंकरजीके रथपर (शंकर और) | ब्रह्माको उपस्थित देखकर दानवगण त्रिपुरसे बाहर निकले।तभी वहाँ ऐसा भयंकर भूकम्प आया, जिससे (शिवजीके) रथका चक्का पृथ्वीमें प्रविष्ट हो गया। यह देखकर भगवान् रुद्र और स्वयम्भू ब्रह्मा क्षुब्ध हो उठे। उन दोनों देवश्रेष्ठोंसे युक्त वह उत्तम रथ कहीं ठहरनेका स्थान न पाकर स्थानरहित गुणी पुरुषकी तरह विपत्तिग्रस्त हो गया। वह रथ वीर्यनाश हो जानेपर शरीर, ग्रीष्म ऋतु अल्प जलवाले जलाशय और तिरस्कृत स्नेहको तरह शिथिलताको प्राप्त हो गया। इस प्रकार जब वह श्रेष्ठ रथ नीचे जाने लगा, तब महाबली स्वयम्भू ब्रह्माने उससे कूदकर उस त्रैलोक्यरूपी रथको ऊपर उठा दिया। इतनेमें ही पीताम्बरधारी भगवान् जनार्दनने बाणसे निकलकर विशाल वृषभका रूप धारण किया और उस दुर्धर रथको उठा लिया। वे महारथी जनार्दन त्रिलोकीरूप उस रथको अपने सींगोंपर उठाकर उसी तरह ढो रहे थे, जैसे कुलपति अपने संगठित कुलका भार वहन करता है। उसी समय पक्षधारी गिरिराजकी तरह विशालकाय दैत्येन्द्र तारकासुरने भी देवेश्वर ब्रह्मापर धावा बोल दिया और उन्हें घायल कर दिया। तब तारकासुरके प्रहारसे घायल हुए ब्रह्मा रथके कूबरपर चाबुक रखकर मुखसे बारंबार लम्बी साँस छोड़ते हुए (क्रोधसे) प्रज्वलित हो उठे ।। 48-61 ॥
वहाँ दैत्य और दानव तारकासुरका सत्कार करनेके लिये मेघकी गर्जनाके समान अत्यन्त भयंकर सिंहनाद करने लगे। यह देखकर वृषभका शरीर धारण करनेवाले एवं शंकरद्वारा पूजित भगवान् केशव हाथमें सुदर्शन चक्र धारण कर उस महासमरमें दैत्योंकी सारी सेनाओंका मर्दन करते हुए त्रिपुरमें प्रविष्ट हुए। वहाँ वे उस बावलीपर जा पहुँचे, जो चारों ओरसे बादलोंसे सुशोभित तथा खिली हुई कुमुदिनी, नीलकमल और अन्यान्य कमलोंसे व्याप्त थी। फिर तो उन देवश्रेष्ठने उसके अमृतरूपी जलको इस प्रकार पी लिया, जैसे सूर्य रात्रिमें संचित हुए घने अन्धकारको पी जाते हैं। इस प्रकार पीताम्बरधारी महाबाहु जनार्दन असुरेन्द्रोंकी बावलीका अमृत पीकर सिंहनाद करते हुए पुनः उसी बाणमें प्रविष्ट हो गये। तत्पश्चात् भयावने मुखवाले भयंकर गणेश्वरोंने असुरोंको मारना प्रारम्भ किया। उनके प्रहारसे घायल हुए दानवोंके रुधिरसे नदियाँ बह चलीं। वे उसी प्रकार युद्धविमुख कर दिये गये, जैसे नयशील पुरुष अन्यायियोंको विमुख कर देते हैं।इस प्रकार प्रमथगणोंद्वारा खदेड़े गये एवं बाणोंके प्रहारसे घायल मयके साथ तारकासुर और विद्युन्माली त्रिपुरमें ऐसे लौट आये, मानो उनके शरीरसे प्राण ही निकल गये हों। उस समय युद्धस्थलमें महेन्द्र, नन्दीश्वर और स्वामिकार्तिक गणेश्वरोंके साथ दर्पसे सुशोभित हो रहे थे। वे उन्मत्त होकर सिंहनाद एवं अट्टहास करते हुए कहने लगे कि अब चन्द्रमा आदि दिक्पालोंसहित हमलोग अवश्य विजयी होंगे ॥ 62-68 ॥